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Saturday, August 17, 2013

किसी कारपोरेट विकल्प को अंध की तरह अपनाकर इस वधस्थल से मुक्तिपथ निकलना असंभव

किसी कारपोरेट विकल्प को अंध की तरह अपनाकर इस वधस्थल से मुक्तिपथ निकलना असंभव


खेतों को बंधुआ बनाकर कृषि क्रांति


पलाश विश्वास


किसी कारपोरेट विकल्प को अंध की तरह अपनाकर इस वधस्थल से मुक्तिपथ निकलना असंभव है। चोरों की बारात में आप चोर ही बन सकते हैं,जनमोर्चा के लड़ाका नहीं। राजनीति अराजनीति के कारपोरेट तिल्सम के अय्यार बनकर न देश को बेचने से हम कारपोरेट सत्ता को रोक सकते हैं और न नरमेध राजसूय के अश्वमेधी घोड़ों की लगाम थाम सकते हैं।


सबसे खतरनाक है ख्वाबों का मर जाना। अपने प्रिय कवि पाश अरसा पहले यह लिख गये हैं। अरसा बीता सपना से तलाक हुए। अपने खेत की मेढ़ पर अगर मृत्यु सुंदरी से हो जाती मुलाकात तो निकल पड़ते अभिसार।पर करें तो क्या, जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखल यह देश अब डिजिटल भी है और बायोमेट्रिक भी है। सपनों से बेदखल होने की बात कहीं जमती नहीं है इस डियोड्रेंट सुगंधित कैसिनों में। मृत खेतों की कोई मेढ़ भी हुआ नहीं करती।


हम शुरु से यह बताते रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के अबूझ तिलिस्म में तब्दील होने की कथा हरित क्रांति से शुरु हुई। वास्तव में निजीकरण, ग्लोबीकरण और उदारीकरण के साथ साथ जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता नागरिक व मानव अधिकारों से बेदखली कथा हरित क्रांति से ही शुरु हुई। विदेशी पूंजी का खुल्ला खेल भारतीय प्रतिरक्षा और बरास्ते हरित क्रांति भारतीय कृषि से ही शुरु हुआ। उसके बाद धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता और जनादेश विकृति का आईपीएलचालू हो गया।बड़ी घटनाओं और दुर्घटनाओं का जिक्र हम हमेशा करते रहे हैं। वह घटनाक्रम दोहराने की जरुरत नहीं है।


पाश की कविता से हुई थी शुरुआत तो पाश की ही भाषा में कहें तो जिंदगी अब घर से दफ्तर और दफ्तर से घर है।हम सभी लोग अलगाव की इच्छाकूप में अनंत छलांग में जीने लगे हैं और इस छलांग को फलांग कर किसी मुख्यधारा का निर्माण असंभव है। देश में अब अस्पृश्य भूगोल और एकाधिकारवादी इतिहास का गृहयुद्ध का पर्यावरण सर्वव्यापी है।अश्वमेध के घोड़े बेलगाम है और राजसूय यज्ञ चालू। दूसरी हरित क्रांति की दस्तक की कानफाड़ू आवाज के मध्य खेतों के मृत्युविलाप किसी को सुनायी नहीं पड़ रहा है।


भारतीय लोकतंत्र दो ध्रूवीय नरम गरम धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद में विभाजित है। जनादेश अप्रासंगिक हो गया है जनप्रतिनिधित्व के साथ साथ। अल्पमत सरकारों का राजकाज और सर्वदलीय सहमति से चौरफा सर्वनाश की पटकथा बनती है और निर्मम लरसंहार संस्कृति में अनूदित होकर कालजयी विकासगाथा में तब्दील हो जाती है, जहां विजितों का कोई इतिहास होता ही नहीं है।


अब मीडिया में सत्तासमीकरण की अजब गजब समीकरमों की भारी बरसात है। राजधानी के सत्ता गलियारों में डूब है अद्भुत। यह मीडिया भी वही है, जहां सत्तावर्चस्व और एकाधिकार की तपिश सबसे मर्मांतिक है। हाथ पांव गला काटे जाने का अहसास होता ही नहीं। देश को भरमाने के कारखाने में, वातानुकूलित मस्तिष्क नियंत्रण कक्ष खुदै गैस चैंबरों में तब्दील हैं, जहां से जली अधजली लाशों का काफिला निरंतर आर्थिक नीतियों और अबाध  पूंजी प्रवाह की तरह निकलता ही जा रहा है। बचे खुचे कबंध गुलामी में जीते हुए देश बचाने और जनमत बनाने का क्या काम कर सकते हैं, यह करोड़पतिया यक्षप्रशन है।

बहरहाल मीडिया आगामी लोकसभा चुनाव के जो सत्तासमीकरण बुनने में लगा है, वहां से नरकयंत्रणा से मुक्तिमार्ग निकलने की कोई संभावना नहीं है। मानवताविरोधी युद्ध अपराधियों के पक्ष में छापामार मीडिया अभियान का ताजा उदाहरण स्वतंत्रता पर्व पर देश को खुला अखाड़ा बना देने का दारुण हश्र है। लेकिन इस मार्केटिंग के अलावा भी कारपोरेट विकल्प तमाम है और रंग बिरंगी अस्मिताओं के ताश फेंटे जा रहे हैं। कारपोरेट राज और विदेशी पूंजी के स्वार्थ साधने के लिए अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के शेयर ही नहीं, जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं के मोहरे खेले जा रहे हैं खूब। जैसे सुदूर देहात के खेतों को बहुमंजिली बाजार में तब्दील करने के लिए भारतीय भाषाओं का, विधाओं का और बहुभाषी जनपद मीडिया का थ्री जी फोर जी  संगीतबद्ध जीवंत इंद्रधनुषी बहुआयामी चलंत छवियों का निर्माण है मनोरंजक उत्तेजक, ठीक वैसा ही है अस्मिताओं का यह नया कारपोरेट खेल।


आज ही एक अति विश्वसनीय ग्लोबल समाचार एजंसी ने आगामी लोकसभा चुनावों की भविष्यवाणी करते हुए कांग्रेस और भाजपा को सत्ता से दूर होते दिखाया है और क्षेत्रीय दलों के फेडरल मोर्चे को देस का भविष्य बताया है बंगाल की अग्निकन्या ममता बनर्जी की तस्वीर के साथ। देशी चैनल और अखबार अब चुनाव हुए तो किसकी बनेगी सरकार,तमाम समकालीन मुद्दों और प्रसंगों और समस्याओं को स्कालिंग में डालकर या न न डालकर, इसीको बुझाने लगे हैं जनगणमन अधिनायक को।विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी निवेश समृद्ध भारतीय मीडिया का यह कारोबार कारपोरेट राज के नये पैंतरे को समझने का नायाब पैमाना है।


जिन फेडरल क्षेत्रीय, जातीय अस्मिताओं के हवाले करने को आतुर हैं खुले बाजार के सांढ़, उनका चरित्र पर रोशनी डालना बेहद अनिवार्य है इसवक्त।


मसलन उड़ीशा में क्षेत्रीय अस्मिता का राज है जहां वेदांत, पास्को और तमाम देशी विदेशी कारपोरेट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मार्केटिंग एजेंट बनी हुई है राज्य सरकार।


मसलन छत्तीसगढ़, जिसका वजूद ही क्षेत्रीय अस्मिता की वजह से हुआ, वह पूरे देश को सलवा जुड़ुम के आत्मघाती गृहयुद्ध में झोंकने की सर्वोत्तम प्रयोगशाला है।


मसलन झारखंड, जहां न पांचवी अनुसूची लागू है और न छठीं अनुसूची। न पेसा लागू है और नस संवैधानिक दूसरे प्रावधान।न खान सुरक्षा है और न खनन्धिनियम कहीं लागू है। बेलगाम माफिया राज है। वनाधिकार भी नहीं। न बजट को खर्च कर पाने की योजनाएं कार्यान्वित होती हैं और न सामाजिक सुरक्षायोजनाओं का लाभ मिलता है।


मसलन उत्तराखंड, जहां हिमालयी सुनामी ने ऊर्जा प्रदेश की देवभूमि अस्मिता को बेपर्दा कर दिया। जहा जलप्रलय के दो महीने बीत जाने के बाद भी पूजा और यात्राओं ौर शरदोत्सव की धूम है।लापता हजारों लोगों, डूब में शामिल सैकड़ों गांवों, पिघलते ग्लेशियरों, तबाह होती घाटियों, सूखती झीलों की कोई चर्चा ही नहीं होती। हिमालयी जनता लावारिश है।


उत्तरप्रदेश और बिहार में देशभर की सत्ता की कुंजी है, जहां जातीय अस्मिताओं का घटाटोप है।आत्मघाती हिंसा और अराजकता का अबाध वधस्थल में तब्दील हैं जहां हर जनपद और हर जनपद में क्षत्रपों के उत्थान पतन की कथाएं और किंवदंतिया ंहैंऔर चप्पे चप्पे में भूलभूलैया हैं,तिलिस्म हैं और हवा में तलवार भांजते अय्यार हैं। वहीं से कांग्रेस और भाजपा को किनारे करके क्षत्रपों के राज्याभिषेक कथा की रचना होनी है। अब सोचिये, पूरा देश अगर उत्तर प्रदेश हुआ या बिहार या फिर गुजरात, तो ाम जनता की क्या गत होनी है।


मीडिया के तरह रह के अभियानों के तहत दक्षिम भारत के क्षत्रपों के बारे में पूरा देश जानता है। मौसम बदलते ही क्षत्रपों के सत्ता समीकरण और गठबंधन बदल जाते हैं। न मूल्य है, न विचार हैं ौर न नीतियां हैं, हर नरमेध में उनकी अनिवार्य हस्सेदारी है।


मित्रों,अब तक जो लिखा है, वह महज प्राक्कथन है। संदर्भ और प्रसंग हैं। मद्दे पर अब आते हैं।


सबसे खतरनाक बात तो फिर वहीं पाश की कविता का सार है। सपनों के मर जाने से ज्यादा खतरनाक कुछ नहीं होता।


बाकी विद्वत जन जो कुछ कहें, इस भारत वर्ष को हम अबाध पूंजी और कालाधन का देश नहीं समझते। लाखों किसानों की हो रही निरंतर हत्या और आत्महत्या के बावजूद, शून्य विकास दर और शेयर बाजार के जीवन के हर क्षेत्र में घुसपैठ, बुनियादी नागरिक सेवाओं के क्रययोग्य सेवाओ में तब्दील होते जाने के बावजूद यह खुल्ला बाजार कृषि प्रधान है और बाजार के विकास भी महानगरों के बजाय जनपदों से ही होना है। सैद्धांतिक तौर पर कारपोरेट व्याकरण के तहत ही इस चूंती हुई अर्तव्यवस्था को क्रययोग्य क्षेत्रीय क्षत्रपों के हवाले करना सबसे ज्यादा सुरिक्षत मुनाफेदार दांव है बाजार की ताकतों के लिए। क्योंकि अमूमन अस्मिताएं जहां जाजनीति की दिशा और दशा तय करे ौर उसी जमीन परहो नीति निर्धारण, तो कारपोरेट हित सधने की अपार संभावनाएं बनती हैं।


खास बात तो यह है कि इस क्षेत्रीय अस्मिताओं की आराध्या दसभुजा देवी बंगाल की अग्निकन्या स्वयं हैं और  पूंजी विरोधी विचारधारा के धारक वाहक वाम दल इस महागठबंधन में हैं ही नहीं।अंततः जयललिता,करुणानिधि,जगन, येदुरप्पा, नवीन पटनायक, राज उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमारस लालू यादव, राम विलास पासवान, मायावती, मुलायम, नीतीश कुमार, पंजाब के अकालियों और हरियाणा के क्षेत्रीयदलों ने या अजितसिंह ने आर्थिक सुधारों का कभी विरोध जुबानी तौर पर किया हो, ऐसा कम से कम हमे नहीं मालूम है।


हां. यह सच है कि ममता बनर्जी ने औद्योगीकरण और शहरीकरण के लिए अंधाधुंध जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध बंगाल में जनप्रतिरोध का नेतृत्वक किया।लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बंगाल में परिवर्तन सिर्फ इसी एक कारण से नहीं हुआ।सत्ता वर्ग और ब्राह्मणवाद के निरंकुश वर्चस्व की नीतियों पर चलकर पूंजी के राजमार्ग पर कामरेडों की अंधी दौड़ की वजह से तेजी से बढ़ते जनाक्रोश और राष्ट्रीय राजनीति में पूंजीविरोधी सैदंधांतिक तेवर के कारण बाजार की सम्मिलित ताकत ने ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया। हालांकि अब भी वे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चांबद हैं, लेकिन बंगाल में भूमि सुधार की परंपरा को तिलांजलि देकर बंधुआ खेती और पीपीपी माडल के विकास को अपनाकर वे हरित क्रांति के दूसरे चरणक को अंजाम देने वाली भी हैं। वे प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के विरोध में बोलती रहती हैं। जनसंहार की नीतियों पर भारत भर में ेकमात्र मुखर क्षत्रप ममता दीदी ही हैं। लेकिन यह उनका विरोध फेसबुक वाल पर अल्पसंख्यक वोट बैंक हासिल करने के लिए उनके नमाजी तेवर और वेश भूषा के सिवाय कुछ नहीं है।उनकी नीतियां दरअसल बंगाल को पूंजी के अबाध आखेटघर बनाने पर तुली हैं।


जाहिर है कि ममता दीदी अब लोकलुभावन राजनीतिक दक्षता में प्रतिद्वंद्वियों से मीलों आगे है। यह लोकलुभावन कला कौशल लेकिन कांग्रेस की विरासत है। संघ परिवार इस कला में उतने पारंगत होता तो परिपक्व सत्ता समीकरण के बावजूद वह सत्ता से इतना दूर नजर नहीं आता। नरसंहर संस्कति कुल मिलाकर मीठा जहर है, जिसका जायका मंत्रमुग्ध कर देता है। दो दशकों के मनमोहन युग से भी पहले से हम खुशी  खुशी इस हलाहल का पान कर रहे हैं और सारे समुद्रमंथन का अमृत देव देवियों के हिस्से मे ंआ गया।हम असुरों के लिए गीता केप्रवचन ही पाथेय है और कुरुक्षेत्र में बलि हमारी ही होनी है। हम में से हर कोई अर्जुन है जो अपने कालजयी नायकत्व में हाथों को ितना रक्ताक्त कर चुका है कि लेडी मैकबेथ की तरह सात समुंदर का पानी भी उस खून के निशान को मिटाने में नाकाफी है। फर्क सिर्फ यह है कि कोई वरनम वन कहीं नहीं है जो मैकबेथ और लेडी मैकबेथ की रक्त होली का अवसान र दे। अगर्भजात कोई नहीं है इस देश में।


कारपोरेट राज के साथ मनुस्मृति िव्यवस्था को साथ साथ कायम रखने के लिए यह लोकलुभावन रणकौशल सबसे जरुरी है। विज्ञापनी चमत्कार के पीछे भी कुल सोच लोकलुभावनस संगीतबद्ध चकाचौंध हैं। दीदी की लोकलुभावन राजनीति की चकाचौंध से अंधभक्त सिर्फ बंगाल नहीं है, उनकी सादगी और ईमानदारी की महाश्वेता अनुमोदित छवि देस व्यापी है, कारपोरेट मार्केटिंग के लिए इससे बड़ा आइकन दूसरा हो ही नहीं सकता। इसीलिए क्षेत्रीय जातीय अस्मिताओं के इस विकल्प को प्रस्तावित किया जा रहा है, जहां निरंकुश नेतृत्व की वजह से राजनीतिक बाध्यता कोई अड़चन  हो ही नहीं सकती और विचारधारा चूंकि है  ही नहीं, इसलिए प्रतिरोध का कोई संकट है ही नहीं।



बंगाल इस वक्त आर्थिक संकट की चरमावस्था में है। केंद्रसमान वेतनमान और किश्त दर किश्त मंहगाई भत्ता के भुगतान से ही राजकोष खाली ऊपर से कर्ज का भारी बोझ। ब्याज चुकाने की भी गुंजाइश नहीं है।रोज नित नये परियोजनाओं परिकल्पनाओं के शिलान्यास हो रहे हैं। इफरात खैरात, पुरस्कार, राहत और सम्मान बांटे जा रहे हैं। न कानून का राज है और न कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था है।एकाधिकारवादी वर्चस्व की ही जयजयकार सर्वत्र। सर्वत्र अराजक आत्मघाती हिंसा से बहती रक्त नदियां। उत्सव और समारोह लेकिन रोज रोज। दुर्गोत्सव की उलटी गिनती में पागल हुए जाते असुर जनसमुदाय। इस संस्कृति जहां सत्तावर्ग के अलावा बाकी निनानब्वे फीसद के लिए जीवन के किसी क्षेत्र में कुछ भी नहीं है, उससे बेहतर कारपोरेट विकल्प हो ही नहीं सकता।


अस्मिताओं के अंध अनुयायियों के विवेकपीड़ित सम्मति असम्मति के नायाब उदाहरण हैं इस देश के गांधीवादी, संघी, अंबेडकरवादी और समाजवादी। जिन्हें मूर्तियों की पूजा अर्चना और निरंतर मालाजाप करके पराया माल अपनाने में कभी परहेज नहीं होता, जिनके न कोई जनसरोकार हैं ौर न किसी किस्म की जनप्रतिबद्धता उनके लिए कोई विवेक दंश हैं। इन अस्मिताओं के नायक नायिकाओं के दागदार चरित्र विचित्र अल्पमत सरकारों के जरिये अद्भुत जनमत प्रबंधन के जरिये जनसंहार राज को संभव बना रहे हैं।


अब बंगाल में बेरोजगारी के आलम में, कल कारखानों को खोलने के वायदे से सत्ता में आयी दीदी की तुगलक शाही का नमूना देखिये, तीन सौ करोड़ की लागत से हावड़ा में गंगा किनारे अस्थाई राइटर्स के कारनामा। वे राजधानी भी हावड़ा ले जाने के फिराक में हैं।लेकिन किसी की कोई आवाज नहीं निकल रही है। गोरखा आंदोलन का जिस तरीके से दमन पर उतारु है, भस्मासुर पैदा करके जनसमस्याओं को संबोधित किये बिना, अस्पृश्य भूगोल को मुख्यधारा में शामिल किये बिना अलगाव की सांप्रदायिक वर्चस्ववादी राजनीति का ज्वलंत उदाहरण है यह। पर कोई विरोध नहीं हो रहा है।


ऐसे निर्विरोध नेतृत्व का विकल्प ही तो कारपोरेट विकल्प बन सकता है। अपने ही दल में चक्रव्यूह में घिरा कोई अभिमन्यु कारपोरेट विकल्प हो ही नहीं सकता। मीडिया के ताजा सर्वेक्षणों का सार यही है।


अब जो सबसे खतरनाक बात है, वह यह है कि दीदी देशभर के औद्योगिक घरानों को बंगाल बुलाने के लिए जमीन अधिग्रहण की अनुमति देने के अलावा कुछ भी करने पर आमादा हैं।राज्य सरकार के पास चूंकि लोकलुभावन कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए दीदी के पास एकमात्र विकल्प निजी पूंजी है।केंद्रीय मदद से बेदखल दीदी को निजी पूंजी अपनाने की खुली छूट मिल गयी है।


नतीजन यह है कि क्षेत्रीय असमिताओं के महागठबंधन के पहल करने वाली दीदी बंगाल के खेतों को बंधुआ बना रही है। जमीन  अधिग्रहण किये बिना खेतों, कृषि उपज, पैदावर के विकल्प, और विपणन से बेदखल होंगे किसान। चूंकि पूंजी के हवाले करने के इस कार्यक्रम में दीदी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर रही हैं,चूंकि खेतों के मालिक किसान ही होंगे और सिर्फ केती के तमाम हक हकूक पूंजी के हवाले होगी, इस भयंकर खतरे से उनके अंध समर्थक बंगाल में कोई खलबली है ही नहीं।परिवर्तन के जो झंडावरदार वाम राज में ेकाधिकारवादी कारपोरेट आक्रमण के खिलाफ मुखर थे, महिषमर्दिनी के इस असुर दमन पर वे भी खामोश हैं। खामोश है सिविल सोसाइटी। इससे बेहतरीन कारपोरेट विकल्प कोई दीसरा नहीं हो सकता ,जाहिर है।


गौरतलब है कि पंचायत चुनावों में विरोधियों कड़ी शिकस्त देने के बाद मुंबई में दीदी उद्योगपतियों नसे मिलने चली गयी। आपको याद होगा कि तभी हमने लिखा था कि कारपोरट विकल्प कोई एक या दो नहीं होते बल्कि उसके आस्तीन में तीसरे चौथे पांचवे विकल्प ही होते हैं। अपने हित साधन के लिए देश काल पात्र के हिसाब से कभी भी कारपोरेट विकल्प बदले जा सकते हैं। दीदी घोषिततौर पर बंगाल में उद्योग और कारोबार के लिए निवेशकों की आस्था अर्जित करने भूमि बैंक के नक्शे लेकर पहुंची थीं और उन्होंने लगतार अपने जनपक्षधर तेवर के बावजूद उद्योगपतियों को यकीन दिलाती रही है कि बंगाल में निवेश के लिए जमीन की कोई समस्या नहीं होगी।लेकिन क्षेत्रीय असमिताओं के विक्लप की पड़ताल करने का उत्सव था यह दरअसल।


बंगाल की जनता को खबर नहीं है,ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। सर्वाधिक प्रचारित बांग्ला दैनिक जिसे पढ़कर ही भद्र प्रगतिशील बंगाल की दिनचर्या शुरु होती है, उसके मुखपन्ने पर हफ्तेभर पहले खबर भी छप गयी है कि निजी पूंजी के लिए रास्ता साफ करने के मकसद से दीदी नया कानून बना रही हैं। लेकिन इस हफ्तेभर में इसका किसी भी तरह का कोई विरोध नहीं हुआ है।


नया कानून बनाने की प्रक्रिया भी शुरु हो गयी है।प्रस्तावित कानून में यह प्रावधान किया जा रहा है कि देश की किसी भी निजी संस्था के साथ राज्य के एक या  किसानों का समूह, कृषि सहकारी समिति अथवा कृषि समिति साझा खेती के लिए समझौता कर सकतै हैं।यह समझौता फसल आधारित या इलाका आधारित हो सकता है। िसकी नरिदिष्ट समयसीमा हो सकती है।इस साझा खेती की उपज उसी संस्था को बेचना अनिवार्य होगा।


इसके साथ ही कृषि उपज के क्रय विक्रय के लिए ऐसी निजी संस्था को बाजार खोलने का लाइसेंस भी देगी राज्य सरकार।उस निजी बाजार प्राइवेट मार्केट यार्ड में कृषि उपज की खरीद बिक्री, संरक्षण और कृषि उपज के निर्यात करने के अधिकार निजी संस्ता को होंगे।निजी संस्था को एक स्थान से कृषि उपज दूसरी जगह ले जाने की खुली छूट होगी।


गौरतलब है कि दीदी ने केंद्र के जनविरोधी जनसंहार नीतियों के खिलाफ अथक जिहाद छेड़ रखा है। वे कांग्रेस या भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही क्षेत्रीय अस्मिताओं के महागठबंधन की बात कररही हैं।जबकि बंधुआ खेती की यह योजना मूल रुप से केंद्र की है।जाहिर है कि केंद्र के एजंडे के कार्यान्वयन से दीदी को कोई परहेज नहीं है। बंगाल सरकार को दस साल पहले ही केंद्र से इसीतरह का प्रस्ताव मिला था।कृषि में निजी पूजी निवेश के लिए 2003 में बाकायदा कृशष सुधार कार्यक्रम शुरु किया गया। केंद्र की तरफ से।राज्यों से कहा गया कि नया कृषि विपणन कानून तैयार करके ठेके पर खेती के प्रावधान करके निजी कृषि बाजार के लाइसंस दिये जाये। अब दीदी वम शासन में रद्द कर दिये गये केंद्र के कृशि सुदार कार्यक्रम को ही लागू करने जा रही हैं। मजे की बात तो यह है कि दीदी की इस पहल का विरोध अब वामपंथी भी नहीं कर रहे हैं।तब कहा गया था कि राज्य सरकार यह कृषि सुधार कार्यक्रम लागू  तो राज्य को सालाना चार सौ करोड़ के केंद्रीय अनुदान की भी पेशकश की गयी थी।


प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश का उदारीकरण : अपने संसाधनों की लूट-खसौट का दरवाजा और खुला


वाणिज्य मंत्रालय के तहत औद्योगिक नीति व प्रोत्साहन विभाग (डी.आई.पी.पी.) ने 1अप्रैल, 2011से शुरू होने वाली एक "प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफ.डी.आई.) की समेकित नीति" की घोषणा की है। सरकार के द्वारा विदेशी पूंजी पर पाबंदियों को क्रमशः हटा कर व नियंत्रण को घटा कर, एफ.डी.आई. को प्रोत्साहन देने के जारी प्रयासों का यह एक हिस्सा है।

इस नीति के प्रमुख बदलावों में बीज संबंधित नीति शामिल है। कृषि क्षेत्र में, बीजों व पौधों के विकास व उत्पादन में, अब बिना 'नियंत्रित वातावरण' की शर्त के,  प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति मिली है। नियंत्रित वातावरण का मतलब होता है कि सिंचाई, तापमान, धूप, हवा की नमी तथा उगाने के माध्यम का ग्रीन हाऊसों, पॉली घरों, पालीघरों व दूसरे इस तरह के उन्नत साधनों के जरिये जलवायु का सूक्ष्मता से नियंत्रण करना। पहले से ही बागवानी, पुष्पकृषि, पशुपालन, मत्स्यपालन, साग-सब्जियों व मशरूम के उत्पादन से संबंधित क्षेत्रों में, शत-प्रतिशत  प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति थी। अर्थात, अब कृषि के अधिकांश कार्यकलापों व सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश पर नहीं के बराबर प्रतिबंध रहे हैं।

कृषि का क्षेत्र हिन्दोस्तान में एक बड़ा व्यवसाय बनता जा रहा है। देश और विदेश में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की बहुत जबरदस्त मांग है। उपज, फसल कटाई, माल वाहन तथा खाद्य पदार्थों की डिब्बाबंदी, जबरदस्त मुनाफे बनाने वाले निवेश के रूप में तेजी से उभर के आ रहे हैं। हिन्दोस्तान के कृषि व्यवसाय में नेसले, कैडबरी, हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज फूड्स एण्ड बेवरेजेस, डाबर, आई.टी.सी., ब्रिटेनिया जैसी बड़ी कंपनियां पैर जमा रही हैं। अनुमान है कि 2015तक हिन्दोस्तानी खाद्य पदार्थ उद्योग वर्तमान 181अरब डॉलर(8.15लाख करोड़ रु.) से बढ़ कर 258अरब डॉलर(11.6लाख करोड़ रु.) हो जायेगा।

विदेशी निवेश और विदेशी सहयोग/संयुक्त उद्यमों, दोनों की दृष्टि से उपभोग के खाद्य पदार्थों के क्षेत्र को उच्चतम प्राथमिकता दी जा रही है। कृषि उद्योग के दूसरे उपक्षेत्र जिन पर विदेशी पूंजी की नज़र है, गहरे समुद्र से मछली पकड़ना, एक्वा कल्चर, दूध और दूध के उत्पाद, मांस तथा मुर्गी पालन हैं। मोबाइल तकनीक के जरिये सूचना तथा सलाह देने जैसी कृषि संबंधित सेवाओं में भी, वर्तमान परिस्थिति में निवेश के लिये विशाल बजार है।

सरकार की प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश नीति अर्थव्यवस्था की उसी दिशा के अनुरूप है जो बिना किसी रुकावट से हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजी को अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र में आने की आजादी देती है - चाहे वह देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का मामला हो या शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि का। कृषि की यह दिशा सुनिश्चित करती है कि उत्पादन तथा व्यापार का संचालन सिर्फ सबसे बड़े इजारेदारों के मुनाफे को अधिकतम बनाने के लिये किया जायेगा। जैसा कि दूसरे क्षेत्रों में हुआ है, इस क्षेत्र में भी, पहले मुट्ठीभर बड़ी कंपनियों ने कुछेक क्षेत्रों में प्रवेश किया। इसकी सफाई में कहा गया कि कृषि उत्पादन, रख-रखाव व वितरण आधारभूत ढ़ांचा तैयार करने के लिये, और संवर्धन की जरूरी तकनीकें लागू करने के लिये, सिर्फ सरकारी निवेश पर्याप्त नहीं था। पंचवर्षीय योजनाओं के प्राथमिक वर्षों में तैयार किये गये, बीज, खेत, कृषि विस्तार सेवायें और उत्पादकों की मदद के लिये बनाये जनता के बड़े-बड़े यंत्रों को धीरे-धीरे बर्बाद होने दिया गया है। अब इन क्षेत्रों में इक्विटी फंडों के घुसने की परिस्थिति तैयार हो चुकी है (बॉक्स देखिये)। इसका मतलब है कि पूंजी तेजी से तब आयेगी जब अधिकतम मुनाफा बनाने का मौका होगा और उतनी ही तेजी से बाहर चली जायेगी जब ऐसा मौका हिन्दोस्तानी कृषि के बाहर मिलेगा।


कृषि में निजी पूंजी के घुसने का असर

पूंजी के हित के मुकाबले कृषि के हित की अधीनता से कीमतों में जबरदस्त अस्थिरता होगी। अभी से कपास जैसे माल की कीमतों में वृद्धि देखी जा चुकी है जिसमें सट्टा व्यापार होता है। क्रमशः वैश्विक पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था में सबसे बड़े बैंकों और निवेशक पूंजी के हित में हिन्दोस्तानी कृषि संकलित होती जायेगी। कृषि भूमि का आवंटन बढ़ते तौर पर इजारेदार विदेशी वित्तीय पूंजी के हित में निर्धारित किया जायेगा। बढ़ते तौर पर, खेतीबारी ठेके पर होगी और करोड़ों किसानों की जमीन के अधिग्रहण का खतरा होगा। या तो उन्हें बड़े निगमों का गुलाम बनना पड़ेगा या उन्हें अपनी जमीन बेच कर खेतीबारी छोड़नी पड़ेगी।

प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश और निजी निगमों के आगमन के लिये कृषि का दरवाजा खोलना सीधे तौर पर किसानों, मज़दूरों और मेहनतकश लोगों पर हमला है। कृषि, जो पोषण के लिये, खाद्य पदार्थों तथा अन्य जरूरी वस्तुओं के लिये कच्चे माल का उत्पादन है, उसे बड़े पूंजीवादी निगमों के अधिकतम मुनाफा बनाने की लालच के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। पहले से ही हिन्दोस्तान की जनता, खाद्य तथा दूसरी हरेक जरूरी वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से त्रस्त है। कृषि में निजी पूंजी की भूमिका और इसका पैमाना बढ़ाने से लोगों का हाल बद से  बदतर हो जायेगा।

कृषि में निजी पूंजी के प्रवेश का विरोध बहुत से किसान संगठनों ने किया है। इसे और आगे करना होगा। कृषि का हर पहलू - खाद्य पदार्थों का उत्पादन, भंडारण तथा वितरण, एक योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिये। इसे उत्पादन करने वाले सहकारी और (भंडारण तथा वितरण के लिये) समाज के नियंत्रण में संगठनों के जरिये लागू करना चाहिये। जो निजी पूंजीवादी निगम आज खाद्य पदार्थों से मुनाफा बना रहे हैं उन्हें देश के हित में बिना मुआवजे के जब्त कर लेना चाहिये। कृषि या अर्थव्यवस्था के दूसरे कार्यकलापों में और निजीकरण की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये। तभी, सभी मज़दूर वर्ग परिवारों को कृषि के उत्पादों की उपलब्धता स्थिर और उचित कीमतों पर सुनिश्चित करना संभव होगा।

http://www.cgpi.org/hi/mel/political-economy/1357-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A4%BF


कॉरपोरेट कंपनियों के निशाने पर किसान

10/12/2012 09:53:00कृष्णस्वरूप आनंदी

दैत्याकार एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशन अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर एक नयी औपनिवेशिक कृषि दासता की खूंखार व्यवस्था को जन्म दे रहे हैं। बीज, पानी, खाद, कीटनाशी रसायन, भण्डारण, जैव पदार्थ, कृषि उपज मण्डी, खाद्यान्न व्यापार, कृषि जिंस मूल्य निर्धारण-सभी कुछ वे अपने नियन्त्रण में लेने को आमादा है।

डब्ल्यूटीओ और 'कृषि पर समझौता'

डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) ने जो 'कृषि पर समझौता' तैयार किया है, उसके पीछे अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी कारगिल का शातिर दिमाग है। उसके पूर्व उपाध्यक्ष डॉन एम्सटुज ;क्ंद ।उेजन्रद्ध ने समझौते का प्रारूप लिखा था। बहुराष्ट्रीय देशी-विदेशी औद्योगिक या कारोबारी घरानों व समूहों का सपना है- ''किसानों द्वारा खेती'' ;च्मंेंदज ।हतपबनसजनतमद्ध के स्थान पर 'कॉरपोरेट फार्मिंग' हो। वे यह तय करना चाहते हैं कि कहां-कहां किन-किन खाद्यान्नों और भोज्य पदार्थों का उत्पादन हो और इसके साथ ही, खाद्य पदार्थों के उत्पादन, वितरण, कारोबार या व्यापार पर कॉरपोरेट माफिया का पूर्ण नियन्त्रण हो। आखिर अमरीका में यही तो हुआ। 1938 में वहां 38 लाख फैमिली फार्म थे। इनकी संख्या घटकर 1989 में 21 लाख पर पहुंच गयी। वर्ष 2000 में यह संख्या 10 लाख से थोड़ी ज्यादा थी। 1985-86 में 1 लाख 12 हजार फैमिली फार्म बन्द हो गये। अकेले 1987 में 2 लाख 40 हजार लोग कृषि कार्य छोड़ने पर मजबूर हुए। किसानों और खेतों के विसर्जन के साथ ही कॉरपोरेट-नियन्त्रित फार्मों और एग्रीबिजनेस गोरखधन्धों का आकार बढ़ता गया। आज अमरीका में लगभग 60 फीसदी अनाज लगभग 35,000 हजार बड़े फार्म पैदा कर रहे हैं, जो दैत्याकार कॉरपोरेट घरानों के कब्जे में हैं।

कॉरपोरेट कृषि व्यवस्था के 'थिंक टैंक' इस बात से बेहद गद्गद् हैं कि भारत में किसान लगातार घाटे में चल रहे हैं। कहीं-कहीं कर्ज में बुरी तरह डूबे होने, फसलों के बार-बार चौपट होने, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे घाटे तथा चारों तरफ से निराश-हताश होने की वजह से किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। इस तरह की 'विषकुम्भं पयोमुखम्!' जैसी नीतियां वर्तमान में चल रही हैं कि किसान खेतीबाड़ी करना खुद ही छोड़ दें, अन्य व्यवसाय चुनें और उनके द्वारा खाली की गयी जगह-जमीन पर कॉरपोरेट घरानों या उनके मेगा औद्योगिक/कारोबारी संयन्त्र तथा बुनियादी ढांचागत प्रकल्प आबाद हों।

