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Saturday, May 18, 2013

आँकड़ों के दलदल से उभरता उत्तराखंड–1

आँकड़ों के दलदल से उभरता उत्तराखंड–1

uttarakhand-mapराज्य के गठन के समय तक उत्तराखंड का मुख्य क्षेत्र आठ जिलों तक सीमित था। बाद में उत्तराखंड के गठन के बाद जिलों की संख्या बढ़ कर 13 हो गई। राज्य की आबादी अब बढ़ कर एक करोड़ के आंकड़े को पार कर चुकी है। इसके बावजूद राज्य की गरीबी को घटाने में सफलता मिली है। इन वर्षों में पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश, पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश या समूचे भारत की तुलना में गरीबी में कमी लाने के उत्तराखंड के आंकड़े प्रभावशाली हैं। उत्तराखंड की जनसंख्या 2001 के आंकड़ों के अनुसार 84,79,562 थी जो कि 2011 में 1,01,16,752 तक पहुँच चुकी थी। राज्य सरकार के अनुमानों के अनुसार 2002 में लगभग 4,16,018 लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे थे। गरीबी के आंकड़ों के बारे में इसी साल के मार्च में योजना आयोग द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार 2009-2010 में उत्तराखंड भी हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, कर्नाटक के साथ उन राज्यों में शामिल था जहाँ गरीबी के अनुपात में 10 प्रतिशत या उससे अधिक की कमी आई है। इस वर्ष में उत्तराखंड में गाँवों में प्रति व्यक्ति औसत मासिक आय 719.5 रु. थी और शहरी क्षेत्र में यह 898.6 रु. थी। इसकी तुलना में यह हिमाचल प्रदेश में क्रमशः 708 तथा 888.3 रु. थी। अखिल भारतीय औसत क्रमशः 672.8 तथा 859.6 रु. था। वैसे इस मामले में उत्तराखंड की तुलना पैतृक प्रदेश से की जाए तो उत्तराखंड की जनसंख्या 2001 के आंकड़ों के अनुसार 84,79,562 थी जो कि 2011 में 1,01,16,752 तक पहुँच चुकी थी। राज्य सरकार के अनुमानों के अनुसार 2002 में लगभग 4,16,018 लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे थे। वर्ष 2009-2010 के गरीबी के आंकड़ों के अनुसार, जो कि तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के अनुरूप है, उत्तराखंड में 17.9 लाख लोग (18 प्रतिशत) गरीबी रेखा के नीचे थे जबकि हिमाचल प्रदेश में 9.5 प्रतिशत अर्थात कुल 6.4 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। इससे पहले 2004-2005 में उत्तराखंड में 32.7 प्रतिशत अर्थात् 29.7 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। इसी समय में हिमाचल प्रदेश में 22.9 प्रतिशत अर्थात् 14.6 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे थे। तब अखिल भारतीय स्तर पर यह संख्या क्रमशः 37.3 प्रतिशत व 40.72 करोड़ थी। उत्तर प्रदेश के मामले मंे यह संख्या क्रमशः 40.9 प्रतिशत तथा 7.30 करोड़ थी।

परन्तु योजना आयोग के मानदंडों को लागू किया जाए तो गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या 29.28 लाख होनी चाहिए। कितना अंतर है राज्य सरकार व योजना आयोग के आधार पर अनुमानों के बीच। फिर वही आंकड़ों का जंजाल! राज्य के 11 पहाड़ी जिलों के गरीबों का जीवन-यापन तो एक तरह से आज भी सालाना आने वाले 320 करोड़ रुपए के मनीआर्डरों पर निर्भर है। इसमें संदेह नहीं कि राज्य की स्थापना के बाद, खास तौर पर नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में व उसके बाद राज्य में केन्द्र सरकार से व अन्य प्रकार से धन एवं निवेश का प्रवाह बढ़ा है। इस तथ्य को भी ध्यान रखना होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने और वित्त आयोग की सिफारिशों पर अमल के चलते राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए धन का आबंटन भी बढ़ता गया है। पहली पंचवर्षीय योजना की अवधि में राज्यों ने 1245 करोड़ रु. खर्च किये जो दसवीं योजना के अंत तक बढ़ कर 6,13,005 करोड़ रु. के स्तर तक जा पहुँचा। ग्यारहवीं योजना अवधि में उत्तराखंड ने 20,752.56 करोड़ रु. का योजनागत व्यय किया। पंचायती राज्य प्रणाली के तहत गाँव- गाँव को धन का प्रवाह बढ़ा है और उसी अनुपात में भ्रष्टाचार की सरिता भी बह निकली है। यदि राज्य के निर्माण के बाद किसी वर्ग को सबसे अधिक लाभ हुआ है तो वह बाबू वर्ग है। पदोन्नतियों के अवसर बहुगुणित हुए हैं, अधिकारों और संसाधनों के विस्तार के साथ ही नौकरशाही के भ्रष्टाचार और मनमानी में भी वृद्धि हुई है।

