Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Friday, May 17, 2013

अगर गाँधी के नाम पर स्मारकों का कारोबार जारी रहता है, तो दूसरों के नाम पर क्यों नहीं?

मुर्दों के लिये सारा जहाँ, जिन्दो को दो गज जमीन नहीं!  

राजनीति का जांबी कारोबार

हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं

http://hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2013/05/17/whole-land-for-the-dead-no-2-yards-land-for-alive#.UZZpt6KBlA0

 पलाश विश्वास

अभी अभी सैफ अली खान की एक फिल्म `गो गोवा गान' की खूब चर्चा हो रही है और इसे भारत में पहली जांबी संस्कृति की फिल्म बतायी जा रही है। जांबी संस्कृति पश्चमी बतायी जा रही है। 'गो गोवा गॉन' एक जांबी विधा की फिल्म है जो ज्यादातर हॉलीवुड में बनती रही है। जांबी दरअसल न भूत न है पिशाच, न वैंपायर न मृतात्मा। 'गो गोवा गॉन' फिल्म अपने विषय के अलावा अपने गानों की वजह से भी चर्चा में आ रही है। इस फिल्म का एक गाना "खून चूस ले तू मेरा खून चूस ले" युवाओं के ‌बीच लोकप्रिय हो रहा है। खासतौर पर युवा प्रोफेशनल्स इसे अपनी ज़िन्दगी से जोड़कर देख रहे हैं।फिल्‍म का निर्देशन कृष्‍णा डी के और राज निधिमोरू ने किया है।

लेकिन अभी-अभी कई राज्य सरकारों के दो साल के कार्यकाल के पूरे होने पर देश भर में सरकारी खर्च पर मुख्यमन्त्रियों के बड़े बड़े पोस्टर समेत जो विज्ञापनों की बहार आयी है, वह क्या है? हम व्यक्ति पूजा में इतने तल्लीन और अभ्यस्त हैं कि अपने नेताओं और पुरखों को जांबी में तब्दील करने में पश्चिम से कहीं बहुत आगे हैं। राजघाट पर मत्था सारे लोग टेकते हैं, पर गाँधी की विचारधारा की इस मुक्त बाजार में क्या प्रासंगिकता रहने दी हमने? अंबेडकर की तस्वीर के बिना इस देश की बहुसंख्य जनता को अपना वजूद अधूरा लगता है पर उनकी विचाऱधारा, समता और सामाजिक न्याय के एजेण्डा, जाति उन्मूलन के कार्यक्रम, बहुजनों की मुक्ति के आन्दोलन का क्या हश्र हुआ है?

गाँधी और अंबेडकर के स्मारक तो फिर भी समझ में आते हैं, लेकिन जिनका इस देश के इतिहास भूगोल में कोई योगदान नहीं है, उनके नाम पर भी तमाम स्मारकों का प्रतिनियत कर्मकाण्ड हैं। ऐसे महापुरुष आयातित भी हैं। उनकी विचारधारा और उनके आन्दोलनों से किसी को कोई लेना देना नहीं। सारे लोग पक्के अनुयायी होने का दावा करते हुये सड़क किनारे शनिदेवता, शिव, काली, शीतला, संतोषी माता मंदिर और अनगिनत धर्मस्थलों की तर्ज पर स्मारकों के जांबी कारोबार में करोड़ों अरबों की बेहिसाब अकूत सम्पत्ति जमा कर रहे हैं। उन मृत महानों, मनीषियों को जांबी बनाकर उनकी सड़ती गलती देह विचारधारा, विरासत और अंग  प्रत्यंग आन्दोलन के हालत में, उन्हें जीवित रहने को मजबूर कर रहे हैं ताकि वे हमारे निहित स्वार्थ पूरा करने के काम आ सकें। भारतीय राजनीति के इस जांबी कारोबार के मद्देनजर इस फिल्म को देखें, तो कॉमेडी की हवा निकल जायेगी, भारतीय लोक गणराज्य की त्रासदियाँ बेनकाब हो जायेंगी। यह हालत हमें दहशत में नहीं डालती क्योंकि हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं!

सन् 1974 की बात है। तब मैं दिनेशपुर हाईस्कूल से दसवीं पास करने के बाद जीआईसी नैनीताल का छात्र बनने के बाद साल भर नैनीताल में गुजार चुका था। ग्यारहवीं की परीक्षा दे चुका था। प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी से चर्चा के बाद पिताश्री शरणार्थी नेता पुलिनबाबू देश भर के शरणार्थियों की हालत का मौके पर जाँच करके प्रधानमन्त्री कार्यालय को रपट देने वाले थे। वे उत्तर से दक्षिण पूरब से पश्चिम के दौरे पर थे। नैनीताल में तार आया कि वे दिल्ली पहुँचने वाले हैं। मैं नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ दिल्ली पहुँच जाऊँ ताकि उस रपट को लिखने के काम को अंजाम दिया जा सके। शरणार्थी नेता हिन्दी में लिख नहीं सकते थे। मेरी मदद की उन्हें सख्त जरुरत थी। मैं दिल्ली कभी नहीं गया था। पिताजी के लिये दिल्ली-लखनऊ की तो डेली पैसेंजरी थी। यह मौका चूकना न था। ग्यारहवीं की परीक्षा खत्म होते ही मैं दिनेशपुर आया। कुमुद रंजन मल्लिक और विवेक विश्वास की अगुवाई में नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ मैं दिल्ली कूच कर गया।