सारी कवायद इस बात को लेकर है कि कैसे किसान खेतीबाड़ी और जमीन छोड़ने को खुद-ब-खुद मजबूर हो जाय और कॉरपोरेट/काण्ट्रैक्ट फार्मिग की बहुराष्ट्रीय व्यवस्था का रास्ता साफ होता जाय। इसके लिए सारे उपाय हो रहे हैं। खेती के उत्पाद सस्ते; खेती में लगने वाले निवेश्य पदार्थ महंगेः सब्सिडी में घटोत्तरी; ठेके पर खेती को बढ़ावा; लैण्ड सीलिंग खत्म करने की प्रक्रिया शुरू; पेटेण्ट एवं मण्डी कानूनों में बदलाव; कृषि उत्पादों के विदेशी आयातों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्धों का खात्मा; कृषि को सहारा देने वाली सरकारी/सहकारी वित्तीय संस्थाओं व बहु-उद्देशीय एजेंसियों की निष्क्रियता व बेरुखी; खाद्य पदार्थों का औद्योगिक प्रसंस्करण; मेगा औद्योगिक बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं/विशेष आर्थिक क्षेत्रों/व्यावसायिक कॉम्पलेक्सों/आई टी पार्कों/विनिर्माण नाभिचक्रों सुपर स्पेशियलटी हॉस्पिटलों व 'वर्ल्ड क्लास' विश्वविद्यालयों/भांति-भांति के हाई-टेक टाउनशिपों (नगरियों) व सर्वसुविधा सम्पन्न मायापुरियों का निर्माण व अधिष्ठान- ये सब कुछ ऐसे कदम हैं, जो किसानों को खेती और जमीन से विस्थापित या बेदखल होने के लिए मजबूर कर रहे हैं।

विश्वव्यापी एग्रीबिजनेस

खाद्यान्नों और भोज्य पदार्थों के कारोबार में लगीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे की प्रभावी संख्या लगातार घटती जा रही है। बाजार हथियाने के लिए वे या तो परस्पर स्त्रातजिक (रणनीतिक) गठजोड़ करती जा रही हैं अथवा उनके बीच अधिग्रहण व विलय का दौर चल रहा है। आज स्थिति यह हैं:

1.चोटी की 10 वैश्विक बीज कम्पनियां दुनियां के एक-तिहाई से ज्यादा बीज कारोबार पर काबिज है। वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 30 अरब डॉलर का धन्धा कर रही है।

2. चोटी की 10 कीटनाशी रसायन निर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनियां के 90 प्रतिशत कीटनाशी रसायन कारोबार पर काबिज हैं। वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 35 अरब डॉलर का कारोबार कर रहीं है।

3. चोटी की 10 कम्पनियां खाद्य पदार्थों की कुल बिक्री के 52 प्रतिशत पर कब्जा जमाये हुए हैं।

4. चोटी के 10 फर्में दुनियां के संगठित पशुपालन उद्योग और तत्सम्बन्धी समस्त कारोबार के 65 प्रतिशत पर काबिज हैं। वे इस क्षेत्र में 25 अरब डॉलर का धन्धा कर रहीं हैं।

अगर उपर्युक्त क्षेत्रों की चुनिंदा कम्पनियों के विविध व्यवसायों पर नजर डाली जाय, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एक क्षेत्र की अग्रणी कम्पनी दूसरे क्षेत्र में भी सिरमौर है। दुनियां भर में वैश्विक एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशन स्थानीय कारोबारी कृषि कम्पनियांे के अधिग्रहण में आक्रामक ढंग से बढ़ चढ़कर  हिस्सा ले रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उनके बीच उभर रहा गठबन्धन आने वाले दिनों में भयंकर खाद्य संकटों को जन्म दे सकता है, जिससे अधिसंख्य लोग रोटी के मूलभूत अधिकार से वंचित होंगे।

बीजों पर एकाधिकार

देश के पेटेण्ट कानून पूरी तरह से बदले जा चुके हैं। डब्ल्यूटीओ के हुक्मनामे के बाद ये कानून खेती पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पकड़ मजबूत करने के लिहाज से बनाये गये हैं औषधीय पौधों, कृषिक्षेत्र के बीजों और जैव विविधता टिकाये रखने वाले असंख्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म सेन्द्रीय/सावयव रूपों के पेटेण्टीकरण को सुनिश्चित करते हैं, ये कानून। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साजिश तो यहां तक रहती है कि जिन जैविक पदार्थों का सृजन, उन्नयन या विकास प्राकृतिक विधियों द्वारा उत्पादन प्रक्रिया के दौरान स्थानीय समुदायों या देशज लोगों के जरिये सदियों से होता चला आया है, उन पदार्थों से वे बेदखल कर दिये जाएं। अधिकांश समुदाय अपने द्वारा जनित, संकरित या संवर्द्धित जैव रूपों को अपनी सांझी सम्पदा या धरोहर के रूप में देखते हैं। वे कदापि यह नहीं चाहेंगे कि उनकी इस परम्परागत विरासत पर किसी कम्पनी या कॉरपोरेट बहादुर का निजी मालिकाना हक हो। नये बीज कानून से अब पुश्तैनी जैव सम्पदा पर किसानों का सामुदायिक, सामूहिक या सार्वजनिक हक नहीं रह पायेगा, बल्कि डब्ल्यूटीओ की हुक्मरानी में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उस पर कुण्डली मार कर बैठेंगी।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बीजों पर अपना एकाधिकार कायम करना चाहती हैं। सैकड़ों सालों से पारम्परिक रूप में उगाये जा रहे और हमारे खेतों की प्राकृतिक व देशज प्रयोगशालाओं में किसानों की कड़ी मेहनत व साधना के सुफल से सहज रूप में विकसित हो रहे देशी बीजों की चोरी करना और उसे अपनी मौलिक खोज या निजी बौद्धिक सम्पदा घोषित करना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पुराना गन्दा खेल रहा है। भारत बासमती चावल का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश रहा है। लेकिन टेक्सास-स्थित अमरीकी कम्पनी राइसटेक ने टेक्सम और कासमती नाम के कई ब्राण्ड पेटेण्ट करा रखे हैं। चीन के बाद भारत दुनियां का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक देश है, लेकिन अमरीकी कम्पनी मोंसैण्टो ने गेहूं की हमारी स्थानीय प्रजाति 'नाप हल'को पेटेण्ट कराने की जुर्रत की थी। सिंजेण्टा पूरे चावल पर ही अपना दावा ठोंक रहा है। देशज या परम्परागत जैव पदार्थों पर डाका डालने में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कोई सानी नहीं।

आज कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा कि 1876 में हुआ था। जब समूचे दक्षिण भारत में खरीफ की फसलें सूख रहीं थीं, तब वायसराय लॉर्ड लिट्टन इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया को 'भारत की सम्राज्ञी' घोषित करने के लिए दिल्ली में अतिशय वैभवपूर्ण साम्राज्यी उत्सव की तैयारी में व्यस्त था। सप्ताह-भर एक चली शानदार और महंगी दावतों में 68,000 लोगों ने छप्पन व्यंजन भोग किया था। वह सचमुच विश्व इतिहास का सबसे महंगा, खर्चीला, ठाटबाट वाला तथा विलासितापूर्ण भोज आयोजन था। उसी समय दिल्ली में और मद्रास में महारानी की एक लाख प्रजा दम तोड़ रही थी।

सिंजेटा और नोवार्तिस के साथ ही, मोंसैण्टो जीएम बीजों के सबसे बड़े पेटेण्टधारकों में से एक है। अमरीकी सेनाओं के लिए रास्ता बनाने तथा क्रान्तिकारियों के ठिकानों को नष्ट करने के लिए वियतनाम में उसने 'एजेण्ट आरेंज' नामक विस्फोटक या अत्यन्त ज्वलनशील रसायन समूह की बरसात वहां के हरे-भरे जंगलों पर की थी जिसमें वे जलकर खाक हो गये। पर्यावरण विनाश और हिंसक कुकृत्यों के लिए बदनाम 'डाउ केमिकल्स' के साथ उसका गहरा रिश्ता है। ध्यान देने की बात है कि डाउ केमिकल्स ने ही यूनियन कॉरबाइड कम्पनी को खरीदा है जिसके भोपाल-स्थित संयन्त्र ने हजारों लोगों की जाने ली थीं। मोंसैण्टो भारत में जीएम., टर्मिनेटर (बांझ), बीटी फसलों या बीजों से हमारे खेतों को पाटने आया है। ज्यो-ज्यों उसके बीजों का चलन बढ़ेगा, त्यों-त्यों कॉरपोरेट फॉर्मिंग का युग आता जायेगा। उसके बीज कॉरपोरेट फार्मिंग के बीज हैं और वे हैं किसानों के लिए यमदूत।

जीएम फसलों के दुष्प्रभाव दुनिया-भर में दिखायी पड़ने लगे हैं। उसके चलते किसान न केवल बुरी तरह परावलम्बी हो जाते हैं, बल्कि 'मोनोकल्चर' (किसी क्षेत्र विशेष में केवल एक फसल पैदा होने की स्थिति) को बेरोकटोक बढ़ावा मिलता है जिसके परिणामस्वरूप नितान्त आवश्यक खाद्य सम्प्रभुता का क्षरण होता जाता है। इसके साथ ही, जी एम फसलों के चलते परम्परागत खाद्यान्न फसलें विस्थापित हो रही हैं और इससे तमाम अन्य फसलें भी हाशिये पर आ गयी हैं। 1988 से लेकर अब तक खाद्यान्न फसली खेतों की संख्या 30 प्रतिशत घट गयी है और लगभग 1,50,000 किसान परिवार खेत से गायब हो गये हैं।

मानव सभ्यता के उषःकाल के साथ ही, किसानों द्वारा खेती करने की परम्परा कुलांचे भरती चली आ रही है। यह विश्व का सबसे पुराना पोषक, सांस्कृतिक और पावन आधारभूत कर्म है। आज इसका कम्पनीकरण या कॉरपोरेटीकरण हो रहा है। अमीर औद्योगिक देशों में किसानों की संख्या घटती गयी है। यूरोपीय संघ के देशों और जापान में कुल आबादी के सिर्फ एक प्रतिशत किसान हैं। इन देशों में जो तथाकथित किसान हैं भी, वे हकीकत में बहुराष्ट्रीय कृषि व्यवस्था के परिशिष्ट-भर हैं। कृषिक्षेत्र की मुख्यधारा में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही हैं।

मण्डी कानूनों में बदलाव

मण्डी कानून में ऐसे बदलाव किये जा रहे हैं जिनसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किसानों से सीधे खाद्यान्नों और फल-सब्जियों की खरीददारी कर सकें। अपनी खेती लायक जमीन को किसान पट्टे पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दे सकेंगे, ऐसी व्यवस्था नये मण्डी कानून में की जा रही है। 'ठेके पर खेती' के लिए नया कानून रास्ता साफ कर रहा है। इससे नित्यप्रति उपयोग में आने वाले जीवनदायी भोज्यपदार्थों का रकबा घटता जायेगा। नकदी फसलों के जाल में किसान फंसेंगे, जिसके चलते हमारी खाद्य सुरक्षा गम्भीर खतरे में पड़ जायेगी। किसान अपनी जमीन पर जिस बहुराष्ट्रीय कम्पनी के लिए ठेके पर खेती करेंगे उसके साथ होने वाले समझौते में उल्लिखित शर्तों के मुताबिक:

  • वे उस कम्पनी अथवा उसके द्वारा चिन्हित कम्पनियों से बीज खरीदेंगे;

  • वे उस कम्पनी अथवा उसके द्वारा चिन्हित कम्पनियों से उर्वरक और कीटनाशी रसायन खरीदेंगे;

  • उस कम्पनी के इंस्पेक्टर समय-समय पर इस प्रकार पैदा की जाने वाली फसल की गुणवत्ता की जांच परख करते रहेंगे;

  • तथा अन्त में किसान अपनी उपज उस कम्पनी को उसके द्वारा तय की गयी कीमतों पर बेचने पर मजबूर होंगे।

राज्य सरकारें भूमि हदबंदी कानूनों में काफी समय से ढील देती जा रही है। लैण्ड सीलिंग खत्म करने के लिए वातावरण बन चुका है। कहने का मतलब यह है कि किसानों को खेती और जमीन से बेदखल करके, खेती और जमीन को एग्री बिजनेस कॉरपोरेशनों के हवाले सौंपने की बिसात बिछती जा रही है। देश में कॉरपोरेट फार्मिंग के लिए तेजी से अनुकूल परिस्थितियां बन रही हैं।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खाद्यान्नों, फलों और तरकारियों की मण्डियों पर काबिज होना चाहती हैं। जिसके हाथ में अनाज और शाकभाजी की मण्डी होगी, उसी के हाथ में होगी किसान की मुण्डी भी। गांव के हाट-बाजार पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कातिलाना नजर है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जगह-जगह अपनी दुकानें खोल रही हैं। विभिन्न उत्पाद-ब्राण्डों को दूरदराज के गांव-गिरांव के चौके-चूल्हे तक पहुंचाने का उनका सपना है।  ई-चौपालों, चौपाल सागरों, एग्रीमार्टो, किसान हरियाली बाजारों आदि का बस एक ही मतलब हैं -फसलों की पैदावार/कृषि जिंसों के कारोबार पर कॉरपोरेट शिंकजा, कृषि उपज मण्डियों का बहुराष्ट्रीयकरण, खाद्यान्नों की कालाबाजारी/जमाखोरी, बनावटी किल्लत, देशी व स्थानीय कारोबारियों/उत्पादकों/वितरकों का ह्रास, छोटे-मझोले दुकानदारों/परचूनियों का खात्मा, अनौपचारिक/असंगठित रोजगारियों का सफाया, उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा और अन्ततोगत्वा किसान राज/ग्राम स्वराज/पूर्ण स्वराज के स्थान पर वैश्विक कॉरपोरेट हुक्मरानी।  

सब्सिडी का सच

विकसित देशों, अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं एवं एजेंसियों, बहुपक्षीय मुक्त व्यापार क्षेत्रों/समझौतों के जरिये भारत समेत तमाम विकासशील देशों पर सब्सिडी या राजराहत को खत्म करने के लिए लगातार भारी दबाव डाला जा रहा है, जबकि विकसित देश अपनी खेती में सब्सिडी का दायरा और आयतन घोषित-अघोषित रूप में बढ़ाये चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे खाद्य पदार्थों को विकासशील देशों में डम्प भी करते जा रहे हैं।

विकसित देश अपनी खेती-किसानी में भारी सब्सिडी झोंक रहे हैं, जिसके चलते उनके कृषि-उत्पाद विश्व-बाजारों में छा जाते हैं। वे इतने सस्ते पड़ते हैं कि देशज या स्थानीय किसानों द्वारा पैदा की जा रही उपज उनके सामने कतई नहीं टिक पाती है। भांति-भांति से तरह-तरह की सब्सिडी विकसित देश अपने तथाकथित किसानों यानी एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशनों व कारोबारियों को मुक्तहस्त से दे रहे हैं। चौंकियेगा नहीं, यहां वर्ष 2001 के दौरान अमरीका में सब्सिडी पाने वाले 2 किसान महानुभवों के नामों का उल्लेख किया जा रहा है। मीडिया साम्राज्य सीएनएन के कर्ताधर्ता टेड टर्नर तथा रॉकफेलर फाउण्डेशन के डेविड रॉकफेलर। इंग्लैण्ड के एक किसान हैं-वेस्ट मिंस्टर के डयुक, जिनके पास 5, 5,000 हेक्टेयर खेती लायक जमीन है। कृषि सब्सिडी के विभिन्न मदों में वे हर साल औसतन 3 लाख पौण्ड स्टर्लिंग के प्रत्यक्ष भुगतान ले रहे हैं। इसके अलावा उनके डेयरी फर्म में 1200 गायें हैं जिसके लिए उन्हें औसतन हर साल बतौर सब्सिडी साढ़े 3 लाख पौण्ड स्टार्लिंग मिल रहे है। आईसीडी के देश प्रतिवर्ष 400 अरब डालर से ज्यादा की सब्सिडी अपने कृषि क्षेत्र में झोंक रहे हैं।

ऐसा आकलन है कि यूरोपीय संघ के देश प्रति दिन प्रति गाय पर औसतन 2.7 डॉलर की सब्सिडी देते चले आ रहे हैं। जापान में यह आँकड़ा लगभग तीन गुना ज्यादा है। वहां 2003 में प्रति दिन प्रति गाय पर औसतन 8 डॉलर की सब्सिडी दी गयी थी। भारत में लगभग 78 फीसदी लोग प्रतिदिन आधे डॉलर से भी कम पर किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं।

1999-2000 में भारत ने यूरोपीय संघ से 1 लाख 30 हजार टन मलाई उतरे दुग्धचूर्ण का निर्यात किया था। यूरोपीय संघ यह सब कैसे कर सका था? 50 लाख डॉलर की निर्यात सब्सिडी के चलते ऐसा हुआ था। दुनियाँ में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश भारत है, इसके बावजूद हमारे डेयरी क्षेत्र के किसानों को धेला-भर भी सब्सिडी नहीं दी जाती है। अमरीका में डेयरी किसान बिल्कुल गरीब नहीं हैं। 2000 में वहां हर डेयरी किसान के पास औसतन 100 गाय और दस लाख से ज्यादा की परिसम्पतियां थीं और इतना ही नहीं, उस समय वह औसतन 80 हजार डॉलर का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर रहा था। इतना सब कुछ होने के बावजूद नयी शताब्दी की शुरुआत में अमरीका ने अपने डेयरी किसानों को 71 फीसदी की सब्सिडी दी थी। ठीक उसी समय यूरोपीय संघ में यह सब्सिडी 74 फीसदी और जापान में 400 फीसदी हो गयी थी।

चौतरफा हमला

हमारी खेती-किसानी पर चौतरफा मार पड़ रही है। कृषि-उत्पादों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हट चुके हैं। बाहर की सस्ती, सब्सिडी-युक्त और जेनेटिक इंजीनियरिंग से संशोधित/संवर्द्धित कृषि जिंसो और उनसे तैयार ढेर-सारी खाद्य वस्तुएं भारी मात्रा में बेतहाशा हमारे यहाँ डम्प की जा रही हैं जिसके चलते हमारे किसानों को बेहद घाटा उठाना पड़ रहा है। कृषि क्षेत्र में उपज के लिए जिन-जिन चीजों का इस्तेमाल होता है, उन सबको बनाने के लिए देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट घरानों को खुली छूट मिली हुई है जिसके चलते किसान उनके मोहताज बने हुए हैं। बीज, उर्वरक, कीटनाशी, रसायन, कृषि उपकरण आदि सभी निवेश्य पदार्थ कॉरपोरेट घराने बना रहे हैं और इन सारी चीजों को वे मनमाने ढंग से खुद तय की गयी कीमतों पर किसानों के हाथों बेंच रहे हैं। डब्ल्यूटीओ, विश्वबैंक और आईएमएफ के निर्देशों पर किसानों को दी जा रही सब्सिडी को हमारे यहां खत्म किया जा रहा है। बीज, खाद, पानी, डीजल, कृषि उपकरण, बिजली आदि सभी वस्तुएं किसानों के लिए मंहगी होती जा रही हैं। दरअसल हमारे यहां किसानों को दी जा रही समर्थन-सहायता ऋणात्मक है। कई मामलों में पहले किसान काफी हद तक स्वावलम्बी हुआ करते थे। स्थानीय जैव संसाधनों, शिल्पों, प्रविधियों और पद्धतियों पर वे आश्रित थे। देशज हुनरमंद कारीगरों (तकनीशियनों) से उनका अन्तरंग सम्बन्ध था। सारा ढाँचा परस्परावलम्बन पर टिका था। एक सुनियोजित षड्यन्त्र के तहत केन्द्रीकरण की व्यवस्था ने इस टिकाऊ, मजबूत और चिंरजीवी ढांचे को तहस-नहस किया।

जैसे-जैसे कृषि-संकट गहराता जा रहा है, वैसे-वैसे किसान मौत को गले लगाते जा रहे हैं। करोड़ों भारतवासी देख रहे हैं कि कैसे उनकी कृषि और जीवनयापन-व्यवस्था की कमर टूटती जा रही है। देशी-विदेशी कॉरपोरेट घराने, उनके कारकुन-कारिंदे व एजेण्ट, सत्ताधारी व नौकरशाह, सुविधाभोगी विशिष्ट अभिजन, दलाल व सट्टेबाज, धन्धेखोर व कारोबारी, माफिया व गिरोह तथा भ्रष्ट न्यस्त स्वार्थ एक तरफ रंगरेलियां मनाने में मशगूल हैं और वहीं दूसरी खेतिहर व ग्रामीण समुदायों या अंचलों में आत्महत्याएँ हो रही हैं।

(डॉ कृष्णस्वरूप आनंदी आजादी बचाओ आंदोलन के साथ जुड़े हुए हैं.)

http://visfot.com/index.php/mobile/current-affairs/7920-%E0%A4%95%E0%A5%89%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%9F-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8.html



निवेश बढ़े तो सुधरे खेती


देश में हाल के वर्षो में कृषि उत्पादन बढ़ा है, लेकिन किसानों की हालत पहले से बदतर हुई है। खेती की तसवीर ऊपर से जितनी खुशहाल नजर आती है, किसान उतने ही बदहाल होते जा रहे हैं। हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों ने इस खतरे को और बढ़ा दिया है। खेती और किसानों की बिगड़ती स्थिति को लेकर पेश है पूर्व कृषि मंत्री डा. सोमपाल शास्त्री से विशेष बातचीत।


कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या क्या है?

निवेश की कमी मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या है। निवेश बढ़े तो स्थिति में काफी सुधार आ सकता है। लेकिन हम आंकड़ों को देखें तो चौथी पंचवर्षीय योजना में खेती पर खर्च जीडीपी का 1.3 फीसदी था। लेकिन 11वीं योजना में यह घटकर 1.2 फीसदी रह गया। इसमें निजी खर्च भी शामिल है। सरकार कहती है कि कृषि पर निवेश बढ़ाएंगे, लेकिन कब? यदि हम 70-80 के दशक की बात करें तो कृषि में पूंजी निर्माण 18-21 फीसदी था, जो आज 7.7 फीसदी रह गया है। पिछले सोलह सालों में संचार क्षेत्र में चार लाख करोड़ का निवेश हुआ है, लेकिन कृषि में महज 17 हजार करोड़ का।

कृषि पर लोगों की निर्भरता बढ़ने के क्या खतरे हैं?

दूसरे देशों में जैसे-जैसे दूसरे क्षेत्रों का विस्तार हुआ, लोगों की कृषि पर निर्भरता कम होती गई। बड़े पैमाने पर लोग उद्योग, सेवा क्षेत्र आदि पर निर्भर होते गए। लेकिन हमारे देश में उल्टा हो रहा है। आबादी बढ़ने और दूसरे क्षेत्रों का भी अपेक्षित विकास न होने के कारण कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ रही है। स्थिति यह है कि आज देश की 65 फीसदी आबादी उस कृषि पर निर्भर है, जिसका जीडीपी में योगदान महज 14 फीसदी है। समस्या का समाधान यही है कि या तो कृषि पर निर्भर रहने वाले घटें या फिर जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी बढ़े। या दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ें।

लेकिन आंकड़े बताते हैं कि कृषि उत्पादन तो बढ़ रहा है?

कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी की वजह आधुनिक बीज, खाद एवं कई क्षेत्रों में सिंचाई के इंतजाम होना है। एक बड़े तबके के किसानों को ये सुविधाएं उपलब्ध तो हैं, लेकिन इनके इस्तेमाल से कृषि की लागत काफी बढ़ गई है। किसानों के ऐसे-ऐसे खर्च हैं, जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते। मैं एक उदाहरण दूंगा। इस साल जुलाई में बारिश नहीं हुई। जहां सिंचाई की सुविधा थी, वहां लोगों ने धान की पौध तैयार कर ली। लेकिन तभी गर्मी बढ़ गई। उत्तर प्रदेश, पंजाब में किसानों ने कई जगह पौध को गर्मी से बचाने के लिए बड़े पैमाने पर बर्फ की सिल्लियों का इस्तेमाल किया। खर्च किसान की जेब से ही हुआ। किसान को इस हिसाब से कीमत कहां मिल रही है?

देश में करोड़ों हेक्टेयर बंजर भूमि है, इसे खेती योग्य बनाने के उपाय क्यों नहीं किए जाते?

राज्य सरकारों को पहल करनी चाहिए। सरकार तय कर ले कि जो कारखाने लगेंगे, कॉलोनियां बनेंगी या एसईजेड बनेंगे, वह इसी बंजर भूमि पर बनेंगे तो मौजूदा कृषि भूमि तो कम से कम बची रहेगी।

http://www.livehindustan.com/news/desh/tayaarinews/article1-story-39-67-259627.html




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कृषि क्षेत्र:

नीतियां तथा प्रोत्‍साहन

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कृषि उत्‍पादन में कमी को रोकने के उद्देश्‍य से सरकार द्वारा हाल के वर्षों में अनेक म‍हत्‍वपूर्ण प्रवर्तन किए गए हैं। इनमें से कुछ महत्‍वपूर्ण प्रवर्तन है :

  • भारत निर्माण;

  • राष्‍ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम;

  • राष्‍ट्रीय बागबानी मिशन;

  • संस्‍थागत ऋण का किसानों तक प्रसार;

  • राष्‍ट्रीय मधुमक्‍खी बोर्ड की स्‍थापना;

  • राष्‍ट्रीय वर्षा-पोषित क्षेत्र प्राधिकरण की स्‍थापना;

  • राष्‍ट्रीय मत्‍स्‍य उद्योग विकास बोर्ड (एनएफडीबी) की स्‍थापना;

  • जल संभर विकास और सूक्ष्‍म सिंचाई कार्यक्रम;

  • कृषि विपणन में सुधार और बाजार के इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर का विकास;

  • सहकारी क्षेत्र का पुनरूज्‍जीवन;

  • लघु किसान कृषि-व्‍यवसाय कन्‍सोर्टियम द्वारा जोखिम पूंजी भागीदारी के माध्‍यम से कृषि-व्‍यवसाय का विकास;

  • कृषि विस्‍तार सेवाओं के लिए सुधार और समर्थन;

  • राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन;

  • राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन;

  • राज्‍यों को कृषि में अधिक निवेश के लिए प्रोत्‍साहित करने हेतु राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना;

  • समेकित खाद्य कानून;

  • गोदाम विकास और विनियमन के लिए विधायी ढांचा;

  • पादप विविधता संरक्षण और कृषक अधिकार (पीपीवीएफआर) अधिनियम, 2001;

  • राष्‍ट्रीय बांस मिशन; और

  • सामान्‍य सेवा केंद्रो (सीएससी) और आईटी प्रवर्तनों के माध्‍यम से ज्ञान संयोजकता।

राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई)

यह राज्‍य सरकारों को अपनी राज्‍य योजनाओं में कृषि में निवेश का हिस्‍सा बढ़ाने को प्रेरित करने के लिए बनाई गई थी। इसका उद्देश्‍य है कि कृषि तथा संबंधित क्षेत्रों का सकल विकास सुनिश्चित करके ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि के दौरान कृषि क्षेत्र में 4 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि प्राप्‍त की जाए। यह राज्‍य योजना की स्‍कीम है और स्‍कीम के अंतर्गत सहायता इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि तथा संबंधित क्षेत्रों पर किए गए आधार रेखा प्रतिशत खर्च से ऊपर कृषि तथा संबंधित क्षेत्रों के लिए राज्‍य के बजट में कितनी राशि उपलब्‍ध कराई गई है। आरकेवीवाई के अंतर्गत निधियां केद्रीय सरकार द्वारा राज्‍यों को 100 प्रतिशत अनुदान के रूप में उपलब्‍ध कराई जानी हैं। स्‍कीम के मुख्‍य उद्देश्‍य हैं :

  • राज्‍यों को कृषि तथा संबंधित क्षेत्रों में सार्व‍जनिक निवेश बढ़ाने के लिए प्रेरित करना।

  • कृषि तथा संबंधित क्षेत्रों की स्‍कीमों के नियोजन तथा क्रियान्‍वयन में राज्‍यों को लचीलापन और स्‍वायत्तता उपलब्‍ध कराना।

  • कृषि-जलवायवी परिस्थितियों, प्रौद्योगिकी तथा प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्‍धता के आधार पर जिलों तथा राज्‍यों के लिए योजनाओं का निर्माण सुनिश्चित करना।

  • सुनिश्चित करना कि स्‍थानीय जरूरतों/फसलों/प्रथमि‍कताओं को बेहतर निरूपित किया जाए।

  • ध्‍यान केंद्रित करके प्रमुख फसलों की लब्धि में अंतरालों को कम करने का लक्ष्‍य प्राप्‍त करना।

  • किसानों को प्रतिफल अधिकतम करना।

राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम)

यह एक केंद्र द्वारा समर्थित योजना है। इसका उद्देश्‍य है कि ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि के अंत तक गेहूं चावल तथा दालों के उत्‍पादन में उत्‍पादन के आधार स्‍तरों से क्रमश: 10,8 और दो मिलियन टन की वृद्धि की जाए। मिशन का लक्ष्‍य उपर्युक्‍त फसलों के खाद्यान्‍न उत्‍पादन में वृद्धि निम्‍नलिखित उपायों से करने का है : क्षेत्र का प्रसार तथा उत्‍पादकता वृद्धि; मृदा की उर्वरता और उत्‍पादकता की बहाली; रोजगार के अवसर पैदा करना; और लक्षित जिलों के किसानों को आत्‍मवि‍श्‍वास बहाल करने के लिए खेत स्‍तर की अर्थव्‍यवस्‍था को बढाना। इसे देश के 16 राज्‍यों के 305 जिलों में कियान्वित किया जा रहा है।

एनएफएसएम की विभिन्‍न गतिविधियां हैं : उन्‍नत उत्‍पादन प्रौद्योगिकी की प्रदर्शन, उच्‍च उत्‍पादी किस्‍मों तथा संकरों के उत्तम बीजों का वितरण, नवमोचित‍ किस्‍मों को लोकप्रिय बनाना, सूक्ष्‍म पोषकों के लिए सम‍र्थन और प्रशिक्षण तथा मास मीडिया अभियान, सर्वोत्तम निष्‍पादन करने वाले जिलों के लिए पुरस्‍कारों सहित। पहचाने गए जिलों को कोई भी स्‍थानीय क्षेत्र-विशिष्‍ट नीति अपनाने की छूट दी जाती है जो जिले के कृषि विकास के लिए तैयार की गई सामरिक अनुसंधान एवं विस्‍तार योजना (एसआरईपी) में शामिल है।


किसानों के लिए राष्‍ट्रीय नीति, 2007

भारत सरकार ने राष्‍ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों को ध्‍यान में रख कर और राज्‍य सरकारों से परामर्श के बाद 'किसानों के लिए राष्‍ट्रीय नीति, 2007' अनुमोदित कर दी है। किसानों के लिए राष्‍ट्रीय नीति ने, अन्‍य बातों के साथ, खेती क्षेत्र के विकास के लिए एक संपूर्ण दृष्टिकोण की व्‍यवस्‍था की है।

इस नीति का मुख्‍य केंद्र समग्र रूप से परिभाषित 'किसान' है, न कि केवल कृषि के संदर्भ में। उस दृष्टि से यह एक कृषि नीति से बहुत अधिक व्‍यापक है। अन्‍य बातों के साथ इसका उद्देश्‍य यह है कि किसानों की निवल आय में काफी सुधार करके खेती की आर्थिक व्‍यवहार्यता को सुधारा जाए। यह कहने की जरूरत नहीं कि उपयुक्‍त कीमत नीति, जोखिम घटाने के उपायों आदि के अतिरिक्‍त उत्‍पादकता में वृद्धि, लाभकारिता, संस्‍थागत समर्थन, और भूमि, जल तथा समर्थन सेवाओं के सुधार पर जोर दिया गया है।

किसानों के लिए राष्‍ट्रीय नीति के मुख्‍य लक्ष्‍य हैं :

  • किसानों की निवल आय में काफी वृद्धि करके खेती की अ‍ार्थिक व्‍यवहार्यता में सुधार करना और यह सुनिश्चित करना कि कृषि की प्रगति इस आय में वृद्धि द्वारा मापी जाए।

  • संरक्षण में एक आर्थिक बाजी बना कर खेती की प्रमुख प्रणालियों की उत्‍पादकता, लाभकारिता तथा स्थिरता में चिरस्‍थायी वृद्धि के लिए अनिवार्य भूमि, जल, जैव-विविधता तथा आनुवंशिक संसाधनों की रक्षा और सुधार करना।

  • समर्थन सेवाएं विकसित करना जिसमें शामिल है बीजों, सिंचाई, शाक्ति, मशीनरी एवं उपकरणों, उर्वरकों और किसानों के लिए पर्याप्‍त मात्रा में उचित कीमत पर ऋण की व्‍यवस्‍था।

  • किसान परिवारों की आजीविका तथा आय सुरक्षा और राष्‍ट्र के स्‍वास्‍थ्‍य तथा व्‍यापार सुरक्षा के बनाए रखने के लिए फसलों, खेतों के पशुओं, मत्‍स्‍य तथा वन के वृ‍क्षों की जैव-सुरक्षा को सुदृढ करना।

  • किसानों की आय बढाने के लिए उपयुक्‍त कीमत और व्‍यापार नीति तंत्र उपलब्‍ध कराना।

  • किसानों की समय से और पर्याप्‍त क्षतिपूर्ति के लिए उचित जोखिम प्रबंधन उपाय उपलब्‍ध कराना।

  • भूमि सुधार में बचे हुए काम को पूरा करना और व्‍यापक संपदा एवं जलजीविय सुधार शुरू करना।

  • खेत की सभी नीतियों तथा कार्यक्रमों में मानव और लिंग आयाम को मुख्‍य धारा में लाना।

  • चिरस्‍थायी ग्रामीण आजीविकाओं पर स्‍पष्‍ट ध्‍यान देना।

  • ग्रामीण भारत में समुदाय-केंद्रित खाद्य, जल तथा ऊर्जा सुरक्षा प्रणालियों को आगे बढ़ाना और हर बच्‍चे, महिला तथा पुरूष के स्‍तर पर पोषण की सुरक्षा सुनिश्चित करना।

  • ऐसे उपायों का समावेश करना जो खेती में तथा उच्‍च मूल्‍य वर्धन के लिए खेती के उत्‍पादों के संसाधन में युवाओं को आकर्षित करने और बनाए रखने में मदद कर सकें, उसे बौद्धिक दृष्टि से प्रेरक और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बना कर।

  • भारत को जैव प्रौद्योगिकी और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के माध्‍यम से विकसित चिरस्‍थायी कृषि उत्‍पादों तथा प्रक्रमों के लिए अपेक्षित निवेशों के उत्‍पादन तथा आपूर्ति में एक वैश्चिक आउटसोर्सिंग हब बनाना।

  • कृषि पाठ्यक्रम तथा शैक्षणिक क्रियाविधियों में परिवर्तन करना ताकि खेत और गृह विज्ञान का हर स्‍नातक उद्यमी बन सके और कृषि शिक्षा को लिंग संवेदी बनाना।

  • किसानों के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली बनाना और लागू करना।

  • खेत के घरानों के लिए गैर-खेत रोजगार हेतु यथेष्‍ठ मात्रा में उपयुक्‍त अवसर उपलब्‍ध कराना।


http://business.gov.in/hindi/agriculture/policies_incentives.php




নাম পাল্টে চুক্তি চাষে সম্মতির পথে রাজ্য


জগন্নাথ চট্টোপাধ্যায় • আনন্দবাজার পত্রিকা

Sunday, 11 August 2013 09:33

পঞ্চায়েত ভোটে গ্রামবাংলার আস্থা পাওয়ার পরে লগ্নি টানতে মুম্বই গিয়ে শিল্পপতিদের বার্তা দিয়ে এসেছেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। মহাকরণের দাবি, সেই শিল্প-সম্মেলন সব অর্থেই সফল। তার রেশ ধরে রাখতে এ বার কৃষিক্ষেত্রেও বেসরকারি লগ্নির দরজা খুলে দিতে চাইছে রাজ্য সরকার। এ জন্য নতুন আইন তৈরির প্রক্রিয়াও শুরু হয়েছে। কী থাকছে সেই আইনে?

