Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, May 17, 2012

Fwd: [New post] मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 2



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/5/17
Subject: [New post] मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 2
To: palashbiswaskl@gmail.com


New post on Samyantar

मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 2

by यॉन मिर्दल

[10 फरवरी, 2012 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित नवीन बाबू स्मृति व्याख्यान में यॉन मिर्दल द्वारा दिये गये भाषण का दूसरा भाग। पहला भाग यहाँ पढ़ें।]

karl-marxमार्क्स ने कभी भविष्य के लिए कोई नुस्खे नहीं सुझाये। इससे ज्यादा , जैसा कि एंगेल्स ने बताया है, अहम् यह है कि मार्क्स के लेखन में परिभाषाएं नहीं हैं। उन्होंने विकास-क्रम ही दर्शाया। यदि हम इतिहास के किसी दौर की बात करें, मिसाल के तौर पर 1848 के योरोप की या 1944 के भारत की, तो हम जो कुछ घटा था उसका वर्णन कर सकते हैं और (थोड़ी मेहनत से) कारण बता सकते हैं। इसके बाद हम उन कारणों की ओर संकेत कर सकते हैं। लेकिन उस वक्त घटनाओं का जो सिलसिला देखा गया वह कोई निर्धारित, अटल या धार्मिक शब्दावली का प्रयोग करें, तो नियती नहीं था। उस वक्त के दायरे में जितनी संभावनाएं मौजूद थीं उनसे तमाम सारे रास्तों से घटनाएं विकसित हो सकती थीं। इसी को दूसरे शब्दों में यूं कह सकते हैं कि ऐसा नहीं है कि स्वर्ग लोक में ऐसा कोई महान ग्रंथ नहीं है जिसमें वह सब कुछ लिखा हुआ मिले जो आगे होने वाला है। मनुष्य खुद ही खुद को बनाता है और लगातार अपने इतिहास को रचता जाता है। (और मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ को 'इलहाम' नहीं हुआ था; उन्होंने जो कुछ लिखा वह अपने दौर की संभावनाओं को लेकर था और उसी के अनुरूप उन्होंने कार्य भी किए।)

इतिहास यानि कि जो कुछ घटा है उसका भी लगातार पुनरांकलन होता रहता है। यह कहानी अविश्वसनीय लग सकती है कि जब चाओ एन-लाई को फ्रांसीसी क्रांति के बारे में बोलने को कहा गया, तो उनका जवाब था कि अभी इसका समय नहीं आया है। मुझे इस बारे में उनसे पूछना चाहिए था, पर कभी पूछा नहीं। जो भी हो वह थे सही।

इसी प्रकार, इतिहास का कोई अंत नहीं है। (यह दीगर बात है कि इंसानियत का अंत हो सकता है, जिस तरह कि मेरे जीवन का अंत निश्चित है।) यह कहा जा सकता है कि समाजवाद से हमारे समाज के प्राक्-इतिहास का अंत और सचेत इतिहास की शुरुआत होगी। लेकिन इससे कोई बहुत बड़ा सौहार्द कायम नहीं हो पाएगा। इस तरह का कोई सतत स्थायित्व या सौहार्द की अंतहीन अवस्था नहीं हो सकती। वर्गों के बीच टकराहट वर्गों के खत्म होने के साथ ही होगी। लेकिन जैसा कि माओ का कहना था, टकराव जारी रहेंगे। यहां तक कि दस हजार वर्ष तक भी।

ये बातें विषय से भटकाव नहीं हैं। जवाबों के करीब पहुंचने का यह एक तरीका है। क्योंकि सवाल है इस वर्तमान ऐतिहासिक दौर में मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों के अनुभव क्या रहे हैं? और हम किन युद्धों की बात कर रहे हैं?