जून का महीना था। दिल्ली में आग बरस  रही थी। चाँदनी चौक के धर्मशाला की छत पर एक कमरे में (जहाँ आराम से वे मछलियाँ पका और खा सके धर्मशाला की मनाही के बावजूद) हम लोग ठहरे। मेरा दिल्ली दर्शन शुरु हुआ। तब कृष्ण चंद्र पन्त, इंदिरा मन्त्रिमण्डल में ऊर्जा राज्यमन्त्री थे और नैनीताल से सांसद थे। तीनमूर्ति मार्ग में उनका बंगला था।

palashji, Palash Vishwas, पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

पिताजी की वापसी पर बाकी लोग तो शुरुआती दो तीन दिन में सलाह मशविरा के बाद घर लौट गये, रपट लिखने और टाइप करवाने फिर प्रधानमन्त्री कार्यालय में जमा करवाने के खातिर मैं दिल्ली ठहर गया। इस बीच पिता के साथ दिल्ली दर्शन शुरु हो गया। शुरुआत जाहिर है कि राजघाट से हुआ। पिताजी कनाट प्लेस तक चाँदनी चौक से पैदल घूमने के आदी। नई दिल्ली के तमाम मन्त्रालयों में हम पैदल ही घूम रहे थे। सबसे ज्यादा तकलीफ मुझे दिल्ली में पेयजल संकट से हुयी। हम लोगों को तराई या नैनीताल में पानी खरीदने की अभिज्ञता न थी। पहाड़ में भारी जलकष्ट के बावजूद पानी बेचने का धंधा चालू न हुआ था। पर धर्मशाला से नीचे उतरते ही सर्वत्र पानी खरीदकर पीने की मजबूरी ने राजधानी के प्रति मेरे मन में वितृष्णा पैदा कर दी। फिर मन्त्रालयों में राजनेताओं, अफसरों और मन्त्रियों के काम काज और लालफीताशाही से जल्दी ही राजधानी से मेरा मन उचाट हो गया। उन दिनों में रात को लोग दिल्ली में चाँदनी चौक जैसे इलाके में खुल्ले में चारपाई डाल कर सोते थे। सुरक्षा इंतजाम मन्त्रालयों में भी नदारद था। यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री कार्यालय में पीसी अलेक्जेंडर के कक्ष में हम आराम से बैठकर बतिया सकते थे।

मालूम हो कि हमने लगभग पन्द्रह दिनों की मेहनत से वह रपट तैयार की, टाइप करवाया और प्रधानमन्त्री कार्यालय को जमा करने के बाद डाक से तमाम मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों और राष्ट्रपति को भी भेजा। इस रपट के साथ भारतीय रेलवे की दुर्दशा पर भी पिताजी के अनुभवों की एक लम्बी दास्ताँ लिखी गयी थी। जिसे भी सम्बंधित मन्त्रियों से लेकर प्रधानमन्त्री तक को सौपा गया। पावती पर धन्यवाद के औपचारिक पत्रों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। और तभी मैंने पिताजी से साफ-साफ कह दिया कि इस तरह मैं मन्त्रालयों का चक्कर काट नहीं सकता। सत्ता दलों की कोई दिलचस्पी शरणार्थी समस्या हल करने में नहीं है। तभी से पिताजी के खास मित्रों नारायण दत्त तिवारी और केसी पन्त समेत तमाम नेताओं से मेरी दूरी हजारों योजन की हो गयी।

बहरहाल इसी दौड़ भाग के मध्य पिताजी ने दिल्ली दर्शन की मेरी आकाँक्षा पूरी करने में कोई कोताही नहीं की। पिताजी सबसे पहले मुझे राजघाट ले गये। फिर शांतिवन और फिर विजय घाट। फिर नम्बर लगा तीन मूर्ति भवन का। उसके बाद 30 जनवरी रोड पर स्थित गाँधी स्मारक भवन का। चूँकि जीआईसी में ताराचन्द्र त्रिपाठी के कब्जे में मैं पहले ही आ चुका था और बांग्ला के बदले हिन्दी में लिखना शुरु कर चुका था। कवितायें छपने लगी थीं और कहानियाँ भी लिखने लगा था। चारों तरफ नजर रखने और चीजों को बारीकी से देखने की आदत हो गयी थी। गाँधी स्मारक में दोपहर के वक्त रिसेपशनिस्ट कन्या से मिलने आये उनके पुरुष मित्र की बातचीत में किशोरसुलभ दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही थी। खासकर, हम जिस माहौल में थे, लड़के और लड़कियों में सहज वार्तालाप या मुलाकात की कोई सम्भावना नहीं थी। लड़कियाँ स्कूलों और कालेजों में झुण्ड में रहती थीं, उनके साथ एकान्त की कल्पना की जा सकती थी, हकीकत में ऐसा बहुत कम हो पाता था जो बहुत मन को भा जाती थीं और जिसके बिना जीना मुश्किल होता था, उससे बतियाने का कोई जुगाड़ बन ही नहीं पाता था।