প্রস্তাবিত আইনে বলা হচ্ছে, দেশের কোনও বেসরকারি সংস্থার সঙ্গে রাজ্যের এক বা একাধিক চাষি, কৃষক সমবায় সমিতি অথবা কৃষক সমিতি যৌথ চাষের ব্যাপারে চুক্তি করতে পারবে। চুক্তি হতে পারে কোনও ফসলভিত্তিক, চাষের এলাকাভিত্তিক অথবা একটি নির্দিষ্ট সময়কাল ধরে। এই যৌথ চাষের ফলে উৎপাদিত ফসল সংশ্লিষ্ট সংস্থাকে বিক্রি করা বাধ্যতামূলক হবে।

পাশাপাশি, কৃষিপণ্য কেনাবেচার জন্য বাজার নির্মাণ করতে বেসরকারি সংস্থাকে লাইসেন্স দেবে সরকার। সেই বাজারে (প্রাইভেট মার্কেট ইয়ার্ড) ফসল কেনাবেচা করা, সংরক্ষণ করা এবং রফতানি করার অধিকার থাকবে ওই সংস্থার। এক স্থান থেকে কৃষিপণ্য অন্যত্র নিয়েও যেতে পারবে তারা।

কৃষিক্ষেত্রে এই সংস্কারের প্রস্তাব দশ বছর আগেই এসেছিল কেন্দ্রের কাছ থেকে। কৃষিতে বেসরকারি পুঁজি আনার লক্ষ্যে ২০০৩ সালে কৃষি সংস্কার কর্মসূচি চালু করে কেন্দ্র। রাজ্যগুলিকে নতুন কৃষি বিপণন আইন এনে চুক্তি চাষ চালু করতে এবং বেসরকারি কৃষি বাজার নির্মাণের লাইসেন্স দিতে বলা হয়। এই কাজ করলে বার্ষিক অনুদান দেওয়ার কথাও ঘোষণা করে কেন্দ্রে। এ রাজ্যের ক্ষেত্রে যার পরিমাণ ছিল ৪০০ কোটি টাকা।

কিন্তু তৎকালীন বামফ্রন্ট সরকার কেন্দ্রের সেই প্রস্তাব মানেনি। কারণ, ফ্রন্টের শরিক দলগুলির কৃষক সংগঠন এই বলে আপত্তি তোলে যে, এর ফলে বৃহৎ পুঁজির অনুপ্রবেশে রাজ্যের কৃষিব্যবস্থা ধ্বংস হয়ে যাবে। এর পর ২০০৬ সালে বিপুল সংখ্যাধিক্য নিয়ে ক্ষমতায় এসে কৃষিক্ষেত্রে সংস্কার করতে উদ্যোগী হন বুদ্ধদেব ভট্টাচার্য। তবে বহুজাতিক সংস্থা মেট্রো ক্যাশ অ্যান্ড ক্যারি-কে পাইকারি ব্যবসা করার লাইসেন্স দিলেও মূল কাজটি শেষ পর্যন্ত করে উঠতে পারেননি।

মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ের সরকার এখন কৃষি সংস্কারের পথে হাঁটতে চাইলেও কেন্দ্রীয় প্রস্তাবের দু'টি বিষয় মানছে না। প্রথমত, চুক্তিচাষ শব্দটিতে আপত্তি থাকায় নাম পাল্টে চাষি-সংস্থা সমঝোতাকে বলা হচ্ছে যৌথ চাষ। দ্বিতীয়ত, কেন্দ্রের পাঠানো আইনের খসড়ায় চাষি ও বেসরকারি সংস্থার মধ্যে সরাসরি চুক্তির কথা বলা হলেও রাজ্যের প্রস্তাবিত বিলে সরকারের কিছু ভূমিকা রাখা হচ্ছে। ওই বিল অনুযায়ী ওই চুক্তিতে কৃষি বিপণন দফতরের অফিসারেরাও সই করবেন। পরবর্তী কালে কোনও কারণে চুক্তি নিয়ে বিবাদ তৈরি হলে সালিশি করার এক্তিয়ার থাকবে তাঁদের। সেই সালিশিতে সন্তুষ্ট না-হলে আদালতে যাওয়ার অধিকার সব পক্ষেরই থাকছে।

মহাকরণ সূত্রে বলা হচ্ছে, চাষিদের স্বার্থ রক্ষা করার কথা ভেবেই প্রস্তাবিত আইনটি তৈরি করা হচ্ছে। কোনও বিবাদের ক্ষেত্রে গোড়াতেই যাতে আদালতে যেতে না-হয়, সে জন্য যেমন সরকারি মধ্যস্থতার সুযোগ রাখা হচ্ছে, তেমনই স্বার্থ ক্ষুণ্ণ হচ্ছে মনে হলে চাষিরা যাতে যে কোনও সময় চুক্তি ভেঙে বেরিয়ে আসতে পারেন, সেই ব্যবস্থাও থাকছে। এ প্রসঙ্গে কৃষি বিপণন মন্ত্রী অরূপ রায় বলেন, "চাষিদের স্বার্থরক্ষাই আমাদের প্রধান দায়িত্ব। যৌথ চাষ এবং বেসরকারি বাজার নির্মাণের ক্ষেত্রেও সেটা দেখা হবে।"

কিন্তু বেসরকারি সংস্থার সঙ্গে চাষি বা সমবায় সমিতির চুক্তির মাঝে সরকারে কেন থাকবে, সেই প্রশ্ন উঠছে। কেন্দ্র এমন আইনে সন্তুষ্ট হয়ে অনুদান দেবে কিনা, সেটাও প্রশ্ন। তা ছাড়া, আইন যদি শুধু চাষির স্বার্থই রক্ষা করে তা হলে বেসরকারি সংস্থাগুলি লগ্নিতে কতটা আগ্রহী হবে? এর আগে গোটা রাজ্যে ৬৫টি কিষাণ মান্ডি তৈরি করার কথা ঘোষণা করেছিলেন মুখ্যমন্ত্রী। সেই মান্ডিগুলির জন্য বেসরকারি পুঁজি আনার চেষ্টাও হয়েছিল। কিন্তু সরকারি নিয়ন্ত্রণের কারণেই যে কোনও সংস্থা ওই মান্ডির ব্যাপারে আগ্রহী হয়নি, সে কথা কবুল করছেন রাজ্যের কৃষি কর্তারাই। তবে একই সঙ্গে তাঁদের বক্তব্য, প্রস্তাবিত যৌথ চাষের ক্ষেত্রে সরকারি নিয়ন্ত্রণ অনেক কম থাকবে। প্রাইভেট মার্কেট ইয়ার্ডে তো বেসরকারি সংস্থাগুলি সরকারি হস্তক্ষেপ ছাড়াই ব্যবসা করতে পারবে।

যৌথ চাষকে স্বীকৃতি দিতে নতুন আইন আনা হবে, না চলতি 'পশ্চিমবঙ্গ কৃষি পণ্য এবং বিপণন নিয়ন্ত্রণ আইন ১৯৭২' সংশোধন করা হবে, তা নিয়ে রাজ্য প্রশাসনে মতান্তর রয়েছে। আধিকারিকদের একাংশের মতে, নতুন আইন করতে হলে বর্তমান আইনটি রাষ্ট্রপতির অনুমতি নিয়ে বাতিল করতে হবে। যা সময়সাপেক্ষ। তবে নতুন বা সংশোধন যা-ই হোক, যৌথ চাষের অনুমোদন দেওয়া হলে কেন্দ্রের কাছ থেকে ৪০০ কোটি টাকা অনুদান এবং কৃষিক্ষেত্রে কয়েক হাজার কোটি টাকা বেসরকারি লগ্নি পাওয়ার সম্ভাবনা তৈরি হবে বলে আশাবাদী কৃষি বিপণন দফতরের কর্তারা। সব কিছু ঠিক থাকলে বিধানসভার পরবর্তী অধিবেশনেই এই আইন তৈরি হয়ে যাবে বলে মহাকরণ সূত্রের খবর।

কৃষি বিশেষজ্ঞদের মতে, ফসলের উৎপাদনশীলতা থেকে সংরক্ষণ (কোল্ড চেন ব্যবস্থা), কৃষিজাত দ্রব্যের প্রক্রিয়াকরণ থেকে তা রফতানি কোনও ক্ষেত্রেই গত দু'দশকে এ রাজ্যের তেমন কোনও অগ্রগতি হয়নি। কারণ, কৃষিতে আধুনিক প্রযুক্তি ব্যবহার করা থেকে বিপণন পর্যন্ত প্রতিটি ক্ষেত্রে যে পরিমাণ বিনিয়োগ প্রয়োজন, কোনও সরকারের পক্ষে তা সম্ভব নয়। তাই বেসরকারি লগ্নির পথ খুলে দেওয়া দরকার। ১৩টি বড় রাজ্য ইতিমধ্যেই যে কাজ করে ফেলেছে।

তা ছাড়া, এই সংস্কারের সুবাদে কেন্দ্রের কাছ থেকে কৃষি বিপণনের বিকাশের জন্য অনুদান পেলে খানিকটা স্বস্তির নিঃশ্বাস ফেলতে পারবে বেহাল কোষাগার নিয়ে জেরবার রাজ্য।



कृषि

भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्रों का योगदान 2007-08 और 2008-09 के दौरान क्रमशः 17.8 और 17.1 प्रतिशत रहा। हालांकि कृषि उत्पादन मानसून पर भी निर्भर करता है, क्योंकि लगभग 55.7 प्रतिशत कृषि-क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है।

वर्ष 2008-09 के चौथे पूर्व आकलन के अनुसार खाद्यान्न का उत्पादन 238.88 करोड़ टन होने का अनुमान है। ये पिछले वर्ष की तुलना में 1 करोड़ 3.1 लाख टन अधिक है। चावल का उत्पादन 9 करोड़ 91 लाख टन होने का अनुमान है जो पिछले वर्ष की तुलना में 24 लाख टन अधिक है। गेहूं का उत्पादन 8 करोड़ 5 लाख टन होने की उम्मीद है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 20 लाख टन अधिक है। इसी तरह मोटे अनाज का उत्पादन 3 करोड़ 94 लाख टन होने की उम्मीद है, एवं दलहन का उत्पादन एक करोड़ 46 लाख टन से अधिक होने का अनुमान है जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 0.99 लाख टन अधिक है। गन्ने का उत्पादन 2712.54 लाख टन होने की उम्मीद है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 769.34 लाख टन कम है। कपास का उत्पादन 231.56 लाख गांठें अनुमानित है (प्रत्येक गांठ का वजन 170 किलोग्राम) जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 27.28 लाख गांठें अधिक है। 2008-09 के दौरान जूट एवं मेस्टा की पैदावार 104.07 लाख गांठें (प्रत्येक गांठ का वजन 180 किलोग्राम) होने का अनुमान है, जो वर्ष 2007-08 की तुलना में 8.04 लाख गांठ कम है।

वर्ष 2008-09 के दौरान खाद्यान्नों का फसल क्षेत्र एक करोड़ 23 लाख हेक्टेयर रखा गया है, जबकि पिछले वर्ष यह क्षेत्र 1.24 करोड़ हेक्टेयर था। चावल का फसल क्षेत्र 453.52 लाख हेक्टेयर रखा गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 14.37 लाख हेक्टेयर अधिक है। गेहूं का फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 278.77 लाख हेक्टेयर अनुमानित है, जो वर्ष 2007-08 के गेहूं के फसल क्षेत्र से 1.62 लाख हेक्टेयर कम है। मोटे अनाज का फसल क्षेत्र वर्ष 2008-09 में 276.17 लाख हेक्टेयर अनुमानित है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 8.64 लाख हेक्टेयर कम है।

अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 2008-09 में 2007-08 के मुकाबले बढ़ोतरी 8 प्रतिशत (गेहूं) से लेकर 52.6 प्रतिशत (रागी) तक हुई। साधारण धान के मामले बढ़ोतरी 31.8 प्रतिशत, दालों में 8.1 प्रतिशत (चना) और उड़द तथा मूंग में 42.8 प्रतिशत रही।

विषय सूची

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प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन[सम्पादन]

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और वर्षा सिंचित खेती प्रणाली के कार्यक्रम और योजनाएं[सम्पादन]

भूमि पौधों और अन्य जीवों के लिए जल और अन्य पोषक तत्त्वों के भंडार के रूप में कार्य करती है। खाद्य, ऊर्जा और अन्य मानवीय आवश्यकताओं की मांग भूमि की उत्पादकता के संरक्षण और सुधार पर निर्भर करती है। भारत की जनसंख्या विश्व की 18' और पशुओं की 15' है, जिसके लिए भौगोलिक

क्षेत्र का 2' और 1.5' वन तथा चरागाह है। मानव और पशुओं की जनसंख्या में पिछले दशकों में हुई वृद्धि से प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता कम हुई है। प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1951 के 0.89 हेक्टेयर के मुकाबले 1991 में 0.37 हेक्टेयर हो गई और यह 2035 में 0.20 हेक्टेयर हो जाएगी। जहां तक कृषि भूमि का सवाल है, वह 1951 के 0.48 हेक्टेयर के मुकाबले 1991 में 0.16 हेक्टेयर हो गई और इसके 2035 तक गिरकर 0.08 हेक्टेयर हो जाने की संभावना है। प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता जनसंख्या वृद्धि के कारण कम हो रही है।

भारत के कुल 32 करोड़ 87 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र का 14 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य है। इसका 5.7 करोड़ हेक्टेयर (40') सिंचित और 8.5 करोड़ हेक्टेयर (60') वर्षा सिंचित है। यह क्षेत्र वायु और जलीय क्षरण और सघन कृषि उत्पादन के कारण क्षरण के विभिन्न चरणों पर निर्भर करता है। इसलिए अधिकतम उत्पादन प्रति इकाई भूमि और प्रति इकाई जल से सुधार की जरूरत है। वर्षा आधारित कृषि में उत्पादकता और लागत दोनों कम होती है। फसल उत्पादन साल दर साल वर्षा में अस्थायित्व पर निर्भर करता है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में 20 करोड़ से अधिक ग्रामीण गरीब रहते हैं।

जोखिम भरे क्षेत्रों में व्यापक बदलाव और पैदावार में अस्थिरता दिखाई देती है। देश में भूमि क्षरण का आकलन विभिन्न एजेंसियों ने किया है। क्षरित भूमि की पहचान और उनके अंकन में अलग तरीके अपनाने से इन एजेंसियों के अनुमानों में व्यापक अंतर है जो 6.39 करोड़ हेक्टेयर से 18.7 करोड़ हेक्टेयर तक है। भूमि क्षरण का आकलन मुख्य रूप से राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976), बंजर भूमि विकास संवर्धन सोसायटी (1984), राष्ट्रीय दर संवेदी एजेंसी (1985), कृषि मंत्रालय (1985) और राष्ट्रीय भूमि सर्वे और भूमि उपयोग ब्यूरो (1984 तथा 2005) ने किया। देश भर में भूमि क्षरण के कई रूप हैं। व्यापक और आवधिक वैज्ञानिक सर्वे न होने के कारण अनुमान स्थानीय सर्वेक्षणों और अध्ययनों पर आधारित हैं। वर्ष 2005 में आईसीएआर के नागपुर स्थित राष्ट्रीय भूमि सर्वे और भूमि उपयोग ने प्रकाशित किया है कि 14.68 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र विभिन्न प्रकार के भूमि क्षरण से प्रभावित है। इसमें 9.36 करोड़ हेक्टेयर जलीय क्षरण, 94.8 लाख हेक्टेयर वायु क्षरण, 1.43 करोड़ हेक्टेयर जल क्षरण। बाढ़, 59.4 लाख हेक्टेयर खारापन। क्षारीय, 1.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि अम्लता और 73.8 लाख हेक्टेयर जटिल समस्या शामिल है।

भूमि विकास के लिए जलसंभरण कार्यक्रम[सम्पादन]

विभिन्न जल संभरण विकास कार्यक्रम, यथा (i) वर्षासिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभरण विकास परियोजना (एनडब्लूडीपीआरए) (ii) नदी घाटी परियोजना और बाढ़ प्रवृत नदी के जलग्रहण क्षेत्र में भूमि संरक्षण (आरवीवी और पीपी आर) (iii) क्षारीय और अम्लीय भूमि की पुनर्प्राप्ति और विकास (आरएडीएएस) (i1) झूम खेती क्षेत्रों में जलसंभरण विकास परियोजना (डब्लूडीपीएससीए) का कार्यान्वयन हो रहा है।

जलसंभरण विकास योजनाएं/कार्यक्रम — प्रभागवार और कार्यक्रमानुसार विवरण निम्नलिखित हैं—

एनआरएम की योजनाएं और कार्यक्रम[सम्पादन]

देश में भूमि-क्षरण को रोकने और क्षरित भूमि की उत्पादन क्षमता बहाल करने के उद्देश्य से प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन केंद्र प्रायोजित तीन कार्यक्रमों और केंद्रीय क्षेत्र की तीन योजनाओं का क्रियान्वयन कर रहा है। योजनावार कार्यक्रम/योजनाओं की विशिष्ट बातें हैं —

केंद्रीय/क्षेत्र योजना (योजना और गैर योजना) एसएलयूएसआई — केंद्रीय क्षेत्र की योजना भारतीय भूमि एवं भूमि उपयोग सर्वे जलग्रहण। जलसंभरण के भूमि का सर्वे करता है। संगठन जिलावार भूमि क्षरण नक्शा तैयार करने में भी लगा है। इसके 2009- 10 के प्रस्तावित लक्ष्य इस प्रकार हैं —

(अ) त्वरित गहन सर्वेक्षण (आरआरएएन)- 156.00 लाख हेक्टेयर

(ब) विस्तृत भूमि सर्वेक्षण (डीएसएस)- 1.60 लाख हेक्टेयर

(स) क्षरित भूमि का मानचित्र (एलडीएम)- 0.10 लाख हेक्टेयर

(द) भूमि संसाधन मानचित्र (एसआरएम)- 161.00 लाख हेक्टेयर

लक्ष्य पूर्ति के लिए योजना के तहत 14 करोड़ रूपए और गैर योजना के लिए 2.32 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है।

एससीटीसी-डीवीसी (गैर योजना) — राज्य सरकारों के तहत भूमि और जल संरक्षण के लिए कार्य करने वाले अधिकारियों के प्रशिक्षण क्षमता निर्माण के लिए हजारीबाग स्थित दामोदर घाटी निगम में भूमि संरक्षण प्रशिक्षण केंद्र को वित्तीय सहायता प्रदान कर गैर योजना स्कीम के रूप में क्रियान्वित किया जा रहा है। वर्ष 2009-10 में विभिन्न अल्प और मध्यकालिक पाठ्यक्रमों के लिए 0.45 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं।

डब्लूडीपीएससीए (योजना) — पूर्वोत्तर के राज्यों में राज्य योजना को 100' विशेष केंद्रीय सहायता से झूम खेती वाले क्षेत्रों में जलविभाजक विकास परियोजना लागू की जा रही। इस योजना के तहत दसवीं योजना में 3.03 हेक्टेयर क्षेत्र में कार्य हो चुका है। 2009-10 में लगभग 0.40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र इसके तहत लाया जाएगा, जिस पर लगभग 40 करोड़ रूपए व्यय होंगे। केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम (योजना-एमएमए के तहत शामिल) आरवीपी और पीपीआर — नदी घाटी जल ग्रहण एवं बाढ़ोन्मुख नदी क्षेत्र में भूमि संरक्षण के तहत शुरू से दसवीं योजना तक 65.27 लाख हेक्टेयर का उपचार किया गया। 2009-10 में 290 करोड़ रूपए की लागत से 2.80 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा गया है।

आरएडीएएस — क्षारीय और अम्लीय भूमि सुधार और विकास कार्यक्रम क्षारीय भूमि वाले राज्यों में लागू किया जा रहा है। शुरू से दसवीं योजना तक 0.59 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य बनाया गया। 2009-10 में 14 करोड़ रूपए की लागत से 0.25 हेक्टेयर को कृषि योग्य बनाए जाने का लक्ष्य है। क्षरित भूमि के विकास के लिए आरएफएस प्रखंड की योजनाएं/कार्यक्रम आरएफएस डिवीजन वर्षा सिंचित क्षेत्रों सहित क्षरित भूमि के विकास के लिए कुछ कार्यक्रम चला रहा है। प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार हैं —

(अ) वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभरण विकास परियोजना-(एनडब्लूडीपीआरए) वर्ष 1991-92 में 28 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए एक राष्ट्रीय जलसंभर विकास परियोजना एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन और सतत् कृषि प्रणाली की अवधारणा के साथ लागू की गई। शुरू से दसवीं योजना के अंत तक कार्यक्रम के तहत 94.02 लाख हेक्टेयर भूमि विकसित की गई है। लघु जलसंभरण सहित 30 लाख हेक्टेयर विकसित करने का प्रस्ताव है। 2009-10 में 300 करोड़ रूपए की अनुमानित लागत से 2.80 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा गया है।

(ब) राष्ट्रीय वर्षा सिंचित प्राधिकरण (एनआरएए)-देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों की समस्या पर ध्यान देने के लिए केंद्र सरकार ने 3 नवंबर, 2006 को राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण का गठन किया है। प्राधिकरण सलाह, नीति निर्धारण और निगरानी के साथ वर्तमान परियोजनाओं में दिशानिर्देशों की जांच के अलावा क्षेत्र में बाहरी सहायता से चलने वाली परियोजनाओं सहित नई परियोजनाएं तैयार करता है। इसका अधिकतर क्षेत्र केवल जल संरक्षण ही नहीं, बल्कि उचित कृषि और जीविका प्रणाली सहित वर्षा सिंचित क्षेत्रों का सतत और समग्र विकास है। यह भूमिहीनों और सीमांत किसानों के मुद्दों पर भी ध्यान देगा क्योंकि वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उनकी संख्या अधिक है।

प्राधिकरण का ढांचा द्विस्तरीय है। पहला शासी निकाय है, जो कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए उचित नेतृत्व और समन्वय का कार्य करता है। केंद्रीय कृषि मंत्री इसके अध्यक्ष और केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सह-अध्यक्ष हैं। दूसरी कार्यकारी समिति है जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ और संबद्ध मंत्रालयों के प्रतिनिधि हैं। कार्यकारी समिति में एक प्रमुख मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है, उसमें पांच पूर्णकालिक तकनीकी विशेषज्ञ भी हैं। प्राधिकरण 14 मई, 2007 से कार्य करने लगा है। प्राधिकरण में पांच में से चार तकनीकी विशेषज्ञ अतिरिक्त सचिव स्तर के हैं। कृषि/बागवानी क्षेत्र के विशेषज्ञों की नियुक्ति की प्रक्रिया जारी है। प्राधिकरण ने जलसंभरण विकास परियोजना के साझा दिशा-निर्देश तैयार किए और शासी निकाय की स्वीकृति के बाद उन्हें तदनुसार क्रियान्वयन के लिए सभी राज्यों को जारी कर दिया गया है।

(स) वर्षा सिंचित क्षेत्र विकास कार्यक्रम (आएडीपी)-केंद्रीय वित्त मंत्री ने 2007-08 में वर्षा सिंचित क्षेत्र विकास कार्यक्रम की घोषणा की थी। योजना आयोग ने केंद्र प्रायोजित इस योजना के क्रियान्वयन के लिए ग्यारहवीं योजना में 3500 करोड़ रूपए की लागत से लागू करने की सिद्धांतरूप से सहमति प्रदान कर दी है। इसके अलावा उसने एनआरएए के लिए 170 करोड़ रूपए और 20 मार्च, 2008 को जारी किए गए। योजना आयोग और विभिन्न मंत्रालयों/विभागों/प्रखंडों की टिप्पणियों पर आधारित संशोधित 3330 करोड़ रूपए के आवंटन के आधार पर नोट वित्त मंत्रालय और योजना आयोग को भेजे जा चुके हैं। कार्यक्रम के तहत ग्यारहवीं योजना में 30 लाख हेक्टेयर वर्षा सिंचित क्षेत्र शामिल किए जाने की उम्मीद है।

प्रचालन दिशा-निर्देशों का निरूपण और वितरण

राष्ट्रीय वर्षा सिंचित प्राधिकरण ने देश जलसंभरण विकास परियोजनाओं को लागू करने के लिए दिशा - निर्देश जारी किए हैं। निर्देशों के अनुसार एनडब्लूडीपीआरए, आरवीपी एवं पीपीएम तथा आएडीएस कार्यक्रमों के बारे में राज्यों को परिचालन संबंधी दिशा-निर्देश दिए गए हैं। झूम खेती क्षेत्र के बारे जलसंभरण विकास कार्यक्रम के लिए भी दिशा-निर्देश राज्य सरकारों को भेजे जा चुके हैं।

वृहद् कृषि-प्रबंधन[सम्पादन]

कृषि राज्य का विषय होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने, पैदावार बढ़ाने और इस क्षेत्र के अप्रयुक्त क्षमता का इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। यद्यपि राज्य सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के उद्देश्य से केंद्र द्वारा पोषित कई योजनाएं भी लागू की गई हैं जिससे देश के कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की जा सके और किसानों के जीवन में समृद्धि लाई जा सके।

वृहद् कृषि प्रबंधन केंद्र सरकार द्वारा पोषित एक योजना है जिसका उद्देश्य है विभिन्न राज्यों में कृषि के विकास के लिए विशेष रूप से बल दिया जाए और इस योजना पर खर्च होने वाली केंद्रीय सहायता का सही दिशा में उपयोग हो सके। यह योजना 2000-01 से सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू की जा चुकी है। इस योजना में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर कार्यक्रमों को लागू करने और कृषि विकास के लिए राज्य सरकारों को पर्याप्त छूट दी गई है। फलस्वरूप राज्यों ने अपनी विकासात्मक प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर क्षेत्रवार विकास के लिए खुलकर योजना को लागू किया है। कृषि विकास योजना में यह योजना राज्यों के स्तर पर निर्णय लेने की दिशा में विकेंद्रीकरण की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है जिसका उद्देश्य राज्य सरकारों द्वारा तैयार किए गए कार्यक्रमों के जरिए कृषि में तेजी से विकास करना है।

कृषि उत्पादन और उत्पादकता की बढ़ोतरी की दिशा में राज्यों की कार्यक्षमता में सुधार हेतु 2008-09 में वृहद कृषि प्रबंधन योजना संशोधित की गई है। अतिव्याप्ति और दोहराव रोकने के लिए योजना की भूमिका को फिर से तय किया गया है ताकि खाद्य सुरक्षा के बुनियादी उद्देश्यों तथा ग्रामीण जनता के जीवन स्तर को आज के कृषि परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक बनाया जा सके। संशोधित योजना की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं— (i) ऐतिहासिक आधार पर राज्यों केंशाप्र को आबंटित फंड प्रक्रिया को बदलकर इसकी जगह सकल क्षेत्र तथा लघु एवं सीमांत जोतों पर आधारित आबंटन मानदंड अपनाया गया है। राज्यों/केंशाप्र को सहायता शतप्रतिशत अनुदान के रूप में मुहैया कराई जाएगी; (ii) कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा संचालित सभी योजनाओं के तहत सब्सिडी नमूने को एक जैसा बनाने के लिए सब्सिडी ढांचे को युक्तिसंगत बनाया गया है। संशोधित सब्सिडी शर्तें अधिकतम सहायता की अनुमति देती हैं; (iii) मौजूदा "क्षारीय भूमि पुनरूद्धार" हिस्से सहित दो नए हिस्से शामिल किए गए हैं- (क) तिलहन, दलहन, पाम आयल तथा मक्का एकीकृत योजना के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए दाल और तिलहन फसल उत्पादन कार्यकम तथा (ख) अम्लीय भूमि पुनरूद्धार कार्यक्रम; (i1) नई पहल के लिए अनुमोदित सीलिंग को आबंटन के 10 प्रतिशत से 20 प्रतिशत किया गया है; (1) फंड का कम से कम 33 प्रतिशत लघु, सीमांत तथा महिला किसानों के लिए रखा गया है तथा (1i) संशोधित एमएमए योजना के क्रियान्वयन की सुनिश्चितता के लिए पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए जिसमें जिला/उपजिला स्तर पर योजना की समीक्षा, निगरानी और मूल्यांकन शामिल है।

कृषि यंत्रीकरण[सम्पादन]

किसानों के पुराने और बेकार हो चुके औजारों तथा मशीनों को हटाकर उनके स्थान पर नए आधुनिक यंत्र उपलब्ध कराने के नीतिगत कार्यक्रम अपनाए गए हैं। इसके अंतर्गत उन्हें ट्रैक्टर, पावर ट्रिलर, हारवेस्टर व अन्य मशीनें और सीमा शुल्क सेवा, मानव संसाधन विकास के लिए सहयोगी सेवाएं तथा परीक्षण, मूल्यांकन, अनुसंधान विकास आदि सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। कृषि यंत्रों के उत्पादन के लिए एक बुनियादी औद्योगिक ढांचा विकसित किया जा चुका है। विस्तार और प्रदर्शन के जरिए तकनीकी दृष्टि से आधुनिक उपकरण अपनाए गए हैं और संस्थागत ऋण की व्यवस्था की गई है। किसानों ने संसाधनों के संरक्षण के लिए भी उपकरणों को अपनाया है।

सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न योजनाओं, जैसे-खेती के लिए जल-व्यवस्था पर वृहद् कृषि प्रबंधन, तिलहन और दलहन के लिए प्रौद्योगिकी मिशन, बागवानी पर प्रौद्योगिकी मिशन और कपास के प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत किसानों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है, ताकि वे अपने लिए कृषि संबंधी औजार और मशीनें खरीद सकें।

कृषि मशीनरी के बारे में प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान[सम्पादन]

खेती की मशीनों से संबंधित प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थानों (एफएमटी ऐंड टीआई) की स्थापना मध्य प्रदेश के बुदनी, हरियाणा के हिसार, आंध्र प्रदेश के गार्लादिने और असम के विश्वनाथ चेरियाली में की गई है। यहां प्रतिवर्ष करीब 5,600 लोगों को कृषि मशीनीकरण के विभिन्न पहलुओं के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है। इन संस्थानों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार ट्रेक्टर सहित अन्य कृषि मशीनों का परीक्षण तथा कार्यदक्षता का मूल्यांकन भी किया जाता है। शुरू से 1,10,712 लोगों को प्रशिक्षित किया जा चुका है और 31 मार्च, 2009 तक 2,584 मशीनों का परीक्षण हो चुका है। इन संस्थाओं ने 2008-09 के दौरान 5,894 लोगों को प्रशिक्षित और 163 मशीनों का परीक्षण किया।

नवविकसित कृषि/बागवानी उपकरणों का प्रदर्शन[सम्पादन]

कृषि-उत्पादन प्रणाली में नई प्रौद्योगिकी प्रारंभ करने के उद्देश्य से नए विकसित/उन्नत कृषि एवं बागवानी उपकरणों के प्रदर्शन की एक योजना में मंजूर की गई थी। इसे अब केंद्रीय क्षेत्र की पुनर्गठित योजना प्रशिक्षण, परीक्षण और प्रदर्शन के जरिए कृषि यंत्रीकरण को प्रोत्साहन एवं सुदृढ़ीकरण का एक घटक बना दिया गया है। इस घटक के अंतर्गत कार्यान्वयन एजेंसियों को नए/उन्नत उपकरणों की खरीद और प्रदर्शन के लिए शत-प्रतिशत सहायता-अनुदान दिया जाता है। इस योजना को राज्य/केंद्रीय सरकार के संगठनों के माध्यम से लागू किया जा रहा है। इस घटक से किसानों को नए कृषि/बागवानी उपकरणों को अपनाने के लिए प्रेरित करने में मदद मिली है। योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए सहायता के लिए प्राप्त प्रस्तावों के आधार पर (आईसीएआर एवं एसपीसीआई) दो संगठनों को राशि जारी की जाती है। वर्ष 2008-09 नए उपकरणों के 11,214 प्रदर्शन किए गए, जिससे 1,52,364 किसानों को लाभ पहुंचा।

प्रशिक्षण की आउटसोर्सिंग (बाहरी संस्थानों में प्रशिक्षण)[सम्पादन]

यह दसवीं पंचवर्षीय योजना में केंद्रीय क्षेत्र की योजना "प्रशिक्षण, परीक्षण और प्रदर्शन के जरिए कृषि मशीनरी का उन्नयन और सुदृढ़ीकरण" के अंतर्गत स्वीकृत घटक है। इसके अंतर्गत बड़ी संख्या में

किसानों को निकटवर्ती स्थानों पर प्रशिक्षण दिया जाता है। यह 2004-05 से प्रभावी है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन प्रत्येक राज्य के चुनिंदा संस्थानों के जरिए किया जाता है। इनमें राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि इंजीनियरी कालेज/पॉलिटेक्निक्स आदि शामिल हैं। विभिन्न संस्थानों में प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने के लिए 2008-09 में 27.20 लाख रूपए जारी किए गए।

फसलोपरांत प्रौद्योगिकी और प्रबंधन[सम्पादन]

कृषि मंत्रालय कृषि बाजारों के सुधार और फसलोपरांत प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दे रहा है। तदनुसार विभाग 11वीं योजना में मार्च, 2008 से फसलोपरांत प्रौद्योगिकी प्रबंधन योजना 40 करोड़ रूपए की लागत से क्रियान्वित कर रहा है। योजना के तहत सीएसआईआर और देश तथा विदेश की चिन्हित संस्थाओं द्वारा विकसित प्रौद्योगिकी पर बल दिया जाता है, जो अनाज, दाल, तिलहन, गन्ना, सब्जियों और फलों और फसल उप-उत्पाद के प्रारंभिक प्रसंस्करण मूल्य संवर्धन और कम लागत वाली वैज्ञानिक भंडारण प्रबंधन में काम आती हैं। इस योजना के तहत सरकारी सहायता से फसलोपरांत उपकरणों के वितरण, प्रदर्शन आयोजन और फसलोपरांत प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के लिए वर्ष के दौरान 478 करोड़ रूपए जारी किए गए हैं।

राज्य कृषि उद्योग निगम[सम्पादन]

केंद्र सरकार और संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त क्षेत्र की कंपनियों के रूप में 17 राज्य कृषि उद्योग निगमों की स्थापना की गई है। इन निगमों का उद्देश्य कृषि मशीनों का निर्माण और वितरण, कृषि निवेशों का वितरण, कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना और संचालन को प्रोत्साहन तथा किसानों और अन्य लोगों को तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध कराना तथा परामर्श देना है। 1965 से 1970 के बीच आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में इनकी स्थापना हुई। कई राज्य सरकारों ने अपनी पूंजी बढ़ा दी है। छह राज्य कृषि उद्योग निगमों- उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात और पश्चिम बंगाल में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी नहीं रही है। केंद्र सरकार ने इन राज्य सरकारों के पक्ष में अपने शेयरों का विनिवेश कर दिया है।

विधायी ढांचा

खतरनाक मशीन (नियमन) अधिनियम, (1983) 14 सितंबर, 1983 से प्रभावी हुआ। इस अधिनियम में खतरनाक मशीनें बनाने वाले किसी उद्योग के व्यापार, वाणिज्य और उत्पादन, तथा उत्पादों की आपूर्ति एवं उपयोग के नियमन का प्रावधान है, ताकि ऐसी मशीनें चलाने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इसमें ऐसी मशीनों के संचालन के समय होने वाली दुर्घटना में मृत्यु या शारीरिक अपंगता की स्थिति में मुआवजे के भुगतान-संबंधी प्रावधान भी किए गए हैं। फसलों की गहाई (थ्रेशिंग) में प्रयुक्त पावर थ्रेशरों को इस अधिनियम की परिधि में लाया गया है। केंद्रीय सरकार ने खतरनाक मशीन (नियमन) अधिनियम, 1985 को अधिसूचित कर पावर थ्रेशर लगाने आदि के बारे में विशेष निर्देश दिए हैं। पावर थ्रेशर के अतिरिक्त चैफ-कटर और गन्ने के कोल्हू को भी इस अधिनियम के दायरे में लाने का प्रस्ताव है।

