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Wednesday, June 2, 2010

Fwd: bhuvendra ki jubani



---------- Forwarded message ----------
From: Mandhata <drmandhata@gmail.com>
Date: Wed, Jun 2, 2010 at 7:36 PM
Subject: bhuvendra ki jubani
To: palashbiswaskl@gmail.com


This is an e-mail from (Bhadas4media.com) sent by Mandhata (drmandhata@gmail.com). You may also find the following link interesting: http://www.bhadas4media.com/article-comment/5296-bhuvendra-tyagi.html

Dear Bhuvendra,
I welcome you on Net as you write your Experiences with media which the general readership is unaware of.I am proud to work with some of friends with Talent and Energy during my Thirty years spent as Professional Journalist. You belong to the selected group. I had spent Six Years in Meerut and enjoyed support from all of you. Despite me being a declared Marxist Social activist , Jagaran management led by Late Narendra Mohan never interrupted my Freedom in and out Jagaran. It was the pleasantEnvironment in the media even in eighties. You may remember, the Mahtosh More gangrape Episode while then Chief Minister ND Tiwari Pressurised Narendar Mohan Ji to sack me. He did not even as he had a personal realtionship wuith the CM. You know my role as a Recruiter as Narendar Mohanji Never did DISCRIMINATE if he was CONVINCED with the Merit. Unfortunately , I had to leave jagaran and could not adjust with the Whimsical Management of AMAR UJALA which was quite COMMUNAL. I had to leave Bareielly within ayear and landed in Kolkata, as PRABHASH JOSHI was our ICON. But the ICON proved to be only BRAHMION Rigid in nature and in Kokata, I was DEMOTED as SUB Editor even after my Long Tenure as Edition In Charge and RECRUITER in Different News papers and I AM STILL A SUB EDITOR only, not a SAMCHAR SAMPADAK as you are mistaken to write. I NEVER do identify myself as a Journalist and have GIVEN Up as a Creative Hindi Writer. Some Friends like you assume that I am in a superior status which is not True. I am only a SUBEDITOR reduced as PAGE ADJUSTER without any Creativity. Since the Hindi world NEVER Noticed my work wven after AMERICA SE SAVDHAN, I had to ehject me out. I opted for BLOGGING to save my CREATIVITY only.

At best, I AM A TOTALLY FAILED HINDI JOURNALIST as well as HINDI CREATVE writer and I have no Manipulating Talent to regain my Position. I never did COMPROMISE my Stance nor I would. Hence, your assessment that I should have become Group editor in ENGLISH, is NOTHING but your Love for me and it has no face value. Even before adopting Professional career I have been writing in Hindi and even now , I do continue to write NON Creative Articles in Hindi. The Hindi World could not Recognise me since 1973, How do you expect the Ruling Hegemnoy to recognise me and allow HIGHEST Statuseven on ad hoc basis.

I NEVER do repent for my past. I have to deal otherissues more Important as the Political economy, Exclusion, Unprecdented Violence, global Phenomenon and Economic Ethnic Cleansing. I may not dare to waste time in Personal OBSESSIONS. I jaust wanted to correct my dear Freind.You were very Yong as You did Graduation and Post Gradutaion after being Recruited In Jagaran, you forgot that I went to Meerut from JHARKHAND, RANCHI. I Never had been in Dehradoon.

Managalji was a real GENTLEMAN while Bhagwatji attempted block my ENTRY In Jagaran. ONLY NARENDRAMOHANJI inserted me in Jagaran.

I am GLAD that you remeber old friends like NAUNIHAL who was very talented and it is an UNREPARABLE LOSS to Hindi Journalism!
Palash Biswas

मंगलजी आए, भगवतजी लौट गए

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नौनिहाल शर्माभाग 20 : लास एंजेलिस ओलंपिक खेलों की शानदार कवरेज के बाद मुझे भगवतजी के साथ ही धीरेन्द्र मोहनजी से भी काफी शाबाशी मिली थी। हालांकि इसके सही हकदार नौनिहाल थे। आखिर देर रात तक समाचार लेने का आइडिया उन्हीं का था। इससे अखबार को भी फायदा हुआ। अभी तक दिल्ली से मेरठ आने वाले अखबारों के एजेंट यही प्रचार कर रहे थे कि जागरण में लोकल खबरें जरूर भरपूर मिल रही हों, पर देश-विदेश की खबरों में यह दिल्ली के अखबारों का मुकाबला नहीं कर सकता। ओलंपिक कवरेज ने उनका यह दावा झठा साबित कर दिया।

