कैंसर के इलाज की कीमत दो लाख रुपये हर महीने!जिसके पास पैसा है वे अपना इलाज करवा ले, जिसके पास पैसा नहीं है या कम है वह मरे या जिए!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
जनस्वास्थ्य की अवधारणा खुल्ला बाजार में जनकल्याणकारी राज्य के अवसान के साथ ही दिवंगत हो गयी।स्वास्थ्य पर्यटन के लिए अब बारत मशहूर है और आम आदमी मामूली से मामूली बीमारी के इलाज के लिए लाचार है।फर्ज़ कीजिए कि भारत में कोई कैंसर रोगी हर महीने 8000 रुपए अपने इलाज पर खर्च करता हो और अचानक भारतीय कानून में ऐसा बदलाव आए जिससे इस इलाज की कीमत 2 लाख प्रति माह हो जाए!ऐसा हो सकता है अगर दवा बनाने वाली कंपनी नोवार्टिस सुप्रीम कोर्ट में भारत के पेटेंट कानून के खिलाफ मामला जीत जाती है!कैंसर की दवा बनाने वाली कंपनी नोवार्टिस दवा का फॉर्मूला सार्वजनिक नहीं करना चाहती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला यह तय करेगा कि भारत किसका पक्ष लेगा, गरीबों के लिए दवा या मुनाफा कमा रहीं कंपनियों का! फिलहाल ये मामला 11 सितंबर तक के लिए स्थगित हो गया है लेकिन भारत में सबकी नज़र इस विवाद पर बनी हुई है। सरकारी सेवा में मस्त डाक्टरों को निजी अस्पतालों में और नर्सिंग होम में ही आप अपना दुखड़ा सुना सकते हैं। अस्पताल में देख लिया तो जांच पड़ताल बाहर होगी। जरुरत हुई तो आपरेशन भी बाहर। सरकारी अस्पतालों में पूरा बंदोबस्त होने के बावजूद। जनस्वास्थ्य की सरकारी योजनाएं मानव अंगों की तस्करी के धंधे में बदल गयी है। गरीब महिलाओं के गर्भाशय निकालने का मामला अभी ठंडा नही हुआ है। भारत अमेरिकी परमाणु संधि के पैकेज में दवाएं और रसायन भी शामिल है। भारतीय दवा उद्योग पर अस्पतालों की तरह विदेशी कंपनियों का वर्चस्व कायम हो गया है। स्वास्थ्य बीमा योजनाएं भी बिल बढ़ाने और गैर जरूरी सर्जरी की दास्तां बनकर रह गयी दुनिया में जेनेरिक दवाओं की बड़े पैमाने पर आपूर्ति करने के मामले में भारत को जल्दी ही बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। यह चुनौती स्विट्जरलैंड की अग्रणी दवा कंपनी नोवार्टिस एजी की ओर से मिलने जा रही है।भारत के पेटेंट विभाग ने नोवार्टिस की कैंसर के उपचार के लिए बनाई गई नई दवा ग्लिवेक को देश में पेटेंट करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया है। विभाग का कहना है कि यह नई दवा नहीं बल्कि पहले से बाजार में बिक रही एक दवा का नया संस्करण भर है। नोवार्टिस ने पेटेंट विभाग के इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है जिस पर इस सप्ताह के अंतिम में सुनवाई होनी है।
सच पूछिए तो अदालती फैसले पर यह मामला निर्भर नहीं है। सरकार ने पेटेंट से इंकार कर दिया तो मामला अदालत तक पहुंचा। पर सरकारी नीति कभी भी बदल सकती है। दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों का तकाजा यही है। सुधारों के खिलाफ बैंक हड़ताल के प्रति भारतीय राजनीति के उपेक्षापूर्म रवैय्या देखते हुए मल्टी ब्रांड रिटेल , नालेज इकानामी, विनिवेश, तमाम वित्तीय श्रम कायदा कानून की तरह पेटेंट नियमों में भी राजनीतिक व्यवस्था जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की समान भागेदारी है, कभी भी बदल सकती है।