पौध-संरक्षण[सम्पादन]

फसल-उत्पादन के लक्ष्य हासिल करने में पौध-संरक्षण की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। पौध संरक्षण के महत्वपूर्ण घटकों में समन्वित कीट प्रबंधन को प्रोत्साहन, फसल पैदावार को कीटों और बीमारियों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए सुरक्षित और गुणवत्तायुक्त कीटनाशकों की उपलब्धता सुनिश्चित करना, ज्यादा पैदावार देने वाली नई फसल प्रजातियों को तेजी से अपनाए जाने के लिए संगरोधन (क्वारन्टीन) उपायों को सुचारू बनाना शामिल है। इसके अंतर्गत बाहरी कीटों के प्रवेश की गुंजाइश समाप्त करना और पौध-संरक्षण कौशल में महिलाओं को अधिकारिता प्रदान करने सहित मानव संसाधन विकास पर भी ध्यान दिया जाता है।

बागवानी[सम्पादन]

पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बागवानी के एकीकृत विकास के लिए प्रौद्योगिकी मिशन

सिक्किम सहित पूर्वोत्तर राज्यों में बागवानी की फसलों के एकीकृत विकास के लिए प्रौद्योगिकी मिशन पर केंद्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम इस वर्ष के दौरान जारी रहा। इस योजना को जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में भी लागू किया गया है। इस योजना का उद्देश्य उत्पादन, फसल के बाद और खपत की कड़ी को जोड़ने के लिए पर्याप्त, समुचित और समय रहते ध्यान देने वाले उपाय करना है जिससे सपाट और उर्घ्वस्थ सिंचाई के माध्यम से सरकार द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों को सुचारू रूप से चलाया जा सके। लघु किसान कृषि व्यापार संगठन (एसएफएसी) योजना के समन्वय में शामिल है।

प्रौद्योगिकी मिशन बागवानी विकास के सभी पहलुओं से संबंधित अपने चार/लघु मिशनों के माध्यम से एक सिरे से दूसरे सिरे तक विचार करता है। लघु मिशन-I में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा अनुसंधान का समन्वयन और कार्यान्वयन शामिल है। लघु मिशन-II में कृषि विभाग द्वारा समन्वित उत्पादन और उत्पादक गतिविधियों में सुधार लाना और राज्य के कृषि/बागवानी विभागों द्वारा उन्हें लागू करना शामिल है। लघु मिशन-III में राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा फसल के बाद के प्रबंधन विपणन और निर्यात में समन्वय रखा जाता है और लघु मिशन-IV में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा प्रसंस्करण उद्योग में समन्वयन और कार्यान्वयन किया जाता है। राज्य स्तरीय लघु किसान कृषि व्यापार संगठनों को निचले स्तर पर कार्यक्रमों के कार्यान्वयन और उन्हें लागू करने वाले अधिकतर राज्यों का निरीक्षण के लिए गठित किया गया है। प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत वार्षिक कार्य योजनाओं/प्रस्तावों के आधार पर राज्यों को फंड उपलब्ध कराए जाते हैं जो संबंधित राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में राज्य स्तरीय संचालन समिति द्वारा स्वीकृत की जाती है।

प्रमुख उपलब्धियां

विभिन्न बागवानी फसलों के अंतर्गत 2008-09 तक बहुत प्रगति की गई है। पूर्वोत्तर तथा हिमालय क्षेत्र से 494343 हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को इसमें शामिल किया गया है। इनमें फल 303667 हेक्टेयर, सब्जी 77882 हेक्टेयर, मसाले 61985 हेक्टेयर, पौध फसलें 10443 हेक्टेयर, औषधि 6079 हेक्टेयर, सुगंधित पौधे 8640 हेक्टेयर, कंद मूल 1540 हेक्टेयर, फूल 24042 हेक्टेयर शामिल हैं। इसके अलावा 47 थोक बाजार, 262 ग्रामीण प्राथमिक बाजार, 64 अपनी मंडियां, 18 ग्रेडिंग प्रयोगशालाएं, 31 रîाुमार्ग और 49 प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित की गईं। बेहतर उत्पादन के लिए मूलभूत सुविधाएं 935 नर्सरियां, 10032 सामुदायिक जल टैंक, 11106 ट्यूबवेल, 26 ऊतक विकास इकाइयां, ग्रीन हाउस 2496025 वर्ग मीटर, 25 आधुनिक पुष्पोत्पादन केंद्र, 25 खुंब ईकाइयां, 15785 कंपोस्ट ईकाइयां, 164960 किसानों/प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण, 67329 महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया। परंपरागत फसलों में बेहतर उत्पादन

प्रौद्योगिकी के अलावा नींबू, केला, अनन्नास, किवी, सेब, गुलाब, आर्किड, टमाटर, तरह-तरह की मिर्चों के व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा दिया।

वर्ष 2007-08 में 323.40 करोड़ रूपए के बजट आवंटन में 321.76 करोड़ रूपए से 127850 हेक्टेयर क्षेत्र बागवानी फसलों के अंतर्गत लाया गया (फल 82494, सब्जी 16306, मसाले 11692, पौध फसलें 2125, औषधीय और सुगंधित पौधे-3760 हेक्टेयर आदि)। फसलों का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए ढांचागत सुविधाएं प्रदान की गईं। इनमें 165 नर्सरियां, 1877 सामुदायिक जल टैंक, 3068 ट्यूबवेल, 350953 वर्ग मीटर ग्रीन हाउस, 1766 कंपोस्ट ईकाइयां, 37524 किसानों, 18325 महिलाओं को प्रशिक्षण के अलावा बाजार और प्रसंस्करण ईकाइयों की स्थापना की गई जो परियोजना आधारित थी। पिछले वित्तीय वर्ष 2008-09 में विभिन्न बागवानी फसलों के अंतर्गत 148071 हेक्टेयर क्षेत्र लाया गया (फल 104064, सब्जी 20333, मसाले 12, पौध फसलें 1902, औषधीय और सुगंधित पौधे 3429 हेक्टेयर आदि)। फसलों का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए 59 नर्सरियां, 838 सामुदायिक प्रति टैंक, 2088 ट्यूब वेल, 317049 वर्ग मीटर ग्रीन हाउस, 12 आधुनिक पुष्पोत्पादन केंद्र, खुंब इकाई-एक, 2851 कंपोस्ट ईकाइयां, 27752 किसानों/प्रशिक्षकों, 14083 महिलाओं को प्रशिक्षण के अलावा बाजार और प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित की गईं।

वित्तीय स्थिति

वर्ष 2001-02 से 2008-09 तक मिशन के तहत 1538.60 करोड़ रूपए जारी किए गए जिसमें से 1122.37 करोड़ रूपए पूर्वोत्तर के तथा 415.63 करोड़ रूपए हिमालय क्षेत्र के राज्यों के लिए दिए गए। चालू वित्तीय वर्ष 2009-10 में 349 करोड़ रूपए में से 280 करोड़ रूपए पूर्वोत्तर के तथा 69 करोड़ रूपए हिमालय क्षेत्र के राज्यों के लिए हैं। ग्यारहवीं योजना के लिए आवंटित राशि 1500 करोड़ रूपए है लेकिन पूर्वोत्तर और हिमालय क्षेत्र के राज्यों की आवश्यकता पूरी करने के लिए इसको 2500 करोड़ रूपए की दर कम है।

इस योजना के अंतर्गत, महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराते हुए आत्मनिर्भर बनाना भी शामिल है ताकि महिलाएं भी मौजूदा कृषि प्रणाली से होने वाले लाभों को प्राप्त कर सकें। स्व-सहायता समूह बनाने के लिए महिला संगठनों को पर्याप्त संगठनात्मक, तकनीकी प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना। मिशन के तहत बागवानी के विभिन्न पहलुओं में 2007-08 में 51262 महिला उद्यमियों को और 2008-09 में अब तक 4037 को प्रशिक्षित किया गया है। केंद्रीय बागवानी संस्थान, मेजिफेमा, नगालैंड

पूर्वोत्तर क्षेत्र में बागवानी विकास की महत्ता को समझते हुए केंद्र सरकार ने नगालैंड में केंद्रीय बागवानी संस्थान की स्थापना को जनवरी, 2008 में मंजूरी दी जिसे पांच वर्ष में 20 करोड़ रूपए दिए जाएंगे। 10वीं योजना के लिए 8.35 करोड़ रूपए रखे गए हैं। संस्थान की स्थापना मेजिफेमा में 43.50 हेक्टेयर क्षेत्र में की जा रही है।

राष्ट्रीय बांस मिशन[सम्पादन]

देश में बांस की पैदावार बढ़ाने के लिए कृषि मंत्रालय का कृषि एवं सहकारिता विभाग देश के 27 राज्यों में राष्ट्रीय बांस मिशन का क्रियान्वयन कर रहा है। योजना के लिए वर्ष 2006-07 से 2010-11 के लिए 568.23 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं।

मिशन का उद्देश्य[सम्पादन]

बांस क्षेत्र का क्षेत्रीय विशिष्टता के आधार पर प्रोत्साहन। क्षमता वाले, क्षेत्रों में बेहतर किस्म के बांस लगाने को बढ़ावा देकर क्षेत्र का विस्तार।

बांस और बांस आधारित हस्तशिल्प के विपणन को प्रोत्साहन के विकास के लिए संबद्ध भागीदारों में सहयोग बढ़ाना।

परंपरागत और आधुनिक वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का विकास एवं प्रसार। कुशल और अकुशल लोगों के लिए, खासकर बेरोजगार युवाओं के लिए, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।

वित्तीय समीक्षा

वर्ष 2006-07 में 15 राज्यों के लिए 7570.60 लाख रूपए जारी किए गए। वर्ष 2007-08 में अनुसंधान एवं विकास के लिए 359.80 लाख रूपए सहित 11439.62 लाख रूपए दिए गए। वित्तीय वर्ष 2008-09 में अनुसंधान एवं विकास संस्थानों के लिए 123.74 लाख रूपए सहित विभिन्न राज्यों/क्रियान्वयन संस्थानों को 8466.60 लाख रूपए जारी किए गए।

चालू वित्तीय वर्ष में 7000 लाख रूपए का बजट प्रावधान है। इसमें से अभी तक 775.30 लाख रूपए छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, मिजोरम और नगालैंड को दिए जा चुके हैं।

उपलब्धियां

वन और गैर-वन क्षेत्रों का 1,00,456 हेक्टेयर बांसबागान के तहत लाया गया है। वर्तमान बांसबागान के 28043 हेक्टेयर क्षेत्र का उपचार बांस उत्पादकता बढ़ाने के लिए किया गया। अच्छे किस्म के पौध उपलब्ध कराने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में 996 बांस नर्सरियां स्थापित की गईं। बांस बागान के वैज्ञानिक प्रबंधन के लिए 2006-07 से 2008-09 तक 29290 किसानों और 3653 कर्मियों को प्रशिक्षण दिया गया। इसके विस्तार और आम जागरूकता पैदा करने के लिए 28 राज्य और 332 जिला स्तरीय कार्यशालाओं का आयोजन किया गया। बांस और बांस उत्पादनों की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए बांस के थोक खुदरा बाजारों की स्थापना की गई।

बीज[सम्पादन]

कृषि उत्पादन तथा विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में पैदावार बढ़ाने के लिए बीज एक महत्वपूर्ण और बुनियादी आधार है। मोटे तौर पर भारतीय बीज कार्यक्रम बीजों के बहुगुणन के लिए सीमित जनन प्रणाली अपनाता है। इस प्रणाली में बीज की तीन पीढ़ियों-प्रजनक, आधार और प्रमाणित बीजों को स्वीकार किया जाता है, और बीज बहुगुणन शृंखला में गुणवत्ता आश्वासन के लिए इसमें पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था होती है, जिससे प्रजनक से किसानों तक बीजों के प्रवाह के दौरान प्रमाणित/किस्म की शुद्धता बनाए रखने में मदद मिलती है।

भारतीय बीज विकास कार्यक्रम में केंद्र और राज्य सरकारों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर), राज्य कृषि विश्वविद्यालय (एसएयू) प्रणाली, सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के संस्थानों का योगदान शामिल है। इस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के दो निगम राष्ट्रीय बीज निगम (एनएससी) और भारतीय राज्य फार्म निगम (एसएफसीआई), 13 राज्य बीज निगम (एसएससी) और निजी क्षेत्र की लगभग 100 प्रमुख बीज कंपनियां कार्यरत हैं। गुणवत्ता नियंत्रण और प्रमाणन के लिए 22 राज्य बीज प्रमाणन एजेंसियां तथा 101 राज्य बीज परीक्षण प्रयोगशालाएं हैं। बीजों के उत्पादन और वितरण में निजी क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है, किंतु संगठित बीज क्षेत्र में खास कर खाद्य फसलों और अनाज के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व बना हुआ है।

वैधानिक ढांचा और नीति

देश में बेचे जाने वाले बीजों की गुणवत्ता नियंत्रित करने के लिए बीज अधिनियम, 1966 विधायी ढांचा उपलब्ध कराता है। अधिनियम के तहत स्थापित केंद्रीय बीज समिति और केंद्रीय बीज प्रमाणन बोर्ड प्रमुख एजेंसियां हैं, जो इसके प्रशासन संबंधी सभी मामलों और बीजों की गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिए जिम्मेदार हैं। बीज विधेयक 2004, केबिनेट ने अनुमोदित कर दिया है। किसानों के हित में बीजों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बीज निर्यात प्रक्रिया सरल बनाई गई है। विभिन्न फसलों के बीज "ओपन जनरल लाइसेंस" के अंतर्गत रखे गए हैं। इनमें जंगली प्रजातियां, जनन द्रव्य, प्रजनक बीज तथा पटसन और प्याज के बीज शामिल नहीं हैं। 2002-07 के लिए सरकार की नई आयात-निर्यात नीति के अंतर्गत इन्हें प्रतिबंधित सूची में रखा गया है।

बीज प्रभाग की योजनाएं[सम्पादन]

(i) विभाग ने दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 159 करोड़ रूपये के परिव्यय के साथ केंद्रीय क्षेत्र की एक योजना शुरू की है, जिसका नाम है "गुणवत्तायुक्त बीजों के उत्पादन और वितरण के लिए बुनियादी सुविधाओं का विकास और सुदृढ़ीकरण"। इस योजना के मुख्य घटकों में बीजों के बारे में गुणवत्ता नियंत्रण प्रबंध, पूर्वोत्तर और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में बीजों की ढुलाई के लिए परिवहन सब्सिडी, बीज बैंक की स्थापना और रख-रखाव, बीज ग्राम योजना, बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के लिए सहायता, निजी क्षेत्र में बीज उत्पादन के लिए सहायता, मानव संसाधन विकास, बीज निर्यात के लिए सहायता, कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग का प्रचार, चावल के संकर बीजों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन तथा मूल्यांकन/समीक्षा शामिल है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्युटीओ) के बौद्धिक संपदा अधिकरों पर व्यापार संबंधी पहलुओं (ट्रिप्स) के अनुच्छेद 27 (3) बी के अंतर्गत बाध्यताओं को पूरा करने के लिए कृषि एवं सहयोग विभाग ने पौध किस्मों तथा किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक कानून लागू किया है। कानून में पौध की नई किस्मों के विकास को प्रोत्साहित करने, पौधे की किस्मों का संरक्षण, किसानों के अधिकारों और पौध प्रजनकों के संरक्षण के लिए प्रभावी प्रणाली स्थापित करने की व्यवस्था है। उक्त कानून को आवश्यक सहायता मुहैया कराने के नजरिए से एक केंद्रीय क्षेत्र योजना क्रियान्वित की जा रही है। योजना 11 नवंबर 2005 को स्थापित पौध किस्मों के संरक्षण तथा किसान अधिकार प्राधिकरण (पीपीवीएंडएफआर) द्वारा लागू की गई है। प्राधिकरण 14 चुनिंदा फसलों से संबंधित पौध किस्मों के पंजीकरण कराने की प्रक्रिया में है। 35 विभिन्न फसलों के लिए विशिष्टता, एकरूपता और स्थिरता (डीयूएस) के लिए परीक्षण हेतु राष्ट्रीय मसौदा दिशानिदर्देश बनाए जा चुके हैं। योजना का मुख्य उद्देश्य प्राधिकरण की स्थापना के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान करना तथा डीयूएस के लिए परीक्षण दिशानिर्देश को विकसित करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ-साथ डीयूएस केंद्रों को मजबूत और उपकरणों से लैस करना है।

11वीं योजना में इसमें 12 घटक होंगे और पीपीवी एवं एफआर अधिनियम को लागू करने के लिए 120 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं। तदनुसार प्राधिकरण की दो शाखाएं और पौध किस्मों के संरक्षण अपीली अधिकरण (पीवीपी) के अलावा 11वीं योजनावधि के अन्य योजनाओं को लागू किया जाएगा।

सहकारी ऋण ढांचे में सुधार[सम्पादन]

अगस्त 2004 में केंद्र सरकार ने प्रो. ए. वैद्यनाथन की अध्यक्षता में एक कार्यदल बनाया था। इस कार्यदल का काम सहकारी ऋण संगठनों की स्थिति में सुधार लाना था। कार्यदल ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है जिसमें लघु अवधि सहकारी ऋण का ढांचा और लघु अवधि ग्रामीण ऋण सहकारी संगठनों के लिए 14839 करोड़ रूपये के वित्तीय पैकेज की सिफारिश की गई है। इस पैकेज के अंतर्गत होने वाला नुकसान, बिना भुगतान गारंटी, राज्य सरकारों द्वारा शेयर पूंजी की वापसी, मानव संसाधन विकास, विशेष ऑडिट का आयोजन और कार्यान्वयन लागत शामिल है।

राज्य सरकारों द्वारा आपसी सहमति से सरकार ने 13,596 करोड़ रूपये की वित्तीय सहायता के साथ लघु अवधि ग्रामीण सहकारी ऋण ढांचे को फिर से सुधारने के पैकेज को मंजूरी दे दी है। पैकेज के अंतर्गत वित्तीय सहायता के प्रावधान का संबंध सहकारी क्षेत्र में सुधार करना है। इसी कार्यदल को दीर्घावधि सहकारी ऋण ढांचे की समस्याओं की जांच करने और उनके पुनरूत्थान के बारे में उपाय सुझाने को कहा गया है। इस संबंध में कार्यदल की रिपोर्ट तैयार होने के बाद ही सरकार दीर्घावधि सहकारी ऋण ढांचे में सुधार के लिए कदम उठायेगी। अब तक 25 राज्यों आंध्र प्रदेश, अरूणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने सरकार और नाबार्ड के साथ समझौते के प्रारूप पर हस्ताक्षर किया है। इससे 96' पीएसीएस और 96' केंद्रीय सहकारी बैंक इसमें आ गए हैं। दस राज्यों के 37,821 पीएसीएस के पुनर्पूंजीकरण के लिए नाबार्ड ने भारत सरकार के हिस्से के रूप में 6170.25 करोड़ रूपए जारी किए है जबकि राज्यों ने अपनी हिस्सेदारी के रूप में 614.75 करोड़ रूपए दिए हैं। दीर्घकालिक सहकारी ऋण सोसाइटियों (एलटीसीसी) के पुनर्जीवन के लिए केंद्र ने 3070 करोड़ रूपए मंजूर किए हैं।

सहयोग[सम्पादन]

सहकारिता सुधार[सम्पादन]

देश में सहकारिता आंदोलन कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्रों से शुरू हुआ। यह शुरूआत लोगों को थोक की अर्थव्यवस्था का फायदा दिलाने के लिए उनके मामूली संसाधनों को इकट्ठा करने के तरीके के तौर पर हुई। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सहकारिता को नियोजित आर्थिक विकास की रणनीति का हिस्सा माना गया। सहकारी संस्थाएं आज तेजी से उभर रहे आर्थिक उदारीकरण और विश्वव्यापीकरण के परिदृश्य में अपने अस्तित्व को लेकर ऊहापोह में हैं। इन संस्थाओं को आमतौर पर संसाधनों की कमी, लचर प्रशासन, प्रबंधन, अक्षमता और आर्थिक अव्यवहार्यता आदि समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सहकारिता के भविष्य के लिए सहकारिता सुधार महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय सहकारिता नीति[सम्पादन]

राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इस नीति का उद्देश्य देश में सहकारी संगठनों के चहुंमुखी विकास को बढ़ावा देना है। यह नीति सरकार द्वारा सहकारी संस्थाओं के लिए किए जाने वाले कार्यों के बारे में निर्देशक सिद्धांतों के रूप में काम करेगी। इस नीति के अंतर्गत सहकारी संगठनों को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी तथा यह

सुनिश्चित किया जाएगा कि वे ऐसे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थानों के रूप में काम कर सकें, जो अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों।

बहुराज्यीय सहकारी समितियां (एमएससीएस) अधिनियम, 2002 — केंद्र सरकार ने बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 1984 के स्थान पर बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 2002 पारित करके सहकारी संगठनों को अपेक्षित स्वायत्तता प्रदान की है। इसका लक्ष्य बहुराज्यीय सहकारी समितियों को कामकाज में स्वायत्तता प्रदान करना और उनके लोकतंत्र प्रबंधन की व्यवस्था करना है। हालांकि यह अधिनियम राष्ट्रीय स्तर की सहकारी समितियों/परिसंघों और अन्य बहुराज्यीय सहकारी समितियों पर लागू होता है, फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि यह राज्य सहकारी नियमों में सुधारों के लिए आदर्श अधिनियम के रूप में काम करेगा।

बहुराज्यीय सहकारी समितियां (संशोधन) अधिनियम, 2002 — बहुराज्यीय सहकारी समितियां अधिनियम, 1962 में संशोधन करके मौजूदा कार्यक्रमों के अतिरिक्त खाद्य पदार्थ, औद्योगिक वस्तुएं, मवेशी और सेवाओं को कार्यक्रमों एवं गतिविधियों में शामिल किया गया। कृषि उत्पादों की परिभाषा में संशोधन करके उनके अंतर्गत खाद्य और अखाद्य तिलहनों, मवेशी आहार, बागवानी और पशुपालन उत्पाद, वानिकी, मुर्गी पालन, मत्स्य-पालन और कृषि-संबंधी अन्य गतिविधियों को शामिल किया गया है। संशोधित अधिनियम के अंतर्गत औद्योगिक वस्तुओं और मवेशी की परिभाषा को व्यापक बनाते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में संबंधित उद्योगों के उत्पादों तथा किसी भी हस्तशिल्प या ग्रामीण शिल्प को शामिल किया गया। मवेशी के अंतर्गत दूध, मांस, ऊन, खाल और सह-उत्पादों के लिए पाले जाने वाले सभी पशु शामिल होंगे। एनसीडीसी स्वयं की संतुष्टि के लिए प्रतिभूति भरने पर राज्य/केंद्र सरकार की गारंटी के बिना सहकारी संस्थाओं को सीधे ऋण प्रदान करेगा। अभी तक जल संरक्षण, मवेशी स्वास्थ्य/देखभाल, बीमारियों की रोकथाम, कृषि बीमा और कृषि ऋण, ग्रामीण स्वच्छता/जलनिकासी/सीवर प्रणाली आदि गतिविधियों को अधिसूचित सेवाओं के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है।

सहकारी संस्थाओं के संदर्भ में संविधान में संशोधन

राज्य सहकारी समिति अधिनियमों में संशोधन किए जाने के बावजूद राज्यों द्वारा सहकारी कानूनों में सुधारों की प्रक्रिया उत्साहजनक नहीं रही है। इसलिए सहकारी संस्थाओं की लोकतांत्रिक, स्वायत्त और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए यह फैसला किया गया कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव तैयार किया जाए। यह निर्णय 7 दिसंबर, 2004 को राज्य के सहकारिता मंत्रियों के सम्मेलन में भलीभांति विचार-विमर्श के बाद किया गया। संविधान में प्रस्तावित संशोधन का उद्देश्य सहकारी संस्थाओं के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यप्रणाली, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यावसायिक प्रबंधन के जरिए उन्हें अधिकार प्रदान करने के महत्वपूर्ण मुद्दों का समाधान करना है। संविधान के एक सौ छठे संशोधन विधेयक 2006 के प्रस्ताव को लोकसभा में 22 मई, 2006 को रखा गया था।

उच्च अधिकार प्राप्त समिति का गठन

सहकारिता आंदोलन के पिछले 100 वर्षों में इस आंदोलन की उपलब्धियों और उसके समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों की समीक्षा करने और उनका सामना करने के तौर-तरीके सुझाने तथा आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया गया है, जो निम्नलिखित विषयों पर विचार करेगी-

  1. पिछले सौ वर्षों के दौरान सहकारिता की उपलब्धियों की समीक्षा करना।
  2. उन चुनौतियों का पता लगाना, जिनका सामना सहकारिता क्षेत्र को करना पड़ रहा है और उनके

समाधान के उपाय सुझाना, ताकि बदले हुए सामाजिक-आर्थिक वातावरण के साथ आंदोलन गति बनाए रख सके।

  1. देश में सहकारी संस्थाओं की लोकतांत्रिक, स्वायत्त और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने

के लिए सहकारिता कानून में अपेक्षित संशोधनों और तत्संबंधी समुचित नीति तथा विधायी फ्रेमवर्क के बारे में सुझाव देना। समिति ने एमएससीएस अधिनियम, 2002 और संविधान के (106वें) संशोधन विधेयक, 2006 में संशोधन के बारे में अंतरिम रिपोर्ट दे दी है। समिति ने मई, 2009 में रिपोर्ट दी है और उसकी सिफारिशों पर गौर किया जा रहा है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन[सम्पादन]

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का केंद्र प्रायोजित योजना देश में 11वीं योजना के अंत तक चावल, गेहूं और दालों का उत्पादन क्रमश— 10,8 और 2 मिलियन टन बढ़ाने के लिए शुरू की गई है। मिशन 17 राज्यों के 312 जिलों में 2007-08 के रबी फसल से लागू हो गया है।

एनएफएसएम के तहत लक्ष्योन्मुख प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप का शुरू से ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है और वर्ष 2007-08 में चावल का उत्पादन 96.69 मिलियन टन रिकार्ड किया गया, जबकि 2006-07 में 93.35 मिलियन टन था। इस प्रकार इसमें 3.34 मिलियन टन की वृद्धि हुई। तदनुसार 2008-09 के तृतीय अग्रिम अनुमान में चावल का उत्पादन 99.37 मिलियन टन हो गया जो 2007-08 के मुकाबले 2.68 मिलियन टन और 2006-07 के मुकाबले 6.02 मिलियन अधिक है। गेहूं के मामले में स्थिति उत्साहजनक रही और गेहूं का उत्पादन 2007-08 में 78.57 मिलियन टन हुआ, जबकि 2006-07 में 75.81 मिलियन के मुकाबले 2.76 मिलियन टन अधिक रहा। नतीजतन 2008-09 में तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार गेहूं का उत्पादन 77.63 मिलियन रहा, जो 2006-07 से 1.63 मिलियन टन अधिक रहा। दालों का उत्पादन 2006-07 में 14.20 मिलियन टन रिकार्ड किया गया था, 2007-08 में 14.76 मिलियन टन हुआ जो 0.56 मिलियन टन अधिक रहा। तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार दालों का उत्पादन 14.18 मिलयन टन होने की आशा है, जो 2006-07 की तुलना में स्थिर रहा।

समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन[सम्पादन]

समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन (आईएनएम) का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनकी समयबद्ध मांगों का आकलन कर समय पर गुणवत्तायुक्त उर्वरकों की आपूर्ति करना, मिट्टी के परीक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों के इस्तेमाल और शहरी अपशिष्ट/कचरे से जैविक खाद्य बनाने को बढ़ावा देना है। इसके अलावा उर्वरक (नियंत्रण) आदेश, 1985 के क्रियान्वयन के जरिए जैविक कचरे से खाद्य बनाने तथा उर्वरकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए इस बात पर जोर देना है कि जैविक और रासायनिक खादों के जरिए पोषक तत्त्वों के सभी स्रोतों का समन्वित इस्तेमाल हो।

उर्वरकों की खपत[सम्पादन]

चीन और अमरीका के बाद भारत विश्व में उर्वरकों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता देश है। हमारा देश यूरिया के मामले में शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर है, जबकि डी.ए.पी. के मामले में इसकी आत्मनिर्भरता 90 प्रतिशत है। पूरे देश में उर्वरकों की खपत 96.4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, हालांकि कृषि 79 राज्यवार खपत में काफी अंतर है। पंजाब में इसकी खपत 197 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि हरियाणा में 164 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इसके विपरीत अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, सिक्किम जैसे राज्यों में 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम है। उर्वरक खपत के असंतुलित स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सरकार इसके संतुलित और समन्वित प्रयोग को विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से प्रोत्साहन दे रही है। परिणामस्वरूप, एनपी के उपयोग अनुपात 2000-01 के 7—2.7—1 से 2004-05 के दौरान 5.7—2.2—1 हो गया। उर्वरकों के मूल्य इस समय यूरिया उर्वरक का मूल्य सरकार द्वारा तय किया जाता है। किसानों को उचित दामों पर इसकी आपूर्ति जारी रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से सब्सिडी दी जाती है। देश में यूरिया की खपत सबसे अधिक है। इसलिए नई यूरिया मूल्य निर्धारण योजना के तहत यह रियायत दी जाती है। पी. और के. उर्वरक नियंत्रित श्रेणी में नहीं थे। अब इसे भी आर्थिक रियायत योजना में शामिल कर लिया गया है। विशेष भाड़ा सब्सिडी की मौजूदा नीति को पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू और कश्मीर को उर्वरक आपूर्ति के लिए जारी रखा गया है। प्रमुख उर्वरकों के मूल्यों में 28-2-2002 से कोई बदलाव नहीं किया गया है। मिश्रित ग्रेड उर्वरकों की कीमतें पोषण आधारित सरकारी उर्वरक की कीमतों की तरह 14 जून, 2008 से घटा दी गई हैं जो इस प्रकार हैं — उर्वरक उत्पाद अधिकतम खुदरा मूल्य (रूपये प्रति मीट्रिक टन में)

यूरिया 4830

डीएपी (स्वदेशी) 9350

मिश्रित 5121-8185

एमओपी 4455

एसएसपी 3400

पी और के उर्वरकों की बफर स्टॉकिंग[सम्पादन]

दूरदराज और दुर्लभ क्षेत्रों में अनियंत्रित उर्वरकों की पर्याप्त उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए डीएपी और एमओपी की सीमित मात्रा के बफर स्टॉक की एक योजना बनाई गई है जिससे इसकी आवश्यकता पड़ने पर इसको पूरा किया जा सकेगा। यह स्टाक सचल होता है और कमी होने पर उसकी भरपाई की जाती है। आपात जरूरतों को पूरा करने के अलावा यह स्टाक राज्यों की आवश्यकताओं को पूरा करता है।

उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण[सम्पादन]

सरकार आवश्यक उपभोक्ता वस्तु अधिनियम के अंतर्गत जारी उर्वरक नियंत्रण आदेश (एफसीओ) के माध्यम से उर्वरकों की गुणवत्ता सुनिश्चित करती है। इससे देश में उर्वरकों के मूल्य, व्यापार, नीति और वितरण को नियमित बनाने में मदद मिलती है। राज्य सरकारें उर्वरक नियंत्रण आदेश के विभिन्न प्रावधानों को लागू करने में कार्यकारी एजेंसी की भूमिका निभाती हैं। इस आदेश के जरिए ऐसे उर्वरकों के विनिर्माण, आयात और बिक्री पर रोक लगाई जाती है, जो निर्धारित मानक पूरे न करते हों। केंद्रीय

उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण और प्रशिक्षण संस्थान फरीदाबाद में स्थित है और इसके तीन क्षेत्रीय केंद्र नवी मुंबई, चेन्नई और कल्याणी में स्थापित किए गए हैं, जो आयातित और स्वदेशी उर्वरकों का निरीक्षण और विश्लेषण करते हैं, तकनीकी परामर्श देते हैं, और राज्य प्रर्वतन एजेंसियों तथा विश्लेषकों को गुणवत्तानियं त्रण का प्रशिक्षण देते हैं। संस्थान ने उर्वरकों में होने वाली मिलावट की तुरंत जांच के लिए एक टेस्टिंग किट भी विकसित की है।

उर्वरक-नियंत्रण आदेश में हाल ही में संशोधन किया गया, ताकि इसे उपभोक्ताओं के अधिक अनुकूल बनाया जा सके और कारगर ढंग से लागू किया जा सके। महत्वपूर्ण संशोधनों में कटे-फटे उर्वरक-थैलों की पुन— पैकेजिंग और प्राकृतिक आपदा से क्षतिग्रस्त हुए उर्वरकों की पुन— प्रोसेसिंग तथा अस्थायी उर्वरकों के व्यावसायिक ट्रायलों के लिए प्रावधान शामिल हैं। तदनुरूप नेशनल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड, इन्डो-गल्फ फर्टिलाइजर्स और श्रीराम फर्टिलाइजर्स को अनुच्छेद 20 ए के अंतर्गत नीम- आलेपित यूरिया के वाणिज्यिक ट्रायलों के लिए विनिर्माण की अनुमति दी गई है। इसी प्रकार मेसर्ज इफ्को को बोरोन और जिंक के साथ सुदृढ़ मिश्रित उर्वरकों के उत्पादन और मेसर्ज कोरोमंडल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड को बोंटोनाइट सल्फर के उत्पादन की अनुमति दी गई है। यूरिया सहित सभी उर्वरकों पर अधिकतम खुदरा मूल्य, आयात किए गए उर्वरक का महीना और वर्ष प्रिंट करना अनिवार्य कर दिया गया है।

इस समय देश में 67 प्रयोगशालाएं हैं। इनमें केंद्र सरकार की 4 प्रयोगशालाएं शामिल हैं। इन प्रयोगशालाओं में वर्ष में 1.31 लाख नमूनों की जांच करने की क्षमता है।

राष्ट्रीय कार्बनिक खेती परियोजना[सम्पादन]

अक्टूबर 2004 में दसवीं पंचवर्षीय योजना की शेष अवधि के दौरान देश में कार्बनिक खेती के उत्पादन, प्रोत्साहन और बाजार विकास के लिए 57.05 करोड़ रूपये के परिव्यय के साथ राष्ट्रीय कार्बनिक खेती परियोजना नामक नई योजना प्रारंभ की गई। योजना 11वीं योजना में भी जारी है, जिसके लिए 115 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है। जैव उर्वरकों का विकास और उपयोग की राष्ट्रीय परियोजना, जो पहले शुरू की गई थी, इसी में मिला दी गई है। योजना के मुख्य उद्देश्य हैं—

(i) सेवा प्रदाताओं के माध्यम से क्षमता निर्माण (ii) अकार्बनिक उत्पादक इकाई जैसे फलों और सब्जियों के कचरे के लिए कंपोस्ट इकाई जैव उर्वरक, जैवकीटनाशक और कृमिपालन उत्पत्तिशालाओं के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता (iii) प्रशिक्षण और प्रदर्शन से मानव संसाधन विकास (i1) जागरूकता और बाजार विकास (1) अकार्बनिक वस्तुओं की गुणवत्ता नियंत्रण। जैव उर्वरकों के संवर्धन की पिछली योजना के जारी रहने से देश में 169 जैव उर्वरक उत्पादन इकाइयां है जिनकी 67 हजार मी.टन है और वार्षिक उत्पादन 28 हजार टन से अधिक जैव उर्वरक और 18800 टन से अधिक जैवकीटनाशकों सहित अन्य टीके हैं। योजना के तहत 708 टन कृषि कचरे को कंपोस्ट, 5606 मी.ट. जैव उर्वरक और 17000 टन कृमि और कृमिकंपोस्ट के प्रसंस्करण की क्षमता स्थापित की गई है।

