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Monday, April 13, 2015

s Baba Saheb Said,Caste would die its death,But we may not wait.We have to intensify the campaign to annihilate the caste.

As Baba Saheb Said,Caste would die its death,But we may not wait.We have to intensify the campaign to annihilate the caste. 

The dialogue should continue because without the annihilation of caste no equality or social justice,freedom or rule of law is possible.

Palash Biswas

Pl read,write,speak and circulate:

सौ साल पहले आंबेडकर का दावा : जाति का विनाश निश्चित है


Dear editor,Hastakshep!

Excellent and objective analysis.
I congratulate you for the timing of the post.

The so called Ambedkarites are trying their best to sustain caste system and have completely deviated post Ambedkarite movement.

The dialogue should continue because without the annihilation of caste no equality or social justice,freedom or rule of law is possible.

The caste system in itself is an economics which is identical as the Zionist free market monopolistic ethnic cleaning based free market economy is.

HASTKSHEP is doing an excellent job and I am proud for it.

Only a few people may dare to bring forth the change.

No army is responsible for any revolution whatsoever.

We must understand and stand and work together united rock solid.

I may not live to see the change.even the next generations may succumb but the change would come sooner or later.

As Baba Saheb Said,Caste would die its death.

But we may not wait.We have to intensify the campaign to annihilate the caste. 

I would like Shesh Naryan Ji to write on basic issues more and more.He is an eminent journalist and he may afford enough space in mainstream for his political writing.

I want more articles from Shesh Nrayanji like this one.

Pl congratulate him for me.I am very happy to read this post.

I know the load you bear and I am sorry that I may not help much.


I am reposting the all important article in hope to initiate an objective debate on Baba Saheb`s ideology whatever it is.

For me the most important in Babasaheb`s entire work remains his agenda for Annihilation of caste whereas the Hindu Imperialists trying their best to strengthen the Manusmriti ratial economics of ethnic cleansing and  thus,RSS makes a God of Dr BR Ambedkar to kill the Bahujan and Non Hindus in India.

Pl circulate and publish this just because this should be the focus on Ambedkar Jayanti as Dr Ambedkar opposed fascist Hindu Imperialism in his lifelong activism to ensure equality and social justice for the depressed class and he never did speak identity politics which ironically has been credited to him.

सौ साल पहले आंबेडकर का दावा : जाति का विनाश निश्चित है

Posted by: शेषनारायण सिंह 2015/04/12

डॉ. अंबेडकर के जन्म के 125 साल का जश्न पूरी दुनिया में शुरू हो चुका है। डॉ. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सर्वोच्च प्राथमिकता दी थी। वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा।

डॉ. अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं। कुछ लोगों ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे। अमरीका के प्रतिष्ठित कोलंबिया विश्वविद्यालय ने जिस थीसिस के आधार पर उनको पीएचडी की डिग्री से विभूषित किया और बाद में जो पर्चा पूरी दुनिया में बहुत ही सम्मान की नज़र से देखा जाता है उसका नाम है," कास्ट इन इंडिया : : देयर मेकनिज्म, जेनेसिस एंड डेवेलपमेंट " 9 मई 1916 को हुए सेमीनार में डॉ. बी आर आंबेडकर ने यह पर्चा पढ़ा था। दुनिया भर में इसका नाम है और बहुत सारी भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। इस पर्चे के कई भाग हैं जिसमें एक में इस बात पर गौर किया गया है कि जाति सिस्टम का जन्म और विकास कैसे हुआ। जाति की यह खतरनाक संस्था देश की गैर ब्राह्मण बिरादरी में कैसी फ़ैली। उन्होंने बताया कि दो तरह की बातें इस सम्बन्ध में की जाती हैं। एक तो यह कि भारत की दबी कुचली आबादी को किसी दैवीय या अवतारी शक्ति ने जाति के बंधन में बाँध दिया, कोई ऐसा व्यक्ति था जिसने कानून बना दिया और सब उसका पालन करने लगे। दूसरा यह सिद्धांत है कि सामाजिक विकास के किसी नियम के तहत भारत में जातियों का विकास हुआ और वह केवल भारत में ही लागू हुआ।

 डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें। डॉ. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले। उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसको मानती रहेंगीं। हाँ. इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे, उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी।

डॉ. अंबेडकर ने कहा कि, मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की, क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं थी। मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी। मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया। जहां तक हिन्दू समाज के स्वरूप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई। उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता। इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की। मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं, लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते। हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते।

बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी, डॉ. अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही। ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे। हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणिति तक नहीं ले जाया जा सकता।

डॉ. अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं। यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती। सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था। एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी। और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा।। अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा। और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा।

1916 में एक एक शोध छात्र के रूप में डॉ. आंबेडकर ने यह सारे सवाल उठाये थे और संभावित उत्तर भी तलाशने की कोशिश की थी। उनकी विद्वत्ता और मनीषा का जलाल है कि आज करीब सौ साल बाद तक जाति के बारे में अध्ययन उसी रास्ते पर चल रहा है जिस पर डॉ. आंबेडकर ने सुझाया था। उन्होंने उसी वक़्त दावा कर दिया था कि जाति संस्था को जीवित रखा पाना असंभव होगा। उन्होंने कहा कि चार मुख्य बातें हैं। हिन्दू समाज की ऐसी रचना है कि उसमें एक सांस्कृतिक एकता है। दूसरी बात कि जाति वास्तव में बड़ी सांस्कृतिक इकाइयों को एक में मिलाकर पर पार्सल जैसा बनाने को ही संस्था का रूप देने की कोशिश है। तीसरी बात यह है कि शुरू में एक ही जाति थी और चौथी बात कि समय बीतने के साथ साथ जो वर्ग थे वे जातियों के रूप में मान्यता पाते गए।

डॉ. आंबेडकर की यह अवधारणा पूरी तरह से मौलिक है और हम जानते हैं कि बाद में किस तरह से सत्ताधारी वर्ग के एजेंटों ने जाति को बिलकुल पक्का कर दिया। इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि मनु नाम का कोई व्यक्ति भी इसी शोषक शासक वर्ग का एजेंट रहा होगा। बाद में सत्ता और आर्थिक लाभ की शक्तियों ने जाति सामाजिक गैर बराबरी और शोषण का एक बड़ा हथियार बना दिया।

अपने पूरे जीवन में डॉ. आंबेडकर को भरोसा था कि जाति को एक संस्था के रूप में बचाया नहीं जा सकता, लेकिन उनके नाम पर धंधा करने वाले राजनेता और बुद्धिजीवी जाति को बचाए रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। आज उनके 125 साल के जश्न के माहौल में और उनके महान विद्वत्तापूर्ण पर्चे के 100 साल पूरे होने के अवसर पर यह संकल्प लेने की ज़रूरत है कि जाति का विनाश हर हाल में होगा क्योंकि जाति संस्था की बुनियाद ऐसे नकली तरीकों पर बनी है कि उसको बचाया नहीं जा सकता।

भारत वापस आकर भी डॉ. आंबेडकर ने जाति के सवाल को अपने चिंतन का स्थाई भाव रखा। जब लाहौर के जात पांत तोड़क मंडल ने उनको आमंत्रित किया तो उन्होंने अपना लिखित भाषण उन लोगों के पास भेज दिया लेकिन ब्राह्मण मानसिकता वाले आयोजकों ने उनको भाषण नहीं देने दिया। उसी भाषण को आज दुनिया उनकी कालजयी किताब, " जाति का विनाश " के रूप में जानती है। इस किताब में डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता तब तक समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है। इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डॉ. अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डॉक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैं, यह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।

अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते। इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा, लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी। ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

संतोष की बात है कि अब जाति की जकड कमज़ोर हो रही है, कुछ खाप पंचायतें इसको जिंदा रखने की कोशिश कर रही हैं लेकिन लगता है कि जाति अब बचेगी नहीं। लगता है कि जाति के विनाश के ज्योतिबा फुलेडॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा।

शेष नारायण सिंह

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