मीडिया ऐसे रंग बदलता है…
कॉमनवेल्थ खेल, विज्ञापन और मीडिया
♦ दिलीप मंडल
यह आलेख 16 अगस्त को लिखा गया था, जब मीडिया में कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर पर्दाफाश पर पर्दाफाश हो रहे थे। कथादेश के कॉलम अखबारनामा में यह छपा है। उस समय यह अंदाजा लगाने की कोशिश की गयी थी कि जब खेल करीब होंगे तो देश का प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह से एक्ट करेगा। आप ही बताएं कि क्या इस आलेख में जतायी गयी चिंताएं आपको अब वास्तविकता के करीब लगती हैं?
कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने में अब चंद रोज बचे हैं और जब कथादेश का यह अंक आप पढ़ रहे होंगे तो मीडिया के बड़े हिस्से में कॉमनवेल्थ गेम्स के कवरेज का रंग-ढंग बदल चुका होगा। मेरा अनुमान है (जिसके गलत होने पर मुझे बेहद खुशी होगी) कि कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक या आलोचनात्मक खबरें कम होती चली जाएंगी। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार की खबरें शायद न छपें। हालांकि तैयारियां न होने या स्टेडियम की दीवार गिर जाने जैसी घटनाओं-दुर्घटनाओं को दर्ज करने की मजबूरी मीडिया के सामने जरूर होगी। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे एक दुक्का बड़े समूह, जिनकी विज्ञापनों से आमदनी अरबों रुपये में है, कॉमनवेल्थ के विज्ञापनों की अनदेखी कर सकते हैं। लेकिन ऐसे समूह अपवाद ही होंगे।
वर्ष 2010 की पूरी जुलाई और अगस्त के पहले पखवाड़े तक देश के राष्ट्रीय कहे जाने वाले ज्यादातर समाचार पत्रों में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरें प्रमुखता से छपीं। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में मुख्य रूप से दो बातों को प्रमुखता मिली। एक, कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और दो कॉमनवेल्थ गेम्स की अधूरी तैयारियां और दिल्ली शहर में टूट-फूट को समेट पाने में सरकारी एजेंसियों की नाकामी। इन खेलों के आयोजन में सरकारी पैसे की लूट और सरकारी मशीनरी की अक्षमता को लेकर समाचार पत्रों ने जमकर लिखा। कॉमनवेल्थ खेलों के कवरेज में तस्वीरों का खूब इस्तेमाल किया गया और इनके जरिए यह बताया गया कि किस तरह से न स्टेडियम तैयार हैं, न शहर दिल्ली।
अगर मैं यह अनुमान लगा रहा हूं कि आने वाले दिनों में कॉमनवेल्थ को लेकर मीडिया कवरेज की दिशा बदल जाएगी, तो इसका आधार यह है कि आयोजन समिति इस बीच अपना विज्ञापन अभियान शुरू कर चुकी होगी। छवि निर्माण की बड़े अभियानों के अब तक अनुभवों के आधार पर कहा जा जा सकता है कि मीडिया या इसके बड़े हिस्से का प्रबंधन मुमकिन है। सरकार में पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी से लेकर डीएवीपी, जनसंपर्क विभाग यह काम करते हैं। निजी कंपनियों में भी मीडिया रिलेशन, कॉरपोरेट कम्युनिकेशन के विभाग होते हैं। सैकड़ों की संख्या में मीडिया मैनेजमेंट और पब्लिक रिलेशन कंपनियां देश और विदेश में मीडिया का प्रबंधन करती हैं। यानी क्या छपेगा और क्या नहीं छपेगा का निर्धारण अक्सर समाचार कक्ष से बाहर तय होता है।
कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन और इसके लिए दिल्ली को संवारने पर अलग अलग अनुमानों के मुताबिक 35,000 करोड़ से लेकर 85,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। कुछ लोग तो इस रकम को एक लाख करोड़ के ऊपर तक बता रहे हैं। इस रकम का एक हिस्सा मीडिया प्रबंधन पर खर्च होना है। मीडिया में छोटे पैमाने पर कॉमनवेल्थ का प्रचार अभियान शुरू भी हो चुका है। क्वींस बैटन रिले की शुरुआत के दौरान छिटपुट विज्ञापन मीडिया में आए। लेकिन उसके बाद यह विज्ञापन अभियान रोक दिया गया। मीडिया में कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर नकारात्मक खबरों को आप एक हद तक आयोजन समिति के मीडिया कुप्रबंधन या मिसमैनेजमेंट का नतीजा मान सकते हैं। यह बात पूरी तरह से सही न हो, लेकिन इसमें एक सीमा तक सच्चाई है कि अगर आयोजन समिति ने मीडिया प्रबंधन को गंभीरता से लिया होता और अरबों की लूट का एक हिस्सा मीडिया पर भी लुटाया होता तो कॉमनवेल्थ खेलों की इतनी बुरी छवि न बनती। कल्पना कीजिए कि पांच अधबने स्टेडियम की जगह पांच तैयार स्टेडियम या अधबने स्टेडियम के तैयार हिस्सों की चमचमाती तस्वीर हर दिन अखबारों में छपती, तो कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर लोगों के मन में क्या छवि बनती! कॉमनवेल्थ आयोजन समिति मीडिया को इसके लिए तैयार न कर सकी, यह आयोजन समिति के मीडिया प्रबंधन विभाग की बड़ी नाकामी है।