लेकिन इस जोड़ी ने गाँधी स्मारक में बैठे स्मारकों और समाधियों के खिलाफ जो चर्चा की, उसने उस वक्त हमारे मन में तमाम सवाल खड़े कर दिये थे। मसलन वे कह रहे थे कि दिल्ली में जिन्दा लोगों को दो गज जमीन मयस्सर नहीं, पर स्मारकों और समाधियों के लिये इतना तमाम तामझाम और हजारों एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा!

दिल्ली में महात्मा गाँधी के समाधि स्थल राजघाट, जवाहरलाल नेहरू के समाधि स्थल शान्तिवन, लालबहादुर शास्त्री के समाधि स्थल विजय, इंदिरा गाँधी के समाधिस्थल शक्ति स्थल से लेकर चरणसिंह के समाधि स्थल किसान घाटऔर जगजीवनराम के समाधि स्थल समता स्थल जैसे अति महत्वपूर्ण स्मारक स्थल हैं। दिल्ली तो है दिल वालों की। दिल्ली के इतिहास में सम्पूर्ण भारत की झलक सदैव मौजूद रही है। अमीर ख़ुसरो और ग़ालिब की रचनाओं को गुनगुनाती हुयी दिल्ली नादिरशाह की लूट की चीख़ों से सहम भी जाती है। चाँदनी चौक-जामा मस्जिद की सकरी गलियों से गुज़रकर चौड़े राजपथ पर 26 जनवरी की परेड को निहारती हुयी दिल्ली 30 जनवरी को उन तीन गोलियों की आवाज़ को नहीं भुला पाती जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सीने में धँस गयी थी।

आज करीब चालीस साल बाद वह जोड़ा कहाँ और किस हाल में होगा, एक साथ या अलग अलग, उनका नाम भी हमें नहीं मालूम, पर उनकी कहीं बातें सिलसिलेवार ढंग से याद आ रही है। क्योंकि अन्ततः भारत सरकार ने एक सकारात्मक फैसला किया है कि अब किसी भी राष्ट्रीय नेता के निधन पर  राजधानी में कोई समाधि नहीं बनेगी। अब राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधानमन्त्रियों, पूर्व राष्ट्रपतियों, आदि के अन्तिम संस्कार राष्ट्रीय स्मृति समाधिस्थल पर किये जायेंगे।

प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को हुयी कैबिनेट की बैठक में यह फैसला किया गया कि अब किसी भी नेता के मरने पर उसकी अलग से समाधि नहीं बनाई जायेगी। सिद्धान्त रूप में यह फैसला 2000 में ही कर लिया गया था। सरकार का मानना है कि राजघाट के पास कुछ समाधि स्थल बनाये जाने से काफी जगह घिर गयी है। जगह की कमी को देखते हुये यह फैसला करना पड़ा कि समाधि परिसर को राष्ट्रीय स्मृति के रूप में विकसित किया जायेगा। यहाँ दाह संस्कार के लिये जगह बनाने के साथ ही लोगों के लिये भी पर्याप्त जगह छोड़ी जायेगी। यह जगह एकता स्थल के पास होगी।

मजे की बात तो यह है कि इसके बावजूद इस क्रान्तिकारी फैसले के साथ ही कैबिनेट ने महात्मा गाँधी से जुड़े स्थानों को विकसित करने के लिये गाँधी धरोहर मिशन शुरू करने का फैसला किया है। इसके लिये 39 मुख्य स्थानों को चुना गया है। इससे पहले पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल व महात्मा गाँधी के प्रपौत्र गोपाल कृष्ण गाँधी की अध्यक्षता में बना पैनल  स्थानों को चिह्नित कर चुका है।अगर गाँधी के नाम पर स्मारकों का कारोबार जारी रहता है, तो अंबेडकर और दूसरों के नाम पर क्यों नहीं?

इस फैसले से केन्द्र सरकार की मंशा समझ में आने लगी है। जगजीवनराम और चरण सिंह के निधन के बाद समाधिस्थल को लेकर जो बवाल मचा था, उसके मद्देनजर भविष्य में ऐसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही असल मकसद है और कुछ नहीं। इसके साथ ही पहले से बने हुये समाधि स्थल और स्मारक समाधियों और स्मारकों की भीड़ में कहीं गायब न हो जाये, इसे रोकने का भी पुख्ता इंतजाम हो गया है। आखिर यह भी एक तरह का स्थाई आरक्षण ही हुआ। अतिक्रमण रोकने के लिये चहारदीवार बना दी गयी!

No comments:

Post a Comment