भारत की सर्वोच्च अदालत कैंसर की दवा के मामले में नोवार्टिस की अंतिम दलीलें सुनने जा रही है. दवा का पेटेंट अगर आम कंपनियों को दे दिया जाता है तो भारत में कैंसर ही नहीं, बाकी मर्जों की दवा बनाने वाली सैंकड़ों कंपनियों पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर पडे़गा। लेकिन नोवार्टिस का कहना है कि कैंसर की दवा के लिए उसके पेटेंट को वह सौंपना नहीं चाहता, क्योंकि यह पुरानी दवा के आधार पर ही बनाया गया है। अगर नोवार्टिस पेटेंट अपना पास रखता है तो उसे दवा की बिक्री से बहुत फायदा होगा और साथ ही उन भारतीय कंपनियों को भी रोका जा सकेगा जो सस्ते में दवा बनाना चाहती हैं।इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने जर्मन कंपनी बायर की कैंसर दवा पर भी एक फैसला सुनाया था। नेक्सावार नाम की दवा कैंसर के मरीजों को बचा तो रही थी, लेकिन इसके ऊंचे दामों की वजह से कई मरीज इसे खरीद नहीं पा रहे थे।पश्चिमी कंपनियां इस बात से खुश हैं कि भारत में दवा बाजार बढ़ रहा है, लेकिन भारत में दवाओं के पेटंट को लेकर कानून कुछ ढीले हैं। इन कंपनियों का कहना है कि भारत दवा क्षेत्र में खोज और आविष्कार को बढ़ावा नहीं देता।स्वास्थ्य मंत्रालय ने 12वीं पंचवर्षीय योजना के मसौदा दृष्टि पत्र में स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए प्रस्ताव पर योजना आयोग के साथ मतभेद की बात से इनकार किया है। हालांकि मंत्रालय ने स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने को लेकर चिंता जाहिर की और कहा कि उपयुक्त विचार-विमर्श के बाद योजना को अंतिम रूप दिया जाएगा।
इस बीच बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के विरोध मेंसार्वजनिक और पुराने निजी बैंकों के कर्मचारियों की दो दिवसीय हड़ताल के पहले ही दिन बैंकिंग सेवाएं अस्तव्यस्त हो गई। देश के ज्यादातर इलाकों, खासकर छोटे शहरों और गांवों में इसका ज्यादा प्रभाव दिखा। आइसीआइसीआइ और एचडीएफसी जैसे नए और प्रमुख निजी बैंक इसमें शामिल नहीं हुए। मगर 75 फीसद बैंक शाखाएं बंद होने से चेकों की क्लियरिंग पूरी तरह ठप पड़ गई।
यदि न्यायालय का फैसला नोवार्टिस के हक में गया तो कंपनी को न सिर्फ ग्लिवेक की मार्केटिंग का पूरा अधिकार मिल जाएगा बल्कि जेनेरिक दवा बनाने वाली भारतीय दवा कंपनियों पर इसका सस्ता संस्करण बनाने की रोक भी लग जाएगी।तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल कर चुके भारत में विदेशी फार्मा कंपनियां कारोबार की अच्छी संभावना देखती हैं। लेकिन साथ ही वह अपनी दवाओं के पेंटेट को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि भारत में इनका जेनेरिक यानी की सस्ता संस्करण उपलब्ध हो जाता है जिससे उन्हें अपना मुनाफा घटने का खतरा दिखता है। ऐसे में वह अपनी हर नई दवा का जल्दी से जल्दी पेटेंट कराने में तत्पर रहती हैं।यह सुनवाई कई हफ्तों तक चलने की संभावना है और इस मामले पर अंतिम फैसला आने में कुछ महीनों का समय लग सकता है। विदेशी दवा कंपनियों और भारत सरकार के बीच पेटेंट के मुद्दे को लेकर यह मामला एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।नोवारटिस की इस दवा को अमेरिका में वर्ष 2001 में मंजूरी मिली थी और कंपनी वहां इसकी एक साल की खुराक तकरीबन 70,000 डॉलर में बेच रही है। कंपनी ने बीते साल दुनिया भर में इसकी बिक्री से 4.7 अरब डॉलर की आय अर्जित की थी। जबकि, भारत में इसका जेनरिक वर्जन 2,500 डॉलर में उपलब्ध है।