इस देश में किसी भी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ मीडिया में आम तौर पर कुछ नहीं छपता। मिसाल के तौर पर हिंदुस्तान लीवर, मारुति-सुजूकी, प्रोक्टर एंड गैंबल, टाटा, रिलायंस इंडस्ट्रीज, हीरो होंडा, एयरटेल, बिगबाजार-पेंटालून आदि के खिलाफ शायद ही आपने कभी कोई खबर देखी होगी। कोला कंपनियां इस देश के बच्चों और नौजवानों की सेहत बिगाड़ रही हैं और उन्हें मोटा बना रही हैं, लेकिन सेहत के किसी टीवी कार्यक्रम या किसी अखबारी पन्ने पर कोला ड्रिंक्स के खिलाफ पढ़ने को शायद ही मिलेगा। पिज्जा –बर्गर बेचने वाली कंपनियों के खिलाफ भी शायद ही कुछ छपता है क्योंकि वे बड़ी विज्ञापनादाता कंपनियां हैं। कुछ साल पहले जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने यह बताया कि कोला ड्रिंक्स में पेस्टिसाइड हैं तो कोला कंपनियों ने अपने बचाव में लगभग 40 करोड़ रुपये का विज्ञापन अभियान शुरू कर दिया और मीडिया में कोला ड्रिंक्स के खिलाफ खबरें बंद हो गईं। हाल ही में जब छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल इलाके में खनन को लेकर विवाद तेज हुआ तो दुनिया की सबसे बड़ी माइनिंग कंपनियों में से एक वेदांता ने अखबारों में पूरे पन्ने के कई विज्ञापन दिये। अब अखबारों में आपको खनन को लेकर विरोध की खबरें पढ़ने को शायद ही मिलेंगी।
पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2008-2009 में केंद्र सरकार ने अपना विज्ञापन बजट दो गुना बढ़ा दिया था। मीडिया प्रबंधन का यह सरकारी तरीका था। भारत सरकार के दृश्य और श्रव्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) से जारी होने वाले विज्ञापन के लिए किया गया भुगतान 2007-8 में 246.5 करोड़ रु था जो 2008-9 में 472.1 करोड़ हो गया।(1) इसी तरह रेल मंत्रालय का प्रिंट माध्यमों को दिए गये विज्ञापनों पर खर्च 2007-8 में 159.1 करोड़ रु था जो 2008-9 में बढ़कर 208 करोड़ रु हो गया। (2) बाकी सरकारी विभागों और सरकारी कंपनियों का विज्ञापन खर्च भी चुनावी साल में अचानक काफी तेजी से बढ़ गया। डीएवीपी से विज्ञापनों के लिए ज्यादा भुगतान किए जाने के बारे में पूछे गये सवाल के जवाब में सरकार ने संसद को जानकारी दी कि ऐसा विज्ञापनों की दर बढ़ाए जाने और मंत्रालयों और विभागों द्वारा ज्यादा विज्ञापन जारी किए जाने की वजह से हुआ। सरकार चुनाव से ठीक पहले मीडिया संस्थानों पर विज्ञापन की शक्ल में पैसों की बारिश करके क्या हासिल करना चाहती है, इसे समझना कठिन नहीं है।
कॉमनवेल्थ खेलों की आयोजन समिति से गलती यह हुई है कि उससे समय पर अपना विज्ञापन अभियान शुरू नहीं किया। अगर वह 400 से 500 करोड़ का विज्ञापन अभियान चला रही होती तो मीडिया को नियंत्रित करना उसके लिए मुश्किल नहीं होता। इस समय जबकि अखबार जिंदा रहने से लेकर मुनाफे के लिए विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर हैं, विज्ञापन बंद करने की धमकी से बड़ा सेंसरशिप कुछ भी नहीं है। इससे न बचा जा सका है न ही इसके विरोध की कोई परंपरा बन पायी है।
बाजार के दबावों की वजह से मीडिया का निष्पक्ष और निरपेक्ष रह पाना अब मुमकिन नहीं है। मीडिया का कारोबार लगभग पूरी तरह विज्ञापनों पर निर्भर है। मीडिया विश्लेषक परंजय गुहाठाकुरता की राय में खास मीडिया संगठनों के कुल राजस्व का 90 फीसदी तक विज्ञापनों से आ रहा है। (3) इस वजह से कंटेंट तैयार करने की उसकी स्वायत्तता पर पाबंदियां लग जाती है। कई बार विज्ञापनदाता मामूली सी आलोचना से नाराज होकर तमाम विज्ञापन रोक लेते हैं। जरूरी नहीं है कि ऐसा सिर्फ आलोचनात्मक खबरें छापने या दिखाने के लिए किया गया हो। कई बार किसी कंपनी के वित्तीय नतीजे और बाजार में कंपनी के कामकाज को कमजोर माने जाने की खबर पर भी ऐसी कार्रवाई की जाती है।(4)