1914 में जब साम्राज्यवादी युद्ध हकीकत में छिड़ गया, तो आधिकारिक तौर पर, शक्तिशाली 'दूसरे इंटरनेशनल' (जिसने कि बेसल में 1912 की अपनी असाधारण कांग्रेस में आसन्न युद्ध का सटीक अनुमान लगा लिया था) ताश के पत्तों की तरह ढह गया। दशकों तक क्रांतिकारी लफ्फाजी के बावजूद नेतृत्वकारी काडर के हर व्यक्ति को शासक वर्ग ने अपने साथ कर लिया (कोआप्ट) और पूंजीपति वर्ग के हाथ की कठपुतली बनी लोकप्रिय संस्कृति ने आम लोगों को असंपृक्तता की नींद सुला दी गई। और इसका खामियाजा उन्हें सामूहिक मौत के रूप में मिला।

व्यवहार में जो कुछ हिटलरी जर्मनी में घटा और बाद में, उत्तरी अफ्रीका में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के अन-औपनिवेशिकरण के दौरान जो कुछ फ्रांस की बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी में हुआ, उससे एम.एन. राय और ''इंग्लैंड की समाजवादी पार्टी के कामरेड क्वेल्च " का पक्ष पुष्ट हुआ।

league-of-nationsअब सार की बात देख लीजिए! 1920 से 'लीग ऑफ नेशंस' के प्राधिकार में रह चुके सार की जनता ने 13 जनवरी, 1935 को मतदान किया। चुनाव अंतरराष्ट्रीय निगरानी में संपन्न हुए। जनता ने जर्मनी के साथ पुन: एकीकृत हो जाने और 'लीग आफ नेशंस' के प्राधिकार के तहत स्वतंत्र रहने के बीच चुनाव करना था।

30 जनवरी, 1933 को हिटलर के राइशस्कांजलर के रूप में माशट्यूबरनेम्ह के समय से (यानि जब से हिटलर को जर्मन साम्राज्य के चांसलर के रूप में सत्ता-हस्तांतरण हुआ - अनु.) तब से उस नए जर्मनी अर्थात् तीसरे राइश में बढ़ते आतंक के चलते मजदूर संघों के कार्यकर्ता, समाजवादी, कम्युनिस्ट, बुद्धिजीवी और यहूदी लोग भागकर सीमा पार सार में बस आए थे।

सार में मजदूर वर्ग की पार्टियां कमजोर नहीं थीं। मतदाता हर सूचना से वाकिफ थे। जर्मनी में उठ रही नाजी आतंक की लहर की जानकारी आम थी। बंदी शिविरों में, जून, 1934 की ''तलवारों की रात" के दौरान हत्याओं, यहूदियों के विरुद्ध नस्ल-आधारित नरसंहारों, आदि सभी घटनाओं के समाचार सर्वविदित थे। फिर भी 13 जनवरी, 1935 को अंतरराष्ट्रीय निगरानी के तहत हुए स्वतंत्र चुनावों में 90.3 प्रतिशत सार वासियों ने हिटलर के पक्ष में वोट डाले।

इसका कारण किसी किस्म का कोई ट्यूटोनी राष्ट्रवाद नहीं था। कारण विशुद्ध रूप से आर्थिक था। नोट छाप-छाप कर और आगामी युद्ध के लिए तेजी के शस्त्रों का जखीरा जमा कर हिटलर की सरकार ने जर्मनी में बेरोजगारी जो 1933 में 26.3 थी घटाकर 1934 में 14.9 प्रतिशत तक पहुंचा दी थी। (जैसे-जैसे युद्ध की तैयारियां आगे बढ़ीं, बेरोजगारों की संख्या घटती चली गई—1935 में 11.6 प्रतिशत, 1936 में 8.3 प्रतिशत, 1937 में 4.6 प्रतिशत, 1938 में 2.1 प्रतिशत पहुंच गई।) मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों ने, उन में से कई सारे लोगों के पूर्व कम्युनिस्ट और समाजवादी होने के कारण थोड़ा शंकालु होने के बावजूद उसका इसलिए समर्थन किया क्यों कि जर्मनी में सबको रोजगार और समाजिक सुरक्षा हकीकत बनती नजर आने लगी थी और सामाजिक सुरक्षा और श्रमिकों के हित में कानून बनाए गए जो स्कैंडिनेविया के समाजिक जनवादी मुल्कों की तरह थे।

'लोकतांत्रिक' साम्राज्यवादी मुल्कों में मजदूर वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानने लगा था कि उपनिवेशवाद उन्हें भौतिक समृद्धि प्रदान कर रहा है। लेकिन आगे जो हुआ वह और भी बुरा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन अधिकारियों ने ऐसे प्रबंध किए कि सामान्य सैनिक भी लूटपाट कर अपनी जेबें भर सके। हरमन ग्वेरिंग ने इस ओर विशेष ध्यान दिया था। किसी अधिकृत देश में तैनात सिपाही भी वहां की जनता से जो कुछ भी ऐंठ ले उसे साधरण डाक से ही सीधे अपने घर भेज सकता था। इसके साथ ही, जर्मन राज्य ने अधिकृत मुल्कों का शोषण तो किया ही, पर इस कमाई का एक छोटा हिस्सा सीधे अपनी जनता में बांटा भी।