उधर कंपनियों के आलोचकों का कहना है कि नोवार्टिस के मामला जीतने से भारत और विकासशील देशों में लाखों लोगों को नुकसान होगा क्योंकि भारत दुनियाभर में सस्ती दवाएं मुहैया कराता है। डॉक्टर्स विदाउड बॉर्डर्स की नई दिल्ली में मैनेजर लीना मेघानी कहती हैं कि इस फैसले पर बहुत कुछ टिका हुआ है। उनकी संस्था भारत से खरीदे दवाओं का इस्तेमाल अफ्रीका और कई दूसरे गरीब देशों में करती है।हाल ही में भारत सरकार के कम्पनी मामलों के मन्त्रालय के एक अध्ययन में सामने आया कि अनेक बड़ी दवा कम्पनियाँ दवाओं के दाम 1100 प्रतिशत तक बढ़ाकर रखती हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। बार-बार यह बात उठती रही है कि दवा कम्पनियाँ बेबस रोगियों की कीमत पर लागत से दसियों गुना ज्यादा दाम रखकर बेहिसाब मुनाफा कमाती हैं। ज्यादातर कम्पनियाँ दवाओं की लागत के बारे में या तो कोई जानकारी नहीं देतीं या फिर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं। फिर भी उनकी बतायी हुई लागत और बाज़ार में दवा की कीमतों में भारी अन्तर होता है।जो दवा की गोली बीस या पच्चीस रुपये की बिकती है, उसके उत्पादन की लागत अक्सर दस या पन्द्रह पैसे से अधिक नहीं होती। अलग-अलग कम्पनियों द्वारा एक ही दवा की कीमत में जितना भारी अन्तर होता है उससे भी इस बात का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।दवाएँ बनाने और बेचने का काम पूरी तरह प्राइवेट हाथों में दे दिया गया है। दवाएँ बनाने वाली सरकारी फैक्ट्रियाँ बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर हैं। दवा-कम्पनियों के लिए इंसान की जरूरतों की कोई अहमियत नहीं होती, उन्होंने तो बस मुनाफा कमाना होता है। मुना$फे की अंधी दौड़ में साधारण आदमी ही पिसता है। कम्पनी से लेकर थोक, प्रचून व्यापारी और केमिस्टों तक की कई परतें हैं जो मुनाफे में अपना-अपना हिस्सा रखते हैं, इसके अलावा डॉक्टरों की कमीशन और कम्पनी के अफसरों के मोटे वेतन अलग हैं। इन सब का नतीजा दवाओं की ऊँची कीमतों के रूप में सामने आता है और हालत आज यह बन गई है कि भारत के दो-तिहाई लोगों को जरूरत पडऩे पर पूरी दवा तक नहीं मिलती क्योंकि वे खरीद नहीं सकते। दवाओं की कीमतें पहले ही बढ़ रही हैं, और अब सरकार ने कम्पनियों को अपनी दवा पर एकाधिकार जमाने की आज्ञा भी दे दी है, जिसके नतीजे के तौर पर जो कम्पनी दवा का आविष्कार करती है, बहुत वर्षों तक सिर्फ वही उसे बना सकती है और वह अपनी मर्जी से उसकी कीमत तय करती है।स्वास्थ्य को पूरी तरह बिकाऊ माल बना दिया गया है, जिसके पास पैसा है वे अपना इलाज करवा ले, जिसके पास पैसा नहीं है या कम है वह मरे या जिए इस निजाम को इसकी कोई परवाह नहीं है। लेकिन जैसे कि इतना ही काफी न हो, आम मेहनतकश जनता से स्वस्थ जीवन जीने की परिस्थितियाँ भी छीन ली गई हैं। जनता को, खासकर बच्चों और औरतों को पूरी खुराक नहीं मिलती जिसके कारण वे पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण होने वाली बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। खुराक ठीक न होने के कारण लोगों की बीमारियों से लडऩे की ताकत भी कम हो जाती है, जिसके कारण वे किसी भी बीमारी के आसान शिकार हो जाते हैं, ठीक होने में अधिक समय लगता है और बार-बार बीमार होते रहते हैं। लोगों को पीने वाला साफ पानी और रहने की अन्य बुनियादी सहूलियतें न मिलने के कारण भी बहुत सारी बीमारियाँ लगती हैं। इसके अलावा काम की जगहों पर भी बुरा हाल होता है। बहुत सारी बीमारियाँ तो उन्हें अपने पेशे-काम के कारण होती हैं। लोगों को स्वास्थ्य देखभाल सम्बन्धी शिक्षा से भी वंचित कर दिया गया है। अपनी अज्ञानता के कारण उन्हें अनेकों बीमारियाँ लगती हैं।