कई विश्लेषक ये कहने लगे हैं कि खबरों में की जा रही इस तरह की मिलावट मीडिया इंडस्ट्री के लिए ठीक है और लंबी अवधि में ये विज्ञापनदाताओं के लिए भी फायदेमंद नहीं रहेगा। ये सोने के अंडे के लालच में मुर्गी को मारने वाली हरकत है। कोई भी उद्योग थोड़े समय के फायदे के लिए अपने उत्पाद को खराब नहीं करता। खासकर अपने किसी ऐसे उत्पाद के साथ कोई कंपनी छेड़छाड़ नहीं करती, या क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करती, जो ग्राहक की आदत में शामिल हो। अखबार, पत्रिकाएं, चैनल ये सब लोग आदत के मुताबिक देखते हैं। पत्रकारिता के लिए समाचार और विज्ञापन का घालमेल किस हद तक खतरनाक हो सकता है इस बारे में पत्रकार सुरेंद्र किशोर की टिप्पणी गौरतलब है। हालांकि ये टिप्पणी लोकसभा चुनाव 2009 के दौरान कुछ अखबारों द्वारा समाचार के स्पेस को विज्ञापनों से भरने यानी पेड न्यूज के संदर्भ में है:
"यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अखबार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा। फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा। यदि साख नष्ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा। इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें।" (5)
सुरेंद्र किशोर दरअसल भारतीय पत्रकारिता को एक नयी बीमारी पैकेज पत्रकारिता या पेड न्यूज से बचने की नसीहत देते हुए अखबार निकालने के पीछे भारतीय मीडिया उद्योग के व्यवसाय के अलावा बाकी हितों और स्वार्थों की चर्चा भी वे यहां कर रहे हैं। वे यह नहीं चाहते कि मीडिया अपनी साख इस हद तक गंवा दे कि उसकी हैसियत की खत्म हो जाए क्योंकि अगर मीडिया की साख ही नहीं बचेगी, तो मीडिया के जरिए वे स्वार्थ पूरे नहीं पाएंगे, जिसके लिए कोई व्यवसायी मीडिया कारोबार शुरू करता है। अखबार मालिकों द्वारा सरकार को प्रभावित करने वाली उनकी बात के मायने गंभीर हैं। सुरेंद्र किशोर पेड न्यूज का विरोध इस आधार पर नहीं कर रहे हैं कि ये अनैतिक है या पत्रकारिता और लोकतंत्र को इससे कोई नुकसान होगा, वे एक व्यावहारिक पक्ष लेते हैं और बताते है कि ऐसा करना मीडिया मालिकों के हित में भी नहीं होगा।
विज्ञापन में बसी है मीडिया की जान
भारत में मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय के विकास के पीछे मुख्य ताकत विज्ञापनों से मिले पैसे की ही है। 2006-2008 के बीच का समय भारतीय विज्ञापन बाजार में तेज विकास का दौर रहा। इस दौरान विज्ञापनों से होने वाली आमदनी में हर साल औसतन 17.1 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई। (6) 2009 में भारतीय विज्ञापन कारोबार 22,000 करोड़ रुपये का हो गया। वैश्विक मंदी और भारत पर उसके असर की वजह से 2008 के मुकाबले 2009 में विज्ञापन कारोबार में मामूली (0.4%) की गिरावट आई। लेकिन 2009-2014 के दौरान विज्ञापन कारोबार की औसत सालाना विकास दर 14 फीसदी से ज्यादा होने का अनुमान है। आर्थिक माहौल के बदलने से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी पर असर जरूर पड़ा है लेकिन विज्ञापन कारोबार के बढ़ने की दर जीडीपी विकास दर के किसी भी अनुमान से ज्यादा है।
मीडिया के अलग अलग माध्यमों की बात करें तो प्रिंट माध्यम के विज्ञापन का बाजार 2009 में 10,300 करोड़ रुपये का था जिसके 2014 में बढ़कर 17,640 करोड़ रुपये हो जाने का अनुमान है। यानी अगले कुछ वर्षों में प्रिंट के विज्ञापनों का कारोबार सालाना 11.4 फीसदी की औसत रफ्तार से बढ़ेगा। वहीं, टीवी विज्ञापनों का बाजार 2009 में 8,800 करोड़ रुपये था जिसके 2014 में बढ़कर 18,150 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है। प्रतिशत के हिसाब से सालाना बढ़ोतरी का आंकड़ा 15.6 फीसदी का रहेगा। (7) बढ़ोतरी का ये सिलसिला वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण विज्ञापन बाजार में आयी शिथिलता के बावजूद है।
ऐडेक्स इंडिया की रिपोर्ट के एक्सचेंज फॉर मीडिया में छपे विश्लेषण के मुताबिक 2009 में प्रिंट को सबसे ज्यादा विज्ञापन शिक्षा क्षेत्र से मिले। इसके बाद सेवा क्षेत्र और बैंकिग फाइनैंस सेक्टर का नंबर है। वैसे किसी एक कंपनी की बात करें तो सबसे ज्यादा विज्ञापन टाटा मोटर्स ने दिए। इसके बाद एलजी, मारुति सुजूकी, प्लानमैन कंसल्टेंट, स्टेट बैंक, सैमसंग, बीएसएनएल, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और जनरल मोटर्स ने दिए। इसी दौरान ऑटो कंपनियों का विज्ञापन 7 परसेंट बढ़ गया। कुल विज्ञापनों में 95 फीसदी अखबारों के हिस्से आए, जबकि 5 फीसदी विज्ञापन पत्रिकाओं को मिले। (8)
विज्ञापन है असली किंग