तरक्की के बावजूद विशमताओं का मकड़जाल उत्तराखंड की आर्थिक तरक्की को उजागर करने वाले आंकड़े सब कुछ जाहिर नहीं करते हैं, बहुत कुछ छिपाते भी हैं। आय के औसत से यह पता नहीं चलता है कि ऊँची व बेहद ऊँची आय वाले लोग कितने हैं और वे कितने बेहद गरीबों की कीमत पर अमीरी की ऊँचाई में खड़े हैं। उत्तराखंड की एक विडम्बना यह भी है कि विभिन्न क्षेत्रों के बीच आय वितरण में भारी असमानता है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्र जीवन की मूलभूत सुविधाओं और संसाधनों से वंचित हैं। सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल जैसी सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों की गरीबी को वहाँ जाने के बाद ही समझा जा सकता है, आंकड़ों के आइने से नहीं देखा जा सकता है।

राज्य के औद्योगिक विकास की विफलता इस बात से परिलक्षित होती है कि हल्द्वानी में एच.एम.टी., जसपुर में यू.पी. टेक्सटाइल मिल, काशीपुर में फ्लोमार पाॅलिएस्टर मिल, काफी पहले रुग्ण उद्योगो ंके दर्जे में पहुँच गए। जरूरत है कि वन उत्पादों के आधार पर लघु उद्यमों को बढ़ावा दिया जाए तभी प्रदेश की विशाल वन सम्पदा का पूरा लाभ लिया जा सकता है। प्रदेश के ऊधमसिंह नगर और हरिद्वार जैसे औद्योगिक क्षेत्रों की आय का स्तर प्रदेश के अन्य जिलों से बहुत भिन्न है भले ही इन जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या भी बढ़ी है। और फिर सवाल यह भी है कि इन औद्योगिक क्षेत्रों में सृजित होने वाली आय सिमट कर किन हाथों में जाती है। इस प्रकार के औद्योगिक क्षेत्रों की भूमिका आमदनी का बहुत छोटा हिस्सा गरीबों, मजदूरों व अन्य सहायक उपक्रमों के लिए टपकाने तक सीमित होती है। ज्यादातर नए उद्योग नवगठित राज्य में मिल रही रियायतों का लाभ लेने और आबंटित की जा रही भूमि का लाभ लेने की गरज से स्थापित किये गए। ऐसे कुछ अध्ययन सामने आए हैं जिनके अनुसार उत्तराखंड में सिडकुल की स्थापना से राज्य को औद्योगिक विकास के मामले में हिमाचल प्रदेश से आगे निकलने में मदद मिली और बुनियादी ढाँचे में सुधार हुआ। परन्तु यह बात भी सामने आई है कि औद्योगिक पैकेज के अन्तर्गत दी गई रियायतों का दुरुपयोग किया गया। जनवरी 2003 से लागू किये गए औद्योगिक पैकेज में निवेश पर केन्द्र सरकार की सब्सिडी, ब्याज में सब्सिडी, बीमा के लिए सब्सिडी और आय कर व उत्पाद शुल्क में छूट शामिल थी। औद्योगिक रियायतें वापस लिये जाने के बाद पलायन और औद्योगिक गतिविधियों के सिमटने की बातें भी सामने आई हैं। जहाँ तक औद्योगीकरण का सवाल है उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों के बीच भारी असमानता है। रोजगार के मामले में भी स्थानीय युवकों को उतना रोजगार नहीं मिला जिसकी अपेक्षा की गई थी। नियोजकों की शिकयत थी कि उन्हें प्रशिक्षित लोग राज्य में उपलब्ध नहीं थे।