ध्यान दीजिए कि नाजियों का प्रतिरोध करने वाले कम्युनिस्टों और समाजवादियों पर (उदारपंथियों और इसाईयों पर भी) और किसी भी तरह की सामाजिक मान्यता या हैसियत वाले यहूदियों पर आतंक का कहर पूरी क्रूरता के साथ हुआ। लेकिन चुप्पी साधकर सीधे-सीधे जीते चले जाने वालों के लिए तीसरे राइश के अधीन जीवन पहले से बेहतर हो गया था। बच्चों और माता-पिता को ठीक-ठाक और शानदार छुट्टियां मिलने की संभावना बनती थी। निस्संदेह उस वक्त राजनीतिक वजहों से हमने इस बारे में कुछ नहीं लिखा। (युद्ध के दौरान तो हमने ये कहानी भी चलने दी कि आस्ट्रिया, जो कि खौफनाक नाजियों का गढ़ बन चुका था, ऐसा ''मुल्क है जिसपर कब्जा है" )।

लेकिन मुझे स्वयं यह याद आता है कि कैसे सार के चुनाव नतीजे से मेरे अपने माता-पिता और अन्य सामाजिक-जनवादियों लोगों के लिए किसी धक्के से कम नहीं थे। इसी चुनाव के कारण 'कामिन्टर्न' और सोवियत विदेश नीति, दोनों ही में बदलाव करना पड़ा था। जर्मनी में पराजय के लिए जिम्मेदार पहले से संकीर्ण नीति को बदलने के लिए 'कामिन्टर्न' में संघर्ष हुआ। प्राग में गेगानानग्राफिक जैसी पत्रिकाएं, जो अभी तक इस तरह का लेखन करती आई थीं मानो जर्मनी में इन्कलाब की घड़ी करीब आ गई हो और अर्ध-सैनिक बल 'एस.ए.' व नाजी पार्टी 'स्टूरमाबटाईलुंग' भी हिटलर की विरोधी हो जाने वाली हो, अब हकीकत से ज्यादा मेल खाने वाले लेख छापने लगी थीं।

नाजी जर्मनी से खतरा उत्पन्न होने पर सोवियत विदेश नीति की दिशा बदल गई थी। पियेर लावाल को मास्को आमंत्रित किया गया और 2 मई, 1935 को फ्रांस और सोवियत संघ के बीच परस्पर सहयोग की संधि हुई। जैसा कि फ्रांसीसी प्रेस में छपा कि उन्होंने फ्रांसीसी पार्टी की विशुद्ध सैन्य-विरोधी रणनीति का विरोध किया, ''श्रीमान् स्तालिन राष्ट्रीय सुरक्षा की फ्रांसीसी नीति को समझ रहे हैं और वे उसका पूरा-पूरा अनुमोदन करते हैं। "

हम जानते हैं कि ''आक्रमणकारी राज्यों जर्मनी, इटली, जापान" के खिलाफ व्यापक फासीवादी मोर्चा गठित करने के प्रयास सफल नहीं हो पाए थे। यह बात का प्रमाण नहीं है कि ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों में इसके लिए इच्छाशक्ति नहीं थी, बल्कि इसके विपरीत उनकी मुख्य दिलचस्पी उनके इन दुश्मनों को तुष्ट करने में थी, जिससे कि हिटलर को और खुद उनको भी सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में खुलकर उतरने का अवसर मिल सके। लेकिन फासीवाद के विरुद्ध व्यापक मोर्चे की विफलता के पीछे वास्तविक कारण इन्हीं साम्राज्यवादी राज्यों में मजदूर वर्ग को साझे मोर्चे में लामबंद न कर पाना थी।

इस तरह के अदूरदर्शी राजनीतिक नजरिये का हमारे सामने एक उदाहरण यह है कि भारतीय स्वतंत्रता के प्रति इंग्लैंड के मजदूर वर्ग का समर्थन नहीं के बराबर रहा; इंग्लैंड में आम जनता में व्याप्त भावनाएं वैसी ही रहीं जैसी एक पीढ़ी बाद के अल्जीरिया की स्वतंत्रता के प्रति फ्रांस में थी।