अखबारों में विज्ञापनों के बढ़ते महत्व और कंटेंट पर उसके असर के बारे में प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे ने भी चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गये हैं। महानगरों में तो प्रेस की कुल आमदनी का 70 से 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ज्यादा ही जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। समाचार पत्रों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल, जितना लगता है, उससे ज्यादा हो चुका है। कॉरपोरेट कम्यूनिकेशंस और ग्राहकों को लुभाने के लिए दिए जा रहे विज्ञापनों में तेजी से बढ़ोतरी के साथ अखबारों की आमदनी जोरदार होती है। इस वजह से अखबारों में पन्ने बढ़े हैं, दूसरी ओर अखबारो की कीमत घटी है। (9)
ऐसे समय में जब अखबारों और चैनलों की जान विज्ञापन नाम के तोते में बसी हो तब, कॉमनवेल्थ आयोजन समिति ने इस तोते को दाना खिलाने में देर करने की गलती की। इस गलती का सुधार करते ही कॉमनवेल्थ गेम्स की इमेज बदल सकती है। कॉमनवेल्थ खेलों की खबर को इस नजरिए से भी देखने-पढ़ने की जरूरत है।
संदर्भ:
(1) लोकसभा, अतारांकित प्रश्न संख्या-4014, जवाब की तारीख-15 दिसंबर, 2009
(2) लोकसभा में तारांकित प्रश्न संख्या-472, जवाब की तारीख-6 अगस्त, 2009
(3) मीडिया एथिक्स: ट्रूथ, फेयरनेस एंड ऑब्जेक्टिविटी, ऑक्सफोर्ड, 2009
(4) इंडियन मीडिया बिजनेस, विनीता कोहली, 2003, पेज-33
(5) पत्रकार प्रमोद रंजन का पैकेज पत्रकारिता पर आलेख, www.janatantra.com
(6) पीडब्ल्यूसी इंडियन एंटरटेनमेंट ऐंड मीडिया आउटलुक 2009, पेज-16
(7) फिक्की-केपीएमजी इंडियन मीडिया ऐंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री रिपोर्ट, 2010, पेज-150
(8) www.exchange4media.com
(9) 16 नवंबर 2009 को नेशनल प्रेस डे पर प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जी एन रे का हैदराबाद में भाषण
(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्ट। कई टीवी चैनलों में जिम्मेदार पदों पर रहे। अख़बारों में नियमित स्तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
इस देश का मीडिया मूलतः हिंदुओं का मीडिया है
20 September 2010 14 Comments
♦ विनीत कुमार
17 तारीख को विश्वकर्मा पूजा के मौके पर झारखंड से प्रकाशित होने वाले सभी अखबार नहीं छपे। जाहिर है, इसमें मशीन चलानेवाले लोगों से ज्यादा मशीन को राहत देनेवाली बात रही होगी। जिस मशीन की भगवान मानकर पूजा करें, उसे उसी दिन खटने के लिए लगा दें, ऐसा कैसे हो सकता है? दूसरी तरफ सारे न्यूज चैनलों का प्रसारण जारी रहा। चाहते तो चैनल में भी इस मौके पर एक दिन के लिए चैनल बंद कर सकते थे। आखिर वहां भी तो लोहे-लक्कड़ के कई सामान होंगे, जिसमें भगवान विश्वकर्मा विराज रहे होंगे। दिल्ली में हमें अखबार दिखाई दिये तो समझिए कि झारखंड के अखबार की मशीन विश्वकर्मा भगवान और दिल्ली में वही अखबार की मशीन खालिस लोहा। ये ऐसे कुछ मौके होते हैं जहां मीडिया एहसास करा देता है कि इस देश का मीडिया मूलतः हिंदुओं का मीडिया है, जिसको चलानेवाले से लेकर पढ़नेवाले लोग हिंदू हैं। बाकी के समुदाय से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। साल के कुछ खास दिन जिसमें विश्वकर्मा पूजा, दीवाली सहित हिंदुओं के कुछ ऐसे त्योहार हैं, जिसमें अखबार खरीदनेवाले को न तो पाठक और न ही ग्राहक की हैसियत से देखा जाता है बल्कि हिंदू के हिसाब से देखा जाता है। बाकी के जो रह गये वो अपनी बला से। उन्हें अगर उस दिन अखबार पढ़ना है, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही होगा कि वो एक हिंदू बहुल मुल्क में रह रहे हैं। अब आप कहते रहिए इसे सामाजिक विकास का माध्यम और पढ़ाते रहिए लोगों को बिल्बर श्रैम की थीअरि। पत्रकारिता के भीतर कर्मकांड और पाखंड पहले की तरह जस का तस पसरा हुआ है।
ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पक्ष में एक राय बनायी जा सकती है कि वो प्रिंट मीडिया के मुकाबले ज्यादा खुले मिजाज का है, ज्यादा सेकुलर और कर्मकांडों से मुक्त है। मीडिया को जो लोग एक ऑडिएंस-रीडर की हैसियत से देखते हैं, वो ये काम बहुत आसानी से कर सकते हैं और इस मौके पर प्रिंट मीडिया की बजा सकते हैं कि बड़ा अपने को भांय-भांय करनेवाले न्यूज चैनलों से अलग बताते हो, तुम तो उससे भी ज्यादा पाखंडी और कर्मकांडों में फंसे हो। लेकिन जो लोग इसके अंदरूनी सच को जानते हैं वो समझ सकते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां भी कर्मकांड के आगे कानून को धत्ता बता दिया जाता है और जिस चैनल के नाम से रजिस्ट्रेशन है, उस पर दूसरे नये खुलनेवाले चैनल को कुछ देर के लिए इसलिए दिखाया जाता है कि उस दिन किसी पहुंचे हुए बाबा ने शुभ मुहूर्त बताया था। दूसरी तरफ एक चैनल में नारियल फोड़ने में थोड़ा ज्यादा टाइम इसलिए लिया जाता है कि मनहूस वक्त निकल जाए। मनोरंजन चैनलों में खासकर सीरियलों पर गौर करें, तो लगभग सारे हिंदुओं के त्योहार के मौके पर उनके स्पेशन एपिसोड तैयार किये जाते हैं। दूसरी मान्यताओं का कोई शख्स अगर इन सीरियलों को देखना चाहे तो वो हिंदुओं के कर्मकांड और पाखंड को झेलने के लिए अभिशप्त है। कुल मिलाकर मीडिया के तमाम रूपों का चरित्र लगभग एक-सा है।
जिस मीडिया की जुबान पर बात-बात में राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति की बहुलता को बचाने की चिंता और सबसे ज्यादा सेकुलर साबित करने की होड़ लगी रहती है, वो खुद किस तरह से राष्ट्रीयता की मूल भावना में मठ्ठा घोलने का काम करता है, इसे ऐसे ही मौके पर बारीकी से समझने की जरूरत है। यहां ये साफ कर दूं कि राष्ट्रीयता को लेकर मेरी अपनी वही समझ नहीं है, जो कि 15 अगस्त और 26 जनवरी में सरकारी चबूतरों से दोहराये जाते हैं और न ही जिसके राग अलापकर सिम बेचे जाते हैं। मैं इसे आधुनिकता की सबसे शातिर अवधारणा मानता हूं। खैर, जो प्रभात खबर ये लिखता है – अखबार नहीं आंदोलन, वो अगर विश्वकर्मा पूजा के दिन अखबार नहीं छापता है, मशीन को देवता मानकर पूजता है और उसे रेस्ट देता है, वो अपनी सालभर की प्रगतिशीलता के बावजूद भी किस तरह के मैसेज समाज को दे रहा है, इस पर बात होनी चाहिए। फेसबुक पर बस दो लाइन का ही स्टेटस लिखने पर लोगों की नसीहतें मिलने लगी। कुछ ने बहुत ही महीन तरीके से रिएक्ट किया और मजदूरों को आराम देने के एंगिल से असहमति जगायी तो तो किसी ने बातचीत के माध्यम से कहा कि यहां अखबार विश्वकर्मा पूजा के मौके पर नहीं छपेंगे तो तुम क्या चाहते हो कि ईद के मौके पर न छपे? माफ कीजिएगा, मैं इस तरह के समाहार की समझ लेकर नहीं सोचता कि ऐसा किया जाए कि एक-एक दिन उन तमाम समुदायों, पंथों और मान्यताओं के खास मौके पर अखबार नहीं छापे जाएं। ये काम नेताओं के लिए ही छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा। फिलहाल हम दूसरे मसले को लेकर बात को आगे बढ़ाना चाहेंगे।
इस देश के ज्यादातर अखबार, देश को फिलहाल रहने दीजिए, झारखंड की ही बात करें तो ज्यादातर अखबार उन हिंदू मालिकों के हैं जो कि हिंदू कर्मकांडों और मान्यताओं पर घनघोर तरीके से भरोसा रखते हैं। वैसे भी धंधा करनेवाले लोग धार्मिक क्रियाकर्म में अक्सर सक्रिय पाये जाते हैं। उस एक मालिक की समझ और मान्यता पूरे अखबार पर लाद दी जाती है जिसे कि पत्रकार छुट्टी मानकर मौज में आकर हम जैसे लोगों को फोन करके टाइम पास करते हैं। एहसास कराते हैं कि आज रिलेक्स फील कर रहे थे तो सोचा कि याद कर लूं। वो हमारे माई-बाप जैसे बन जाते हैं और हमसे हिसाब-किताब मांगने लग जाते हैं कि क्या चल रहा है? क्या किसी पत्रकार के दिमाग में ये सवाल कभी आता होगा कि जिस विश्वकर्मा पूजा या दीवाली के नाम पर वो चिल्ल हो रहे हैं, उसका बड़े संदर्भ में क्या अर्थ जाता होगा? कहने को बहुत ही सपाट तरीके से कहा जा सकता है कि पत्रकार क्या कोई काठ का बना हुआ है, उसके घर-परिवार बच्चे नहीं हैं कि वो त्योहार मनाएं? ये सरासर जबरदस्ती का मुद्दा बनानेवाली बात हो गयी। सही कह रहे हैं, लेकिन कभी सोचा कि जिस राष्ट्रीयता और अनेकता में एकता की दुहाई आपकी कलम और उस दिन तो आपका मालिक भी देता है, उसमें आपके खुद के एटीट्यूड भी शामिल होते हैं। ऐसे में आपको आज के एटीट्यूड का ध्यान दिलाया जाए तो इसमें बेजा क्या है? सबसे बेसिक और जरूरी सवाल और वो भी खासकर प्रिंट मीडिया के लोगों से कि आपने पूरे देश के लोगों के लिए जो पैमाना बना रखा है, क्या वही पैमाना खुद आप पर लागू नहीं किया जा सकता? आप जिसे छुट्टी मानकर मजे ले रहे हैं, वो दरअसल एक तंग सोच को मजबूती दे रहे हैं। आपके कहने और लिखने के अंदाज से तो ऐसा लगता है कि आपको जैसे किसी बड़ी शक्ति ने कान में मंत्र फूंक दिया कि जा तेरा काम समाज को ठोक-पीटकर दुरुस्त करना है, तू पैदा ही इस काम के लिए हुआ है और आप लग गये राष्ट्रीयता की रक्षा करने में।