योजना शुरू होने के बाद प्रमाणीकृत अकार्बनिक खेती क्षेत्र 42 हजार हेक्टेयर में 2003-04 में 20 गुना बढ़ोतरी हुई और यह 2007-08 में 865,00 हेक्टेयर हो गई। अकार्बनिक खाद्य का उत्पादन 2006-07 के 4.09 लाख टन से बढ़कर 2007-08 में 9.02 लाख टन हो गया।

एकीकृत पोषक प्रबंधन का संवर्धन (आईएनएम) — सरकार भूमि परीक्षण आधारित रसायन उर्वरकों, जैव उर्वरकों और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध गोबर खाद् कंपोस्ट, नाडीप कंपोस्ट, कृमि कंपोस्ट और हरी खाद को संतुलित और उचित उपयोग को बढ़ावा दे रही है ताकि भूमि की उत्पादकता बरकरार रहे। 11वीं योजना की शेष अवधि के लिए 2008-09 में 429 करोड़ रूपए के आवंटन के साथ "भूमि और उर्वरता प्रबंधन की राष्ट्रीय परियोजना" (एनपीएमएसएफ) को मंजूरी दी गई। दो वर्तमान योजनाओं (i) केंद्र प्रायोजित उर्वरकों का संतुलित और एकीकृत उपयोग और (ii) केंद्रीय उर्वरक एवं गुणवत्ता नियंत्रण तथा प्रशिक्षण संस्थानों और उसके क्षेत्रीय प्रयोगशालाओं को 1 अप्रैल, 2009 से नई योजना में मिला दिया गया है। नई योजना के घटकों में 500 भूमि परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना, वर्तमान 315 प्रयोगशालाओं को मजबूत बनाना, भूमि परीक्षण के लिए 250 सचल प्रयोगशालाओं की स्थापना, अकार्बनिक खाद का संवर्धन, भूमि संशोधन, सूक्ष्म पोषकों का वितरण, उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण के लिए 20 नई प्रयोगशालाओं की स्थापना, वर्तमान 63 प्रयोगशालाओं को 11वीं योजना में मजबूत करना शामिल है।

देश में (2007-08) 686 भूमि परीक्षण प्रयोगशालाएं हैं। इनमें 500 स्थायी और 120 सचल प्रयोगशालाएं हैं, जिनका रख-रखाव राज्य सरकारें और उर्वरक उद्योग करते हैं। इनमें सालाना 70 लाख मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण किया जा सकता है। वर्ष 2008-09 में एनपीएमएसएफ के तहत 42 नई 82 भारत-2010

भूमि परीक्षण स्थायी प्रयोगशालाओं (एसटीएल) 44 सचल भूमि परीक्षण प्रयोगशालाओं, 39 वर्तमान भूमि परीक्षण प्रयोगशाला।ओं, 2 नई उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाओं और 16 राज्यों में 19 वर्तमान उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाओं (एफक्यूसीएल) को मजबूत बनाने के लिए 16.63 करोड़ रूपए जारी किए गए।

सूचना प्रौद्योगिकी[सम्पादन]

कृषि और सहकारी विभाग मुख्यालय में आईटी उपकरण[सम्पादन]

आईसीटी पहल का जोर ई-गवर्नेंस पर है ताकि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले किसानों को उन्नत सेवाओं का लाभ मिल सके।

कृषि और सहकारी विभाग हैदराबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्मार्ट गवर्नमेंट (एनआईएसजी) की सहायता से कृषि में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना तैयार कर रही है। यह दो-दो चरणों में लागू होगी। एनईजीपी का पहला चरण पूरा हो गया है और प्राथमिकता वाली सेवाओं लक्षित और प्रक्रियाओं का ई- गवर्नेंस गतिविधियों के तहत काम पूरा हो गया है। दूसरे चरण में केंद्र और राज्य स्तर पर कृषि में ई- गवर्नेंस लागू करने के लिए रणनीति, रूपरेखा और दिशा-निर्देश तैयार किए जाएंगे। दूसरा चरण निजी क्षेत्र और समाज की भूमिका को परिभाषित करेगा, जिस पर काम हो रहा है।

ई-गवर्नेंस पहल की सफलता के लिए हर स्तर पर उपकरण साफ्टवेयर और प्रशिक्षण के माध्यम से सहयोग आवश्यक है।

क्षेत्र कार्यालयों और डीएसी निदेशालयों में आईटी उपकरण[सम्पादन]

डैकनेट परियोजना (डीएसीएनईटी) के तहत निदेशालयों/क्षेत्र इकाइयों को मूलभूत ढांचा उपलब्ध करा दिया गया है और वे पूरी तरह से तैयार हैं। यह फैसला लिया गया कि सभी निदेशालय/क्षेत्र कार्यालय अपने बजट से अपना खर्च पूरा करेंगे। लेकिन नेटवर्किंग, साफ्टवेयर विकास और क्षेत्र कार्यालयों/ निदेशालयों के प्रशिक्षण का व्यय घटक के इस मद से पूरा किया जाएगा।

कृषि संसाधन सूचना प्रणाली (एजीआरआईएस)[सम्पादन]

दसवीं योजना स्कीम के इस घटक का उद्देश्य जीआईएस और आरएस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने वाले प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग के लिए निर्णय प्रणाली का विकास है। दो अग्रणी जिलों हरियाणा के रोहतक और गुजरात के बनासकांठा में काम जारी है। ग्यारहवीं योजना में स्कीम के डैकनेट घटक में शामिल हो जाएगा और जारी पाइलट परियोजना को पूरा करने में मदद दी जाएगी।

कृषि सूचना और संचार का विकास[सम्पादन]

इस घटक का उद्देश्य कृषि संबंधी सभी आंकड़ों और वेब आधारित उपयोग के विकास का भंडार बनाना है। भूमि मानचित्रीकरण का अंकीकरण आंकड़ा, सीडनेट पोर्टल, डेटवेयर हाउसिंग, आरएफएस और जनसंचार विकास के पोर्टल विकास के विभिन्न चरणों में हैं। कृषि के विभिन्न विषयों के पोर्टलों का विकास संवर्धन एवं निरंतर प्रक्रिया है। आईएनएम बागवानी और सहकारिताओं आदि के पोर्टल बनाने का प्रस्ताव है।

पोर्टलों की संख्या बढ़ने और विषय सामग्री का विस्तार होता जाएगा तो उसको अद्यतन बनाने के लिए उचित ढांचे की जरूरत होगी। आशा है कि नियमित रूप से आंकड़े अद्यतन और वेब सामग्री की डिजाइनिंग के लिए जनशक्ति की जरूरत होगी। इन कार्यों को बाहर से कराने का प्रस्ताव है।

कृषि में आईटी उपकरणों को और राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सहयोग को मजबूत बनाना (आईआरआईएस नेट)[सम्पादन]

राज्यों की आईसीटी के उपयोग उन्नत सूचनाएं किसानों तक पहुंचाने में बहुत बड़ी भूमिका है। एग्रिसनेट को वर्तमान घटक को 11वीं योजना में जारी रखने तथा अधिक मजबूत बनाने का प्रस्ताव है। अभी तक 21 राज्यों ने एग्रिसनेट के तहत सहायता का उपयोग किया है। इन राज्यों में भी एटीएमए सीमित ई- गवर्नेंस के प्रयोग के लिए राशि जारी की गई है। देश भर के किसानों को उन्नत सूचनाएं प्रदान करने के लिए योजना के कई गुना विस्तार की आवश्यकता है। 10वीं योजना के अनुभवों के आधार पर और अधिक सेवाओं को एग्रिसनेंट के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव है।

किसान कॉल सेंटर[सम्पादन]

देश में किसान कॉल सेंटर योजना 21 फरवरी, 2004 को शुरू की गई। इसका उद्देश्य किसानों को शुल्क मुक्त नंबर 1880-180-1551 से ऑन लाइन सूचनाएं प्रदान करना है। इस सुविधा का प्रचार दूरदर्शन और रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से किया जा रहा है। एक ज्ञान प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव है। 11वीं योजना में इसे जारी रखने का प्रस्ताव है।

तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन[सम्पादन]

केंद्र सरकार ने तिलहन की पैदावार बढ़ाने, खाद्य तेलों का आयात घटाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के उद्देश्य से 1986 में तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन शुरू किया था। इसके बाद दलहन, आयल पाम और मक्का को भी क्रमश— 1990-91, 1991-92 और 1995-96 में प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत लाया गया। इसके अलावा राष्ट्रीय तिलहन और वनस्पति तेल विकास बोर्ड भी गैर-परंपरागत तिलहनों के नए क्षेत्र खोलकर तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन के प्रयासों में सहयोग देता रहा है। यह वृक्षों से प्राप्त होने वाले तिलहनों को प्रोत्साहन दे रहा है। तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन की निम्नलिखित योजनाएं लागू की गई हैं —

(i) तिलहन उत्पादन कार्यक्रम (ओपीपी); (ii) राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना (एनपीडीपी);

(iii) त्वरित मक्का विकास कार्यक्रम (एएमडीपी); (i1) फसल कटाई के बाद की प्रौद्योगिकी (पीएचडी); (1) आयल पाम विकास कार्यक्रम (ओपीडीपी); (1i) राष्ट्रीय तिलहन और वनस्पति तेल विकास बोर्ड (एनओबीओडी)।

तिलहन, दलहन और मक्का के लिए समन्वित योजना[सम्पादन]

फसलों की विविधता को प्रोत्साहन देने के कार्यक्रमों के प्रति केंद्रीभूत दृष्टिकोण अपनाने के लिए राज्यों को क्षेत्रीय विशिष्टताओं के आधार पर उनके कार्यान्वयन में छूट देने के उद्देश्य से पहले से लागू चारों कार्यक्रमों-ओपीपी, ओपीडीपी, एनपीडीपी और एएमडीपी का विलय अब केंद्र द्वारा प्रायोजित एक ही योजना में कर दिया गया है, जिसे "तिलहन, दलहन आयल पाम और मक्का फसलों का समन्वित कार्यक्रम" कहा जाता है। यह कार्यक्रम दसवीं पंचवर्षीय योजना में एक अप्रैल, 2004 से कार्यान्वित किया जा रहा है। इसे तिलहन और दलहन की खेती करने वाले 14 प्रमुख राज्यों और मक्का के लिए 15 राज्यों तथा पाम आयल के लिए 10 राज्यों द्वारा लागू किया जा रहा है।

"तिलहन, दलहन, आयल पाम और मक्का फसलों के समन्वित कार्यक्रम" (आईएसओपीओएम) की विशेषताएं इस प्रकार हैं-(i) अपनी पसंद की फसलों के चुनाव और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में धन खर्च करने के मामले में राज्यों के प्रति लचीलापन; (ii) वार्षिक कार्ययोजना राज्य सरकारों द्वारा तैयार करके भारत सरकार की मंजूरी के लिए भेजा जाना; (iii) कुल स्वीकृत राशि का 10 प्रतिशत भाग राज्य सरकारों की ओर से शुरू किए जाने वाले नए कार्यक्रमों और उपायों के लिए खर्च करने की छूट; (i1) राज्य सरकारों को कुल निर्धारित वित्तीय प्रावधान का 15 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र के सहयोग से कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर खर्च किए जाने की छूट; (1) केवल बीजरहित संघटकों के मामले में 20 प्रतिशत धनराशि के अंतर-घटक विचलन की छूट; तथा (1i) कृषि और सहकारिता विभाग की पूर्व अनुमति के साथ बीजयुक्त से बीजरहित संघटकों के लिए धन हस्तांतरण।

तिलहन उत्पादन कार्यक्रम के क्रियान्वयन से तिलहन की पैदावार बढ़ाने में मदद मिली है। वर्ष 1985-86 में तिलहन का उत्पादन 108.30 लाख था जो 2008-09 में बढ़कर 281.57 (IV अग्रिम अनुमान) लाख टन हो गया। देश में दलहन का उत्पादन 1989-90 में 128.60 लाख टन से बढ़कर 2008-09 में 146.62 (IV अग्रिम अनुमान) लाख टन हो गया। आयल पाम की खेती का क्षेत्र 1992- 93 के अंत तक 8585 हेक्टेयर था जो वर्ष 2008-09 तक बढ़कर 26178 हेक्टेयर हो गया है। ताजे फलों (एफएफबी) का वास्तविक उत्पादन वर्ष 2008-09 में 355480.36 टन था जिससे करीब 59007.40 टन कच्चे पाम आयल (सीपीओ) का उत्पादन हुआ। 1994-95 में मक्का का उत्पादन 88.84 लाख था जो वर्ष 2008-09 में (IV अग्रिम अनुमान) बढ़कर 192.87 लाख टन हो गया।

विस्तार[सम्पादन]

विस्तार सुधार के लिए राज्य विस्तार कार्यक्रम सहयोग[सम्पादन]

विस्तार सुधारों को जिला स्तर पर संचालित करने के लिए यह योजना 2005-06 के दौरान शुरू की गई। योजना का उद्देश्य एक कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) के रूप में प्रौद्योगिक प्रसार के लिए सांस्थानिक प्रबंधन के जरिए विस्तार प्रणाली को किसान सहयोगी और जवाबदेह बनाना है। एजेंसी जिला और उसके निचले स्तर पर कार्यरत किसानों/किसान समूहों, एनजीओ, केवीके, पंचायती राज संस्थाओं तथा अन्य अंशधारकों के साथ सक्रिय भागीदारी करेगी। जारी होने वाला फंड राज्य सरकारों द्वारा तैयार राज्य विस्तार कार्य योजना (एसईडब्लुपी) पर आधारित है। 586 एटीएमए स्थापित किए जा चुके हैं; 517 से अधिक राज्य विस्तार कार्य योजनाएं बनाई जा चुकी हैं तथा किसान आधारित गतिविधियों के जरिए 17.97 लाख महिला किसानों (19.74 प्रतिशत) सहित 91 लाख किसान लाभ उठा चुके हैं और योजना की शुरूआत से अब तक 42.060 "किसान हित समूह" (एफआईजी) सक्रिय हो चुके हैं। इस कार्यक्रम के तहत 30 अगस्त, 2009 तक 474.62 करोड़ रूपये जारी हो चुके हैं।

कृषि के लिए मास मीडिया सहयोग[सम्पादन]

इस योजना के तहत दो पहल के ऊपर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। पहली पहल के रूप में किसान समुदाय को कृषि संबंधी सूचना और ज्ञान प्रदान करने के लिए दूरदर्शन का उपयोग शामिल है। जिसके तहत क्षेत्रीय केंद्रों द्वारा सप्ताह में पांच दिन 30 मिनट के कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। राष्ट्रीय प्रसारण के तहत सप्ताह के छह दिन कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं। शनिवार को सफलता की कहानियां, नूतन खोज आदि की फिल्में कृषि एवं सहकारिता विभाग दूरदर्शन को मुहैया कराता है। रबी/ खरीफ अभियान, किसान कॉल सेंटर, किसान क्रेडिट कार्ड सुविधा जैसे मौजूदा मुद्दों पर ऑडियो/ विजुअल स्पॉट फ्री कमर्शियल टाइम (एफसीटी) पर प्रचारित किए जाते हैं तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) का प्रचार अभियान भी किया गया। मास मीडिया पहल के तहत अन्य भाग के रूप में 96 एफएम का उपयोग शामिल है।

किसान कॉल सेंटर (केसीसी)[सम्पादन]

21 जनवरी, 2004 से शुरू किसान कॉल सेंटर देश के लगभग हर क्षेत्र में 14 विभिन्न स्थानों पर कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में केसीसी में 144 एजेंट कार्यरत हैं जो 23 स्थानीय भाषाओं में किसानों के प्रश्नों के जवाब दे रहे हैं। देशभर में सातों दिन सुबह 6 बजे से रात के 10 बजे तक एक ही टोल फ्री नंबर 1551 और शुल्क मुक्त नंबर 1800-80-1551 पर डायल करके संपर्क किया जा सकता है। केसीसी की गतिविधियों की निगरानी हेतु प्रत्येक केसीसी के लिए राज्य स्तरीय निगरानी समिति (एसएलएमसी) बनाई गई है जिसमें सचिव (कृषि), कृषि एवं अन्य विकास विभागों के निदेशक, बीएसएनएल के प्रतिनिधि तथा केसीसी के नोडल अधिकारी केसीसी को चलाने में मदद करे रहे हैं। मांग के अनुरूप 25 स्थानों पर केसीसी सुविधा का विस्तार किया जा रहा है। कृषि और सहयोग विभाग ने किसान ज्ञान प्रबंधन प्रणाली केकेएमएस के रूप में एक डाटा निर्माण विकसित करने की पहल की है। केसीसी का प्रचार डीडी/एआईआर/डीएवीपी, सेमेटि, राज्यों/केंशाप्र के जरिए किया जा रहा है। जुलाई, 2009 तक किसान कॉल सेंटरों में 36 लाख से अधिक कॉलें प्राप्त हुईं।

कृषि विपणन[सम्पादन]

देशभर में कृषि जिन्सों के व्यवस्थित विपणन को प्रोत्साहित करने के लिए बाजार को नियंत्रित किया गया था। अधिकतर राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों ने कृषि जिन्सों के विपणन को नियंत्रित करने के लिए एक अधिनियम (एपीएमसीएक्ट) बनाया था। साप्ताहिक बाजारों में से करीब 15 प्रतिशत बाजार इस अधिनियम के तहत कार्य करते हैं। नियंत्रित बाजारों की शुरूआत से उत्पादकों/विक्रेताओं को एक जगह इकट्ठे होकर थोक बिक्री में काफी सहूलियत हुई है, परंतु अभी भी सामान्य साप्ताहिक ग्रामीण बाजारों और खासकर आदिवासी बाजार इस व्यवस्था का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विकास, रोजगार बढ़ाने और आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि क्षेत्र में व्यवस्थित बाजार की बहुत आवश्यकता है। बाजार प्रणाली को अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाने के लिए फसल के बाद के विकास में अधिक से अधिक निवेश करने और किसानों के लिए खेतों के आस-पास ही कोल्ड स्टोरेज बनाने की आवश्यकता है। इस निवेश के लिए निजी क्षेत्र से अपेक्षा की जाती है जिसके लिए उचित कानून और नीतियां बनाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही खेतों से या किसानों से सीधे ही कृषि उत्पाद खरीदने को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां बनाने की आवश्यकता है और कृषि उत्पादों और फुटकर विक्रेताओं और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के बीच एक प्रभावी संबंध बनाने की आवश्यकता है। देश में विपणन व्यवस्था को अनियंत्रित करने के लिए राज्य एपीएमसी कानून में आवश्यक सुधार करने का भी सुझाव दिया गया है ताकि विपणन, मूलभूत ढांचा और सहकारिता क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन मिल सके।

कृषि मंत्रालय ने राज्य सरकारों के लिए कृषि विपणन के लिए दिशा-निर्देश बनाने और उन्हें अपनाने के लिए एक मॉडल कानून बनाया है। इस मॉडल कानून के अंतर्गत देश में कृषि बाजार के विकास और प्रबंधन में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करने तथा कृषि उत्पादों की सीधी बिक्री के लिए उपभोक्ताओं/किसानों, प्रत्यक्ष क्रेता केंद्रों, निजी बाजार/यार्ड को स्थापित करना है। इस कानून के अंतर्गत ही कृषि उत्पादों की गुणवत्ता प्रमाणीकरण और मानकीकरण और विभिन्न स्तरों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य कृषि उत्पाद विपणन मानक ब्यूरो के गठन का प्रावधान किया गया था। इससे पूंजी निवेश, सीधी खरीद और भविष्य में कदम उठाने में काफी मदद मिलेगी। 13 राज्यों/केंशाप्र ने अपने एपीएमसी अधिनियम में संशोधन किया है और बाकी राज्य संशोधन कर रहे हैं। 153वें एनडीसी प्रस्ताव के अनुसरण में, कृषि मंत्रालय ने मॉडल कानून पर ही आधारित ड्राफ्ट मॉडल रूल तैयार कर संबंधित राज्यों/केंशाप्र को भेजे हैं। 7 राज्यों ने अपने एपीएमसी नियमों में संशोधन किया है।

मूलभूत ढांचे की आवश्यकता[सम्पादन]

देश में बाजार, भंडारण के विकास और कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की दिशा में बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता है। विपणन के मूलभूत ढांचे के विकास में निवेश को प्रेरित करने के लिए मंत्रालय ने इन कार्यक्रमों और योजनाओं को कार्यान्वित किया है।

(i) पूंजी निवेश की सहायता योजना के लिए "ग्रामीण गोदामों का निर्माण" नामक एक योजना को एक अप्रैल, 2001 से लागू किया गया है। इस योजना के मुख्य उद्देश्य कृषि उत्पादों के भंडारण, प्रसंस्करण, कृषि आदानों और बाजार ऋण उपलब्ध कराने के लिए किसानों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में नई तकनीक से युक्त भंडारण जैसी सुविधाएं स्थापित करना है। मूल योजना के अंतर्गत परियोजना की पूंजी लागत के 25 प्रतिशत तक बैंक एडिड सब्सिडी उपलब्ध कराई गई थी। पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उद्यमियों के लिए परियोजना की 33.33 प्रतिशत सब्सिडी का प्रावधान था। इस परियोजना में 20 अक्तूबर, 2004 से संशोधन कर दिया गया। नई योजना में किसानों, कृषि स्नातकों, केंद्रीय भंडारण निगमों (सेंटर वेयरहाउसिंग कॉपरेटिव)/राज्य भंडारण निगमों को 25 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाती है। व्यक्तिगत तौर पर चलने वाली निजी कंपनियों और सहकारी कंपनियों की अन्य सभी श्रेणियों में आने वाली कंपनियों को परियोजना लागत की 15 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाती है। यह सब्सिडी सामान्य इलाकों में 50 मीटर और पहाड़ी इलाकों में 25 मीटर के आकार के छोटे गोदाम बनाने के लिए किसानों की मदद के लिए बनाई गई थी। छोटे किसानों के लिए 5 लाख टन भंडारण की क्षमता को सुरक्षित बना लिया गया है। योजना को नाबार्ड और एनसीडीसी द्वारा लागू किया जा रहा है। नाबार्ड और एनसीडीसी द्वारा 1 अप्रैल, 2001 से क्रियान्वित योजना में 30 जून, 2009 तक 240.87 लाख भंडारण क्षमता वाली भंडारण परियोजनाओं को 553.80 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता के साथ मंजूरी दी गई।

(ii) "बाजार अनुसंधान और सूचना नेटवर्क" नामक केंद्रीय योजना के अंतर्गत देश में सभी प्रमुख कृषि बाजारों में कीमतों और बाजार संबंधी सूचनाओं के तीव्र संकलन और प्रसार के लिए देशव्यापी सूचना नेटवर्क स्थापित किया गया है। योजना के अंतर्गत 3024 बाजार केंद्र और 175 राज्य/विपणन बोर्ड तथा विपणन निदेशालय एवं निरीक्षण कार्यालयों को इस नेटवर्क से जोड़ा गया है, जाहां 300 वस्तुओं और 2000 किस्मों की कीमतों की रिपोर्ट आती है। 11वीं योजना में 36 थोक बाजारों को जोड़ने की कृषि 87 योजना है। व्यापाक बाजार पहुंच अवसर उपलब्ध कराने और बेहतर मूल्य की जानकारी के लिए योजना का दायरा नियमित रूप से मजबूत किया जा रहा है।

(iii) "कृषि विपणन ढांचे का विकास/सुदृढ़ीकरण ग्रेडिंग और मानकीकरण" नाम की एक और योजना कृषि मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही है। योजना के अंतर्गत सभी राज्यों में हरेक परियोजना के लिए विपणन की मूलभूत विकासात्मक परियोजना के लिए 25 प्रतिशत सब्सिडी दी जाती है जो अधिकतम 50 लाख रूपये तक सीमित है तथा पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उद्यमियों के लिए 33.3 प्रतिशत सहायता दी जाती है जो अधिकतम 60 लाख रूपये तक है। राज्य सरकारों/राज्य स्तरीय एजेंसियों की मूलभूत परियोजनाओं के लिए योजना के अंतर्गत ऊपरी परिसीमन नहीं रखा गया है। यह योजना उन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में संशोधित करके लागू की जा रही है जहां कृषि उत्पादन विपणन नियमन कानून के तहत निजी और सहकारी क्षेत्रों में प्रतियोगी कृषि बाजार स्थापित करने, सीधे विपणन करने, अनुबंधित खेती का प्रावधान है। योजना के अंतर्गत, आंध्रप्रदेश, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, मणिपुर, सिक्किम, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, नगालैंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, असम, त्रिपुरा, गुजरात, कर्नाटक, गोवा और केंद्रशासित प्रदेश अंडमान और निकोबार, दमन और दीव, चंडीगढ़ और दादर एवं नागर हवेली को सहायता मिलने के लिए अधिसूचित किया गया है। देश 31 मार्च, 2009 तक बैंकों/नाबार्ड, एनसीडीसी के माध्यम से 3265 ढांचागत परियोजनाएं 141 करोड़ रूपए सरकारी सहायता से मंजूर की गई हैं और 748 परियोजनाओं का 9.50 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता से सहकारिता क्षेत्र में विकसित किया गया है। इस निदेशालय ने राज्य की एजेंसियों की 289 ढांचागत परियोजनाओं को लगभग 84 करोड़ रूपए की सरकारी सहायता के साथ स्वीकृति प्रदान की है। अधिसूचित राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में 31 मार्च, 2009 तक एनआईएएन ने 530 प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम चलाए हैं।

(i1) देश के सभी प्रमुख शहरी केंद्रों में फल, सब्जियों और जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के विपणन के लिए आधुनिक टर्मिनल वाले बाजारों को प्रोत्साहित करने के लिए विभाग ने कई कदम उठाए हैं। इन बाजारों में इलेक्ट्रॉनिक ऑक्शन, कोल्डवेन जैसी आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह बाजार किसानों की पहुंच में हैं और सुविधाजनक क्षेत्रों में स्थापित हैं। टर्मिनल बाजारों को जल्दी ही नष्ट होने वाली वस्तुओं की खरीद और बिक्री के लिए राज्य सरकारों और निजी उद्यमियों के बीच बातचीत करके स्थापित किया गया है। टर्मिनल मार्किट माल खरीदने वाले कई केंद्रों से जुड़ा रहता है और किसानों को उनके उत्पाद या फसल को बेचने के लिए उनकी पहुंच के अंदर रहता है। उपर्युक्त योजना के तहत परियोजना के लिए सरकारी सहायता देने के बारे में सुधार किया गया है। परियोजना लागत की 40' राशि सहायता के रूप में दी जाएगी जबकि निजी उद्यमियों टीएमसी की स्थापना के लिए 25' राशि दी जाएगी। सरकारी सहायता इकाई की 150 करोड़ लागत पर प्रति टीएमसी 50 करोड़ रूपए से अधिक नहीं होगी। किसानों के हितों की रक्षा और सेवा स्तर की गुणवत्ता के लिए उत्पादक संघों की भागीदारी का 26' इक्विटी के साथ प्रावधान किया गया है। तदनुसार प्रचालन दिशा-निर्देशों में सुधार कर जारी किया गया है जो वेबसाइट (222.ड्डद्दद्वड्डह्म्knet.niष्.in) पर उपलब्ध है।

कृषि एवं सहकारिता विभाग के अधीन तीन संगठन हैं — (1) विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय, फरीदाबाद; (2) चौ. चरणसिंह राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान, जयपुर; (3) लघु किसान कृषि व्यापार संघ, नई दिल्ली। 88 भारत-2010

विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय[सम्पादन]

यह विभाग से जुड़ा संस्थान है और इसके अध्यक्ष कृषि विपणन सलाहकार होते हैं। इसका मुख्यालय फरीदाबाद (हरियाणा) में है और शाखा कार्यालय नागपुर (महाराष्ट्र) में है। देशभर में इसके 11 क्षेत्रीय कार्यालय, नागपुर में केंद्रीय एग्मार्क प्रयोगशाला, 26 उपकार्यालय और 16 एग्मार्क प्रयोगशालाएं हैं। निदेशालय के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं — राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को कृषि उत्पादों के विकास और प्रबंधन के लिए वैधानिक नियमों के अनुसार सलाह देना, कृषि उत्पादों (ग्रेडिंग और मार्किंग) कानून 1937 के अंतर्गत कृषि और उसके सह उत्पादों के मानकीकरण और ग्रेडिंग को प्रोत्साहन देना, बाजार अनुसंधान, सर्वेक्षण और योजना बनाना, कृषि विपणन में प्रशिक्षण देना, बाजारों का विस्तार, कृषि विपणन सूचना नेटवर्क, ग्रामीण गोदामों का निर्माण तथा कृषि विपणन के लिए मूलभूत ढांचे का विकास।

ग्रेडिंग और मानकीकरण[सम्पादन]

कृषि उत्पाद (ग्रेडिंग और मार्किंग) कानून 1937 सरकार द्वारा तय गुणवत्ता मानकों, जिन्हें "एग्मार्क" नाम से जाना जाता है, को मजबूत करने के लिए बनाया गया था। अब तक 182 कृषि और उसके सहउत्पादों की ग्रेडिंग करके अधिसूचित किया जा चुका है। खाद्य मिलावट निरोधक कानून 1954, और भारतीय मानकीकरण ब्यूरो 1986 के अंतर्गत शुद्ध मानकों पर ध्यान दिया जाता रहा है। कोडेक्स अंतर्राष्ट्रीय मानक संगठन द्वारा तैयार अंतर्राष्ट्रीय मानक पर भी ध्यान दिया जाता है ताकि भारतीय उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी पहचान बना सके।

डीएनआई एगमार्क के तहत घरेलू कृषि उत्पादों पर प्रमाणीकरण योजना लागू कर रहा है, जिनके लिए ग्रेडिंग मानकों को अधिसूचित किया जा चुका है। डीएमआई यूरोपीय यूनियन के देशों के लिए ताजा फलों और सब्जियों के निर्यात के लिए निरीक्षण और प्रमाणीकरण संस्था है। यह कार्य स्वैच्छिक है। एगमार्क के तहत यूरोपीय यूनियन के देशों को अंगूर, प्याज और अंतर का प्रमाणीकरण किया जा रहा है। वर्ष 2009-10 में (30 जून, 2009 तक) वनस्पति तेल ग्रेडिंग और मार्किंग (संशोधन) नियम 2009 की अंतिम अधिसूचना भारत के असाधारण गजट के भाग-2, खंड-3, उप खंड (1) में 3 जून, 2009 को उसी तिथि के आदेशानुसार प्रकाशित हो चुकी है। अकार्बनिक कृषि उत्पादों की ग्रेडिंग और मार्किंग नियम 2009 की अंतिम अधिसूचना विधि और न्याय मंत्रालय की पुष्टि के बाद मंत्रालय को भारत के गजट में प्रकाशन के लिए भेजी जा चुकी है।

करंजा बीज ग्रेडिंग और मार्किंग नियम 2009 की प्रारंभिक प्रारूप अधिसूचना, पुवाद बीज ग्रेडिंग और मार्किंग नियम, 2009 की प्रारंभिक प्रारूप अधिसूचना भारत के 11 जून, 2009 के असाधारण गजट में भाग-2, खंड-3, उप खंड (1) में 4 जून, के आदेशानुसार प्रकाशित हो चुकी है। इसी दिन के गजट में 3 जून, 2009 के आदेश से सामान्य ग्रेडिंग और मार्किंग (संशोधन) नियम, 2009 (नौ फलों और सब्जियों के मानकों सहित, जिसे अरोडा की स्थायी समिति ने स्वीकृति प्रदान की है) विधि और न्याय मंत्रालय के राज भाषा ब्यूरो को हिंदी अनुवाद के लिए भेज दिया गया है।

लघु किसान कृषि व्यापार संगठन[सम्पादन]

सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत 18 जनवरी, 1994 को कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा लघु किसान कृषि व्यापार संगठन (एसएफएसी) की स्थापना की गई थी। इसके सदस्यों में रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, आईडीबीआई, एक्सिम बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कामर्स, नाबार्ड, केनरा बैंक, नैफेड, यूनाइटेड फासफोरस लिमिटेड हैं।

लघु किसान कृषि व्यापार संगठन कीअध्यक्षता केंद्रीय कृषि मंत्री द्वारा की जाती है जिसमें 20 सदस्यों का बोर्ड रहता है। संगठन द्वारा 18 राज्य स्तरीय लघु किसान कृषि व्यापार संस्थान स्थापित किए गए हैं। इस संगठन का प्रमुख उद्देश्य कृषि परियोजनाओं में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में आय और रोजगार अवसर बढ़ाने के लिए नए सुझावों को लागू करना है। एसएएफसी ने समग्र कोष योगदान 21 राज्य स्तरीय एसएएफसी की स्थापना की है। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व्यापार में निजी निवेश बढ़ाकर केंद्रीय क्षेत्र की योजना को सरकार ने 19 जुलाई, 2005 को दसवीं योजना की शेष अवधि में क्रियान्वयन के लिए 40 करोड़ रूपए आबंटित किए। योजना एसएफएसी कृषि व्यापार परियोजना के लिए वेंचर केपिटल सहायता और बेहतर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को तैयार करने वाले किसानों/उत्पादकों के समूहों को सहायता देने वाले व्यावसायिक बैंकों के साथ मिलकर लागू की जा रही है। इस योजना के प्रमुख उद्देश्य कृषि व्यापार परियोजना को स्थापित करने वाले निजी निवेशकों अौर बैंकों की भागीदारी से कृषि व्यापार को सुगम बनाना है जिससे उत्पादकों को सुनिश्चित बाजार उपलब्ध कराया जा सके, ग्रामीण आय और रोजगार के अवसर बढ़ाना, उत्पादकों के साथ कृषि व्यापार परियोजनाओं के लिए बेहतर माहौल बनाना, किसानों और उत्पादकों को सहायता देना, परियोजना विकास सुविधाओं के माध्यम से मूल्य कड़ी में भागीदारी बढ़ाने के लिए कृषि स्नातकों को सहायता देना और विशेष कृषि व्यापार परियोजनाएं स्थापित करने वाले कृषि व्यापारियों को प्रशिक्षण देना है। कृषि व्यापार परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता लघु किसान कृषि व्यापार संघ पूंजी की भागीदारी के अनुसार करता है। वित्तीय सहायता परियोजना की लागत पर निर्भर करती है। और इसका निम्नतम होगी- बैंक द्वारा आकलित कुल परियोजना लागत का 10 प्रतिशत, परियोजना इक्विटी का 26 प्रतिशत, 75 लाख रूपये।

जिन परियोजनाओं को अधिक पूंजी की आवश्यकता है या जो परियोजनाएं दूरदराज और पिछड़े इलाकों, पूर्वोत्तर राज्यों, पहाड़ी इलाकों में हैं या राज्यों की एजेंसियों द्वारा जिनकी सिफारिश की जाती है उन्हें अधिक सहायता देने के लिए संघ द्वारा विचार किया जाता है।

राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान[सम्पादन]

राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान 8 अगस्त, 1988 से जयपुर (राजस्थान) में कार्य कर रहा है। यह कृषि विपणन के क्षेत्र में प्रशिक्षण, सलाहकार सेवा और शिक्षा प्रदान करता है। भारत की कृषि विपणन में शीर्ष संस्था होने के नाते सरकार के कृषि मंत्रालय के नीति सलाहकार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