'लोकतांत्रिक' साम्राज्यवादी मुल्कों में मजदूर वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानने लगा था कि उपनिवेशवाद उन्हें भौतिक समृद्धि प्रदान कर रहा है। लेकिन आगे जो हुआ वह और भी बुरा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन अधिकारियों ने ऐसे प्रबंध किए कि सामान्य सैनिक भी लूटपाट कर अपनी जेबें भर सके। हरमन ग्वेरिंग ने इस ओर विशेष ध्यान दिया था। किसी अधिकृत देश में तैनात सिपाही भी वहां की जनता से जो कुछ भी ऐंठ ले उसे साधरण डाक से ही सीधे अपने घर भेज सकता था। इसके साथ ही, जर्मन राज्य ने अधिकृत मुल्कों का शोषण तो किया ही, पर इस कमाई का एक छोटा हिस्सा सीधे अपनी जनता में बांटा भी। जर्मनी के इर्द-गिर्द अधिकृत किए जाने वाले मुल्क जहां गरीबी और भुखमरी की चपेट में फंसते चले जा रहे थे, वहीं जर्मनी की जनता योरोपीय महाद्वीप के किसी भी दूसरे हिस्से की जनता से ज्यादा बेहतर जीवन जी रही थी। लूटपाट को संस्थागत रूप दिया गया था, जिससे कि जर्मन लोगों का जीवन-स्तर 'शासक नस्ल' के ऊंचे स्तर पर रहे। (जब मुर्गी पर बौछारें पड़ती हैं तो चूजों पर टपकती हैं)।

मेरा तो यह पक्का मानना है कि अगर जर्मनी में 1945 के शुरुआती दिनों में ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो जाते, तो हिटलर को स्पष्ट बहुमत जरूर मिल जाता। उस वक्त उसका प्रचार का तरीका जबर्दस्त था। 'अमोघ हथियारों' पर चरम विश्वास था। सेना में भर्ती हुए प्राय: हर जवान को पूरब के (नस्ली) 'सफाई अभियानों' के जरिये हाथ साफ कर लेने और नाजियों के युद्ध अपराधों में अपने हाथ खून से रंग लेने के निर्देश दिए गए थे। नतीजतन उसे डर था कि यदि हिटलर हार गया, तो उसे बदले की कार्रवाइयों का समाना करना पड़ेगा। मित्र देशों द्वारा की गई हवाई बमबारी के दौरान नागरिक बड़ी तादाद में मार दिए गए थे। (जबकि जर्मन युद्ध-प्रयत्नों को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा था)। हवाई बमबारी का शिकार होने वालों के लिए नाजी पार्टी द्वारा चलाई जा रही सहायता सेवा बेहतरीन काम कर रही थी। (इस विषय में अधिक जानकारी विक्टर-क्लेम्पेरेर की डायरियों में देखी जा सकती है)।

नाजी शासन ने जनसंहार किए। अपराधों की भयावहता जरा भी काल्पनिक नहीं थी। पर साथ ही साथ जो वैचारिक पाठ पढ़ाए जाते थे, उनका भी बड़ा असर था। इसके अलावा सेना में कार्यरत आम जर्मन लोगों के भयावह कार्रवाइयों में साझीदार बन जाने के साथ ही जनता का आम जीवन-स्तर भी अधिकृत मुल्कों का दोहन किए जाने के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा उठा हुआ था। इस पूरे दौर में बुद्धिजीवी और नौकरशाह किस्म के अभिजन, जो कि कई बार नाजियों की भौंडी हरकतों से नफरत करते थे, आम जनता से ऊंचे स्तर के जीवन का आनंद ले रहे थे। इसी नाते बाद में जब नाजी शासन का पतन हो गया और फिर से जर्मन राज्य मध्य योरोप की प्रभुत्वशाली ताकत बन उभरा, तो उन्हीं के दिशा-निर्देशों की बदौलत योरोपीय संघ की वर्तमान संरचना तैयार हुई। उच्च-वर्गीय जर्मन अभिजनों की युद्ध में हार हुई ही नहीं।