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक स्वास्थ्य मंत्रालय ने वाणिज्य मंत्रालय को पत्र लिखकर फार्मा में विदेशी निवेश (एफडीआई) नियमों को कड़ा किए जाने की वकालत की है।
सूत्रों का कहना है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से भारतीय फार्मा कंपनियों का अधिग्रहण किए जाने से स्वास्थ्य मंत्रालय चिंतित है। लिहाजा स्वास्थ्य मंत्रालय ने वाणिज्य मंत्रालय को फार्मा एफडीआई के नियमों जल्द फेरबदल किए जाने की सलाह दी है।सूत्रों के मुताबिक स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि फार्मा एफडीआई को ऑटो रूट से हटाकर एफआईपीबी रूट पर किया जाय। सस्ती दवाओं के लिए नए नियम बनाए जाने की जरूरत है।अगस्त 2006-मई 2010 के दौरान 6 फार्मा कंपनियों का अधिग्रहण हुआ है। इस अवधि के दौरान 10.45 अरब डॉलर के अधिग्रहण सौदे हुए हैं। सूत्रों का कहना है कि स्वास्थ्य मंत्रालय लाइसेंस अनिवार्य (सीएल) करने के नियमों के पक्ष में नहीं है।लाइसेंस अनिवार्य के तहत गैर-पेटेंट धारक को बाजार में मौजूद दवा बनाने की मंजूरी हासिल होती है। डीआईपीपी ने लाइसेंस अनिवार्य करने के मसले पर लोगों के विचार मंगवाए हैं। सूत्रों का कहना है कि स्वास्थ्य मंत्रालय गैर-प्रतिस्पर्धात्मक कारोबार के लिए लाइसेंस अनिवार्य करने के पक्ष में है।
1997 में बने राष्ट्रीय फार्मास्यूटिकल मूल्य-निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) का मानना है कि दवाओं की बेवजह ऊँची कीमत एक बड़ी समस्या है लेकिन आज तक प्राधिकरण ने इसे रोकने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया है। जून 2010 तक एनपीपीए ने दवा कम्पनियों को कुल मिलाकर 762 नोटिस जारी किये थे जिनमें कुल 2190.48 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया था। लेकिन इसमें से केवल 199.84 करोड़ यानी महज़ 9.1 प्रतिशत जुर्माने की ही वसूली हो पायी। दवाओं के मूल्य नियन्त्रण क़ानून का मकसद था कि जीवनरक्षक दवाएँ लोगों को सस्ते दामों पर उपलब्ध हो सकें। लेकिन दवा कम्पनियों के दबाव में मूल्य नियन्त्रण क़ानून के दायरे में आने वाली दवाओं की संख्या भी लगातार कम होती गयी है। 1979 में कुल 347 दवाएँ इस क़ानून के दायरे में आती थीं जो 1987 तक घटकर 142 और 1995 तक 76 रह गयीं। इस समय केवल 74 दवाएँ इसके तहत रह गयी हैं। इनमें से भी 24 दवाएँ पुरानी पड़ चुकी हैं और उनकी जगह नयी दवाओं ने ले ली है जो मूल्य नियन्त्रण क़ानून के दायरे से बाहर हैं। इन 74 में से भी केवल 63 दवाओं के लिए अधिसूचना जारी की गयी है जबकि अत्यावश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) में 354 दवाएँ हैं। हालाँकि इस सूची में भी कैंसर जैसे रोगों की दवाएँ अब तक शामिल नहीं की गई हैं।
2001 में अमेरिका ने नोवार्टिस की दवा को मंजूरी दी और इसे ग्लिवेक नाम दिया गया. कैंसर मरीज इसके लिए हर साल 70,000 डॉलर तक खर्च करते हैं। रोजाना इसकी एक या दो खुराक लेनी पड़ती है। भारतीय दवाओं के लिए मरीज सालाना केवल 2,500 डॉलर खर्च करते हैं। बड़ी कंपनियों का कहना है कि भारतीय कंपनियां सस्ते में दवा बना सकती हैं क्योंकि वे शोध और आविष्कार में कम पैसे लगाती हैं।विश्व भर में ग्लिवेक की बिक्री सालाना 4.7 अरब डॉलर है, भारतीय कंपनियों का मुनाफा इसके मुकाबले ना के बराबर होगा।