इस संस्थान का प्रबंधन कृषि मंत्री की अध्यक्षता में एक सरकारी संगठन तथा कृषि एवं सहकारी विभाग के सचिव की अध्यक्षता में एक कार्यकारी समिति करती है। प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्देश्य वर्तमान कृषि विपणन कर्मियों की कुशलता को बढ़ावा। कार्यक्रम में अंतर्गत गुणवत्ता मानक, फसलोपरांत प्रबंधन, अनुबंध खेती, कृषि विपणन सुधार, बाजारोन्मुख विस्तार एवं जोखिम प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी, महिला सशक्तिकरण, वैज्ञानिक भंडारण, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) आदि आते हैं। वर्ष 2008-09 में संस्थान ने 50 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए और 2009-10 में 50 प्रशिक्षण का आयोजन करेगा।

कृषि और बागवानी विभागों कृषि उद्योग, राज्य विपणन बोर्ड, कृषि उत्पाद विपणन समितियों, शीर्ष स्तर की सहकारी संस्थाओं, वस्तु बोर्ड, कृषि और प्रसंस्कारित खाद्य उत्पाद विकास प्राधिकरण

निर्यात संस्थाओं व्यावसायिक बैंकों और गैर सरकारी संगठनों के वरिष्ठ और मध्यम स्तर के अधिकारियों को प्रशिक्षण देता है।

संस्थान ने कई राज्यों कृषि विपणन विकास के लिए योजनाएं बनाई हैं। यह टर्मिनल बाजारों और कृषि आधारित परियोजनाओं के लिए परियोजना रिपोर्ट भी तैयार करता है।

संस्थान ने भूटान की शाही सरकार के लिए मास्टर विपणन योजना 2008 में पूरी की। एनआईएएम बहुल राज्यीय कृषि स्पर्धी परियोजना (एमएसएसीपी) के तहत विश्व बैंक छूट सहायता के लिए राज्य सरकारों को प्रस्ताव तैयार करने में सहायक शीर्ष संस्थान है। एनआईएएम ने 2008-09 में असम कृषि स्पर्धी परियोजना के विपणन घटकों के बारे में रिपोर्ट दी है। इनके अलावा संस्थान ने भारत के कृषि विपणन प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए यूएसएआईडी के साथ समझौते का क्रियान्वयन किया है। संस्थान कृषि वस्तु व्यापार के विभिन्न पहलुओं के बारे में डब्लूएटीएस, नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन करती है।

एनआईएएन अपने अध्यापकों और छात्रों के माध्यम से कृषि विपणन के विभिन्न मुद्दों पर व्यावहारिक अनुसंधान करवाता है। संस्थान एआईसीटीई द्वारा स्वीकृत दो वर्षीय स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम चला रहा है। इसमें अखिल भारतीय केंद्रों पर एनआईएएमएटी परीक्षा के माध्यम से पाठ्यक्रम में प्रवेश दिया जाता है।

पशुपालन[सम्पादन]

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पशुपालन और डेयरी विकास की महत्वपूर्ण भूमिका है। ग्रामीण परिवार, खासकर भूमिहीन और छोटे तथा सीमांत किसान पशुपालन को आय के पूरक स्रोत के रूप में अपनाते हैं। इस व्यवसाय से अर्द्धशहरी, पर्वतीय, जनजातीय और सूखे की आशंका वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सहायक रोजगार मिलता है, जहां केवल फसल की उपज से ही परिवार का गुजर-बसर नहीं हो सकता। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के अनुमान के अनुसार चालू मूल्य पर मछली और पशुपालन क्षेत्र का कुल योगदान वर्ष 2007-08 के दौरान 2,82,779 करोड़ रूपये था (इसमें 2,40,601 करोड़ रूपये पशु क्षेत्र के और 4, 2178 करोड़ रूपये मछली पालन क्षेत्र के थे), जो कि कृषि, पशु पालन और मछली क्षेत्र के कुल 9,36,597 करोड़ रूपये का 30 प्रतिशत है। वर्ष 2007-08 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद में इन क्षेत्रों का योगदान 5.21 प्रतिशत था।

विश्व में सबसे अधिक मवेशी भारत में हैं। दुनिया की कुल भैंसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का 14 प्रतिशत भारत में है। 2003 की मवेशी गणना के अनुसार, देश में करीब 18.5 करोड़ गाय-बैल तथा 9.8 करोड़ भैंसें हैं।

पशुपालन क्षेत्र का योगदान[सम्पादन]

देश की लगातार बढ़ती आबादी की (पशुओं से प्राप्त होने वाली) प्रोटीन की आवश्यकताएं पूरा करने में दूध, अंडा और मांस के रूप में खाद्य भंडार में पशुपालन क्षेत्र जबरदस्त योगदान कर रहा है। देश में फिलहाल प्रोटीन की प्रतिव्यक्ति दैनिक उपलब्धता 10 ग्राम है, जबकि इसका विश्व औसत 25 ग्राम है। किंतु बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए बढ़ते बच्चों और शिशुओं को दूध पिलाने वाली माताओं के पोषण-स्तर को बनाए रखने के लिए देश में प्रोटीन की उपलब्धता में कम से कम दुगनी बढ़ोतरी होनी चाहिए।

दूध उत्पादन — पिछली पंचवर्षीय योजनाओं में पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने के लिए सरकार ने कई प्रयास किए हैं, जिनके सुखद नतीजे के तौर पर दूध के उत्पादन में जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2007-08 में 10 करोड़ 49 लाख टन से अधिक दूध उत्पादन करने के साथ ही भारत दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया में पहले स्थान पर बना हुआ है।

अंडा उत्पादन — वर्ष 2007-08 के दौरान देश में 53.7 अरब अंडों का उत्पादन हुआ।

ऊन का उत्पादन — वर्ष 2007-08 के दौरान देश में ऊन उत्पादन 4 करोड़ 40 लाख किलोग्राम तक पहुंच गया।

अन्य पशु उत्पाद — पशुपालन क्षेत्र दूध, अंडे, मांस आदि के जरिए न केवल अनिवार्य प्रोटीन और पौष्टिक मानव भोजन उपलब्ध कराता है, बल्कि गैर-खाद्य कृषि सह-उत्पादों के उपयोग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पशुपालन में चमड़ा, खाल, खून, हड्डियां, चर्बी आदि कच्चा माल/सह उत्पादों की भी प्राप्ति होती है।

विभाग द्वारा लागू योजना/कार्यक्रम[सम्पादन]

पशु बीमा — गोवा को छोड़कर देश के सभी राज्यों में लागू की जानेवाली पशुबीमा योजना के दो प्रमुख उद्देश्य हैं, पहला- किसानों को सुरक्षित तंत्र मुहैया कराना और पशुओं के नुकसान की भरपाई करना और दूसरा- पशुओं और उनके उत्पादों में गुणवत्ता सुधार लाकर उसके लक्ष्य को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाना। देशभर के चुने हुए 100 जिलों में 2005-06 और 2007-08 के दौरान पशु बीमा योजना लागू की गई। 2007-08 में इसे उन्हीं जिलों में जारी रखा गया। 20 नवंबर 2008 को स्वीकृत पशु बीमा योजना 100 नए जिलों में नियमित आधार पर लागू की जा रही है।

2005-06 से 2007-08 तक योजना के उद्देश्यों की प्राप्ति और उसकी खामियों का पता लगाने के ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (आईआरएमए) को अध्ययन का काम सौंपा गया। उसके आधार पर दिए गए सुझावों और पहले के अनुभवों के आधार पर शुरू में लागू 100 जिलों सहित इसका विस्तार 300 जिलों में करने का फैसला किया गया।

योजना में प्रारंभिक स्तर पर गाय और भैंसों की उच्च नस्लों के अधिकतम वर्तमान मूल्यों के आधार पर बीमा किया जाता है। प्रीमियम का 50' लाभार्थी देता है, शेष केंद्र सरकार देती है। यह योजना राज्य कार्यान्वयन एजेंसियों, जैसे राज्य पशुपालन विकास बोर्ड और जिन राज्यों में बोर्ड नहीं है और राज्य पशु पालन विभागों द्वारा कार्यान्वित की जाती है। वर्ष 2008-09 में 17.59 करोड़ रूपए की लागत से 3.28 लाख पशुओं का बीमा किया गया। 2008-09 12.8 में लाख पशुओं के बीमे पर 59.80 करोड़ रूपए व्यय हुए। 18 जून, 09 तक 40,891 दावों में से 33,306 का भुगतान किया गया।

पशु जनगणना[सम्पादन]

देश में पशुधन और मुर्गियों की संख्या बहुत अधिक है, ग्रामीण लोगों के सामाजिक-आर्थिक दशा को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका है। विश्व में भारत भैंसों के मामले में पहले, मवेशी और बकरियों के मामले में दूसरे, भेड़ के मामले में तीसरे, बत्तखों के मामले में चौथे, मुर्गों के मामले में पांचवें और ऊंटों के मामले में छठवें स्थान पर है। इनसे कृषि मजदूरों, लघु एवं सीमांत किसानों, ग्रामीण महिलाओं, कृषि आधारित उद्योगों, दुग्ध उत्पादों, दुग्ध संयंत्रों, उर्वरक और कीटनाशकों, खाल और ऊन उत्पाद आदि में मदद मिलती है।

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में पशुधन का महत्व और उनके पुनउर्त्पादन और लघु जीवनकाल को देखते हुए सरकार ने पशुओं की गणना करने का फैसला किया। पहली गणना 1919-20 हुई थी और बाद में भी यह गणना हुई। 18वीं गणना 15 अक्टूबर, 2007 की संदर्भतिथि के साथ पूरी हो गई है। 18वीं पशु गणना के तीन कार्यक्रमों का प्रचार किया गया-(1) गृह सूची कार्यक्रम (2) गांव/वार्ड (आधारभूत ढांचा) और घर-गृहस्थी कार्यक्रम, (अ) पशुधन (ब) मुर्गीपालन (पश्चांगन/फार्म), पशु चालित कृषि उपकरण और (द) मत्स्य सांख्यिकी। सभी राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में, कुछ राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मिजोरम और त्रिपुरा को छोड़कर, पूरा हो गया है। बिहार में अभी पूरा होना है। असम और बिहार को छोड़कर सभी राज्यों/केंशाप्र से आंकड़े प्राप्त हो गए हैं। दोनों राज्यों में डाटा इंट्री का कार्य चल रहा है। अगस्त 2009 तक अबंटित परिणाम आने थे। विस्तृत आंकड़ों के लिए विभिन्न राज्यों/ केंशाप्र में डाटा इंट्री का कार्य चल रहा है। अखिल भारतीय स्तर पर घर-बार के विस्तृत परिणामों के जुलाई, 2010 तक जारी किए जाने की आशा है।

वर्ष 2007-08 में 27.62 करोड़ रूपए विधिमान्य किए गए और 2007-08 एवं 2008-09 में पशुगणना के लिए 203.67 करोड़ रूपए जारी किए गए। योजना के लिए बीई के तहत 2009-10 में 23.11 करोड़ रूपए दिए गए हैं।

गाय-बैल और भैंसों का विकास[सम्पादन]

देश में देसी नस्ल के गाय-बैलों की 27 और भैंसों की 7 नस्लें उपलब्ध हैं। दूध का उत्पादन बढ़ाकर प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता बढ़ाने के उद्देश्य से गाय, बैल और भैंसों में आनुवांशिक सुधार लाने के कई केंद्रीय और केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इस बात के भी प्रयत्न किए जा रहे हैं कि जिन देशी गायों, बैलों और भैंसों की प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है, उनका संरक्षण उनके क्षेत्रों में किया जाए। भावी नस्ल में सुधार लाने के लिए उत्तम नस्ल के सांड़ और गाय पैदा करने हेतु प्रशीतित भ्रूण उपलब्ध कराने की क्षमता के आधार पर विशिष्ट पशुओं का चयन और पंजीकरण किया जाता है।

गाय, बैल और भैंस प्रजनन की राष्ट्रीय परियोजना के अंतर्गत कार्यक्रम को लागू करने वाली एजेंसियों को शत-प्रतिशत सहायता दी जाती है। इस परियोजना में 28 राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश भाग ले रहे हैं। 2007-08 तक इन राज्यों को 398.36 करोड़ रूपए वित्तीय सहायता के रूप जारी किया जा चुका है। वित्तीय वर्ष 2008-09 में 89.70 करोड़ रूपए के आरई के मुकाबले 87.37 करोड़ रूपए जारी किए गए।

मवेशियों और भैंसों के श्रेष्ठ जनन द्रव्य (जर्म प्लाज्म) की पहचान और उसका पता लगाने, बेहतर जनन द्रव्य स्टॉक के प्रचार, उसके क्रय-विक्रय के नियमन, प्रजनकों की संस्थाएं बनाने में सहायता और देश के विभिन्न हिस्सों में बेहतर किस्म के सांडों की आपूर्ति के लिए एक केंद्रीय रेवड़ पंजीकरण योजना भी चलाई जा रही है। सरकार ने चार प्रजनन क्षेत्रों-रोहतक, अहमदाबाद, ओंगोल और अजमेर में केंद्रीय रेवड़ पंजीकरण इकाइयों की स्थापना की है। इन गाय प्रजातियों, जैसे-गिर कंकरेज, हरियाणा एवं ओंगोल तथा भैंसों की प्रजातियों (जैसे-जस्फराबादी, मेहसाणी, मुर्रा और सुरती) के पंजीकरण के लिए कुल मिलाकर 92 दुग्ध रिकार्डिंग केंद्र काम कर रहे हैं। वर्ष 2007-08 के दौरान 14711 पशुओं का प्राथमिक पंजीकरण किया गया।

देश में सात केंद्रीय पशु प्रजनन फार्म हैं। ये सूरतगढ़ (राजस्थान), चिपलीमा और सुनबेडा (उड़ीसा), धमरोड़ (गुजरात), हैसरघट्टा (कर्नाटक), अलमाडी (तमिलनाडु) और अंदेशनगर (उत्तर प्रदेश) में स्थित हैं, जो गाय, बैल और भैंस प्रजनन की राष्ट्रीय परियोजना के अंतर्गत गायों, बैलों तथा भैंसों के वैज्ञानिक प्रजनन कार्यक्रमों और उम्दा नस्ल के सांड़ों, गायों, बैलों और भैंसों के प्रजनन के लिए ऊंची नस्ल के सांड़ और प्रशीतित वीर्य के कार्य में लगे हैं। यह फार्म किसानों और प्रजकों को प्रशिक्षण भी देते हैं। 2008-09 के दौरान इन फार्मों ने देश के विभिन्न भागों में कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रम के अंतर्गत इस्तेमाल करने के लिए 346 बछड़े तैयार किए तथा उच्च प्रजाति के 245 सांड़ सप्लाई किए। फार्म प्रशिक्षण प्रेक्टिस और वैज्ञानिक प्रजनन प्रदर्शन में 3711 व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया गया। डेयरी फार्म प्रबंधन में 2912 किसानों को प्रशिक्षित किया गया।

हेस्सरगटटा (बेंगलुरू) स्थित सेंट्रल फ्रोजेन सीमेन प्रोडक्शन एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (सीएफएसपी और टीआई) कृत्रिम गर्भाधान के लिए देसी, विदेशी संकर नस्ल के जानवरों और मुर्ग भैसों के हिमशीतित वीर्य तैयार कर रहा है। संस्थान राज्य सरकारों के तकनीकी अधिकारियों को वीर्य प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण प्रदान करने के अलावा देश में तैयार हिमशीतित वीर्य और कृत्रिम गर्भाधान के उपकरणों (एआई) के परीक्षण केंद्र का भी कार्य करता है। संस्थान 2008-09 में 8.66 लाख खुराक तैयार करने के अलावा 227 लोगों हिमशीतित वीर्य प्रौद्योगिकी और यंत्रों के बारे में प्रशिक्षण प्रदान किया।

मुर्गीपालन विकास[सम्पादन]

सरकार के अनुसंधान और विकास योजनाओं और निजी क्षेत्र के संगठित बाजार प्रबंधन के कारण देश में मुर्गीपालन में उत्तरोत्तर प्रगति हुई है।

भारत 489 मिलियन मुर्गियों तथा प्रतिवर्ष 47 बिलियन अंडा उत्पादन के आधार पर विश्व के तीन शीर्ष अंडा उत्पादक देशों में शामिल है। ब्रोइअल उत्पादन 8-10 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है और वर्तमान में भारत 2.0 मिलियन मीट्रिक टन चिकन मांस वार्षिक पैदा करता है। वर्तमान में अंडों और चिकन मांस की प्रति व्यिQ उपलब्धता 1970 के 10 अंडों और 146 ग्राम से बढ़कर 41 अंडे तथा 1.6 किग्रा हो गई है। मुर्गीपालन तथा उत्पादों में भारत का विश्व में एक छोटा हिस्सा है फिर भी पिछले दशक में देश ने निर्यात में उल्लेखनीय प्रगति की है। वर्ष 1993-94 में निर्यात 11 करोड़ रूपए कम था, मुर्गीपालन क्षेत्र लगभग 30 लाख लोगों को प्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराने के अतिरिQ बहुत से भूमिहीन तथा सीमांत किसानों के लिए सहयोगी आमदनी पैदा करने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों को पोषण सुरक्षा प्रदान करने का एक शिQशाली साधन है। भूमि हीन श्रमिक अपनी 50 प्रतिशत आमदनी पशुधन विशेषकर मुर्गीपालन से अर्जित करते हैं।

देश को किसानों की सहायता के चार क्षेत्रवार केंद्रों का पुनर्गठन कर एकल खिड़की सुविधा प्रदान की गई है। इन क्षेत्रीय केंद्रीय मुर्गीपालन विकास संगठन (सीपीओ) चंडीगढ़, भुवनेश्वर, मुंबई और हेसरघट्टा में किसानों को तकनीकी कुशलता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। गुड़गांव स्थित केंद्रीय कुक्कुट निष्पादन परीक्षण केंद्र (रेंडम सैंपल पोल्ट्री परफोर्मेंस टेसि्ंटग सेंटर सीपीपीटीसी) को लेयर और ब्रोइलर प्रजातियों के निष्पादन परीक्षण का काम सौंपा गया है। यह केंद्र एक लेयर दो ब्रोइलर परीक्षण एक वर्ष में करता है।

कैबिनेट की आर्थिक मामलों की समिति ने 11वीं योजना के तीसरे वर्ष 2009-10 से मुर्गीपालन विकास की केंद्र प्रायोजित योजना को मंजूरी दी और 150 करोड़ रूपए आबंटित किए। इसके तीन घटक हैं, यथा राज्य मुर्गी फार्मों को सहायता (जो जारी घटक है) और दो नए घटकों में पहला "रूरल बैकयार्ड पॉल्ट्री डेवलपमेंट" भाग किसानों को वैज्ञानिक तरीके से संगठित गतिविधियां चलाने में समर्थ बनाएगा तथा दूसरा "पॉल्ट्री एस्टेट" है। योजना की प्रशासनिक स्वीकृत और दिशा-निर्देश जारी किए जा रहे हैं।

राज्यों के मुर्गीपालन फार्मों को सहायता का उद्देश्य वर्तमान फार्मों को बनाना है ताकि वे ग्रामीणों को अच्छी किस्म की मुर्गियां दे सकें। रूरल बैकयार्ड पाल्ट्री डेवलपमेंट कंपोनेंट अंतर्गत समाज के गरीबी की रेखा के नीचे के अधिक से अधिक जरूरतमंदों को लाया जाएगा ताकि उन्हें पूरक अन्य और पोषण प्राप्त हो सके। "पाल्ट्री एस्टेट्स" के अग्रणी घटक से शिक्षित बेरोजगार युवकों और छोटे किसानों की उद्यम कुशलता बढ़ाई जाएगी जिससे मुर्गीपालन से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों से वैज्ञानिक और सामूहिक दृष्टिकोण से उसे लाभकारी बना सकें।

भेड़ विकास[सम्पादन]

2003 की मवेशी गणना के अनुसार देश में लगभग 6.147 करोड़ भेड़ और 12.436 करोड़ बकरियां हैं। देश भर में लगभग 50 लाख परिवार भेड़, बकरी, खरगोश आदि के पालन तथा इससे संबद्ध गतिविधियों में लगे हुए हैं। वर्ष 2006-07 में 45.1 मिलियन किलोग्राम ऊन का उत्पादन हुआ। केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म, हिसार में जलवायु के अनुकूल अच्छी नस्ल की विदेशी/संकर भेड़ें पैदा की जा रही हैं। वर्ष 2008-09 के दौरान फार्म द्वारा 694 नर भेड़ें और 95 बतखे उपलब्ध कराई गईं। 44 किसानों को ऊन की कटाई और 633 किसानों को भेंड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया गया।

संकटग्रस्त नस्लों का संरक्षण[सम्पादन]

देश में कई शुद्ध नस्लों के पशुओं की संख्या लगातार कम होती जा रही है। कुछ की संख्या दस हजार से भी कम हो गई है। ऐसे पशुओं को "संकटग्रस्त नस्लों" के अंतर्गत माना जाता है। इनमें जुगाली करने वाले पशु, अश्व जाति, सूअर और लद्द किस्म की कुछ प्रजातियां शामिल हैं।

ऐसे विलुप्तप्राय नस्लों के संरक्षण के लिए दसवीं पंचवर्षीय योजना में केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित एक नई परियोजना शुरू की गई है। इसके लिए बजट में 15 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। ऐसी नस्लों के पशुओं की पैदाइश के लिए संबंधित राज्यों में फार्म की स्थापना की गई है। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा शत-प्रतिशत सहायता देने का प्रावधान है। संरक्षण परियोजनाएं राज्य सरकार, विश्वविद्यालयों और गैर सरकारी संगठनों द्वारा कार्यान्वित की जा रही हैं। दसवीं योजनावधि के दौरान 27 नस्लों के लिए संरक्षण परियोजना शुरू की गई है। वर्ष 2007-08 के दौरान संकटग्रस्त नस्लों के संरक्षण हेतु 136.06 अरब रूपये जारी किए जिसमें से गुर अंगददेव वेटोरिनरी एंड एनीमल साइंस यूनिवर्सिटी, लुधियाना को 30 लाख रूपये, काठियावाड़ी घोड़ों के लिए गुजरात सरकार को 36.81 लाख रूपये, मुज़फ्फरनगरी भेड़ के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को 28.25 लाख रूपये तथा योजना के मूल्यांकन के लिए नाबार्ड कंसल्टेंसी सर्विसेज (नेबकॉस) को 9 लाख रूपये शामिल हैं। 11वीं योजना में आबंटन 16 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 2008-09 में 45 करोड़ रूपए कर दिया गया है। 11वीं योजना में उन मुर्गियों और बतखों की नस्लों को भी इसके अंतर्गत लाया जाएगा, जिनकी संख्या 1000 से अधिक है। योजना के तहत 2008-09 में आबंटन 1.94 करोड़ रूपए थे, जिसके एवज में 194.95 लाख मार्च 2009 तक जारी किए गए। इसमें गुजरात को सुरती बकरियों के संरक्षण के लिए (32.25 लाख रूपए) और ऊंटों के संरक्षण के लिए 68 लाख रूपए, केरल पशुधन विकास बोर्ड को अट्टापैडी बकरियों के संरक्षण के लिए (27.25 लाख रूपए) और अंगामैली सूअरों के लिए (9.20 लाख रूपए), जम्मू और कश्मीर को टट्टुओं के संरक्षण के लिए (6 लाख रूपए), अंगददेव वेटोरिनरी एंड एनीमल साइंस यूनीवर्सिटी, लुधियाना को बीटल बकरियों के संरक्षण के लिए 30 लाख रूपये तथा योजना के मूल्यांकन के लिए नाबार्ड कंसल्टेंसी सर्विसेज (नेबकॉस) को 2008-09 में 2.25 लाख रूपये शामिल हैं।

लघु जुगाली पशुओं और खरगोशों का एकीकृत विकास[सम्पादन]

अप्रैल के आखिरी पखवाड़े में 2009 में 11वीं योजना के पूरक के रूप में केंद्रीय क्षेत्र की एक नई योजना 134.825 करोड़ रूपए के आबंटन के साथ स्वीकृत की गई जिसमें से 18.33 करोड़ रूपए 2009-10 की बीई है। योजना के तहत 54 लघु जुगाली पशुओं के विकास समूह नाबार्ड की वेंचर पूंजी के अलावा राज्य की कार्यान्वयन एजेंसी के माध्यम से ढांचागत विकास और संस्थागत पुनर्गठन किया जाएगा।

मांस उत्पादन/प्रसंस्करण और निर्यात[सम्पादन]

कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के तहत निर्मातोन्मुख एकीकृत आधुनिक बूचड़खाने और मांस प्रसंस्करण संयंत्र रजिस्टर किये गये हैं। कच्चा मांस (प्रशीतित) करीब 56 देशों में निर्यात किया जा रहा है। 2007-08 में लगभग 483478 मी.ट. कच्चा मांस और 8908.72 मी.ट. भेड़। बकरी का मांस निर्यात किया गया जिसकी कीमत क्रमश— 3547.79 करोड़ रूपए और 134.09 करोड़ रूपए थी। अप्रैल 2008 और फरवरी 2009 तक 4859 करोड़ रूपए मूल्य का मांस और उसके उत्पाद का निर्यात किया गया। निर्यात में रूपए के संदर्भ में 31.9190 की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई।

सूअरपालन विकास[सम्पादन]

वर्ष 2003 में मवेशी गणना के अनुसार देश में 139.19 लाख सूअर हैं जिनमें से 21.80 लाख बेहतरीन और विदेशी नस्ल के हैं। इस समय देश में राज्य सरकारों/केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों द्वारा चलाए जा रहे करीब 158 सूअर-पालन फार्म हैं। इन फार्मों में लार्ज यार्कशायर, हैंपशायर, लैंडरेस आदि उन्नत नस्लों के सूअर रखे जाते हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान वृहद प्रबंधन योजना के तहत एकीकृत सूअर विकास योजना शुरू करने के लिए योजना आयोग और अन्य संबंधित एजेंसियों से परामर्श किया जा रहा है।

चारा और दाना विकास[सम्पादन]

समुचित वैज्ञानिक पद्धतियों, पौष्टिक आहार और चारे की उपलब्धता के जरिए विशाल पशुधन का विकास करना अत्यंत आवश्यक है। चारे के उत्पादन की वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में सात क्षेत्रीय केंद्र स्थापित किए गए हैं। ये केंद्र चारे के बेहतर किस्मों के बेहतरीन बीजों के उत्पादन और वैज्ञानिक चारा उत्पादन प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण अधिकारियों/ किसानों को प्रशिक्षण देकर नवीनतम चारा पद्धतियों के प्रदर्शन तथा किसानों के लिए मेलों के आयोजन के माध्यम से करते हैं। वर्ष 2008-09 के दौरान इन केंद्रों में 212.50 मीट्रिक टन उच्च किस्म के चारा बीज का उत्पादन किया गया, 6249 क्षेत्रीय प्रदर्शन आयोजित किये गये, 110 प्रशिक्षण कार्यक्रम और 116 किसान मेले आयोजित किये गये।

वर्ष 2008-09 के दौरान हैसारघट्टा (कर्नाटक) स्थित केंद्रीय चारा बीज उत्पादन फार्म ने स्थानीय केंद्र के रूप मे कार्य करके इसी तरह का लक्ष्य हासिल किया। इस केंद्र ने 66.01 मीट्रिक टन विभिन्न किस्मों के चारा बीजों का उत्पादन किया, 605 क्षेत्रीय प्रदर्शन, 12 प्रशिक्षण कार्यक्रम और 12 किसान मेले आयोजित किये। राज्यों के पशुपालन निदेशालयों के माध्यम से बड़े पैमाने पर चारे की नई किस्मों को लोकप्रिय बनाने के लिए एक केंद्रीय मिनीकिट टेस्टिंग कार्यक्रम भी लागू किया जा रहा है। 2008- 09 के दौरान राज्यों को किसानों को मुफ्त 6.34 लाख मिनीकिट वितरित करने का काम सौंपा गया। इसके अलावा चारा मंडल (फोडर ब्लॉक) इकाइयों को स्थापित करने के लिए 2005-06 से केंद्र द्वारा प्रायोजित चारा विकास योजना लागू की जा रही है जिसमें घास के लिए भूमि विकास, चारा बीज उत्पादन और जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान परियोजनाएं भी शामिल हैं। वर्ष 2008-09 में राज्यों को 924.91 लाख रूपये जारी किए गए।

इसके अलावा महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में किसानों द्वारा आत्महत्या करने वाले जिलों के लिए विशेष पशुधन पैकेज लागू किया गया, जिसके अंतर्गत, 2008-09 में दाना और चारा आपूर्ति कार्यक्रम और चारा ब्लाक बनाने वाले ईकाइयों की स्थापना के लिए 1382 लाख रूपए जारी किए गए।

डेयरी विकास[सम्पादन]

भारत डेयरी उद्योग ने आठवीं योजना अवधि से 2007-08 के अंत तक 10.48 करोड़ टन दूध का वार्षिक उत्पादन करके उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है। इससे विश्व में न केवल भारतीय डेयरी उद्योग का स्थान पहला हो गया है, बल्कि यह अधिक दूध और दूध-उत्पाद की उपलब्धता में स्थायी विकास का भी परिचायक है। 2008-09 में डेयरी विकास के लिए सरकार ने चार योजनाएं विकसित की हैं।

गहन डेयरी विकास कार्यक्रम[सम्पादन]

आठवीं योजना के दौरान किये गये मूल्यांकन के आधार पर गहन डेयरी विकास कार्यक्रम में कुछ बदलाव करके ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में इसे जारी रखा गया है। इसके लिए 2009-10 में 32.49 करोड़ रूपये आबंटित किये गये हैं। अब तक 25 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में 489.84 करोड़ रूपये के आबंटन के साथ ही 86 परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई है। 31 मार्च, 2000 तक विभिन्न राज्य सरकारों के लिए 373.82 करोड़ रूपये की राशि जारी की गई और 207 जिलों को इसके अंतर्गत लिया गया। इस योजना से करीब 18.79 लाख किसान परिवार लाभान्वित हुए और 31 मार्च, 2009 तक 26,882 ग्रामीण स्तरीय डेयरी सहकारी समितियां आयोजित की गईं।

शुद्ध एवं गुणवत्तायुक्त दूध उत्पादन के लिए मूलभूत ढांचे को सुदृढ़ बनाना[सम्पादन]

वर्ष 2003 अक्टूबर, के दौरान प्रायोजित एक नई केंद्रीय योजना प्रारंभ की गई जिसका मुख्य उद्देश्य देश में ग्राम स्तर पर कच्चे दूध की गुणवत्ता को सुधारना था। इस योजना में दुग्ध उत्पादकों को दूध उत्पादन के प्रशिक्षण की सहायता दी जाती है। यह योजना राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के शत-प्रतिशत अनुदान सहायता के आधार पर कार्यान्वित की जा रही है। इसमें दुग्ध उत्पादकों को प्रशिक्षण, डिटर्जेंट, स्टेनलेस स्टील के बर्तन और प्रयोगशालाओं को सुदृढ़ बनाना है जिसके लिए गांव स्तर पर दूध प्रशीतन सुविधाएं स्थापित करने के लिए 75 प्रतिशत वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई है। इस योजना के अंतर्गत 31 मार्च, 2009 तक कुल 195.17 करोड़ रूपये की कुल लागत के साथ 13 परियोजनाएं स्वीकृत की गई हैं। इसमें केंद्र का हिस्सा 159 करोड़ रूपये का है। 31 मार्च 2009 तक स्वीकृत परियोजना गतिविधियों को लागू करने के लिए राज्य सरकारों के केंद्रीय अंश के रूप में 128.11 करोड़ रूपए जारी किए गए हैं। 31 मार्च 2009 तक 5,30,468 किसान लाभान्वित हो चुके हैं। इस दौरान उनके दुग्ध उत्पादों के विपणन और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए 21.05 लाख लीटर के दुग्ध प्रशिक्षण कूलर स्थापित किए गए।

सहकारी संस्थाओं को दी जाने वाली सहायता[सम्पादन]

राज्य और जिला स्तर पर नुकसान में जा रही डेयरी सहकारिता यूनियनों को पुनर्जीवित करने के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) दुग्ध यूनियनों, राज्य सरकारों से विचार-विमर्श कर कार्यक्रम तैयार करती है। परियोजना को कार्यान्वित करती है और इसकेज़रिये दुग्ध यूनियनों को केंद्रीय सहायता उपलब्ध कराती है। 50 करोड़ रूपये के अनंतिम परिव्यय के साथ योजना ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान चलाई जा रही है। 1999-2000 में योजना लागू होने से अब तक विभाग द्वारा 31 मार्च 2008 तक 197.37 करोड़ रूपये (98.68 करोड़ रूपये केंद्रीय सहायता सहित) के कुल व्यय के साथ 12 राज्यों में दुग्ध यूनियनों के 32 पुनर्वास पुनरूत्थान प्रस्ताव मंजूर किये गये। यह राज्य हैं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, असम, नगालैंड, पंजाब, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और तमिलनाडु, जिसके लिए 31 मार्च, 2009 तक 230.94 करोड़ रूपए जिसमें 115.66 करोड़ रूपए केंद्रीय हिस्सा है, मंजूर किए गए। 31 मार्च 2008 तक 88.19 करोड़ रूपए जारी किए बीई 2009-10 में 9 करोड़ रूपए प्रदान किए गए जिसमें से 155.495 लाख रूपए संबंद्ध यूनियनों को 20 अगस्त, 2008 तक जारी किए गए।

डेयरी उद्यम पूंजी कोष[सम्पादन]

असंगठित क्षेत्र में ढांचागत परिवर्तन लाने के लिए कई कदम उठाए गए जिनमें ग्राम स्तर पर दूध का प्रसंस्करण, कम लागत में पॉश्च्यूराइ ड दूध की बिक्री, आधुनिक उपकरणों के माध्यम से व्यावसायिक स्तर पर पारंपरिक प्रौद्योगिकी को इस्तेमाल करना और प्रबंधन कुशलता और ग्रामीण दूध उत्पादकों, मुर्गीपालकों/किसानों के लिए अच्छी नस्ल वाले पक्षियों के लिए प्रोत्साहन देना शामिल हैं। इसके लिए दसवीं योजना में एक नई योजना डेयरी/पोल्ट्री उद्यम पूंजी कोष नामक केंद्रीय योजना शुरू की गई। योजना के अंतर्गत ग्रामीण/शहरी स्तर पर बैंक परियोजनाओं के माध्यम से 50' ब्याज मुक्त ऋण दिया जाता है। नाबार्ड द्वारा कार्यान्वित योजना के लिए केंद्र सरकार धन देती है। योजना के तहत उद्यमी को 10' धनराशि देनी होती है और 40' स्थानीय बैंक से ऋण लेना पड़ता है। सरकार ब्याज मुक्त 50' ऋण नाबार्ड के माध्यम से देती है। किसानों की कृषि संबंधित गतिविधियों के देय राशि के ब्याज में भी सरकार 50' सहायता देती है, लेकिन भुगतान नियमित समय से हो।

योजना 25 करोड़ रूपये के कुल परिव्यय के साथ दिसंबर 2004 में स्वीकृत हुई थी। इस योजना का कार्यान्वयन नाबार्ड के माध्यम से हो रहा है और नाबार्ड को फंड दिया जाता है जिसे रिवॉल्विंग फंड के रूप में रखा जाता है। 31 मार्च 2008 तक योजना के क्रियान्वयन के लिए नाबार्ड को 112.99 करोड़ रूपये दिए जा चुके हैं। 2009-10 के दौरान योजना के क्रियान्वयन के लिए 38 करोड़ रूपये का बजट प्रावधान है जिसमें से 31 जुलाई 2009 तक 10 करोड़ रूपये जारी किए जा चुके हैं।

दूध और दुग्ध उत्पाद आदेश, 1992[सम्पादन]

खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम 2006 पारित होने के बाद एमएमपीओ-92 से संबंद्ध कार्य स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के तहत आ गए हैं।

राष्ट्रीय डेयरी योजना[सम्पादन]