इससे मेरठ में जागरण पूरी तरह जम गया। नरेन्द्र मोहन ने मेरठ आकर संपादकीय विभाग की पहली मीटिंग ली, तो उन्होंने इसकी काफी तारीफ की। वे महज चार महीने में ही मेरठ में जागरण के पैर जम जाने से बेहद खुश थे। हम इसलिए खुश थे कि एडिशन लांच करने की ओरिजिनल टीम के बगावत करके कानपुर लौटने के बाद हमने चंद दिनों की तैयारी में ही अखबार निकालकर दिखाया था।

अब काम करने में और ज्यादा मजा आने लगा था। सफलता से मिले आनंद की बात ही कुछ और होती है। इस बीच और लोग भी संपादकीय विभाग में आ गये थे। बनारस से मंगलजी (मंगल प्रसाद जायसवाल) आये। उनका पद समाचार संपादक का था। शुरू में उन्होंने न्यूज डेस्क को देखना शुरू किया। फिर एक दिन कमलेश अवस्थी ने सबको बताया कि भगवतजी जाने वाले हैं और उनकी जगह मंगलजी लेंगे। सबको बड़ा ताज्जुब हुआ। अवस्थीजी ने यह भी कहा कि ये तो जागरण की नीति है। जो एडिशन लांच करता है, उसकी जगह बाद में किसी और को भेजा जाता है। ऐसा करके नये संपादक को एक सैट टीम मिलती है और किसी से रैपो न होने के कारण वह सबसे अच्छा काम कराकर अखबार को और ऊंचाई पर ले जाता है।

तो धीरे-धीरे मंगलजी मेरठ में रमते गये। भगवतजी लौट गये। इस बीच, संपादकीय विभाग में कुछ और लोग भी आये।
प्रेमनाथ वाजपेयी कानपुर लौट गये। कुंतल वर्मा भी लौट गये। उनकी जगह अभय गुप्त चीफ रिपोर्टर बनकर आ गये। उन्होंने जागरण के साथ लंबी पारी खेली। हमेशा सीरियस रहते थे और संघ के अपने किस्से सुनाते रहते थे। अब रिटायर होने के बाद मेरठ में ही पत्रकारिता का कोर्स चला रहे हैं।

देहरादून से आये पलाश दा। पलाश चंद्र विश्वास। नाटे, सांवले, सिर से कम होते बालों वाले, लेकिन ऊर्जा से भरपूर। ज्ञान से भी भरपूर। नौनिहाल के बाद मैंने किसी भी विषय पर बात करने वाला उन्हें ही पाया। एक्टिविस्ट भी थे। अब कोलकाता में 'जनसत्ता' में समाचार संपादक हैं। साहित्य लेखन और एक्टिविज्म में व्यस्त हो गये। अन्यथा अगर अंग्रेजी पत्रकार होते, तो किसी बड़े अखबार के ग्रुप एडिटर होते। ये और बात है कि टिकते नहीं। उनके पूंजीवाद विरोधी और अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी बलॉगों को ग्लोबल ताकतों ने ब्लॉक कर दिया है। वे हर बार नया ब्लॉग शुरू कर देते हैं।

रमेश गौतम सागर विश्वविद्यालय से पॉलिटिकल साइंस में एम. ए. किये हुए थे। पत्रकारिता में देर से आये, पर जल्दी जम गये। नफीस आदमी रहे। बाद में 'नवभारत टाइम्स' में चले गये। चंडीगढ़ से विशेष संवाददाता बनकर रिटायर हुए। आजकल पंजाब सरकार के मीडिया सलाहकार हैं।

विवेक शुक्ल दिल्ली से आया। घनी दाढ़ी और कसरती शरीर वाला विवेक पहली मुलाकात में ही सब पर छा जाता था। उसका बोलने का अंदाज भी बहुत प्रभावशाली था। कुछ बरस जागरण में काम करके 'हिंदुस्तान' में चला गया। वहां विशेष संवाददाता बना। अब एक पब्लिकेशन का संपादक है।

ओमकार चौधरी और नीरजकांत राही 'दैनिक प्रभात' से आये। ओमकार दबथुआ का ओमकार किसानी तेवर का, लेकिन सलीके से काम करके आगे बढऩे वाला था। अब रोहतक में 'हरिभूमि' का संपादक है। नीरज शुरू से ही स्टाइलिश था। आईपीएस अफसर बनना चाहता था। शायद इसीलिए क्राइम रिपोर्टिंग करता था। अब मुरादाबाद में 'अमर उजाला' का संपादक है।