यही थी वह परिस्थिति जिसमें बाद में सोवियत अधिकृत क्षेत्र में, जो कि बाद में जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य बना, कम्युनिस्टों और अन्य नाजी-विरोधियों का राजनीतिक कार्य बहुत मुश्किल हो गया। पचास के दशक की शुरुआत में युद्ध के दौरान पहले ही मिले चुके कुछ बहुत ही स्पष्टवक्ता कामरेडों के साथ इस पर चर्चा की थी। पश्चिम जर्मनी की स्थिति निश्चय ही भिन्न थी। वहां आदेनॉएर के दौर में सत्ता पुराने नाजीपंथियों के हाथ में थी। तब वहां कम्युनिस्टों और मुझ जैसे लोगों को मात्र भिन्न तरीके से सोचने और लिखने पर जेल हो सकती थी। जब मैं पश्चिम जर्मनी में ट्रेन से सफर कर रहा होता, तो ध्यान रखता कि डिब्बे में जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य से लाये गए जर्मन भाषा के अखबार और अन्य सामग्री किसी की निगाह में न पड़े।

आज आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है। युद्ध के बाद के वर्षों में सुधारवादियों ने जनता को जिस कारपोरेट समझौते के मार्फत सुरक्षा प्रदान किए जाने के प्रति आश्वस्त कर रखा था, वह अब तितर-बितर हो चुका है। अमेरिका तक में इसके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हो रहे हैं। यूनान और स्पेन जैसे मुल्कों में, जो कि इस संकट की बड़ी बुरी मार झेलने के साथ ही योरोपीय संघ के नए हमलों का शिकार भी हैं, हिंसक विरोध हो रहा है। वहां बेरोजगारी की दर जर्मनी में 1932 के वाइमार गणराज्य के स्तर तक पहुंच रही है। लोग हताश हैं। वे संघर्ष कर रहे हैं। मगर संगठित नहीं हैं। योरोप में अगर कोई एक राजनीतिक शक्ति आज कमान संभालने को तैयार है और इसकी सामथ्र्य रखती दिखाई दे रही है, तो वह 1930 के शुरुआती वर्षों की ही तरह चरम दक्षिणपंथी हैं, जो अच्छी तरह संगठित भी हैं। ल पेन की बेटी आज 'फ्रंट नाश्योनाल' पार्टी में उन प्रश्नों को उठाती है जो जनसाधारण के करीब हैं, जबकि फ्रांस का वामपंथ अब वर्ग की भाषा बोल भी नहीं पाता है और इस भ्रष्ट राज्य एवं उसकी पतनशील अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने की जरूरत को व्यक्त करने के लिए मुंह खोलने का साहस भी नहीं कर पाता है।

जिस परिस्थिति का मैं यहां बयान कर रहा हूं वह कोई नई नहीं है। उत्तर अमेरिका के मूल निवासी इंडियनों के नरसंहार को आधुनिक कानूनी दायरा प्रदान करने के लिए 28 मई, 1830 को राष्ट्रपति ऐंड्रू जैक्सन ने 'इंडियन रिमूवल एक्ट' (इंडियनों को हटाने के कानून) पर दस्तखत किए थे। इस कानून को भारी समर्थन मिला था, इसलिए कि इससे जमीनें हासिल करने का रास्ता साफ हो गया था।

बाद के दशकों में इन्हीं जमीनों को लेकर बड़ी तीखी लड़ाइयां भी लड़ी गईं और ये बढ़ती भी गईं—योरोप से आ बसने वाले प्रवासियों और गुलाम-व्यवस्था चलित उन राज्यों के बीच जिनको कपास की खेती के लिए इसलिए जमीन की जरूरत थी कि पहले की जमीनें अधिक दोहन के कारण ऊसर हो चली थीं। (मसलन जॉर्जिया की जमीनों पर कपास की खेती के बजाय गुलाम पैदा करने के लिए स्टड फार्म बनाए जा रहे थे)। यह मामला गृह-युद्ध के दौरान 1862 के 'होमस्टीड एक्ट' के जरिये तय कर लिया गया था, जिस पर अब्राहम लिंकन ने 20 मई, 1862 को अपने दस्तखत किए थे। इससे 21 साल का कोई आदमी, श्वेत हो या आजाद हो चुका गुलाम, जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध कभी हथियार न उठाएं हों, संघीय भूमि अनुदान का दावा करने का अधिकारी हो जाता था।