सरकार 2021-22 तक सालाना 18 करोड़ टन दूध उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने के उद्देश्य से 17000 करोड़ रूपए से अधिक की लागत से राष्ट्रीय डेयरी योजना शुरू करने की संभावनाओं की जांच कर रही है। दूध उत्पादन अगले 15 वर्ष में 4' की दर से हर साल 50 लाख टन बढ़ने की आशा है। योजना के तहत सरकार बड़े दूध उत्पादन क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने और वर्तमान तथा नए संस्थागत ढांचों के माध्यम से दूध उत्पादन, प्रसंस्करण और बाजार में पहुंचाना चाहती है। योजना में नस्ल, पशु चारा उत्पादन बाई-पास प्रोटीन और खनिज मिश्रण बढ़ाने के लिए संयंत्रों की स्थापना की बात है। योजना में संगठित क्षेत्र में उत्पादित बचे दूध का 65' वसूली का प्रस्ताव है, जबकि अभी यह 30' है। परियोजना के लिए विश्व बैंक से धन राशि लेने के प्रयास चल रहे हैं।

पशु स्वास्थ्य[सम्पादन]

भारत में पशुओं के स्वास्थ्य में कई तरह से सुधार हुआ है और पशुपालन के स्तर में भी कई बदलाव आए हैं। विश्व व्यापार संगठन से हुए समझौते से उदारीकरण की वजह से देश में बहुत सी विदेशी बीमारियों का प्रवेश हुआ है। क्रॉस ब्रीड कार्यक्रम को व्यापक तौर पर लागू करने के लिए पशुओं की गुणवत्ता में सुधार होने के साथ-साथ पशुओं में कई तरह की नई बीमारियां भी बढ़ी हैं। विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी मानकों के अनुसार बीमारियों से मुक्त पशुओं के लिए पशु स्वास्थ्य कार्यक्रमों की मदद से एक प्रमुख स्वास्थ्य योजना शुरू की गई है।

पशुओं में बीमारियां कम करने और उनकी जन्म दर बढ़ाने के लिए राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों, पोलीक्लिनिक, पशुओं के अस्पतालों, डिसपेंसरियों, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र और चलती-फिरती पशु डिस्पेंसरियों द्वारा कई प्रयास किए जा रहे हैं।

राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में बीमारियों का जल्दी और विश्वसनीय इलाज करने के लिए 27,562 पोली क्लीनिक, अस्पताल और डिसपेंसरियां और 25,195 पशु सहायता केंद्र खोले गए हैं। इसके अलावा 250 रोग निदान केंद्र खोले गए हैं। पशुओं के रोगों और मुर्गियों में होने वाली बीमारियों की कई रोगनिरोधक टीकों से रोकथाम की जा रही है। इसके लिए देश में पशु टीका उत्पादन की 27 इकाइयों में रोग निरोधक टीकों का उत्पादन किया गया है। इन इकाइयों में 21 इकाइयां सार्वजनिक क्षेत्र की और 6 इकाइयां निजी क्षेत्र की हैं। आवश्यकता पड़ने पर निजी एजेंसियों द्वारा रोगनिरोधक टीकों का आयात भी किया जा सकता है।

पशु संगरोधन और प्रमाणीकरण सेवा[सम्पादन]

इस सेवा का काम भारत में पशुओं और पशुओं से संबंधित उत्पादों के आयात से होने वाली बीमारियों के प्रवेश को रोकना है। इसके अलावा भारत से निर्यात होने वाले पशुओं को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप निर्यात प्रमाणीकरण करना भी है। इस सेवा के 4 केंद्र नई दिल्ली, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता में हैं। हैदराबाद और बेंगलुरू में दो अतिरिक्त पशु संगरोधन केंद्र की स्थापना तथा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के हवाई अड्डों, बंदरगाहों और अंतर्राष्ट्रीय कंटेनर डिपो के प्रचालन क्षेत्र में अतिरिQ संगरोधन इकाइयां स्थापित कर चारों संगरोधन केंद्रों को मजबूत कर पशु क्षेत्र जैव सुरक्षा मजबूत करने का निश्चय किया गया है। समुद्री क्षेत्र में जैव सुरक्षा मजबूत करने के लिए मुंबई संगरोधन इकाई और मुख्यालय में समन्वय इकाइयां स्थापित की जाएंगी। हैदराबाद और बेंगलुरू में संगरोधन केंद्रों के जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है। मुर्गीपालन के सामान, पालतू जीव, प्रयोगशाला के लिए जीव और पशु उत्पादों का आयात हैदराबाद हवाई अड्डे से शुरू हो गया है।

राष्ट्रीय पशु जैविकी उत्पाद गुणवत्ता नियंत्रण केंद्र[सम्पादन]

जैविकी और टीकों की गुणवत्ता के लिए नौवीं पंचवर्षीय योजना के अंत में बागपत, उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय पशु चिकित्सा जैविकी गुणवत्ता नियंत्रण केंद्र स्थापित किया जा चुका है। इसके उद्देश्य हैं —

  1. टीकों, जैविकी, दवा, निदान और पशु स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य वस्तुओं के निर्माताओं को लाइसेंस

देने की सिफारिश।

  1. जैविकी जांच में संदर्भ सामग्री के रूप में इस्तेमाल के लिए मानक उपक्रम की स्थापना।
  2. देश में उत्पादित और आयातित पशु चिकित्सा संबंधी सामग्री की गुणवत्ता सुनिश्चित करना।

कार्यालय और प्रयोगशाला की इमारतें बन गई हैं। आशा है कि संस्थान शीघ्र ही पूरी तरह से कार्य करने लगेगा।

केंद्रीय/क्षेत्रीय रोग निदान प्रयोगशालाएं[सम्पादन]

राज्यों में पहले से मौजूद रोग निदान प्रयोगशालाओं को बेहतर बनाने के उद्देश्य से मौजूदा सुविधाओं में इजाफा किया गया है। इसके तहत एक केंद्रीय और पांच क्षेत्रीय रोग निदान प्रयोगशालाएं खोली गई हैं। पशु रोग अनुसंधान एवं रोग निदान केंद्र, इज्जतनगर केंद्रीय प्रयोगशाला के रूप में काम कर रहा है। यह प्रयोगशाला भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के अंतर्गत है। डिजीज इन्वेस्टिगेशन लेबोरेटरी, पुणे; पशु स्वास्थ्य एवं पशु चिकित्सा जैविकी संस्थान, कोलकाता; पशु चिकित्सा और जीव विज्ञान संस्थान, बंगलौर; पशु स्वास्थ्य संस्थान, जालंधर और पशु चिकित्सा जैविकी, खानापार, गुवाहाटी पांच प्रयोगशालाएं क्रमश— पश्चिमी, पूर्वी, उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में कार्य कर रही हैं।

सीडीडीएल/आरडीडीएल के मुख्य उद्देश्य हैं — (i) उत्कृष्टता केंद्र के रूप में कार्य करना संदर्भित-निदान सेवाएं राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों और बाद में पड़ोसी देशों को प्रदान करना।

(ii) पशुओं में होने वाली बीमारी मुख्य रूप से बोवाइन राइनोट्रैकेटिस, नीली जुबान, जुगाली करने वाले पशुओं में पेस्ट डेस पोटिट्स, भेड़ और बकरियों में भेड़ चेचक आदि, सुअरों में स्वाइन बुखार, घोड़ों में ग्लैंडरर्न, इक्वीन राइनोन्यूमोनिटिस कुत्तों में कैनी पार्वोवायरस, पक्षी इन्फ्लुएंजा, पक्षी इनसेफ्लाटिस, मुर्गियों में संक्रामक लैरिंगोट्ैकेटिस आदि की समस्याओं का अध्ययन करना।

(iii) प्रयोगशाला और क्षेत्र में बीमारी जांच अधिकारियों और क्षेत्र में कार्यरत पशुविज्ञानियों को आधुनिक निदान तकनीकी का प्रदर्शन।

(i1) संक्रामक पशु बीमारियों के अंतर्राज्यीय संक्रमण और उपचारात्मक उपायों से जुड़ी समस्याओं का अध्ययन।

पशु स्वास्थ्य एवं रोग नियंत्रण

देश में पशु स्वास्थ्य से संबंधित सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लागू करने और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले पशुओं के स्वास्थ्य के लिए पशु स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम के तहत निम्नलिखित कदम उठाए गए हैं —

पशु रोग नियंत्रण के लिए राज्यों को सहायता — इस कदम के अंतर्गत राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सहायता उपलब्ध कराई जाती है — जिसमें टीकाकरण, मौजूदा पशु चिकित्सा जैविकी उत्पादन इकाइयों को सुदृढ़ बनाना, मौजूदा रोग निदान प्रयोगशालाओं को सुदृढ़ बनाना और पशु चिकित्सकों और इस क्षेत्र में काम कर रहे अन्य व्यक्तियों को प्रशिक्षण देना शामिल है। कार्यक्रम का कार्यान्वयन केंद्र और राज्य सरकारों के बीच 75 — 25 की हिस्सेदारी से लागू किया जा रहा है, लेकिन प्रशिक्षण और संगोष्ठियों/कार्यशालाओं के केंद्र 100' सहायता देता है। इसके अलावा सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में पशुओं या मुर्गियों में होने वाली बीमारियों से संबंधित सूचनाओं को एकत्र करना भी इस घटक में शामिल है। इन सूचनाओं को मासिक एनिमल डिजीज सर्विसलेंस बुलेटिन

में प्रकाशित करके सभी राज्यों में वितरित किया जाता है। इसे विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (ओआईई), एनीमल प्रोडक्शन ऐंड हैल्थ कमिश्नर फॉर एशिया ऐंड पेसीफिक में भी इन सूचनाओं को भेजा जाता है। सूचना प्रणाली को ओआईई के दिशा-निर्देशों के अनुसार समस्वरित किया गया है। राष्ट्रीय पशु प्लेग (रिंडरपेस्ट) उन्मूलन परियोजना (एनपीआरई) — इस परियोजना का उद्देश्य देश में पशु प्लेग (रिंड्रपेस्ट) और संक्रामक बोवाइन प्लूरो निमोनिया का उन्मूलन करना है और विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (ओआईई) और पेरिस द्वारा सुझाए गए कदमों से इन बीमारियों से मुक्ति पाना। ओआईई ने भारत को पशु प्लेग रिंडरपेस्ट और संक्रामक बोवाइन प्लूरो निमोनिया से क्रमश— 26 मई, 2006 और 26 मई, 2007 को मुक्त घोषित कर दिया। इसीलिए व्यापार और निर्यात के लिए आवश्यक है कि इन दो बीमारियों से मुक्ति बनी रहे। राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के पशुपालन विभाग के कर्मचारियों द्वारा पूरे देश में जांच जारी है ताकि इस मुक्ति के स्तर को बनाए रखा जा सके। देश में पशु प्लेग के 25 लाख टीके छह टीका बैंकों में सुरक्षित रखे गए हैं, ताकि पशु प्लेग के पुन— फैलने पर उनका उपयोग किया जा सके।

(ii) मुंह पका-खुर पका रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एफएमडी-सीसी) — मुंह पका-खुर पका रोग को नियंत्रित करने के लिए देश के 54 जिलों में मुंह पका-खुर पका रोग नियंत्रण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके लिए पशुओं को छह माह में टीका लगाया जाता है। पंजाब को छोड़कर भागीदारी करनेवाले सभी राज्यों में इस टीकाकरण के पांच चरण पूरे हो चुके हैं। महाराष्ट्र और गुजरात में नौवां दौर भी पूरा हो चुका है। हर चरण में 2 करोड़ 80 लाख टीके लगाए जाते हैं।

(iii) पेशेवर क्षमता विकास (पीईडी) — इस योजना का उद्देश्य वेटनरी प्रैक्टिस को नियमित करना और भारतीय पशु चिकित्सक परिषद् अधिनियम 1984 के प्रावधानों के अनुरूप पशु चिकित्सा प्रैक्टिशनरों का रजिस्टर रखना और पशु चिकित्सा शिक्षा (सीवीई) के माध्यम से पशु चिकित्सकों को आधुनिक तकनीकी प्रदान कर उनकी क्षमता बढ़ाना है। योजना में केंद्र में भारतीय पशु चिकित्सा परिषद् और भारतीय पशु चिकित्सा परिषद् अधिनियम को अपनाने वाले राज्यों में राज्य पशु चिकित्सा परिषद् की स्थापना की बात है। वर्तमान में यह जम्मू और कश्मीर को छोड़कर देश के सभी राज्यों में लागू है। एवियन एन्फ्लूएंजा के नियंत्रण और रोकथाम करने की तैयारी — 18 फरवरी, 2006 में जब पहली बार भारत के पश्चिमी हिस्से महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ इलाकों में एवियन एन्फ्लूएंजा का प्रकोप फैला था। दूसरी बार यह महाराष्ट्र के जलगांव और मध्य प्रदेश बुरहनपुर जिले में मार्च-अप्रैल, 2006 में फैला। तीसरी बार एवियन इन्फ्लूऐंजा मणिपुर के एक छोटे मुर्गीपालन केंद्र में जुलाई, 2007 में यह फैला। देश में चौथी बार एवियन इन्फ्लूएंजा का प्रकोप पश्चिम बंगाल के बीरभूम और दक्षिण दिनाजपुर जिलों में 15 जनवरी, 2008 को हुआ। फिर यह बीमारी राज्य के 13 जिलों-मुÌशदाबाद, माल्दा, पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुए, पुरूलिया, जलपाईगुड़ी और दाÌजलिंग में फैल गई। पश्चिम बंगाल के 15 जिलों के 55 ब्लाक और 2 नगरपालिकाओं में इसका प्रकोप हो गया। एवियन इन्फ्लूएंजा की आखिरी घटना का पता 16 मई, 2008 को चला। पश्चिम बंगाल में नियंत्रण और रोक अभियान के दौरान 42.62 लाख पक्षियों को मार दिया गया; लगभग 15.60 लाख अंडे और 89,823 किलोग्राम मांस नष्ट कर दिया गया। एवियन इनफ्लूएंजा त्रिपुरा के घताई जिले में फैलने की जानकारी 7 अप्रैल, 2008 को मिली। उसके बाद पश्चिम त्रिपुरा जिले के मोटनपुर और विशालगढ़ में भी यह फैल गई। पश्चिम त्रिपुरा जिनके इन्फ्लूएंजा की आखिरी घटना की जानकारी 24 अप्रैल, 2008 को मिली। एवियन इन्फ्लूएंजा के नियंत्रण और रोक अभियान के दौरान 0.19 मिलियन पक्षी मारे गए। सफल नियंत्रण और रोक अभियानों के बाद 4 नवंबर, 2008 को भारत एवियन इन्फ्लूएंजा से मुक्त घोषित किया गया।


मछलीपालन उद्योग[सम्पादन]

पशुपालन, डेयरी और मत्स्य विभाग विभिन्न उत्पादनों, कच्चे माल की आपूर्ति, बुनियादी ढांचा विकास कार्यक्रम और कल्याणोन्मुखी योजनाएं चला रहा है। इसके साथ ही यह विभाग मत्स्य-पालन क्षेत्र में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए समुचित नीतियां बनाने/लागू करने में लगा हुआ है। पिछले पांच वर्षों का मछली-उत्पादन का ब्योरा नीचे सारणी में दर्शाया गया है- (लाख टन में) वर्ष -- समुद्री मछलियां -- नदी/तालाबों की मछलियां -- कुल

1980-81 15.55 8.87 24.42

1990-91 23.00 15.36 38.36

1991-92 24.47 17.10 41.57

1992-93 25.76 17.89 43.65

1993-94 26.49 19.95 46.44

1994-95 26.92 20.97 47.89

1995-96 27.07 22.42 49.49

1996-97 29.67 23.81 53.48

1997-98 29.50 24.38 53.88

1998-99 26.96 26.02 52.98

1999-2000 28.52 23.23 56.75

2000-2001 28.11 28.45 56.56

2002-03 29.90 32.10 62.00

2003-04 29.41 34.58 63.99

2004-05 27.78 35.26 63.04

2005-06 28.16 37.55 65.71

2006-07 30.24 38.45 68.69

2007-08 29.14 42.07 71.26

मात्स्यिकी क्षेत्र निर्यात के जरिए विदेशी मुद्रा को अर्जित करने वाला एक प्रमुख क्षेत्र है। मछली और मछली उत्पादों के निर्यात में कई गुना वृद्धि हुई है। इन उत्पादों का निर्यात 1961-62 में 3.92 करोड़ मूल्य का 15700 टन था, जो 2007-08 में बढ़कर 5.41 लाख टन हो गया, जिसका मूल्य 7621 करोड़ रूपये आंका गया।

अंतर्देशीय मात्स्यिकी जलकृषि विकास[सम्पादन]

ताजा पानी के मछली-पालन विकास की मौजूदा योजना और समन्वित तटवर्ती मछली-पालन को मिलाकर चार नए कार्यक्रम बनाए गए हैं। ये कार्यक्रम हैं-शीतल जल मछली-पालन विकास; जलभराव क्षेत्र और परित्यक्त जलाशयों को जलकृषि संपदा में बदलना, जलकृषि के लिए अंतर्देशीय लवणीय/ क्षारीय मृदा का उपयोग और जलाशयों की उत्पादकता बढ़ाने का कार्यक्रम। मोटे तौर पर इस योजना के दो घटक हैं-जलकृषि और अंतर्देशीय नियंत्रित मछली-पालन।

ताजा पानी के मछली-पालन का विकास[सम्पादन]

सरकार अंतर्देशीय क्षेत्र में मत्स्यपालक विकास एजेंसियों के जरिए ताजा जल में मछली-पालन का महत्वपूर्ण कार्यक्रम चला रही है। देश में मछली उत्पादन की संभावनाओं वाले सभी जिलों में 429 मत्स्यपालक विकास एजेंसियों के जरिए इस दिशा में काम चल रहा है। वर्ष 2007-08 के दौरान 24,752 हेक्टेयर नए क्षेत्र में सघन मछली-पालन कार्यक्रम चलाया गया। इन एजेंसियों ने 39,000 मछली पालने वालों को उन्नत पद्धतियों का प्रशिक्षण दिया।

खारे पानी में मछली-पालन[सम्पादन]

इस योजना का उद्देश्य देश के खारे पानी के विशाल जल-क्षेत्र का इस्तेमाल झींगा मछली-पालने के लिए करना है। 2007-08 तक 30,889 हेक्टेयर जल-क्षेत्र का विकास झींगा मछली-पालन के लिए किया जा चुका है। देश के तटवर्ती समुद्री इलाकों के खारे पानी वाले क्षेत्रों में स्थापित 39 खारा पानी मत्स्यपालक विकास एजेंसियां (बीएफडीए) इस काम में लगी हुई हैं। इन एजेंसियों ने 2007-08 तक 31,624 किसानों को झींगा-पालन की उन्नत पद्धतियों का प्रशिक्षण दिया। फिलहाल देश से किए जाने वाले झींगा निर्यात का 50 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र से होता है।

समुद्री मात्स्यिकी विभाग[सम्पादन]

सरकार गरीब मछुआरों को उनकी परंपरागत नौकाओं में मोटर लगाकर यांत्रिक नौकाओं में बदलने के लिए सब्सिडी देती है। इन नौकाओं से वे अधिक बार तथा अधिक समुद्री क्षेत्र में जाकर ज्यादा मात्रा में मछली पकड़ सकते हैं। इससे मछलियों की पैदावार और मछुआरों की आय में बढ़ोतरी होती है। अब तक करीब 46,223 परंपरागत नौकाओं को मोटर नौकाओं में बदला जा चुका है। सरकार मछली पकड़ने वाली 20 मीटर से कम लंबाई की नौकाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले एच.एस.डी. तेल के केंद्रीय उत्पाद-शुल्क में रियायत देने की योजना पर भी अमल कर रही है, ताकि छोटी-छोटी यांत्रिक नौकाओं के मालिकों की परिचालन लागत में कमी लाई जा सके।

मछली पकड़ने के बंदरगाहों का विकास[सम्पादन]

मछली पकड़ने वाले जहाजों का सुरक्षित अवतरण करने और लंगर डालने की आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने की एक योजना पर सरकार अमल कर रही है। इस योजना के प्रारंभ से लेकर अब तक मछली पकड़ने वाली नौकाओं और जहाजों के लिए छह प्रमुख बंदरगाहों-कोच्चि, चेन्नई, विशाखापत्तनम, रायचौक, पाराद्वीप और सीजन डॉक में 62 छोटे बंदरगाहों और 190 मछली अवतरण केंद्रों का निर्माण किया गया है।

परंपरागत मछुआरों के लिए कल्याण कार्यक्रम[सम्पादन]

परंपरागत ढंग से मछली पकड़ने वाले मछुआरों के लिए महत्वपूर्ण कार्यक्रम हैं-(1) कार्यरत मछुआरों के लिए सामूहिक दुर्घटना बीमा योजना, (2) मछुआरों के लिए आदर्श ग्रामों का विकास और (3) बचत व राहत योजना। मछुआरों को अवधि में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। बचत व राहत योजना के तहत 3.5 लाख मछुआरों को 2008-09 में सहायता दी गई।

विशेष संस्थान[सम्पादन]

केंद्रीय मत्स्य-पालन और समुद्री इंजीनियरी प्रशिक्षण संस्थान (कोचीन), जिसकी एक-एक इकाई चेन्नई और विशाखापत्तनम में है, का उद्देश्य गहरे पानी में मछली पकड़ने वाले जहाजों के लिए पर्याप्त संख्या में परिचालक और तटवर्ती प्रतिष्ठानों हेतु तकनीशियन उपलब्ध कराना है। समन्वित मत्स्य परियोजना, (कोच्चि), में गैर-परंपरागत मछलियों की किस्मों के परिरक्षण, उन्हें लोकप्रिय बनाने और उनकी परीक्षण बिक्री पर जोर दिया जाता है। मात्स्यिकी हेतु तटवर्ती इंजीनियरिंग का केंद्रीय संस्थान बंगलौर, मत्स्यपालन हेतु बंदरगाह स्थलों की तकनीकी-आर्थिक संभावनाओं का अध्ययन करता है। भारतीय मछली सर्वेक्षण विभाग देश के विशेष आर्थिक क्षेत्र में समुद्री संसाधनों के सर्वेक्षण और मूल्यांकन के लिए नोडल एजेंसी के रूप में भी कार्य करता है।

राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड[सम्पादन]

राष्ट्रीय मत्स्य बोर्ड की स्थापना नीली क्रांति के लिए कार्य करने के लिए की गई ताकि देश में मछली का 103 लाख उत्पादन करके वर्तमान 7000 करोड़ के निर्यात को 14,000 करोड़ रूपए तक पहुंचाया जाए और अंतर्देशीय, पानी और समुद्री क्षेत्र की गतिविधियों के कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों को सहायता देकर 35 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध कराया जा सके। यह मत्स्य क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी का मंच बनेगा, ताकि विपणन आदि के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।

यह भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के पशुपालन, डेयरी और मात्स्यिकी विभाग के प्रशासनिक नियंत्रण में स्वायत्त संस्था है। इसका पंजीयन सोसायटी अधिनियम के तहत हैदराबाद में 10 जुलाई, 2006 को किया गया। पंजीयन नंबर 2006 का 933 है बोर्ड का उद्घाटन 9 सितंबर, 2006 को किया गया। कार्यालय की स्थापना हैदराबाद में की गई। बोर्ड के विभिन्न कार्यक्रमों को 6 वर्ष में 2006-12 में लागू किया जाना है। बोर्ड के उद्देश्य इस प्रकार हैं —

1. मछली और समुद्री जीव उद्योग से संबधित प्रमुख गतिविधियों पर ध्यान देना और उनका व्यवसायिक प्रबंधन।

2. केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों और राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा मछली उद्योग से संबंधित गतिविधियों के बीच समन्वय।

3. मछली पालन और मछली उत्पादों का उत्पादन, प्रसंस्करण, भंडारण लाना-ले जाना और विपणन।

4. मछली स्टॉक सहित उनके स्थायी प्रबंधन और प्राकृतिक जलजीव संसाधनों के संरक्षण।

5. अधिकतम मछली उत्पादन और फार्म उत्पादकता के लिए जैव प्रौद्योगिकी सहित अनुसंधान और विकास के आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल।

6. मछली उद्योग के लिए आधुनिक मूलभूत ढांचा उपलब्ध कराना और उसका अधिकतम उपयोग तथा प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करना।

7. रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करना।

8. मछली उद्योग में महिलाओं को प्रशिक्षण देकर सशक्त बनाना।

9. खाद्य और पोषण सुरक्षा के प्रति मछली उद्योग के योगदान को बढ़ाना।

राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड द्वारा चलाई जा रही गतिविधियां —

1. तालाबों और टैंकों में व्यापक मछली पालन।

2. जलाशय में मछलियों का उत्पादन बढ़ाना।

3. खारे पानी में तटीय समुद्री जीव पालन।

4. गहरे पानी में मछलीपालन और टूना मछली का प्रसंस्करण।

5. समुद्री जीवन पालन।

6. समुद्री जीव फार्म।

7. समुद्री वनस्पति का विकास।

8. फसल उगने के बाद उसके लिए मूलभूत सुविधाएं तैयार करना।

9. मछलियों को सौर ऊर्जा से सुखाना (सोलर ड्रांइग) और प्रसंस्करण केंद्र।

10. घरेलू बाजार।

11. अन्य गतिविधियां।

राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड के विभिन्न कार्यक्रमों के कार्यान्यवन के लिए 2006-12 तक का बजट प्रावधान 2100 करोड़ रूपए का है लेकिन उसे घटाकर 1500 करोड़ रूपए कर दिया गया है।

बोर्ड के लिए बजट आबंटन

बोर्ड का छह वर्ष का परियोजना व्यय 2100 करोड़ रूपए है। भारत सरकार ने बोर्ड की शुरूआत से 105 करोड़ रूपए जारी किए हैं। इसमें से 96.33 करोड़ रूपए विभिन्न राज्य सरकारों और संगठनों को पिछले तीन वर्ष में विभिन्न मत्स्य विकास गतिविधियों के लिए जारी किए गए। पिछले तीन वर्ष में व्यय किए गए 96.33 करोड़ रूपए में से 65.58 करोड़ रूपए वर्ष 2008-09 से संबद्ध हैं।

कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग[सम्पादन]

कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग कृषि, पशुपालन तथा मत्स्य-पालन के क्षेत्र में अनुसंधान और शैक्षिक गतिविधियां संचालित करने के लिए उत्तरदायी है। इसके अलावा यह इन क्षेत्रों तथा इनसे संबंधित क्षेत्रों में काम कर रही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के विभिन्न विभागों और संस्थानों के बीच सहयोग बढ़ाने में भी मदद करता है। यह विभाग भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् को सरकारी सहयोग, सेवा और संपर्क-सूत्र उपलब्ध कराता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्[सम्पादन]

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् राष्ट्रीय स्तर की शीर्ष स्वायत्त संस्था है, जिसका उद्देश्य कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और उनके बारे में शिक्षित करना है। परिषद् प्रत्यक्ष तौर पर कृषि क्षेत्र में संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन, फसलों, पशुओं व मछली आदि पालन से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए पारंपरिक व सीमांत क्षेत्रों में अनुसंधान की गतिविधियों में शामिल है। कृषि क्षेत्र में नई प्रोद्योगिकी विकसित करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उसे प्रचारित और लागू करने का कार्य कृषि विज्ञान केंद्रों के व्यापक नेटवर्क से किया जाता है।

कृषि अनुसंधान परिषद का मुख्यालय नई दिल्ली में है और देश भर में इसके 49 संस्थान और विश्वविद्यालय स्तर के 4 राष्ट्रीय संस्थान, 6 राष्ट्रीय ब्यूरो, 17 राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, 25 परियोजना निदेशालय और 61 अखिल भारतीय समन्वय अनुसंधान परियोजनाएं, 17 नेटवर्क परियोजनाएं हैं। कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिए 45 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और इम्फाल में एक केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय है जो कि इसके चार विश्वविद्यालयों से अलग है।

=आईसीएआर की अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार गतिविधियां[सम्पादन]

विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार के कार्यक्रम 2008-09 में इस प्रकार रहे—-

फसल विज्ञान

वर्ष के दौरान 33 अभियानों में 784 जंगली प्रजातियों सहित 2203 का संग्रह किया गया। विकसित पौधों के राष्ट्रीय हर्बोनियम के 371 नमूने, 121 बीज के नमूने और 21 आर्थिक उत्पाद शामिल किए गए। विविध फसलों के 25,456 किस्में विभिन्न देशों से लाए गए और आईसीआरआईएएएडी जर्म प्लाज्म सहित 15000 किस्में 19 देशों को निर्यात किए गए। बीज 13,850 प्रजातियां नेशनल जीन बैंक में शामिल की गईं। गेहूं की पांच, जौ की तीन और ट्रिटिकेल की एक किस्म जारी की जा चुकी है। गेहूं की सोलह जननिक स्टाक पंजीकृत किए गए। मक्का के नौ संकर/समिश्र सेंट्रल वेरायटी रिलीज कमेटी द्वारा देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिए जारी किए गए। सोर्घुम की दो किस्में यथा खरीफ किस्म सीएसवी 23 और रबी की किस्म एसपीवी 1626, बाजरे की दो किस्में जारी की गईं। अल्पकालिक सीजन के बीच में बुआई के लिए बाजरे की किस्म जीपीयू 48 कर्नाटक के लिए जारी की गई। पिजनपी किस्में आजाद (एनईपीजेड), जेकेएम 189 (सीजेड), एलआरजी 30 और एलआरजी 38 (एएजेड) को देर से बुआई के उपयुक्त पाया गया। अधिक उपज देनेवाली दो किस्में मसूर, अंगूरी (आईपीएल 406) और राजमा, अरूण (आईपीआर 98-3-1) को उत्तरी राज्यों, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के लिए अधिसूचित किया गया। डीओआर बीटी-1 बैसिलस थुरिंगिएनसिस, कुर्सटरी (एच-3ए 3बी, 3सी) को अरंडी सेमीकूपर के प्रबंधन के लिए विकसित कर भारत सरकार के केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड के पास व्यापारिक नाम केएनओसीके डब्लूपी से व्यवसायीकरण के लिए पंजीकृत किया गया। डीआरएसएच-1 (42-44') तेल और हेक्टेयर में 1300-1600 कि.ग्रा. उपज देनेवाले हाइब्रिड को रबी के लिए पूरे भारत में जारी किया गया। सैफ्लावर हाइब्रिड एनएआरआई-एच-15 जिसका उत्पादन एक हेक्टेयर में 2200 कि.ग्रा. तक है और तेल की मात्रा 28' है, जारी की गई। प्रतिरोधक वाली किस्म जेएसएफ-99 आल्टरनेटव मध्य प्रदेश के लिए जारी की गई। अरंडी उगाने वाले सभी क्षेत्रों के लिए डीसीएच-519 और सागरशक्ति जारी की गई। सोयाबीन की तीन उन्नत किस्में पीएस 134 और पीआरएस-1 (उत्तरांचल) और जेएस 95-60 (मध्य प्रदेश) जारी की गईं। बीटी कपास किस्में बीकानेरी नरमा और एनएचएच 44 बीसी कपास हाइब्रिड विकसित की गईं। कम लागत वाली खुंव उत्पादन के लिए फफूंद एस थर्मोफिटम के उपयोग कंपोस्ट उत्पादन की विधि विकसित की गई। एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) की रणनीति देश भर के कपास उत्पादक नौ राज्यों के 2360 हेक्टेयर परंपरागत कपास, 605 हेक्टेयर बीटी काटन क्षेत्र 12 प्रदर्शन केंद्रों से प्रचारित की गई। आईपीएम की रणनीतियां किसानों को समझाने और उत्तरी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए चार केंद्र स्थापित किए गए। कीट प्रबंधन सूचना प्रणाली (पीएमआईएस) कीट नियंत्रण और आईपीएम रणनीतियों के बारे कृषि 107 में पूर्ण जानकारी सहित कंप्यूटर आधारित प्रणाली कपास, बैंगन और भिंडी के लिए विकसित की गई है, जिसमें जरूरी वस्तुओं की उपलब्धता के बारे में बताया गया है। निर्णय में सहायक साफ्टवेयर (कीटनाशक सलाहकार) भी विकसित किया गया, जिसमें उपलब्ध कीटनाशकों के बारे में पूरी सूचना है। लार्जिडेइ, पिरोकोरिडेइ और खरकोपीडेइ के जीनस और प्रजातियों के लिए टैक्सोनामिक आधार विकसित किया गया। शहद फसल के परागण के लिए डंकहीन मधुमक्खियों, ट्रिगोना दूरीडिपेनिस के बारे में केरल कृषि विश्वविद्यालय में अनुसंधान के फलस्वरूप कृत्रिम घोंसला सामग्री के रूप में मिट्टी के बर्तन, बांस की खपच्चियों और पीवीसी को विकसित किया गया।

बागवानी

भारतीय फली (एएचडीबी-6) गोल लौकी, एएचएलएस-11 एएचएलएस-24 और एएचपी 13 गुच्छा फली की उन्नत वंश की पहचान की गई। जीजीपीआर वंश की पहचान हुई। महुआ में कमल का मानकीकरण। दो फसल मॉडलों की सिफारिश ट्रिरोडर्मा जैसे जैव नियंत्रण एजेंट से जैव नियंत्रण का उपयोग कर रोग का नियंत्रण। नारियल और कोको में सुधार, जैव प्रौद्योगिक खोज ताड और कोकोआ में बागान फसलों में उत्पादन प्रौद्योगिकी, रोग और कीटाणु का एकीकृत प्रबंधन, ताड़ और कोकोआ, ताड़ और कोकोआ में उत्पादन तंत्र का इस्तेमाल। काजू जर्म प्लाज्म आरएपीडी। आरगेजाइम माकरिर्स जर्म प्लाजम में विशिष्टता, छतरी प्रबंधन, उच्च घनत्व पौघ रोपड़ परीक्षण, अकार्बनिक खेती, मिट्टी और जंकसंरक्षण, सीएसआरवी एवं टीएमवी के लिए आईपीएम टेक्नोलाजी का विकास, काजू परागण के प्रभाव का अध्ययन कराया गया।

पीजीआर प्रबंधन, अधिक उपज की किस्में/संकर, टमाटर, बैंगन, मिर्ची और घीया के महत्वपूर्ण गुणों के लिए आरआईएल का विकास, सीआरवाई। एसी, डीआईवी, जेडएटी-12 टी-आरईपीजीन के उपयोग से टमाटर में ट्रांसजेनिक वंश क्रम का विकास, अकार्बनिक खेती प्रोटोकोल्स विकसित। प्रिटो में 1400 विकसित आलू, सुरक्षित रखे गए। फ्रेंच फ्राई किस्म के रूप में संकर एमपी 198-71 जारी किया गया, जबकि संकर एमपी 198-916 एआईसीपी आईपी में लागू। इन्फोक्राप आलू के इस्तेमाल के लिए आंकड़ा आधार तैयार।

खुम्ब की उत्पादकता और उत्पादन और खपत बढ़ाने और उसके उत्पादों पर काम जारी है। कंद फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की प्रौद्योगिकी, प्रति इकाई खेती लागत में कमी, कस्सावा उत्पादन प्रणाली में भूमि की उर्वरता बनाए रखने का काम प्रगति पर है। राष्ट्रीय स्तर पर खरीफ और विकसित खरीफ और टीएएएस सफेद प्याज, की पहचान की गई।