नोवार्टिस इंडिया लिमिटेड का शुद्ध लाभ मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 28.18 प्रतिशत घटकर 26.98 करोड़ रुपये रहा गया है। कंपनी ने बताया कि इससे पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में 37.57 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया गया था। आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2012-13 की 30 जून को समाप्त हुई तिमाही में कुल बिक्री बढ़कर 219.52 करोड़ रुपये पर दर्ज की गई, जबकि इससे पिछले वित्त वर्ष की इसी तिमाही में यह आंकड़ा 200.13 करोड़ रुपये रहा था। आलोच्य अवधि में नोवार्टिस का कारोबार 144.5 करोड़ रुपये से 12.1 प्रतिशत बढ़कर 162 करोड़ रुपये हो गया।
भारत सरकार के पेटेंट विभाग ने इसी साल मार्च में नोवारटिस द्वारा इस दवा को पेटेंट कराने के आवेदन को खारिज कर दिया था। पेटेंट विभाग ने उस समय कहा था कि यह कोई नई दवा नहीं, बल्कि पहले से ही जाने-पहचाने एक कंपाउंड का संशोधित रूप है।
अगर नोवारटिस की इस दवा को पेटेंट देने के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाता है तो यह भारत की जेनरिक दवा बनाने वाली कंपनियों के लिए एक तगड़ा झटका साबित हो सकता है। क्योंकि, इसके बाद अन्य कंपनियां भी इस तरह के मुद्दों को लेकर कोर्ट की शरण में जा सकती हैं। हालांकि, जहां तक ग्लीवेक की बात है तो वर्ष 2005 से पहले के इसके जेनरिक वर्जन की बिक्री पूर्व की भांति जारी रहेगी।
भारतीय पेटेंट ऑफिस ने मार्च में ही जर्मनी की कंपनी बायर से इसकी महंगी कैंसर दवा नेक्सावार का एक्सक्लूसिव अधिकार वापस ले लिया था। इसके लिए तर्क दिया गया था कि इतनी महंगी दवा को खरीदना लोगों के लिए मुश्किल होगा। दवा क्षेत्र की ग्लोबल दिग्गज कंपनियां भारत में उपलब्ध कारोबार की बड़ी संभावनाओं को भुनाना तो चाहती हैं, लेकिन यहां अपने बौद्धिक संपदा अधिकारों की सुरक्षा को लेकर खासी चिंतित हैं।
भारत सरकार बीच-बीच में ऐसी रिपोर्टें तो जारी करती रहती है मगर वास्तव में दवा कम्पनियों की इस भयंकर लूट को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाती। उसे ग़रीब मरीज़ों के स्वास्थ्य से अधिक चिन्ता दवा उद्योग के स्वास्थ्य की रहती है। अगर वाकई उसे ग़रीबों के स्वास्थ्य की चिन्ता होती तो वह ऐसी नीतियाँ नहीं बनाती जो जीवनरक्षक दवाओं की ऊँची कीमतों को सही ठहराती हैं। जैसे, दिल के रोगियों के लिए कारगर दवा एटोर्वेस्टेटिन जो जन-औषधि नामक सरकारी दुकानों में 8.20 रुपये (दस गोलियाँ) की दर से मिलती है, को प्रचारित करने के बजाय 96 रुपये (दस गोलियाँ) की दर से बिकने वाली स्टोरवास दवा की ख़रीद की अनुमति देने का क्या औचित्य है? डॉक्टरों को डायबिटीज़ के लिए एमेरिल का नुस्खा लिखने की इजाज़त क्यों दी जानी चाहिए? एमेरिल का एक पत्ता 118 रुपये का बिकता है, जबकि ग्लिमेपिराइड यानी इसी दवा का जेनेरिक रूप जन-औषधि दुकानों में 11.80 पैसे में उपलब्ध है।
कई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ यह साबित कर चुके हैं कि जिस दाम पर बड़ी कम्पनियाँ दवाएँ बेचती हैं उससे बहुत ही कम लागत पर अच्छी गुणवत्ता की दवाएँ बनायी जा सकती हैं। फिर आखिर यह सारा पैसा जाता कहाँ है? दवा कम्पनियों के बेहिसाब मुनाफे के अलावा मरीज़ और दवा कम्पनी के बीच बिचौलियों की लम्बी कतार होती है — क्लियरिंग एण्ड फॉरवर्डिंग एजेण्टों या सुपर स्टॉकिस्ट से लेकर डिस्ट्रीब्यूटर/स्टॉकिस्ट से होते हुए दवा की दुकान तक। हर कदम पर कमीशन और बोनस के रूप में मुनाफे का बँटवारा होता है। इसमें दवाओं के विज्ञापन और डॉक्टरों पर होने वाले खर्च को भी जोड़ दीजिये, जो शायद बाकी सभी खर्चों से अधिक होता है। इस सबकी कीमत भी मरीज़ से ही वसूली जाती है। भारत में दवा उद्योग का कुल घरेलू बाज़ार लगभग 60,000 करोड़ रुपये सालाना का है जिसमें से 51,843 करोड़ रुपये की दवाएँ केमिस्ट की दुकानों से बिकती हैं। सरकार द्वारा जनता के पैसे से खड़ी की गयी स्वास्थ्य सेवाओं के लम्बे-चौड़े ढाँचे के बावजूद बहिर्रोगी इलाज का 80 प्रतिशत निजी सेक्टर में होता है और इसका 71 प्रतिशत दवाओं की ख़रीद पर खर्च होता है। इसका मुख्य कारण यही है कि दवा कम्पनियाँ जेनेरिक दवाओं के अलग-अलग ब्राण्ड नाम रखकर उन्हें महँगे दामों पर बेचती हैं। डॉक्टर भी सस्ते विकल्प होने के बावजूद महँगी ब्राण्डेड दवाएँ ही नुस्खे में लिखते हैं और ग़रीब मरीज़ों के पास इन्हीं दवाओं को ख़रीदने के अलावा कोई चारा नहीं होता, चाहे उन्हें अपना घर-द्वार ही क्यों न बेचना पड़ जाये। बहुतेरे ग़रीब मरीज़ तो महँगी दवाओं के इन्तज़ार में दम तोड़ जाते हैं।
सरकारी नीतियों और खुले बाजार का कमाल सत्यम घोटाले, जिसे जनता और संसद दोनों भूल चुकी हैं, के हश्र को देखकर समझा जा सकता है।महिंद्रा सत्यम वैश्विक स्तर पर आईटी सेवाएं मुहैया कराने वाली देश की दिग्गज कंपनी है। यह 15 अरब डॉलर की महिंद्रा समूह की कंपनी है। सत्यम कंप्यूटर्स के घोटाले ने जहां आईटी क्षेत्र के करारा झटका दिया, वहीं इस कंपनी को भी पंगु बना दिया था। लेकिन अब परिस्थितियां बदलती दिखाई दे रही है। करीब 3.5-4 साल पहले जहां सत्यम कंप्यूटर्स से निवेशकों और कर्मचारियों का भरोसा उठाता जा रहा था, वहीं अब निवेशकों का कंपनी पर पुराना भरोसा लौट रहा है। महिंद्रा समूह के हाथों बिकने के बाद सत्यम कंप्यूटर्स, महिंद्रा सत्यम बन गई और मौजूदा समय में कंपनी का कारोबार एक बार फिर पटरी पर वापस आ रहा है।महिंद्रा सत्यम के सीईओ सीपी गुरनानी का कहना है कि मौजूदा समय में महिंद्रा सत्यम का कारोबार बेहतर स्थिति में चल रहा है। करीब 3.5 साल पहले कंपनी की जिस कंपनी में निवेशक बने रहेंगे या नहीं इसको असमंजस की स्थिति थी, आज उसी कंपनी पर निवेशकों को भरोसा लौटता दिखाई दे रहा है। 3.5 साल पहले कपंनी का मुनाफा शून्य था, जबकि मौजूदा समय में महिंद्रा सत्यम सालाना 21 फीसदी के मुनाफे के साथ कारोबार कर रही है। वहीं तिमाही दर तिमाही तुलना की जाए तो कंपनी का कारोबार 2-3 फीसदी की दर से बढ़ता जा रहा है। जो कि इस बात का संकेत है की आनेवाला समय महिंद्रा सत्यम के लिए और बेहतर साबित होगा।
सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की हालत आज बेहद बुरी हो चुकी है, चाहे ये सिविल अस्पताल हों चाहे इ.एस.आई. अस्पताल। सभी सरकारी अस्पतालों में स्टाफ की भारी कमी है और जो डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी हैं भी, उनमें से भी अधिकतर अपनी ड्यूटी सही ढंग से नहीं करते। दवाइयों की सरकारी सप्लाई लगभग शून्य है, जो थोड़ी-बहुत दवाएँ आती भी हैं उनका बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य विभाग के भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है और मरीजों को कुछ भी हासिल नहीं होता है। टेस्ट कोई होता है, कोई नहीं, किसी टेस्ट की मशीन खराब होती है और किसी की मशीन होती ही नहीं। बेड टूटे मिलेंगे, खिड़कियाँ टूटी होती हैं, बाथरूमों में भयंकर गन्दगी होती है। लोगों की जरूरतों के अनुसार नए अस्पताल और डिस्पेंसरियाँ खोलना तो सरकार बहुत समय पहले ही बंद कर चुकी है। सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों के हालात सुधरे भी कैसे, सरकारें जनता के स्वास्थ्य के लिए एक पैसा खर्च नहीं करना चाहतीं। इस वर्ष के बजट में जनता के स्वास्थ्य के लिए सिर्फ 30,702 करोड़ रुपए का खर्च तय किया गया जो पूरे बजट के आधा प्रतिशत से भी कम है और जो पूरी दुनिया में सबसे कम है। इसी बजट में अमीरों के लिए अरबों-खरबों रुपए की टेक्स छूटें और रियायतें दी गई हैं जबकि उनका एक वर्ष का मुनाफा दस लाख करोड़ रुपए से भी ऊपर है। यह है जनता की चुनी हुई सरकार का असली चरित्र जो अमीरों के लिए फिक्रमंद है लेकिन मेहनतकश गरीब जनता के दुख-दर्दों की कोई चिंता नहीं। सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की बुरी हालत के चलते गरीब लोगों को प्राइवेट अस्पतालों की तरफ जाना पड़ता है। लेकिन इनकी फीसों और दवाओं के खर्चे इतने अधिक हैं कि इनका इलाज अधिकतर लोगों के बस के बाहर होता है या फिर इलाज बीच में ही छोडऩा पड़ता है। अगर कोई इलाज पूरा करवा भी लेता है तो कर्ज उठा-उठाकर अस्पताल के बिल चुकाने पड़ते हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश की मौजूदा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति के उल्लंघन के मामले में भारती वॉल-मार्ट प्राइवेट लि. तथा भारती रिटेल लि. को नए नोटिस जारी किए हैं। इन कंपनियों के खिलाफ कथित तौर पर एफडीआई नीति का उल्लंघन कर बहु ब्रांड क्षेत्र में खुदरा व्यापार की जांच की मांग करने वाली याचिका पर ये नोटिस जारी किए गए हैं। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ए के सीकरी की अगुवाई वाली पीठ ने निजी क्षेत्र की इन कंपनियों नया नोटिस जारी किया है। इन कंपनियों को इससे पहले 11 जुलाई को नोटिस जारी किया गया था, लेकिन उनकी ओर से अदालत में कोई उपस्थित नहीं हुआ।अदालत ने इस मामले में केंद्र से भी जवाब मांगा है। मामले की अगली सुनवाई 26 सितंबर को होगी। इससे पहले अदालत ने वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता वंदना शिवा की जनहित याचिका पर नोटिस जारी किए थे।जनहित याचिका में आरोप लगाया गया था कि भारती वॉल-मार्ट बहु ब्रांड खुदरा कारोबार कर रही है, जबकि उसे देश में सिर्फ थोक कारोबार (कैश एंड कैरी) की ही अनुमति है।जनहित याचिका में यह भी आरोप लगाया गया था कि कई स्थापित भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों के लिए 'मुखौटे' का काम कर रही हैं, जिससे खुदरा क्षेत्र में विदेशी भागीदारांे को बहुलांश नियंत्रण मिल सके।
कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने आज कहा कि कोयला ब्लॉकों के आवंटन के लिए नीलामी की व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी थी। कोयला मंत्री ने कहा कि कोयले के धनी पांच राज्यों मसलन छत्तीसगढ़, झारखंड तथा पश्चिम बंगाल कोयला ब्लॉकों की नीलामी के खिलाफ थे।
कोयला मंत्री ने जोर देकर कहा कि इस मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कतई जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने कहा, पांच राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा तथा पश्चिम बंगाल ने कोयला ब्लाकों का आवंटन निविदा के जरिये करने के विचार का पुरजोर विरोध किया था।हालांकि, खुद के इस्तेमाल (कैप्टिव) के लिए कोयला ब्लॉकों का आवंटन प्रतिस्पर्धी बोली के जरिये करने का विचार सबसे पहले 2004 में बना था, लेकिन सरकार ने अभी तक इसके तरीके को अंतिम रूप नहीं दिया है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की इसी सप्ताह पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि 2005 से 2009 के दौरान निजी क्षेत्र की कंपनियों को 57 कोयला ब्लाकों का आवंटन बिना प्रतिस्पर्धी बोली के किया गया। इस तरह निजी क्षेत्र की इन कंपनियों को 1.86 लाख करोड़ रुपये का फायदा पहुंचा।