संपादकीय विभाग की जान था फोटोग्राफर गजेन्द्र सिंह। वहां पर वही करीब मेरी उम्र का था। इसलिए उससे मेरी खूब जमती। हमने साथ-साथ बहुत एडवेंचर किये। नौनिहाल उसे अक्सर खबर के लिहाज से फोटो के बारे में बताते थे। वह कुछ ही महीने में बेहतरीन प्रेस फोटोग्राफर बन गया। उन दिनों उसकी एक गर्ल फ्रैंड थी। उसे लेकर नौनिहाल उसे खूब छेड़ते भी थे।
एक दिन मैंने नौनिहाल से कहा कि तुम हरेक से उसके स्तर पर जाकर बात कैसे कर लेते हो।

'इसमें मुझे मजा आता है। समझ लो कि अपने सुन-बोल न पाने की कमी को मैं इस तरह दूर करने की कोशिश करता हूं।'

'क्या तुम्हें ये नहीं लगता कि बाकी लोग (मतलब सीनियर्स) तुम्हें इस तरह देखकर सीरियसली नहीं लेते।'

'ना लें। मेरी बला से।'

'पर तुम्हें उन्हें यह कहने का मौका नहीं देना चाहिए कि काम में पूरा ध्यान नहीं देते।'

(यह कहते हुए अचानक मुझे अहसास हुआ कि अभी तक नौनिहाल ही मुझे सलाहें देते थे और अब मैं उन्हें सलाह दे रहा था। और यह सोचते ही मैं सकुचा गया। हालांकि मेरा यह मनोभाव नौनिहाल की नजर से छिपा नहीं रह सका।)

'भई वाह! बच्चा जवान हो गया। अब तू दफ्तरी राजनीति की बारीकियां समझने लगा है। अच्छी बात है। अब तू इस समंदर में तैर सकता है।'

'देखो गुरू, बात को बदलो मत। मैं जो कुछ हूं, तुम्हारी ही बदौलत हूं। और यहां इस तरह की बातें हो रही हैं। इसीलिए मैं तुमसे यह बात कह रहा हूं।'

'कैसी बातें हो रही हैं?'

'यही कि नौनिहाल नये लौंडों को किस्से सुनाता रहता है। इससे काम का हर्जा होता है।'

'अगर कोई कुछ कहना ही चाहे, तो उसका मुंह बंद नहीं किया जा सकता। मैं काम पहले करता हूं। दोस्ती बाद में पालता हूं। और तुझे भी मेरी यही सलाह है।'

दरअसल जागरण में जैसे-जैसे लोग बढ़ रहे थे, एक अजीब तरह की राजनीति शुरू हो गयी थी। कुछ लोग दूसरों के काम का श्रेय खुद लेने के चक्कर में रहते, तो कुछ दूसरों को लंगड़ी मारने की फिराक में रहते। चूंकि नौनिहाल सुन और बोल नहीं सकते थे, इसलिए मुझे लगा कि उन्हें इन बातों का पता नहीं होगा। मेरा अनुमान सही था। उन्हें सचमुच पता नहीं था कि दफ्तर में क्या-क्या चलना शुरू हो गया है।

बहरहाल, नौनिहाल ने मुझे चिंता न करने को कहा।

हालांकि वे कुछ सजग जरूर हो गये। पर उनकी यारबाजी में कोई कमी नहीं आयी। एक चपरासी था रमेश। वहीं साकेत के पास रहता था। उससे भी नौनिहाल की बहुत जमती थी। इस पर भी भाई लोगों को ऐतराज था। संपादकीय विभाग का कोई आदमी भला चपरासी से दोस्ती कैसे गांठ सकता है? मगर इस मामले में नौनिहाल जैसा ही किरदार था ओ. पी. सक्सेना का। ओपी भी पूरा फक्कड़ था। उन दिनों प्रेम-गीत लिखता था। एक दिन दफ्तर आकर बोला, 'मैं साला चूतिया हूं। आज तक मैं प्रेम के ही गीत लिखता रहा। अब मैं क्रांति के गीत लिखूंगा।'

ये और बात है कि क्रांति के कुछेक गीत लिखकर वह फिर प्रेम पर लौट आया। तो ओपी ही था, जो मेरे अलावा नौनिहाल की यारबाजी का पूरा समर्थक था।

हालांकि नौनिहाल को किसी भी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे हमेशा अपनी धुन में रहते। जो भी उनके नजदीक आता, भुवेंद्र त्यागीवह भी उसी धुन में रम जाता। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि नौनिहाल दोस्ती खूब निभाते थे। उनके लिए जीवन में दोस्तों का बहुत महत्व था। उनके लिए वे कुछ भी करने को तत्पर रहते!

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क bhuvtyagi@yahoo.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए किया जा सकता है.


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