जिसने हमसे सवाल किया कि आप मजदूरों के लिहाज से सोचिए न कि इसी बहाने उन्हें एक दिन की छुट्टी मिल जाती है, तो इसमें बुरा क्या है? हुजूर, क्या अब तक इस देश में मानव कल्याण के सारे एजेंडे धर्म के जरिये ही पूरे किए जाएंगे, बाकी मानवाधिकार, कानून सब पुटपुटिया बजाने के लिए हैं क्या? आप अगर इन मजदूरों को लेकर सचमुच कुछ सीरियसली सोच रहे हैं तो बेहतर हो कि आप इस बात पर गौर करें कि उन्हें कैसे 14-15 घंटे बिना अतिरिक्त पैसे दिये काम की भट्टी में झोंका जाता है। जहां दिन-रात मानवाधिकार, इंसानियत, न्याय जैसे शब्द सैकड़ों बार सिर्फ एक दिन के अखबार में छपते हैं। सालभर तक चूसने का जो विधान चला आ रहा है, उससे एक दिन विश्वकर्मा पूजा के नाम पर रिहा करना जितना जेनुइन और मासूम दिखाई देता है, वो उतना ही खतरनाक है। दिक्कत तो ये है कि ये ऐसा मसला है कि इसमें आरक्षण, सरकारी हस्तक्षेप और कानून का मामला सीधे-सीधे भी नहीं बनता। रह जाती है तो वही नेतागिरी, जिसमें ये कहा जाए कि होली-दीवाली, विश्वकर्मा पूजा की ही तरह ईद, क्रिसमस के नाम पर भी उस दिन अखबार नहीं छपेंगे। लेकिन पत्रकारों की दफन हो चुकी पहल के आगे इस नेतागिरी का क्या रंग होगा, ये हमें पहले से मालूम है।
(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्ण मीडिया विश्लेषक। ओजस्वी वक्ता। दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्लॉग राइटर। कई राष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सेदारी, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। ताना बाना और टीवी प्लस नाम के दो ब्लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
14 Comments »
--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
विनीत कुमार जी, हमेशा की तरह उत्तम विचार। नाम से तो आप हिन्दू (माफ कीजियेगा, कयास है) लग रहे हैं। इस पहचान पर शर्म आ रही हो तो आप एक काम क्यों नहीं करते? धर्मांतरण करा लीजिये। इस्लाम अपनायेंगे तो जेहाद करके जन्नत में जगह पक्की कर पायेंगे या फिर ईसाइयत का दामन थामेंगे तो उसके बहुतेरे फायदे हैं गिनाने की जरुरत नहीं, यह ओपन सीक्रेट है। और हां अपने अविनाश जी को जरूर संग ले लीजियेगा। उनकी दूरदृष्टि का कायल रहा हूं। अभी देखिये न, बाइसकोप की चर्चा में व्यस्त रहते हुये भी 24 तारीख की तैयारी में आपके माध्यम से कदमताल शुरू कर दिया। धन्य भाग्य हमारे जो ऐसे महापुरुषों के दौर में जन्म पाया।
अक्सर नब्भे प्रतिशत आपसे सहमत रहता हूँ….पर देश का मीडिया मूलत हिन्दू है ये समझ नहीं आता ….. .पर प्रिंट में जो छप रहा है ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जो कश्मीर को लेकर भ्रमित करने वाली चीज़े दिखाई जा रही है …उससे ऐसा प्रतीत नहीं होता…
तुच्छ प्राणी जी जैसा की आपके नाम से ही जाहिर है वैसे ही आपकी सोच भी तुच्छ है…कृपा करके ऐसी सड़ी हुई सलाह दुबारा किसी और को देने की कोशिश ना करें.ये पोस्ट एक मीडिया के रिसर्चर की हैसियत से शायद लिखा गया है (जहान तक मैं सोचता हूँ).इसी किसी हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई ने नहीं लिखा .बेहतर होगा की आप अपना मुंह बंद रखो….हाँ गर बोलना ही है तो एक और कृपा करो जी अपने सही नाम पाते के साथ सामने आवो.बेनामी लोगों से क्या बोले क्या ना बोलेन…
anjule जी, धमका लो, धमका लो, हम तो तुच्छ प्राणी हैं न? हमें तो धमकाओगे ही। और आपको आता ही क्या है। लफ्फाजी में छिपे मर्म को स्पर्श कर दिया तो लगे बिलबिलाने। खुद अनाम रहकर चले हो मुझे नाम की महत्ता बताने। धन्य है प्रभो आप।
Vinitkumar ji aap ne sahi bilkul sahi likha.Desh kaa media Hindu hai.jab ki media ne paardarshak rahana chahiye.Jab kahi blast hote hai to har blast me Muslim sanghtan se jude organisation kaa name binaa jaanch padtaal se media dwara ghasitaa jaata hai.Jitna coverage Bomb Blast ko miltaa hai utnaa coverage desh ke undar ho rahi anya ghatnaao pe nahi diya jaata aisa Q ? Dalit,Aadiwasi,Muzdoor,Farmers inpe kabhi bhi media me utna coverage nahi miltaa jitnaa milnaa chahiye.