wounded_knee-bury_the_newsइस कानून को प्रगतिशील समझा गया। इससे योरोप की निरंकुशशाही से पलायन करने वालों को प्रवास में नया जीवन शुरू करने का अवसर मिला। इसी कानून से स्वतंत्र किसानों का वह वर्ग पैदा हुआ जो गृह-युद्ध में उत्तर की विजय के फलस्वरूप उभरने वाले गणराज्य का स्तंभ बना। लेकिन साथ ही साथ यह कानून जमीन कब्जाने वाली उस जनसंहारक नीति का एक दौरभी था जिसका अंत 29 दिसंबर, 1860 को 'वूण्डेड नी' नामक स्थान पर सामूहिक हत्याकांड के साथ हुआ। इसी घटना से उन तथाकथित इंडियन मूल निवासियों ने, जिनकी की जमीनें कब्जाई जा चुकी थीं, अपना स्वतंत्र प्रतिरोध छोड़ देने का फैसला किया।

हमारे लिए यह बात प्रासंगिक है। उन्नीसवीं सदी के बाद के हिस्से और बीसवीं के पहले हिस्से के दौरान अमेरिका में बड़े महत्त्वपूर्ण वर्ग-संघर्ष छिड़े थे। 'प्रथम इंटरनेशनल' वहां एक सशक्त राजनीतिक ताकत रहा। उन्नीसवीं सदी में साठ के दशक से लेकर हाल-फिलहाल तक बार-बार व्यापक आधार वाली ट्रेड यूनियनें और मजदूर वर्ग के संगठन पूंजीवादी समाज के प्रभुत्व को चुनौती देते हुए खड़ेे होते रहे। बार-बार इन्हें ध्वस्त भी किया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के मजदूर आंदोलन का अपना बहादुराना इतिहास रहा है जिसका अध्ययन किया जाना चाहिए।

लेकिन हमें यह समझ लेना होगा कि इन आंदोलनों को संभव एक नरसंहार ने बनाया था। योरोप में पराजय के बाद आ बसे क्रांतिकारी शरणार्थियों ने अपने बिरादर मजदूरों को समाजवाद के लिए एक ऐसे बुर्जुआ लोकतंत्र में संगठित किया, जो मूल निवासियों की बेदखली और हत्याओं के परिणामस्वरूप संभव हो पाया था। इस ऐतिहासिक विरोधाभास को हमें देखना और उसका अध्ययन करना चाहिए।

साम्राज्यवादी मुल्क आज उन्नीस सौ तीस के दशक के शुरुआती वर्षों के बाद के सबसे बुरे आर्थिक और राजनीतिक दौर से गुजर रहे हैं। इन पंक्तियों को लिखते वक्त 1939 में भयानक पराजय झेल चुकी स्पेन की जनता की बेरोजगारी की दर 21.5 प्रतिशत है, जो कि जर्मनी में 30 जनवरी, 1933 को वाइमर गणराज्य के अंत और हिटलर द्वारा सत्ता हथियाने के समय की दर के करीब है। लेकिन एक फर्क है। 1933 में जर्मनी में मजदूर वर्ग के जो संगठन पराजित हुए, वे मजबूत थे। स्पेन में हमारे अन्य सभी मुल्कों की तरह आज पुराने संगठन कमजोर मालूम होते हैं और संगठित भी नहीं हैं। भेद भी केवल पारंपरिक किस्म के नहीं हैं। आव्रजन के जरिये नए-नए एथनिक लोग भी यहां आकर बस गए हैं। पर मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी चुप नहीं हैं, वर्ग-संघर्ष तीखा होता जा रहा है और जन संगठनों के नए-नए रूप आकार ले रहे हैं। फौरी तौर पर देखा जाए तो अभी कई रास्ते खुले हैं।

साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक युद्ध क्रूर रहे हैं और उनमें सैनिक अमानवीय तरीकों से व्यवहार करते रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। पिछली सदियों में हुए युद्धों में इस तरह के उदाहरण हर किसी ब्यौरे में मिलते हैं। कुछ किस्म के युद्धों - औपनिवेशिक और गृहयुद्धों - में शासक वर्गों ने अत्यंत निर्मम तरीके अपनाए हैं। यह छिपा नहीं है।