जितना औद्योगीकरण हुआ भी है उसका क्या लाभ हुआ है? सवाल है कि इसका आम लोगों की जिन्दगी में क्या असर है? क्या यह विकास दर हरिद्वार व ऊधम सिंह नगर जैसे मैदानी जिलों में निवेश और औद्योगिकीकरण बढ़ने तक सीमित नहीं है? दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों से पलायन और वहाँ दो जून की रोटी की समस्या पहले से भी ज्यादा गंभीर नहीं है? औद्योगीकरण बढ़ने का लाभ पहाड़ के पिछड़े इलाकों के इने-गिने युवकों को जीवन-यापन भर की मजदूरी मिलने तक सीमित है। ऊँचे वेतन वाली तकनीकी व प्रबंधकीय पदों पर राज्य के बाहर के प्रशिक्षित व तकनीकी दक्षता वाले कर्मचारियों का ही बोलबाला रहा।

क्षेत्रीय असमानता

आर्थिक विकास के आंकड़ों से परे मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर भी राज्य की प्रगति का कुछ आकलन किया जा सकता है। ध्यान देने की एक बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) का भी यह मानना है कि भारत में विभिन्न राज्यों के बीच मानव विकास के मामले में इतनी अधिक असमानताएं हैं कि आम मानव सूचकांक इन असमानताओं को उजागर नहीं कर पाते हैं। जाहिर है कि उत्तराखंड और इसके भीतर के 13 जिलों के बीच व उनके भीतर भी यह सच्चाई और भी ज्यादा लागू होती है। यू.एन.डी.पी. ने इस प्रकार की समस्या से निबटने के लिए विश्व मानव विकास सूचकांक जारी करने की बीसवीें वर्षगांठ के मौके पर 2010 में इसमें तीन नए पैमाने शामिल किये। इन पैमानों की मदद से असमानता के सामन्जस्य के साथ मानव विकास सूचकांक, लिंग असमानता के सामन्जस्य के साथ सूचकांक और विभिन्न आयामों वाली गरीबी के सामन्जस्य वाले सूचकांक तैयार किये गए। जब मानव विकास सूचकांक के तीन घटकों- आय, शिक्षा और स्वास्थ्य को लोगों के बीच असमान वितरण के पैमाने पर देखा जाता है तो किसी हद तक असलियत सामने आती है। उदाहरण के लिए विश्व फलक पर भारत की स्थिति को लिया जा सकता है। मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) के पैमाने पर 169 देशों के बीच भारत का स्थान 119 वाँ है परन्तु जब असमानताओं के पैमाने पर देखते हुए संशोधित सूचकांक आई.एच.डी.आई. के पैमाने पर आकलन होता है तो भारत के मूल्यांकन में 32 प्रतिशत की छीजन दर्ज की जाती है। इस प्रकार की छीजन शिक्षा की मद पर सबसे अधिक 43 प्रतिशत, उसके बाद स्वास्थ्य में असमानता के कारण 34 प्रतिशत और आय असमानताओं के कारण सूचकांक में 21 प्रतिशत का क्षरण होता है। भारत के जिन 19 राज्यों के एच.डी.आई. और आई.एच.डी.आई. के आंकड़े उपललब्ध हैं उनके अनुसार उत्तराखंड का स्थान केरल, पंजाब व हिमाचल प्रदेश जैसे अग्रणी राज्यों की कतार में सातवें स्थान पर है परन्तु जब असमानता के घटकों को ध्यान में रख कर आई.एच.डी.आई. के आंकड़ों को देखते हैं तो उत्तराखंड कतार में पीछे खिसक कर दसवें स्थान पर आ जाता है जबकि केरल, पंजाब, हिमाचल प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे अग्रणी राज्य कतार में अपना स्थान बनाये रखने में सफल हैं। कुल मिला मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से विभिन्न असमानताओं के कारण उत्तराखंड को सूचकांक में 33.03 प्रतिशत का नुकसान होता है जबकि पूरे भारत को 29.6 प्रतिशत का, पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश को 29.6 प्रतिशत का और अग्रणी राज्य केरल को 16.78 प्रतिशत का नुकसान होता है। इस प्रकार की तुलना से उत्तराखंड में असमानताओं की हद का अनुमान हो जाना चाहिए। यदि इसी प्रकार की तुलना इस असमानता को प्रभावित करने वाले घटक क्षेत्रों आय, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में की जाए तो स्थिति अधिक स्पष्ट हो सकती है। (जारी है)

http://www.nainitalsamachar.in/uttarakhand-in-statistics-1/

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