If you see everything form Hindu or Muslim angle the only term appropriate for you is – COMMUNALIST.
Blaming entire community for the mistakes of the few is being FASCIST. This is what Hitler did. For the crime of some Jews he villified all the Jews.
Pl read, understand and try to think through by having a balanced perspective before jumping on to such sweeping generalisations.
तुच्छ प्राणी जी-
अपना अंजुले (पूरा नाम -अंजुले श्याम मौर्य है)ही नाम है इसमें छुपाना और ना छुपाना क्या?आज कल लोग कुछ ज्यादे ही मर्म सपर्शी हो गए हैं किसी को सीधी बात कहनी आती ही नहीं इशारों इशारों में कोई कुछ भी किसी को कह कर चला जाए ..कोई क्या कर लेगा….वेसे भी द्विअर्थी गीतों और द्वि अर्थी लोगों का जमाना है..गर कोई सीधी सी कोई बात कर दे सोसल रिस्पोंस्बिलती की बात दे तो आप जैसे वहां पहुच जाते हैं अपने धर्म का रोना ले कर जैसे केवल एक इसी बात पर आपके धर्म की बुनियाद टिकी हो….कभी कभी सोचता हूँ आपके धर्म कितने निरीह हैं किसी के किसी और सुब्जेक्ट पर भी बोलने पर इन धर्मों की दीवारें हिल उठती हैं………
झारखंड के एक प्रमुख शहर जमशेदपुर में बचपन गुजार चुके चार लोगों के ये मेल बताते हैं कि कि वहां विश्वकर्मा पूजा का क्या महत्त्व है। वहां रहते हुए (उस उम्र में) कभी नहीं लगा था कि यह हिन्दुओँ का पर्व है। तब यही लगता था कि विश्वकर्मा पूजा कारखाना मालिकों और कामगारों का त्यौहार है (तभी तो टाटा मोटर्स के प्लांट में छुट्टी होती है और सभी धर्मों के कामगार परिवार के साथ कारखाना घूमने जाते हैं)। जिनलोगों ने झारखंड क्षेत्र में विश्वकर्मा पूजा नहीं देखा वे इस बारे में सही अनुमान नहीं लगा सकते है।
ऐसे में जो प्रभात खबर खुद को – अखबार नहीं आंदोलन कहता है और विश्वकर्मा पूजा के दिन नहीं छपता है तो इसलिए कि मशीन चलाने वाले लोग (चाहे जिस धर्म के हों) रांची में (और आस-पास भी) मशीन नहीं चलाते और बिना मशीन चले कोई भी प्रगतिशील मालिक-संपादक सिर्फ चाहकर अखबार नहीं छाप पाएगा। अगर इसमें संपादक मालिक की कोई भूमिका होती तो प्रभातखबर विश्वकर्मा पूजा के दिन कोलकाता और सिलीगुड़ी से भी नहीं छपते। और प्रभात खबर ही क्यों – जहां तक मेरी जानकारी है झारखंड से प्रकाशित होने वाला कोई भी अखबार विश्वकर्मा पूजा के दिन नहीं छपा था जबकि दूसरी जगहों के उसके संस्करण 18 अगस्त को आए हैं।
अब आप इन पत्रों को पढ़िए तो विश्वकर्मा पूजा के महत्त्व का अंदाजा लग जाएगा।
एक
विश्वकर्मा पूजन दिवस भारतीय जीवन दर्शन और सभ्यता के विकास में विराट योगदान देने वाले महाशिल्पी और अभियांत्रिकी के पूर्ण पुरुष से प्रेरणा एवं नमन का दिवस है। इस अवसर पर सभी कामगारों, श्रमजीवियों, शिल्पियों, कारीगरों एवं उद्यमिता से जुड़े मेरे सभी दोस्तों को हार्दिक बधाई। भारतीय पौराणिक कथाओं के मुताबिक विश्वकर्मा ने ही सतयुग में स्वर्गलोक, त्रेतायुग में सोने की नगरी लंका, द्वापर में द्वारिका, वृंदावन और कलयुग में हस्तिनापुर की सृष्टि की थी।
17 सितंबर का दिन आते ही मुझे अपने बचपन की याद आ जाती है। जब हम सब भाई बहन इस बात का इंतजार करते थे की कब हम लोग पापा के साथ टेल्को फैक्ट्री (अब टाटा मोटर्स के अंदर जाएंगे घूमने। मुझे सबसे अच्छी लगती थी वो जगह जहाँ ट्रकों को चलाकर उनकी आवश्यक जांच की जाती थी। टेस्टिंग का पूरा एरिया … कितना आश्चर्यजनक और विस्मयकारी था ….. स्टेडियम जैसा कुछ बना हुआ था .. अब है या नहीं .. टाटा मोटर्स वाले बताएँगे …
और दूसरा उस दिन मिलनेवाली ढेर सारी मिठाई … जो घर में मम्मी कहीं छुपा देती थी. पर हम बहन भाई ढूंढ़ ही लेते थे … इल्जाम किसी दूसरे पर … आज ही सुबह मैंने माँ से इस बात चर्चा की … क्यों ऐसा करती थी…आज भी उसी स्वीट्स और स्वीट मेमरी की याद आती है …
दो
आज सुबह से कोई मेल नहीं आया तो ध्यान आया कि टाटा मोटर्स में विश्वकर्मा पूजा की छुट्टी होगी। काम करते हुए विश्वकर्मा पूजा की मीठी मधुर याद आ रही थी पर फुर्सत ही नहीं मिल रहा था। बीच में सोचा कि आज टाटा मोटर्स वालों को बधाई देना बनता है। पर काम से समय निकालना मुश्किल हो रहा था। आखिरकार मैंने ये सोच कर हॉट मेल खोला कि दो लाइन लिख ही दूं तो ऊपर वाला मेल देखकर बेहद राहत मिली।
टाटा मोटर्स के साथियों के साथ-साथ (लेखिका ने जो विज्ञान शिक्षक है) दुनिया के सभी कामगारों को विश्वकर्मा पूजा की याद दिला कर बधाई दे ही दी है। मैं भी इस बधाई में लेखिका के साथ हूं। स्वीट मेमोरीज ऑफ़ स्वीट्स!