आप लोग भारत में इसे अच्छी तरह जानते हैं। अंग्रेजों ने जिसे 'म्यूटिनी' (सिपाही विद्रोह) कहा, उसके बाद की उनकी बदले की कार्रवाइयों के बारे में आपने पढ़ा हुआ है। आज भी जनता के खिलाफ अपने युद्ध में सरकारी बल बलात्कार का प्रयोग विद्रोहों के दमन (काउंटर-इन्सरजेंसी) के हथियार के रूप में करते हैं। इस तरह का संगठित बलात्कार किसी पौरुषी हवस और यौनिकता का मामला नहीं है। यह सोच-समझ कर अपमानित करने के लिए किया जाता है। जनता के गर्व को तोडऩे के लिए।

इंग्लैंड और फ्रांस की क्या कहें, संयुक्त राज्य अमेरिका को ही लें और इन मुल्कों की पुरानी स्थिति से तुलना करें, जब लगता था कि वे दुनिया पर राज कर रहे हैं, तो आज वे निश्चित रूप से कागजी शेर बनते जा रहे हैं। लेकिन जैसा कि अध्यक्ष माओ ने कहा है, कागजी शेरों के पंजे बिल्कुल असली होते हैं और यही साम्राज्यवादी युद्धों में बदलाव भी ला रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों में हुए नए साम्राज्यवादी युद्धों की कुछ अपनी ही चारित्रिक विशेषताएं हैं। इन युद्धों और षड्यंत्रों का लक्ष्य यूगोस्लाविया, इराक, लीबिया जैसे राज्यों को केवल जीत लेना ही नहीं, इनको बुनियादी तौर पर ध्वस्त कर देना भी रहा है। फिलहाल ईरान और सीरिया का भी राज्य के रूप में वजूद मिटा देने का प्रयास होता दिखाई दे रहा है। यह एक नया खासियत है।

ये प्राकृतिक संसाधनों और बाजारों पर नियंत्रण कायम करने के लिए किए जाने वाले कोई सामान्य औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी युद्ध नहीं हैं। निस्संदेह आर्थिक कारण हैं, जैसे कि तेल। मगर इसी के साथ दूसरा हित जुड़ा है। अब युद्ध उन मुल्कों के राज्य के ढांचे को ही नेस्तानाबूद करने के लिए छेड़े जा रहे हैं, जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके अधीनस्थ सहयोगियों या प्रतिद्वंदियों की निगाह में अड़चन हों। अगर आप ईराक युद्ध में अमेरिका की कुल आर्थिक लागत और लाभ की तुलना करें, तो अतार्किक लगने वाले इस तथ्य का खुलासा हो जाता है कि भले ही शासक वर्ग के कई हिस्सों ने उस युद्ध से खूब चांदी काटी हो, संयुक्त राज्य अमेरिका को जो कुल कीमत चुकानी पड़ी, वह लाभ से कहीं ज्यादा है। फिर भी यह युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवाद को तार्किक लगता है।

साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक युद्ध क्रूर रहे हैं और उनमें सैनिक अमानवीय तरीकों से व्यवहार करते रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। पिछली सदियों में हुए युद्धों में इस तरह के उदाहरण हर किसी ब्यौरे में मिलते हैं। कुछ किस्म के युद्धों - औपनिवेशिक और गृहयुद्धों - में शासक वर्गों ने अत्यंत निर्मम तरीके अपनाए हैं। यह छिपा नहीं है।

आप लोग भारत में इसे अच्छी तरह जानते हैं। अंग्रेजों ने जिसे 'म्यूटिनी' (सिपाही विद्रोह) कहा, उसके बाद की उनकी बदले की कार्रवाइयों के बारे में आपने पढ़ा हुआ है। आज भी जनता के खिलाफ अपने युद्ध में सरकारी बल बलात्कार का प्रयोग विद्रोहों के दमन (काउंटर-इन्सरजेंसी) के हथियार के रूप में करते हैं। इस तरह का संगठित बलात्कार किसी पौरुषी हवस और यौनिकता का मामला नहीं है। यह सोच-समझ कर अपमानित करने के लिए किया जाता है। जनता के गर्व को तोडऩे के लिए।

औपनिवेशिक युद्धों और नाजी युद्धों के तौर-तरीकों की विशिष्टता, खास कर पूरब में यही रही कि इन तरीकों का इस्तेमाल नियमित रूप से किया गया। बलात्कार और यातना राजनीतिक हथियार थे। दूसरी ओर निजी मकसद के लिए बलात्कार, यातना और कत्ल जैसे कृत्यों की इजाजत नहीं थी। इनको अपराध समझा जाता था। नाजी-अधिकृत योरोप में निजी कारण से की गई किसी यहूदी की हत्या का दंड कानून के मुताबिक दिया जाता था। बंदी शिविरों में यदि कोई व्यक्ति अपनी वहशी हवस को शांत करता, तो उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाती थी। इस मामले में हिटलर का रवैया सख्त था। (हालीवुड फिल्में इस बात से नावाकिफ मालूम होती हैं)।