कैग इस निष्कर्ष पर कोयला उत्पादन की औसत लागत तथा 2010-11 में कोल इंडिया की खानों से निकले कोयले के औसत मूल्य के आधार पर किया है। जायसवाल ने कहा कि कोयला मंत्रालय ने राज्यों के बीच इस मुद्दे पर सहमति बनाने का काफी प्रयास किया, लेकिन वे इसके लिए राजी नहीं हुए। राज्यों का मानना था कि इससे औद्योगिक गतिविधियां प्रभावित होंगी और कोयले का दाम बढ़ जाएगा। जायसवाल ने इस मुद्दे पर संसद में विपक्ष के हंगामे की आलोचना करते हुए कहा कि यदि मौका मिले तो वह सही तस्वीर सामने रख सकते हैं।
टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा चाहते हैं कि कापरेरेट क्षेत्र में संपर्क का काम करने वाली नीरा राडिया और उनके तथा दूसरे व्यक्तियों के बीच टेलीफोन वार्ता के विवादित टेप लीक होने के मामले की जांच रिपोर्ट उन्हें मुहैया करायी जाये। इस संबंध में रतन टाटा ने उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी भी दायर की है लेकिन उन्हें इस मसले पर न्यायालय के कई सवालों का सामना करना पड़ा।
न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने सवाल किया कि वह जांच रिपोर्ट की प्रति की मांग कैसे कर सकते हैं जबकि उन्होंने अपनी याचिका में सिर्फ केन्द्र द्वारा कराई गई टेलीफोन टैपिंग के लीक होने की जांच कराने का ही अनुरोध किया था।
रतन टाटा की ओर से बहस कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी से न्यायाधीशों ने कहा, आप जांच रिपोर्ट के विवरण के लिए अर्जी दायर करके अपने अनुरोध का दायरा बढ़ा रहे हैं। सरकार स्वयं ही जांच करा रही है और वह इसकी रिपोर्ट हमारे सामने पेश करेगी। वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी का कहना था कि इस रिपोर्ट के निष्कषरे को जानना जरूरी है क्योंकि उनकी दलीलें इसी पर आधारित होंगी।
उन्होंने कहा, मेरी सारी बहस इसी रिपोर्ट पर आधारित होगी। यह स्पष्ट है कि सरकार द्वारा टैप की गयी बातचीत लीक हुयी है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए कौन सी एजेन्सी या अधिकारी जिम्मेदार हैं। यह जानना जरूरी है कि भविष्य में इस तरह के लीक रोकने के लिये क्या किया गया है। रोहतगी ने कहा कि टेलीफोन टैपिंग के जरिये रिकार्ड की गयी बातचीत सरकार की संपत्ति थी और इसके लीक होने से उनके निजता के अधिकार का हनन हुआ है।
न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में सरकार ने पहले ही कार्रवाई कर दी है और यदि इसमें किसी कानून का उल्लंघन हुआ है तो सरकार से इस संबंध में सफाई मांगी जाएगी। रतन टाटा की याचिका पर आज सुनवाई अधूरी रही। इस याचिका पर कल भी बहस होगी।
रतन टाटा ने टेलीफोन टैपिंग के अंश मीडिया में लीक होने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए 29 नवंबर, 2010 को उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। रतन टाटा का कहना था कि टेलीफोन टैपिंग के अंश लीक होने से संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त उनके निजता के अधिकार का हनन हुआ है।
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