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Friday, August 16, 2013

इस अपराध की सुनवाई कब होगी

इस अपराध की सुनवाई कब होगी

Friday, 16 August 2013 10:30

सुभाष गाताडे
जनसत्ता 16 अगस्त,  2013 : नजफ, इराक की लैला जबार की आपबीती किसी को भी द्रवित कर सकती है।

उसके तीन बच्चे पैदाइशी विकलांगता के चलते कालकवलित हुए तो आखिरी बच्चा, जो आठ माह का है, उसके भी जिंदा रहने की उम्मीद कम है। 'रशिया टुडे' नामक अखबार में पिछले दिनों लैला की कहानी छपी है। इस पैदाइशी विकलांगता की वजह भी वह जानती है। यह इराक पर अमेरिकी आक्रमण की देन है। मालूम हो कि अमेरिकी सेना द्वारा नजफ पर आक्रमण के दिनों में निश्शेष यूरेनियम से सने हथियारों का किया गया प्रयोग इसका कारण है। 
यह अकेले लैला की दास्तान नहीं है। नजफ में ऐसे हजारों परिवार मिल जाएंगे, जिनके यहां ल्यूकेमिया या कैंसर जैसी बीमारियों के चलते बच्चों ने दम तोड़ा है या कहीं अपने कमजोर शरीर से उससे लोहा ले रहे हैं। लैला कहती है कि हमारे लिए यह युद्ध अभी जारी है, भले अमेरिकी चले गए हों मगर हम अब भी नतीजों को भुगत रहे हैं। स्थानीय डॉक्टरों के मुताबिक अब यहां फ्लू की तुलना में कैंसर के मरीज अधिक मिलते हैं। प्रस्तुत रिपोर्ट तैयार करने के लिए अखबार की ल्यूसी काफानोव ने इराक के कई इलाकों का दौरा किया और तमाम प्रभावितों से बात की। 
'बुलेटिन ऑफ एनवायर्नमेंटल कांटेमिनेशन ऐंड टॉक्सिकोलॉजी' के एक अध्ययन का रिपोर्ट में विशेष उल्लेख है, जिसके मुताबिक अक्तूबर 1994 और अक्तूबर 95 के बीच इराक के अल बसरा मैटर्निटी अस्पताल में पैदा बच्चों में दोष की मात्रा प्रति एक हजार बच्चों के पीछे महज 1.37 थी, जबकि 2003 में यह आंकड़ा तेईस तक पहुंच चुका था, यानी एक दशक के अंदर ऐसे दोष सत्रह गुना बढ़े थे। 
जानकार बता सकते हैं कि 'रशिया टुडे' की रिपोर्ट ऐसी पहली रिपोर्ट नहीं है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब इराक के बच्चों में दो दशक के अंतराल में कैंसर की मात्रा अचानक पांच गुना बढ़ जाने का समाचार आया था। आंकड़ों के मुताबिक वहां आज एक लाख बच्चों में बाईस बच्चे कैंसर प्रभावित मिल सकते हैं, जबकि 1990 में यह आंकड़ा महज चार था। ध्यान रहे कि अन्य औद्योगिक मुल्कों की तुलना में यहां के बच्चों में ल्यूकेमिया के मामलों में भी दस गुना बढ़ोतरी दिखी है। अब चूंकि सद््दाम हुसैन को दी गई फांसी और अमेरिका द्वारा तेल के विशाल भंडारों से लैस इराक पर कायम किए गए एकाधिकार के बाद इराक विश्व मीडिया की सुर्खियों से हट गया है, इसलिए इस पर कोई हंगामा नहीं हो सका। 
क्या है निश्शेष यूरेनियम, जिसने आम जनजीवन में इस कदर कहर बरपा किया है? दरअसल, हथियार बनाने के लिए संवर्द्धन की प्रक्रिया से गुजरने या परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में र्इंधन के तौर पर इस्तेमाल होने के बाद यूरेनियम का जो हिस्सा बचता है उसे निश्शेष यूरेनियम कहते हैं। यह अपने ठोस रूप में जरा हल्का विकिरणधर्मी (रेडियोएक्टिव) होता है, मगर यह काफी भारी भी होता है। सीसा यानी समंक की तुलना में यह 1.7 गुना सघन होता है। हथियारबंद वाहनों, जैसे टैंकों की मोटी दीवारों को भी छेद सकने की उसकी क्षमता के कारण सेना में इसकी काफी अहमियत होती है।