पिछले दशक में इराक और अफगानिस्तान के अपने युद्धों में अमेरिका का नया गुण सामने आया है। 'एस.एस.' (नाजी जर्मनी के सिपाही) कर्तव्य-पालन के तौर पर यातना और बलात्कार करता था। अबू गरीब के बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार, अफगानिस्तान में दुश्मनों की लाशों पर पेशाब करना, ग्वांतानामो की खाड़ी के नौसैनिक अड्डे में नियमपूर्वक यातना देना हिटलर के 'एस.एस.' से भिन्न किस्म की फौजी संस्कृति के लक्षण हैं।

iraq-warलेकिन इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है किसी राष्ट्र को ध्वस्त करने का सचेत प्रयास। इराक में अमेरिका ने देश का पूरा इतिहास और पूरी विरासत ही जड़ से उखाड़ देने और रौंद डालने का सोचा-समझा प्रयास किया और बहुत हद तक सफलता भी पाई। वैश्विक स्तर पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों की लूट और विध्वंस, सेना भेज कर दुनिया के सबसे पुराने और सर्वाधिक मूल्यवान ऐतिहासिक स्थलों का विनाश करना, योजनाबद्ध तरीके से इराक के बुद्धिजीवियों को मिटना और उनकी हत्या करना, ये सब ऐसे राज्य का नामोनिशान मिटा देने के लिए अपनाई गई नीतियां थीं, जिसके अपने बल पर विकास करने के संकेत नजर आने लगे थे को अमेरिकी क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए बढ़ता खतरा माना जाने लगा था। संयुक्त राज्य अमेरिका उसी तरह के तौर-तरीके अपना रहा है जो रोम ने कार्थेज के खिलाफ अपनाये थे। और उसके कारण भी यही थे।

अमेरिकी शताब्दी भी कमोबेश एक ही सदी की रही है - 1898 के स्पेनिश-अमेरिकी युद्ध से लेकर हाल के वर्षों तक। उन हिस्सों - दक्षिण अमेरिका, दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया में जहां साम्राज्य ने सीधे अपने को स्थापित करने की कोशिश की हिंसा और हवस की बातों को याद करना पीड़ा दायक होगा। लेकिन जहां अमेरिकी साम्राज्य ने योरोप की तरह स्वयं जाकर उपनिवेश स्थापित करने की कोशिश की, उसका अधिपत्य घट रहा है, लेकिन वह अभी वहां है। हम सब शर्म के साथ अपने चापलूस, रीढ़हीन राजनीतिक और अकेडमिशियनों को याद कर सकते हैं। क्या श्रमिक वर्ग और उसके सहयोगी अब हमें पतन की ओर जाते संयुक्त राज्य साम्राज्य के द्वारा पैदा किए भंवर में गहरे डूबने से बचा सकेंगे यह सवाल है।

हम यह कर सकते हैं, हमें यह हर हाल में करना चाहिए और इसके लिए संगठित होना चाहिए। इस अंधकार युग में हमें यह उसी मुश्किल भरी उम्मीद के साथ करना है जिसने योरोप में नाजी आधिपत्य के दौरान प्रतिरोध के सदस्यों को और चीन में ''सब को मार डालो" वाले जापानी दौर में चीनी देशभक्तों को कम्युनिस्टों और उनकी मित्र शक्तियों को प्रेरित किया था। मंजिल साफ तौर पर दिखाई दे रही है, पर हम पक्के तौर पर नहीं बता सकते कि इस कठिन दौर में, जबकि कागजी शेर तबाही जारी रखे है, यह संघर्ष कितना लंबा चलेगा। केवल हमारी आने वाली पीढिय़ां ही इस सवाल का जवाब दे पाएंगी कि यह सन्निकट है या दूर।

Comment    See all comments

Unsubscribe or change your email settings at Manage Subscriptions.

Trouble clicking? Copy and paste this URL into your browser:
http://www.samayantar.com/working-class-and-the-imperialist-wars-some-notes-2/



No comments:

Post a Comment