अधिक उपज वाली अदरक, हल्दी, काली मिर्च की किस्में विकसित की गईं। धनिया, क्यूमिन, सौंफ, अजवाइन का अधिक उत्पादन के लिहाज से मूल्यांकन प्रगति पर है। लंबी काली मिर्च में एक नई किस्म (एसीसी नंबर-2) की पहचान अच्छे किस्म के रूप में की गई है। एको बार्बेडेनसिस से एकोरन निकालने के लिए नया तरीका विकसित। गुलाब की पांच नव संग्रहित किस्में वर्तमान जर्मप्लाज्म में शामिल की गई। ग्लैडियोलस में दो किस्में आईएआरआई नई दिल्ली एमपीकेपी पुणे से एक-एक, पीएयू से गुलदाउदी की छह नई किस्मों का बहु स्थानीय परीक्षण चल रहा है।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन विभाग कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, सुधार और सक्षम उपयोग से जुड़ी समस्याओं का हल निकालता है। भूमि सूची, प्रबंधन, पोषण प्रबंधन, जल प्रबंधन फसल/फार्मिंग प्रणाली, जैव ईंधन और कृषि में जलवायु प्रबंधन सहित कृषि वानिकी में अनुसंधान कार्यक्रम चल रहे हैं।

महत्वपूर्ण उपलब्धियों में भूमि सरण के मूल्यांकन और मानचित्रीकरण के लिए बहुआयामी दूर संवेदी तकनीक शामिल है। अधिक पैदावार देने वाली बैंगन की किस्म (स्वर्ण अभिलंब) लौकी (स्पन्न प्रभा), मटर (स्वर्ण मुक्ति) काऊपी (स्वर्ण सुफल) और फली (स्वर्ण उत्कृष्ट) पूर्वी भारत में बोने के लिए जारी। विलायती बबूल की कांटारहित किस्म देश के शुष्क इलाकों के लिए विकसित। पौधे की फलियां सुगंधित काफी और बिस्कुट बनाने में किया जाता है।

ड्रमस्टिक + हरा चना -सौंफ के लिए पानी की कम जरूरत होती है और वसाड, गुजरात में यह तंबाकू की फसल से ज्यादा लाभकारी है। जलनिकासी का प्रभावी उपयोग करने के लिए फसल उगाने की प्रौद्योगिकी निकाली गई, इसके साथ ही किनारे की ढलान पर नींबू लगाया गया। वनस्पति के अवरोधक लगाने से सोर्घुम और सोयाबीन की पैदावार 20' बढ़ गई। नीलगिरी और उधगमंडलम क्षेत्रों के नए बागानों में भूमि क्षरण रोकने के लिए कंदूर स्टैगर्ड ट्रेंचेज (सीएसटी) + फलियां अधिक प्रभावी साबित हुई।

अमरूद/प्रासोपिस और सोयाबीन-गेहूं प्रणाली उत्तर पश्चिम भारत के मिट्टी के लिए चावल-गेहूं प्रणाली से अच्छी है। रिजोक्यिम, एजोस्प्रिलम सोलुबिलाइजिंग बैसिलस मेगाटेरियन तरल जैव उर्वरक बनाया गया। नमक प्रभावित मिट्टी को सुधारने और सोडसिटी का मूल्यांकन करने के लिए किट विकसित किया गया। अनार के लिए मानक एकीकृत पोषण प्रबंधन पैकेज-10 कि.ग्रा. कृमि कंपोस्ट। पीवाईएम + 50' खुराक एनपीके उर्वरक प्रति पौधा, बनाया गया।

दलदल में धान की खेती के लिए एनईएच क्षेत्र के लिए धान बुआई यंत्र विकसित किया गया। इन्हीं क्षेत्रों में ऊंची ढलानों पर मक्का नस्ल और तिलहन बोने के लिए यंत्र बनाया गया। "हर बूंद पानी के साथ अधिक फसल और अधिक आप" कार्यक्रम जल संसाधन मंत्रालय के सहयोग से वर्षा सिंचित क्षेत्रों में वर्षा जल के बेहतर उपयोग के लिए शुरू किया गया। आईसीएआर ने महाराष्ट्र में एबायोटिक स्ट्रेस मैनेजमेंट राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की है ताकि कृषि में विभिन्न प्रकार की समस्याओं (सूखा, शीत लहरी, बाढ़, खारापन, अम्लीयता, और पोषण संबंधी गड़बडि़यों आदि) का हल निकाला जा सके। नई दिल्ली में फरवरी 2009 में कृषि संरक्षण पर विश्व कांग्रेस का आयोजन किया गया जिसमें क्षमता, पूंजी और पर्यावरण में सुधार के मुद्दों पर चर्चा हुई। राष्ट्रीय संसाधन प्रबंधन के जोर दिए जानेवाले कई क्षेत्रों के बारे में किसानों के कई प्रशिक्षण एफएकडीएस/कार्यशाला का आयोजन किया गया।

कृषि अभियांत्रिकी

कृषि उत्पादन में क्षमता बढ़ाने के लिए कई नई मशीनों और उपकरणों का विकास किया गया है। ट्रैक्टरों के उचित चयन के लिए निर्णय में सहायक प्रणाली विकसित की गई है। खाद्य डालने के लिए ट्रैक्टर चालित प्रसारक का विकास हुआ है। घास-फूस से भरे खेतों, नियंत्रित रोटरी स्लिट प्लांटर भी विकसित किया गया है। हस्तचालित मक्का शेकर विकसित। महिलाओं के लिए औजार और उपकरण तीन गांवों में दिए गए हैं, और महिलाओं की संलिप्तता का सूचकांक भी है। ट्रैक्टर चालित तीन लाइनों की घास निकालने वाली मशीन विकसित की गई है।

सब्जियों की बुआई के लिए तीन कतारों का पौध रोपड़ा उपकरण विकसित किया गया है। चार औजार और उपकरण, एक कतार की रोटरी वीडर, यात्रा कटाई थैम, वैभव हंसिया और नवीन हंसिया का काम करने की दशा के अनुसार आकलन महिला मजदूरों के लिए इनकी उपयोगिता की दृष्टि से किया गया। महिलाओं के लिए चुनिंदा उपकरणों का ईएसए धारा 25 प्रदर्शनों का आयोजन किया गया, जिसमें 500 फार्म महिलाओं ने हिस्सा लिया। बड़ी इलायची को सुखाने के लिए यंत्र विकसित किया गया है जिसकी क्षमता प्रति बैच 400-450 कि.ग्रा. है।

जटरोपा बीज निकालने के लिए डिकोर्टीकेटर बनाया गया है। जिसकी क्षमता 100 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर है। पपीता, लौकी, बैंगन, बंद और फूल गोभी से फल-सब्जी छड़ बनाए गए हैं। नाश्ते के लिए तैयार अनाज सोर्घुम से बनाए गए हैं। केला का गुच्छा काटने, आंवला गोदने और धनिया को दो हिस्से में बांटकर बीज के काम लायक बनाने वाला उपकरण विकसित कर परीक्षण भी किया गया। पहाड़ी मिर्च के साथ हरी मिर्च की प्यूरी बनाने की प्रक्रिया विकसित की गई। एलोवेरा का रस निकालने वाली कम लागत का उपकरण विकसित किया गया।

काटन बेक मैनेजर नाम का सॉफ्टवेयर विकसित किया गया है। बिनौले का आटा दो हिस्सों में छाना गया। प्रारंभिक परीक्षण ताजा निकाले गए रेशे पर किया गया। नायलोन 6 से नौ अलग धागे बनाए गए। जूट से गोंद के स्थानापन विकसित किए गए। जम्मू और राजस्थान से दो रंगीनी लाख कीटों का संग्रह लाकर उनकी संख्या बढ़ाई गई और मैदानी परिस्थितियों में गर्मी में क्षमता आंकी गई। दो क्षमता लाख के कीड़े (एलआईके 0023 और 0031) उत्पादन के अच्छे पाए गए। पौधों का संग्रह चार राज्यों से किया गया और 12 संग्रह मैदानी जीन बैंक में रखे गए। पांच सुरक्षित रासायनिक कीटनाशक-इंडोक्सा कार्ब; स्पिनोसैड, फिप्रोनिल, अल्फामेबनि और कार्बोसुल्फान तथा दो जैव कीटनाशक हाल्ट और नॉक लाख के कीड़ों की रक्षा के लिए प्रभावी पाए गए। लाख के कीड़ों के नौ रंगों की पहचान की गई।

व्यावसायिक रूप से प्राकृतिक रेसिन, गम और गम रेसिन का दस्तावेजीकरण किया गया। लाख के वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन के बारे में 19 प्रशिक्षण शिविरों के आयोजन से 7412 लोगों को लाभ पहुंचा। प्रयोगशाला स्तर पर धान की भूसी से इथाइल अल्कोहल का उत्पादन किया गया। जटरोपा तेल से निर्धारित प्रक्रिया से मोम तथा चिपचिपाहट को दूर किया गया तथा हाई स्पीड डीजल के साथ ट्रैक्टर चलाने में उपयोग किया गया।

कुछ बायो गैस संयंत्र (क्षमता 2-6 एम3) किसानों के लिए लगाए गए। ईंधन की लकड़ी काटने के लिए सचल प्लेटफार्म जैसा विकसित किया है। बाजार में उपलब्ध ....... से उसकी क्षमता तीन गुना अधिक है। बहुस्थलीय परीक्षण प्रगति पर एक उचित प्रणाली विकसित की गई है जिससे मक्का और पिजन मटर की अच्छी पैदावार की जा सकती है। इनमें 20 से 40' बढ़ोत्तरी हो सकती है। ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली के लिए साफ्टवेयर विकसित किया। रायसेन जिले के दो गांवों में फालतू जल की निकासी के निकासी प्रणाली का मूल्यांकन किया गया। प्रशिक्षण के 58 कार्यक्रम चलाए गए जिसमें मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र ऑफ एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग ने पूरे देश में 1671 उपकरणों की आपूर्ति की। साल के दौरान सीधे धान की बुआई करने वाले मशीन के चार प्रदर्शन किए गए।

पशु विज्ञान

क्षय और जान्स बीमारियों के टीके का उत्पादन और व्यवसायीकरण किया गया। ब्रुसेलियोस और आईबीएम के निदान के विकसित और विधिमान्य किए गए। स्वाइन बुखार का टीका विकसित हो गया है और उसे विधि मान्य किया जा रहा है। नीली जीभ बीमारी के लिए पेंटावैलेंट टीका विकसित किया गया। पीपीआर टीके का परीक्षण किया गया। बकरी-चेचक टीका विकसित करके जारी किया जा रहा है। एलपीबीई एवं इएलआईएसए 2000 नमूनों का राष्ट्रीय पीएमडी नियंत्रण कार्यक्रम में मूल्यांकन किया गया। सेरोटाइप पीएमडी विषाणु की पूरे देश में निगरानी की गई।

सोया दूध मिलावट के लिए संवेदनशील परीक्षण विकसित भैंस के दूध से क्वार्ग किस्म का पनीर तैयार किया गया। स्वस्थ पेय सोर्घुम और बाजरा आधारित लस्सी विकसित की गई। चन्ना, बासुंडी, आम, लस्सी, हर्बल, घी, कुंडा, पेड़ा, बर्फी आदि विकसित। पशुओं को खिलाने के लिए क्षेत्र विशेष खनिज मिश्रिण का व्यवसायीकरण किया गया। चारा के नए संसाधनों की पहचान और परीक्षण कर पोषक तत्वों का पता लगाया गया। देश के विभिन्न कृषि-पारिस्थिति प्रणाली के लिए चारा और पशु संसाधनों का जिलावार आंकड़ा तैयार किया गया। भेड़ों में सूक्ष्म पोषकों की सूक्ष्म जैव उपलब्धता का मूल्यांकन किया गया। विभिन्न पेड़ों के पत्तों का मेथानोजेनिक रोधी गुणों के लिए बिट्रो मूल्यांकन किया गया। खमीरीकरण के कारण मीथेन उत्सर्जन कम करने का कार्यक्रम शुरू किया। गहन चयन से अंडा देने वाले पक्षियों और ब्रोइलर की किस्मों में और सुधार किया गया। विभिन्न अंडा देने वाले पक्षियों और ब्रोइलरों की आपूर्ति एआईसीआरपी को की गई। रंगीन ब्रोइलर और छह सफेद वंशी को पांच सप्ताह में वजन बढ़ाने के लिए और अधिक सुधार किया गया। इनका बहुस्थलीय परीक्षण किया गया। उन्नत किस्म के हर साल 300 अंडे देने वाली मुर्गियों का विकास। ग्रामीण पाल्ट्री को हर साल 220 अंडे देने वाली द्विउद्देशीय मुर्गियों का विकास किया।

गहन चयन से चोकला और मारवाड़ी नस्लों की दैनिक वजन वृद्धि 60 ग्रा. से बढ़ाकर 120 ग्राम किया गया। ब्रोइलर और अंगोरा खरगोशों को नस्ल सुधार के लिए किसानों को उपलब्ध कराया गया। भेड़, मिथुन याक के लिए स्थानीय तौर पर उपलब्ध संसाधनों से चारा विकसित किया गया। अच्छी किस्म का हल्का नमदा तैयार कर घटिया स्तर के खरगोश के ऊन और संकर भेड़ों की ऊन में सुधार किया गया। भेड़ों/दरी का ऊन/मांस की विभिन्न किस्मों का जर्मप्लाज्म उत्पादित कर किसानों में वितरित किया गया। बरबरी और जमुना पारी बकरियों की 12वीं पीढ़ी का उत्पादन गहन चयन से कर फार्म और मैदानी परिस्थितियों में मूल्यांकन किया गया। मेमनों के लिए खाने और जल स्थल का डिजाइन और विकास किया गया। पशुओं के चारे की कम लागत वाला मिश्रण विकसित किया गया। मुर्रा नस्ल के वीर्य से किसानों के पशुओं के सुधार कार्यक्रम शुरू किए। अभिजात मुर्रा सांडों के 10 वेंसेट का चयन पूरा और 11वें की शुरूआत। 5वें सेट के 15 मुर्रा सांडों का परीक्षण और वीर्य के 10,000 खुराक सुरक्षित किए गए। वीर्य की गुणवत्ता परखने और उसकी प्रजनन क्षमता के सूचक विकसित भैंसों के खरे में बिनौला की खन्नी, सोयाबीन की खली बढ़ाने से दूध के उत्पादन में 6-10' बढ़ोत्तरी।

आईसीएआर ने विश्व में पहला भैंस के पाड़े का क्कोन बनाकर वैज्ञानिक क्षेत्र इतिहास बनाया। फरवरी, 2009 में पैदा हुआ पाड़ा निमोनिया से मर गया। लेकिन 6 जून, 2009 को पैदा हुआ पाड़ा स्वस्थ है। इस प्रौद्योगिकी से मनपसंद जानवरों को पैदा किया जा सकेगा। पशमीना बकरियों की क्लोनिंग का कार्यक्रम शुरू किया गया है।

लाक सिंधी, कृष्णा घाटी जानवर, मदुरा रेड, तिरूची ब्लैक, माराए भेड़, गोहिजवादी बकरी, तेलीचेरी चिकन का फेनोटिपकली वर्गीकरण किया गया। डांगी चंगथांगी बकरी, जालौनी छोटा नागपुरी भेड़ और नगामी मिथुन का जनविक वर्गीकरण पूरा हुआ। नस्ल पंजीयन प्राधिकरण मनोनीत, देसी नस्ल पशुओं और मुर्जियों का दस्तावेजीकरण और नंबर प्रदान किए गए। भैंस जिनोमिक्स परियोजना शुरू की गई।

पूर्वोत्तर के राज्यों से चार किस्म के सूअरों का मूल्यांकन किया जा रहा है। 50-87.5' संकर नस्लें तैयार कर मैदानी परीक्षण किया गया। मांस में पशु की प्रजाति और लिंग का पता लगाने वाला उपकरण विकसित किया गया। ऊंटों की तीन नस्लों में सूखा वहन क्षमता का मूल्यांकन। पनीर, विभिन्न रंगों की कुल्फी और चीनी रहित कुल्फी बनाकर ऊंट के दूध का मूल्यवर्धन कर प्रौद्योगिकी का व्यवसायीकरण किया गया। सैनिक फार्मों में फ्रेशवाल सांडों की संतानी के परीक्षण के लिए 40830 खुराक वीर्य का इस्तेमाल किया गया। हरियाणा और ओंगोल नस्ल की 1920 गाएं पैदा की गईं। पशुओं की बीमारी, रोग प्रचलन, मौसमी आंकड़ा, जमीन उपयोग आंकड़ा, पशु और मनुष्य जनसंख्या, भूमि की किस्म और फसल उत्पादन का आंकड़ा बैंक तैयार किया गया।

मछली पालन

सार्डीन, माकेरेल, टुना, सीयर, ऐंकोवीज, कैसनगिड्स, बांबे डक रिबन मछली की प्रजातियों और उपकरणवार उनको मारने के बारे में आंकड़े विकसित किए गए। केरल के तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्री मछलियों के पकड़ने और प्रबंधन के बारे में दिशा-निर्देश विकसित और प्रकाशित किए गए। मन्नार और पाक खाड़ी के जीपीएस मानचित्रीकरण से अंतर्जल संसाधन सर्वेक्षण किये गए। अध्ययन से पता चला कि कड़ा मूंगा भूरे समूह-रोग, पोराइट्स अल्सर के लक्षण, सफेद चेचक लक्षण और गुलाबी रेखीय लक्षण हैं। कारवाड़ मैंगलोर, कोच्चि, विजिंजाम और तूतीकोरन में लुजैनिडे परिवार की मछलियों की प्रजातियों का मूल्यांकन किया जा रहा है। समुद्री मछलियों की 19 परिवारों की 70 प्रजातियों का अंतर्जल दृश्य गणना तकनीकी से मूंगा चट्टानों में रिकार्ड तैयार किया गया। 6 परिवारों की 9 बिवाल्वस प्रजातियों और 17 गेस्ट्रोपोड्स परिवारों की 25 प्रजातियों को रिकार्ड किया गया। सक्रिय यौगिक बनाने के लिए मंडपम तट से समुद्री घास सर्गासम और गेलिडिएला इकट्ठा की गई। समुद्री घास आधारित प्रक्रिया/ उत्पाद के विकास से अम्ल और अगार निकाले गया। कृत्रिम परिस्थितियों में सीबॉस का प्रजनन पूरे साल विधिमान्य किया गया। यह पाया गया कि मछलियां 14 पीपीटी खारेपन में परिपक्व हो जाती है और 18 पीपीटी में मछलियों के अंडे देने को रिकार्ड किया गया। सीबॉस नर्सरी के फार्म परीक्षण में हापा में चिराला आंध्रप्रदेश में पालन में 750/हापा (एचएपीए) में 25 दिन बाद 90' जीवित बचे। दूधिया मछली के बीज का संग्रह कर आरसीसी टैंक में पाला गया। तैयार चारे से उनमें परिपक्वता स्वाभाविक रूप से आई। 40' मछली के चारे को पौध प्रोटीन शामिल कर शंखमीन चारा बनाकर पी.मोनोडोन को तालाबों में खिलाया गया। शंखमीन का वजन दो महीने में 16 गुना बढ़ गया।

पश्चिम बंगाल और असम के दलदल से कुल 0.04 से 9 टन मछलियां पकड़ी गईं तथा सालाना अनुमानित उत्पादन 0.1 से 0.4 टन प्रति हैक्टेयर है। कर्नाटक के जलाशयों में यह 8.4 टन 8.5 कि.ग्रा. सीपीआई के साथ रही। इसी अवधि में ब्रह्मपुत्र नदी में 23.62 टन मछली पकड़ी गई। जलाशयों में भंडारण के लिए विकसित उपायों का मध्य प्रदेश में परीक्षण किया गया जिससे मछली पकड़ने में 60' बढ़ोत्तरी हुई। भीमताल झील में बहने वाले पिंजड़े में गोल्डेन महसीर और स्नोट्राउट को रखा गया। उनके विकास और अन्य बातों को रिकार्ड किया गया। जाड़े में पानी का तापमान कम होने से वृद्धि दर धीमी रही। चाकलेट महसीर की वृद्धि का उत्तर-पूर्व और पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में ताजे पानी में वृद्धि दर का आकलन किया जा रहा है। अरूणाचल प्रदेश में भूरीट्राउट के प्रजनन से ट्राउट के 15000 बीज पैदा किए गए और उनको पालने का कार्य प्रगति पर है। महसीर हैचरी में 75000 बीज तैयार किए गए।

उत्तराखंड में ठंडे पानी में मछली पकड़ने के लिए कीमती ऐनी की लकड़ी की जगह नारियल की लकड़ी से डोंगी बनाई गई। 6.4 मीटर लंबी गेंगी प्रयोगात्मक आधार पर मछली पकड़ने के लिए दी गई। नवनिर्मित 26 मीटर लंबी नौका परीक्षण चल रहा है। देश के विभिन्न भागों में 100 प्रशिक्षण/जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए जिसमें 400 लोगों को विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी दी गई। तटीय स्व सहायता समूह की 100 महिलाओं ने कार्यशाला में भाग लिया।

तीस से अधिक अंशकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए जिसमें 500 से अधिक लोगों को मछली पालन के विभिन्न पहलुओं की जानकारी दी गई। इनके अलावा मछली पकड़ने वाले किसानों, छात्रों और अधिकारियों सहित 117 लोगों को पांच विभिन्न कार्यक्रमों में प्रशिक्षित किया गया। सजावटी मछलियों के बारे में आंकड़े आन लाइन हैं। 60 प्रजातियों के 250 नमूने मन्नार की खाड़ी से लाए गए। पेंगेसियस-पेंगेसियस का सफल निषेचन करवाया गया। इसमें अंडों से लार्वा निकलने की दर क्रमश— 80 से 60 प्रतिशत रही तथा दो सप्ताह बाद 37-46 प्रतिशत मछलियां जीवित रहीं। अनाबास टेस्ट्यूडाइनस को दीर्घावधि मल्टीपल ब्रीडिंग करवाई गई।

कृषि शिक्षा

आईसीएआर के विकास अनुदान से देश में कृषि शिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। शिक्षा और अनुसंधान में उत्कृष्टता के लिए आईसीएएम ने विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों में 29 उत्कृष्टता क्षेत्र में सहायता दी। चौथे डीन समिति की प्रतिमान, स्तर, अकादमिक नियमन और स्नातक पाठ्यक्रमों के पाठ्य विवरण के बारे में सिफारिशों को कृषि विश्वविद्यालय ने अपना लिया है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता, स्वीकार्यता और स्नातकों को रोजगार मिलने पर अच्छा असर पड़ा है। कृषि और सहायक विज्ञानों में स्नातकोत्तर (मास्टर्स और डाक्टोरल) कार्यक्रमों में समान अकादमिक नियमन, पाठ्यक्रम और पाठ्य विवरण 2008-09 में पहली बार संशोधित कर आवश्यकता आधारित बनाया गया। कृषि विश्वविद्यालयों के कामों के आधुनिकीकरण के लिए 2008-09 में एक बड़ी परियोजना शुरू की गई ताकि कृषि विश्वविद्यालयों की अनुसंधान और शैक्षिक क्षमता बढ़ सके। 22 कृषि विश्वविद्यालयों को मान्यता प्रदान की गई। शिक्षण के तरीके में सुधार, व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान दिए जाने से छात्रों में जोखिम क्षमता बढ़ी है। अनुदान से लिंग समानता, बेहतर कक्षा प्रयोगशाला सुविधा और छात्र सुविधाएं बढ़ी हैं। सहायता का परिणाम अध्यापकों और छात्रों में ज्ञान और कौशल अर्जन/अद्यतन के रूप में निकला है और 2000 संकाय सदस्यों को हर साल नए क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा रहा है। शिक्षण में कंप्यूटर सुविधा से शिक्षा संसाधनों में निश्चित रूप से सुधार हुआ है। योजना में दी गई धन राशि से केंद्रीय कॉलेज पुस्तकालयों में सुधार से शिक्षा और स्नातकोत्तर अनुसंधान बेहतर हुआ है। विश्वविद्यालयों के समग्र विकास में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।

समुद्रपारीय फेलोशिप की शुरूआत की गई, जिससे भारतीयों को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशालाओं में और विदेशियों को सर्वश्रेष्ठ भारतीय कृषि विश्वविद्यालयों/संस्थानों में अवसर मिले तथा उन देशों से गुणवत्ता, अनुसंधान और अनुसंधान विकास में और सहयोग बढ़े।

कृषि विस्तार

फसल उत्पादन, फसल सुरक्षा और पशुधन उत्पादन तथा प्रबंधन से संबंधित 520 प्रौद्योगिकियों का 2044 स्थानों पर 20,002 फार्म ट्रायल पर इसलिए लिया गया ताकि प्रौद्योगिकी के उपयुक्त स्थानों की पहचान खेती की विभिन्न प्रणालियों में किया जा सके। विभिन्न फसलों के संकर किस्मों सहित 74,732 प्रदर्शन किसानों को खेतों में उन्नत प्रौद्योगिकी की उत्पादन क्षमता का पता लगाने के लिए किया गया। इसी अवधि में 11.53 लाख किसानों और 0.90 लाख विस्तार कर्मियों को उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी और कौशल उद्यतन करने का प्रशिक्षण दिया गया। कृषि विज्ञान केंद्रों (बेवीके) द्वारा विस्तार के अन्य कार्यक्रम चलाए गए जिससे 80.69 लाख किसानों और अन्य अधिकारियों को लाभ पहुंचा। कृषि विज्ञान केंद्रों ने किसानों को उपलब्ध कराने के लिए 2.02 लाख कि्ंवटल बीज और 133.20 लाख सैंपलिंग। बीज के अलावा 11.97 लाख किलो जैव उर्वरक, जैव कीटनाशक और जैव एजेंट और 61.19 लाख और अन्य पशुधन/मुर्गी का उत्पादन किया। जहां तक केवीके की नेटवर्किंग का सवाल है, कार्य अग्रिम चरण में है और इससे 200 केवीके/क्षेत्रीय निदेशालय जुड़ जाएंगे। अब तक 568 कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना हो चुकी है, जबकि लक्ष्य 667 का है। ये फार्म परीक्षण, विभिन्न प्रौद्योगिकियों की स्थलीय उपयोगिता का पता लगाने के अलावा किसानों के खेतों में प्रदर्शन उपयोगिता का पता लगाने के अलावा किसानों के खेतों में प्रदर्शन कर उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी की उत्पादन क्षमता के बारे में जानकारी देंगे। किसानों की कुशलता बढ़ाने के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाएगा।

राष्ट्रीय कृषि नवीनीकरण परियोजना

घटक-1 (आईसीएआर को परिवर्तन के प्रबंधक के रूप में मजबूत करना) का उद्देश्य लगभग 10,000 पीएच-डी शोध प्रबंधों को अंकीय संग्रह, स्प्रिंगर प्रकाशनों तक आन लाइन पहुंच (222.ह्यpह्म्inद्दeह्म् द्यuष्k. ष्शद्व), वार्षिक समीक्षाओं (222.ड्डnद्वeड्डद्यह्म1ie2ह्य. शह्म्द्द), और सीएनआईआरओ (222. pubद्यiह्यद्ध ष्शष्ह्म्श.ड्ड1), लगभग 2000 ई. पत्रिकाओं/स्रोतों और 126 एनएआरएस पुस्तकालयों से जोड़ना है। परियोजना प्रस्ताव लेखन और रिपोर्ट देने की कुशलता लगभग 3500 लोगों में विकसित करना। एग्रोपीडिया-ब्रोसिंग मिलनबिंदुओं और शोध उपकरणों से संकलन और सूचना की भागीदारी का प्लेटफार्म विकसित और जारी किया गया। चार महीने में 400,000 एसएमएस संदेश भेजे गए, क्षेत्रीय प्रौद्योगिकी प्रबंधन और व्यापार नियोजन और विकास इकाइयों की स्थापना। कृषि विज्ञान के 26 क्षेत्रों में लगभग 500 वैज्ञानिकों को अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण और 1000 एनएआरएस वैज्ञानिकों की लगभग 80 अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण।

घटक-2 के अंतर्गत ये (खपत प्रणाली के उत्पादन पर अनुसंधान) स्वीकृत उप परियोजनाओं में मीठे सोर्घुम का इस्तेमाल इर्थनाल उत्पादन, बाजरा से खाद्यय उत्पादों का विकास सोर्घुम, मोतिया बाजरा फाक्सटेल और छोटा बाजरा कपास के बहु प्रयोगों की खोज (डंठल, अच्छे धागे और कपड़े के लिए कपास, रेशे, तेल, प्रोटीन) मछली मारने और छोटी समुद्री तथा ताजे पानी की मछलियों के प्रसंस्करण के लिए नाव और साज-सामान शामिल हैं।

घटक-3 (धारणीय ग्रामीण आजीविका पर अनुसंधान) में 36 स्वीकृत परियोजनाओं के माध्यम से देश के 27 राज्यों के (150 सुविधाविहीन जिलों में से) 80 सुविधाविहीन जिलों को शामिल किया गया है। इसमें लगभग 83,000 किसानों/खेतिहर मजदूरों का लक्ष्य है। एक तिहाई भागीदार एनजीओ और शेष एसएयू, आईसीएआर संस्थान, सामान्य विश्वविद्यालय, सीजीआईएआर संस्थान आदि शामिल हैं।

घटक-4 (मौलिक और रणनीतिक अनुसंधान) में आगामी पीढ़ी के नवीनीकरणों सहित कृषि विज्ञान के अन्वेषित क्षेत्रों में 61 उप-परियोजनाओं को मंजूरी। इन परियोजनाओं में लगभग 50' भागीदार आईसीएआर संस्थान, 16' एएसयू, आदि भागीदारी की विविधता के प्रतीक हैं। 61 स्वीकृत आईआईटी, राष्ट्रीय संस्थान, अंतर्राष्ट्रीय केंद्र आदि भागीदारी में विविधता के प्रतीक हैं। 61 स्वीकृत परियोजनाओं से खाद्य शृंखला में आर्सेनिक समस्या समाधान के लिए रणनीति, हेटरोसिस निर्धारण के लिए जनन अभियांत्रिकी, उन्नत कपास गांठ और रेशे के विकास के अनुवंशिक समाधान, भैंस के दूध का उत्पादन बढ़ाना आदि में योगदान मिलने की आशा है।

डीएआरई/आईसीएआर मुख्यालय

छह भारतीय पेटेन्ट्स आईसीएआर को दिए गए जिसमें पशु पोषण (क्षेत्र-विशिष्ट खनिज मिश्रण) कीटनियंत्रण और पौध पोषण (जैव कीटनाशक- जैव उर्वरक, फफूंदनाशक, कीट ट्रैप), कृषिमशीनरी (बीज- उर्वरक ड्रिल) और रेमी रेशा (डीगमिंग) शामिल हैं। 227 वैज्ञानिकों और संबद्ध कर्मचारियोंं को आईपीआर की बारीकियों से 5 राज्यों मेघालय, पश्चिम बंगाल, केरल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश को समाप्त 5 आईपी एवं प्रौद्योगिकी प्रबंधन पर आयोजित प्रशिक्षण-सह-कार्यशाला कार्यक्रमों से अवगत कराया गया।

2008-09 में सात पत्रिकाओं/आईसीएएम समाचार/रिपोर्टर और वार्षिक रिपोर्ट के सभी प्रकाशन प्रकाशित हुए। इसके अलावा इंटरनेट संपर्क ढांचे की विस्तार और ई-पुस्तकालय प्रकाशन शुरू हुआ। कृषि सूचना और प्रकाशित निदेशालय ने 2008 में रोज की खबरों की आन लाइन सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया के अलावा आईसीएआर रिपोर्टर और आईसीएआर यूज की आईसीएआर के वेब पर अपकोडिंग शुरू कर दी है।

केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, इंफाल

विश्वविद्यालय में सेमेस्टर प्रणाली है और दस ग्रेडिंग दी जाती है। स्नातक कार्यक्रमों के लिए आंतरिक और बा±य परीक्षा और स्नातकोत्तर के लिए आंतरिक व्यवस्था है। विश्वविद्यालय ने आईसीएआर द्वारा प्रस्तावित नियमन और पाठ्यक्रम को स्वीकार किया है। लेकिन क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें बदलाव किया गया है। विश्वविद्यालय 7 स्नातक और 20 स्नातकोत्तर डिग्री कार्यक्रम चलाते हैं। स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए 2008 में 226 छात्रों ने प्रवेश लिया और 129 सफल रहे। विभिन्न स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में 57 ने प्रवेश लिया और कृषि कॉलेज से 118 छात्रों को सफलता मिली।

पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों के लिए अनुसंधान

उत्तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र में संस्थानों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्यों के परिणामस्वरूप विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के विभिन्न फसलों की 11 किस्में/हाइब्रिड जारी की गईं। जारी की गई 47 किस्मों के कुल 21.9 टन प्रजनन बीज पैदा किए गए। गेहूं, मटर, मसूर, चना और फ्रेंचबीन के ऑर्गेनिक बीज (0.405 टन) भी पैदा किए गए। इसके अतिरिक्त जारी 33 किस्मों के लगभग 1.2 टन न्यूक्लियस बीज भी पैदा किए गए।

एनईएच क्षेत्र में बाढ़ के बाद कृषि के लिए 6.0 टन प्रति हेक्टेयर वाले दो चावल के जीनोटाइप के विकास के लिए उत्तरपूर्व हिमालय क्षेत्र में स्थित संस्थान में अनुसंधान कार्य किया गया। झूम खेती के लिए एक और चावल जीनोटाइप आरसीपीएल 1-129 को विकसित किया गया। नगालैंड से 80 परिग्रहण भी एकादित किए गए। स्ट्रॉबेरी की विभिन्न क्षेत्रों के लिए कई किस्में जैसे-मेघालय के लिए आफेरा तथा सिक्किम और मणिपुर के लिए स्वीट चार्ली की सिफारिश की गई। ऊपरी क्षेत्रों में दोगुनी फसल के लिए वर्षा के मौसम में उगाई जाने वाली मक्का की फसल का इस्तेमाल कर रबी फसल (सरसों) के लिए एक कम लागत वाली तकनीक "इन-सिटु" नमी संरक्षण नमूने के रूप विकसित की गई। मिजोरम की डेयरी गायों में खनिज अल्पता पाई गई और डाटा आधारित एक राज्य विशेष खनिज मिक्स्चर फीड फॉर्मूला ईजाद किया गया। ब्लड सीरम नमूने, जमीन तथा फीडर नमूने एकत्रित कर उनके आधार पर मेक्रो और माइक्रो मिनरल के लिए अनेक विश्लेषण किए गए। खून में कमी के आधार पर मिजोरम की गाय-भैंसों के लिए एक मिनरल मिक्स्चर कंपोजीशन विकसित किया गया।

आइसलैंड (अंडमान और निकोबार)

विभिन्न संसाधन परिस्थितियों के तहत विकसित एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) मॉडल के हिस्सों के विश्लेषण से पता चलता है कि पहाड़ी और ढलुआं पहाड़ी जमीनों में फसल का हिस्सा शुद्ध आमदनी से अधिक (69 से 83 प्रतिशत) है वहीं मध्यम ऊपरी घाटी तथा निचली घाटी क्षेत्रों में पशुधन हिस्सा (49 से 66 प्रतिशत) है। एक औसत रूप में विभिन्न संसाधन स्थितियों के तहत आईएफएस से शुद्ध आमदनी 1.0-2.5 लाख प्रति हेक्टेयर थी। मछली-मुर्गीपालन-बतख पालन में बेक्टीरियाई लोड से खुलासा होता है कि सैमोनेल मानसून के समय तालाब में बढ़ जाती है तथा गर्मियों में फिर बढ़ जाती है। इससे पता चलता है कि घरेलू उद्देश्य के लिए तालाब का पानी अनुपयुक्त है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में मूल्यांकन के लिए मुख्य खेतों में 50 पौधे रोपे गए। बकरियों की दो किस्में (स्थानीय अंडमान तथा टैरेसा) पहली बार फिनोटिपिकली पहचानी गईं। 105 रिकार्ड की गई रीफ मछलियों में से डेमसेल्फिश की लगभग 15 किस्में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में पैदा की जा रही हैं।

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