बताया जाता है कि किसी भी मोटी दीवार, मसलन टैंक में छेद करने के बाद वह विस्फोट करता है और उससे बादलनुमा धुआं उठता है। वह जब ठंडा होता है तो उसकी धूल जमती है, जो न केवल रासायनिक तौर पर जहरीली, बल्कि विकिरणधर्मी भी होती है। सांस के रास्ते अंदर जाने पर वह खतरनाक भी हो सकती है। वास्तविक खतरा उसके जहरीले रसायन से होता है। हालांकि उसके विषैला होने के बारे में वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित सबूत अभी सामने नहीं आए हैं। पर यह कहना उचित नहीं है कि अनुपस्थिति का सबूत होने का मतलब होगा सबूत की अनुपस्थिति। 
यह भी जानी हुई बात है कि पिछले दो दशक से मध्यपूर्व और आसपास के इलाकों में जबसे अमेरिकी दखलंदाजी बढ़ी है तभी से निश्शेष यूरेनियम का इस्तेमाल कर बने हथियारों के कहर की चर्चा तेज हो चली है। इराक पर कब्जे के बाद वहां प्रतिरोध का केंद्र बने फालुजा पर भी अमेरिकी सेनाओं ने 2004 में जबर्दस्त बमबारी की थी। जब फालुजा में जन्मने वाले बच्चों में इसी किस्म की विकलांगता और विद्रूपताएं दिखाई दीं तब नवंबर 2005 में अमेरिकी रक्षा विभाग (पेंटागन) को स्वीकार करना पड़ा कि उसने इन हमलों में सफेद फॉस्फोरस और निश्शेष यूरेनियम से बने बारूद का इस्तेमाल किया है। 
नार्वे की सरकार के सहयोग से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, जिसका उल्लेख रशिया टुडे की विस्तृत रपट में किया गया है, ''घनी आबादी वाले इलाकों में निश्शेष यूरेनियम का खतरा इसलिए अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि अमेरिका ने किस हद तक इसका प्रयोग किया इसके आंकड़े देने से उसने लगातार इनकार किया। 
इस वजह से खतरे के सही आकलन और उससे निपटने की कोई रणनीति बनाना भी मुमकिन नहीं हो पाता।'' अमेरिका की अगुआई वाली सेनाओं में जहां इस मामले में पारदर्शिता की कमी दिखती है, वहीं इस रिपोर्ट में एक घटना का जरूर जिक्र है कि किस तरह एक 'ब्रेडले आर्मर्ड वीकल' ने नजफ में एक मुठभेड़ में तीन सौ पांच बार निश्शेष यूरेनियम दागा था। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक आम लोगों के लिए एक साल के अंदर अधिक से अधिक एक मिलीसिएवर्ट यूरेनियम का प्रभाव बर्दाश्त करने लायक होता है, जबकि उत्तरी इराक के निनेवेह सूबे में तीन स्थानों पर किए गए अध्ययन के बाद इराक के मोसुल विश्वविद्यालय और आस्ट्रिया के इंस्टीट्यूट आॅफ फॉरेस्ट इकोलॉजी के वैज्ञानिकों ने मिट्टी के अंदर यूरेनियम की अत्यधिक मात्रा की मौजूदगी दर्ज की। 
'मेडिसिन, कान्फलिक्ट ऐंड सर्वाइवल' नामक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में अपने लेख में रियाद अब्दुल्ला फाती- जिन्होंने वैज्ञानिकों के इस दल का नेतृत्व किया- लिखते हैं कि उन्होंने इस प्रांत में यूरेनियम मिश्रित मिट््टी पाई है, जो एक तरह से आधुनिक युद्ध की विरासत कही जा सकती है। उन्होंने मोसुल कैंसर रजिस्ट्री और इराकी नेशनल कैंसर रजिस्ट्री में कैंसर की संख्या में हुई बढ़ोतरी को इसी के साथ जोड़ा है। 
मगर क्या निश्शेष यूरेनियम का असर महज इराक तक सीमित है! 
एक मई, 2008 को बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के 'वन प्लैनेट प्रोग्राम' में काबुल और कंधार के डॉक्टरों को उद्धृत करते हुए बताया गया था कि किस तरह पिछले दो सालों में जन्मजात विकलांगता और विद्रूपताओं के मामले लगभग दुगुने हुए हैं। जैसे कहीं शरीर के अवयव टेढेÞ-मेढ़े मिलते हैं तो कहीं सिर सामान्य से छोटा या बहुत बड़ा। अलबत्ता अमेरिकी हुकूमत ने इस मामले में अपने आप को निर्दोष साबित करने की कोशिश की थी, लेकिन कार्यक्रम में ही कनाडा स्थित यूरेनियम मेडिकल रिसर्च सेंटर के हवाले से बताया गया था कि इसका कारण निश्शेष यूरेनियम हो सकता है। वर्ष 2002 और 2003 में इस सेंटर ने अफगान नागरिकों के मूत्र की जांच की थी और कई मामलों में उसकी मात्रा इराक के युद्ध में लड़े सैनिकों की तुलना में सौ गुना अधिक दिखाई दी थी। 
