Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Tuesday, August 28, 2012

फिल्में बनाता हूं और मुकदमें लड़ता हूं

फिल्में बनाता हूं और मुकदमें लड़ता हूं


फिल्में बनाता हूं और मुकदमें लड़ता हूं

Story Update : Sunday, August 26, 2012     1:26 AM

लखनऊ। चर्चित फिल्मकार आनन्द पटवर्धन सेंसर बोर्ड के खिलाफ इतने मुकदमें लड़ चुके और जीत चुके हैं कि शायद यही वजह रही हो कि उनके नए वृत्तचित्र 'जय भीम कामरेड' को बोर्ड ने नहीं रोका। ऐसा खुद उनका मानना है। पटवर्धन के ज्यादातर वृत्तचित्र सेंसर बोर्ड में लंबे समय तक फंसे रहे हैं और कई कोर्ट में मुकदमा जीतने के बाद ही प्रदर्शित हो सके हैं। 
पटवर्धन ने शनिवार को लखनऊ प्रवास के दौरान 'अमर उजाला' से बातचीत में माना कि उनका वक्त फिल्में बनाने के साथ ही सेंसर बोर्ड और दूरदर्शन से मुकदमा लड़ते बीतता है। दूरदर्शन के खिलाफ उन्होंने सात मुकदमे लड़े हैं जिनमें से दो सुप्रीम कोर्ट तक गए हैं। दूरदर्शन से उनकी लड़ाई इस बात को लेकर होती है कि विवादित विषयों पर बने वृत्तचित्रों का दूरदर्शन प्रसारण से इंकार कर देता है। पटवर्धन इस तर्क के साथ मुकदमा लड़ते हैं कि अगर उनके वृत्तचित्र को एक ओर केन्द्र सरकार श्रेष्ठ मानते हुए पुरस्कृत कर रही है, तो उसी सरकार द्वारा नियंत्रित दूरदर्शन उनके वृत्तचित्र को प्रसारण के अयोग्य कैसे ठहरा सकता है। उनके 'पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध' को दूरदर्शन ने ए श्रेणी के कारण दिखाने से मना कर दिया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उसे इसका प्रसारण करना पड़ा। गौरतलब है कि उनके ज्यादातर वृत्तचित्रों को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिल चुका है। 
सेंसर बोर्ड की भूमिका को वे किस नजर से देखते हैं, पूछे जाने पर पटवर्धन कहते हैं कि सेंसर का काम केवल यह तय करना है कि वह किस उम्र के दर्शक के लिए उपयुक्त है। उसे फिल्म काटने का अधिकार नहीं है। यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें कभी धमकियां भी मिलती हैं, उन्होंने कहा कि मेरे साथ इतने लोग हैं कि मुझे धमकी देने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता है। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो मेरी फिल्मों को पसंद नहीं करते लेकिन वे जिनके पक्ष में हैं, उनके वोट बैंक के कारण उसे नकार नहीं सकते। प्रतिबद्ध फिल्मों का व्यावसायिक पक्ष कैसा होता है, क्या ये फिल्में लोगों तक पहुंच पाती हैं, जैसे सवालों के जवाब में आनन्द पटवर्धन ने कहा कि मुझे अपनी फिल्मों के लिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता है। मैं अपनी फिल्मों में पैसा खुद लगाता हूं जो धीरे-धीरे लौटता है। एक फिल्म से होने वाली आमदनी दूसरे फिल्म के निर्माण में खर्च होती है। फिल्मों को लोगों तक पहुंचाने के लिए मैं प्रोजेक्टर लेकर जगह-जगह जाता हूं। हजार-दो हजार लोग मेरी फिल्में देखने के लिए उमड़ पड़ते हैं। एक बार मैंने इन्हें सिनेमाघर में तब लगवाया था जब बारिश के कारण लोग हॉल में नहीं जा रहे थे। फिल्म तीन हफ्ते फिल्म चली और खूब लोग जुटे। 
पटवर्धन का सिने सफर 
वियतनाम युद्ध के समय अमेरिका में हुए प्रदर्शनों के दौरान प्रशिक्षणार्थी के तौर पर कुछ दृश्य फिल्माए
पहला वृत्तचित्र गांवों में तपेदिक चिकित्सा पर बनाया
जेपी आन्दोलन पर 1975 में 'कान्ति की तरंगे' 
आपातकाल के कैदियों पर 1978 में 'चेतना के बंदी' 
कनाडा में भारतीय प्रवासियों पर 1981 में 'ए टाइम टू राइज' 
मुंबई की झोपड़पट्टी पर 1985 में 'बम्बई-हमारा शहर'
पंजाब समस्या पर 'इन मेमोरी ऑफ फ्रेण्ड्स'
अयोध्या विवाद पर 'राम के नाम'
नर्मदा आंदोलन पर 'नर्मदा डायरी' 
साम्प्रदायिकता पर 'पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध'
परमाणु बम की होड़ पर 'जंग और अमन'

No comments:

Post a Comment