तीन
मैं सोचता था विश्वकर्मा भगवान हलवाई होंगे तभी इतनी मिठाई मिलती है। वो दिन ताजिंदगी नहीं भूलेंगे। यह एक बड़ा पर्व था टेल्को कालोनी में। सफेद रसगुल्ले, पीले और गुलाबी भी, उसी दिन दीखते थे। बस। सबको बधाई विश्वकर्मा पूजा की।
चार
बिलकुल सही … बचपन की सारी तस्वीरें एकदम से सामने आ गईं ….
Mr Joshi,
What Vinit has said is not a sweeping generalization. Rather, it's a hard reality, which you are unable to digest. Indian social order, hijacked by feudal lords like you, has become burden for majority of the people of this country. You people impose your thoughts on everyone, but still pose yourself as judicious, progressive and secular and grab the leadership of both sides. People now understand your gimmicks. So, stop harping about Hitler and Fascism.
Don't read just the words. Try to understand the essence, which you never will because you hail from so called 'privileged' section of Hindu society.
अंजुले श्याम मौर्य जी, आपके नाम के विस्तार से परिचित होकर धन्य हुआ। मैं तुच्छ प्राणी ही हूं।
बात बात में किसी भी धर्म को खासकर सनातन धर्म को गरियाने से सामाजिक समरसता या धार्मिक सौहार्द नहीं फैलता बल्कि समरसता विस्तृत परिपेक्ष्य में समग्र पृष्ठभूमि की पड़ताल करके ही मुंह खोलने की आदत से आती है। जैसा कि अपनी टिप्पणी में संजय कुमार सिंह जी ने करने की कोशिश की है।
विनीत जी में काफी प्रतिभा है, आगे जाने का माद्दा है लेकिन जिस तरह की जल्दी में वे दीख रहे हैं वह किसी भी बौद्धिक प्रतिभा के विकास में घातक है। उनके लेखन में एक स्वाभाविक प्रवाह है लेकिन मुद्दों और विचार के स्तर पर एक ठहराव और गंभीरता की अभी दरकार। उम्मीद है वे इस दिशा में जरूर काम करेंगे।
विनीत, नि:संदेह मेरे शब्दों से आपको ठेस पहुंची होगी। और ये जानबुझकर था। माफी चाहूंगा। मैं आपके लेखन का प्रसंशक रहा हूं। दसियों बार तारीफ के शब्द भी लिखें हैं (नाम मत पूछो)। उम्मीद है इस आलोचना को भी आप एक पाठक के रूप में मेरे प्यार का ही हिस्सा मानेगें और भविष्य में अपने लेखन में थोड़ी अतिरिक्त सतर्कता बरतेंगे।
औरंग्जेब की औलाद
सूधार करो और लिखो की ब्राह्मणों की है मीडिया.
नाबालिग पत्रकार
केवल विश्वकर्मा पूजा के आधार पर ऐसी बात कर रहे हो,बेटा उसी दिन अपने लोहे से बने वाहन पर अपने सुगन्धित तसरीफ जरूर रक्खे होगे.
तुच्छ प्राणी जी-
(बात बात में किसी भी धर्म को खासकर सनातन धर्म को गरियाने से सामाजिक समरसता या धार्मिक सौहार्द नहीं फैलता बल्कि समरसता विस्तृत परिपेक्ष्य में समग्र पृष्ठभूमि की पड़ताल करके ही मुंह खोलने की आदत से आती है। )
- बात यहाँ सनातन धर्म के गरियाने की नहीं है और नहीं इस लेख में कहीं भी आपके धर्म को गाली दी है …इस लेख में मीडिया में उन फैल रही गलत पर्म्परावों के ऊपर उन्होंने चर्चा की है ….ना की किसी धर्म को गाली दी है …उन्होंने मीडिया के गोरते अस्तर और उसकी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने की प्रवित्ति पर बात की है …..मेरी अपील है जरा एक बार इसे और ध्यान से आप पढ़ें……