पिछले दिनों पंजाब के विभिन्न इलाकों में कैंसर के बढ़े मामलों की भी चर्चा चली थी। इसकी शुरुआत फरीदकोट से हुई थी। सिर बड़ा, आंखें बाहर निकली हुर्इं और मुड़े हुए हाथ, जो उनके मुंह तक भी नहीं पहुंच पाते हों और टेढ़े पैर, जो शरीर के ढांचे को संभालने के लायक भी नहीं हैं! जीते-जागते ऐसे बच्चों की तादाद पंजाब के सीमावर्ती जिले फरीदकोट में अचानक बढ़ी दिखी थी। 
फरीदकोट के बाबा फरीद सेंटर फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन के प्रमुख पृथपाल सिंह द्वारा इस संबंध में की गई जांच के परिणाम सभी को विचलित करने वाले थे। उन दिनों जिले के दौरे पर आए दक्षिण अफ्रीका के टॉक्सिकोलॉजिस्ट डॉ कारिन स्मिट ने इस पहेली को सुलझाने में उनकी मदद की थी। उन्होंने इन बच्चों के बाल के नमूने जर्मन प्रयोगशाला में भेजे। 
पता चला कि विकलांगता में आई तेजी का कारण इन बच्चों में पाई गई यूरेनियम की अत्यधिक मात्रा है। फिलवक्त इस बात की जांच चल रही है कि क्या यूरेनियम के अवशेष प्राकृतिक संसाधनों से हैं या निश्शेष यूरेनियम से। प्रश्न है कि एक ऐसे सूबे में जहां यूरेनियम के प्राकृतिक स्रोत भी न हों, वहां बच्चों के खून में यह कहां से अवतरित हुआ? आखिर बच्चों के खून में यूरेनियम की अत्यधिक मात्रा कहां से आई? 
'टाइम्स आॅफ इंडिया' ने (2 अप्रैल, 2009) इस सिलसिले में एक लंबी खबर की थी। यह  अलग बात है कि मामले को इस कदर संवेदनशील समझा गया कि मीडिया के बाकी हिस्सों ने भी इस पर मौन ही साधे रखा। अपने लेख 'अफगान वार्स ब्लोबैक फॉर इंडियाज चिल्ड्रेन?' में जे श्रीरमण बताते हैं कि दरअसल, पंजाब की जनता अफगानिस्तान और इराक के युद्धों का खमियाजा भुगत रही है। इन युद्धों में अमेरिका और उसकी सहयोगी सेनाओं ने जिस निश्शेष यूरेनियम का प्रयोग किया, वही बच्चों के विकलांगता की जड़ में है। गौरतलब है कि 7 अक्तूबर, 2001 को अफगानिस्तान पर हमला हुआ और सेंटर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट यही बताती है कि प्रभावित बच्चों की तादाद 'पिछले छह-सात सालों में तेजी से बढ़ी है।' 
अगर हम विकिरणधर्मिता के विशेषज्ञों से मिलें तो वे बता सकते हैं कि निश्शेष यूरेनियम प्रयुक्त करके बनाए गए हथियारों को जनसंहारक हथियारों में शुमार किया जा सकता है, जिनके इराक में मौजूद होने को लेकर अमेरिका ने दुनिया भर में काफी शोर मचाया था। यह अलग बात है कि अमेरिका के तमाम दावे झूठे साबित हुए थे। जबकि 'अमेरिकी रेडिएशन स्पेशलिस्ट ल्युरेन मोरेट' के मुताबिक 1991 के बाद अमेरिका ने निश्शेष यूरेनियम के हथियारों से वातावरण में नागासाकी में फेंके गए अणु बमों की तुलना में चार लाख गुना अधिक विकिरणधर्मिता फैलाई है। 
प्रश्न है कि दुनिया पर अपनी चौधराहट कायम करने के लिए लालायित अमेरिका को क्या कभी अपने इन तमाम युद्ध अपराधों के लिए विश्व की अदालत में खींचा जा सकेगा? अमेरिका के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी के लिए उत्सुक तीसरी दुनिया के मुल्कों के तमाम शासक इस मामले में कुछ पहल करेंगे, इसकी उम्मीद कम है। इस मसले पर जनपक्षीय जमातें या बुद्धिजीवी क्यों मौन हैं?

 

 

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