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आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा: आनंद तेलतुंबड़े

आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा: आनंद तेलतुंबड़े

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/18/2015 03:40:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े
'पुलिस की भूमिका राज्य की कानून-व्यवस्था को देखना है, न कि कानून-व्यवस्था की समस्या को पैदा करना है.'
-देबरंजन, ओडिशा के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता

संयुक्त राज्य फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) के बदनाम मुखिया जे. एडगर हूवर ने 15 जून 1969 को ऐलान किया था, 'बिना किसी शक के, ब्लैक पैंथर पार्टी देश की आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है' और यह प्रतिज्ञा की थी कि 1969 पार्टी का आखिरी साल होगा. करीब छह दशकों के बाद, भारत में हूवर के एक हकीर समकक्ष ही नहीं बल्कि उसके सबसे पढ़े-लिखे बताए जानेवाले प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उस बात को नक्सलवादियों के संबंध में दोहराया. लेकिन उनके लिए उनके खात्मे की तारीख का ऐलान करना मुमकिन नहीं था, भले ही उन्होंने एक व्यापक ऑपरेशन ग्रीन हंट और सबसे असंवैधानिक सलवा जुडूम के जरिए नक्सलवादियों पर एक पूरी की पूरी जंग शुरू कर दी थी, जिसमें आदिवासियों को आदिवासियों के खिलाफ खड़ा किया गया था, क्योंकि वे जानते थे कि नक्सलवादी गरीबों और आदिवासियों में घुले-मिले थे और उनकी अपनी जगहों में उनके वजूद की चिंताओं की रहनुमाई करते थे. 

जब एक तरफ अपने ही लोगों के खिलाफ एक खुलेआम जंग और दूसरी तरफ विकृत सलवा जुडूम को नागरिक अधिकार समूहों और सरोकारी बुद्धिजीवियों ने सवाल करना शुरू किया तो सरकार ने बड़े जोर-शोर से यह प्रचार शुरू किया कि नक्सलवादी अपना शहरी जाल बनान में लगे हैं और इस तरह सरकार ने इशारों इशारों में यह धमकी भी दी कि नक्सलवादियों के खिलाफ सरकारी कार्रवाइयों की आलोचना में एक शब्द भी नक्सलवादियों की हिमायत माना जाएगा और उन्हें राज्य के गुस्से का सामना करना पड़ेगा. इसने एक नेकदिल डॉक्टर बिनायक सेन को गिरफ्तार करके और उन्हें आजीवन कारावास देकर एक मिसाल भी पेश की, जिनका अवाम की सेवा करने का एक बेदाग रेकॉर्ड था. उनकी गलत इरादों के साथ कैद के खिलाफ भारी सार्वजनिक निंदा के बावजूद उन्हें जमानत से लगातार महरूम रखा गया. विरोध देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ से हुआ, जिसमें नोबेल पुरस्कार विजेताओं का एक समूह भी शामिल था. उन्हें 47 महीनों तक जेल में बिताने के बाद छोड़ गया, लेकिन इस पर भी यह साफ संदेश तो चला ही गया कि ताकतवर राज्य के खिलाफ आवाज उठाने वाले किसी भी इंसान का क्या अंजाम हो सकता है. बेशक, उनके बाद अनेक दूसरे लोगों की गिरफ्तारियां भी हुईं, जिनके मामलों ने साबित किया कि उनकी गिरफ्तारियां पूरी तरह गैरवाजिब थीं, लेकिन यह भी उनके 3-4 साल जेल में बिता चुकने के बाद ही हुआ और जिन्हें मीडिया में 'खूंखार नक्सलाइट' होने की बदनामी उठानी पड़ी. जनता से अच्छे दिन का वादा करके भारी जीत की मंजिल तक पहुचने वाले नरेंद्र मोदी ने यह साबित करने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया कि वे असल में अपने पहले के शासकों के उसी पुराने बुरे दिन को ही और तेज करने वाले हैं. उनके शासन ने पिछले प्रधानमंत्री से भी आगे बढ़ कर यह ऐलान किया है कि नक्सली बुद्धिजीवी (समझें, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता) हथियारबंद कैडरों से ज्यादा खतरनाक हैं. यह ऐलान उसने किसी और के सामने नहीं बल्कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में किया है, जो संविधान का सर्वोच्च संरक्षक है. गरीब अवाम के नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ जो लोग आवाज उठाते हैं, उन सभी के खिलाफ साफ साफ धमकियों के रूप में राज्य का आतंक पूरे देश को अपनी चपेट में ले रहा है.

देबा का 'दर्दनाक अनुभव'

14 अगस्त को बीस नागरिक अधिकार और जनवादी अधिकार संगठनों के एक संघ, सीडीआरओ (कोऑर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स ऑर्गेनाइजेशन) के सभी सदस्यों को ओडिशा के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता देबरंजन की तरफ से एक भयानक ई-मेल हासिल हुआ. उन्हें इस दायरे में देबा के नाम से जाना जाता है. मेल में उनके द्वारा मल्कानगिरि के हालिया दौरे के दौरान हुए भयावह अनुभव के बारे में बड़ी मायूसी से बताया गया था. वहां वे जिले के आदिवासियों की जमीन की समस्या और खेती के हालात पर अपनी डॉक्यूमेंटरी की शूटिंग करने के लिए गए थे. डेबा इस इलाके के लिए अजनबी नहीं हैं, उन्होंने अनेक फैक्ट फाइंडिंग अभियानों में भागीदारी, लेखन (बानगी के बतौर देखिए countercurrents.org और academia.edu) और फिल्मों के जरिए आदिवासी जनता के आंदोलनों के साथ लगातार वाकिफ रहे हैं. उनकी रिपोर्टें पढ़ने और फिल्में देखने वाला कोई भी समझदार इंसान नहीं कह सकता कि वे नक्सलवादियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं. लेकिन यह बात राज्य को उन्हें निगरानी में रखने और उनका उत्पीड़न करने से नहीं रोक पाई.

देबा ने खबर दी है कि 8 अगस्त को उनके मल्कानगिरि में पहुंचने के बाद अनेक नक्सल-विरोधी सशस्त्र बलों ने तपोभूमि ट्रस्ट गए, जहां वे ठहरे हुए थे, और इस पर जोर दिया कि वे और ट्रस्ट का एक ट्रस्टी उनके साथ चले. चूंकि उन बलों ने अपनी पहचान को जाहिर नहीं किया था, देबा ने उनकी बात मानने से मना कर दिया और उन्हें कहा कि अगर वे अपने बॉस का नाम-पता दें तो वे उनसे शाम में आकर मिल लेंगे. चूंकि वे उन्हें 'देबराज' कह रहे थे, इसलिए देबा ने सोचा कि यह गलत पहचान का मामला हो सकता है. लेकिन अगले दिन जब वे उडुपी गांव में शूटिंग कर रहे थे, तो स्पेशल ब्रांच ऑफ इन्वेस्टिगेशन के कुछ अधिकारी जिनके नाम अशोक पारिदा, जगन्नाथ राव नाम था, और एक सिपाही प्रधान (जैसा उन्होंने अपना परिचय दिया) उनसे दोपहर के करीब 1 बजे मिलने आए और एक घंटे से ज्यादा समय तक उनसे उनकी गतिविधियों, जीएएएस (गणतांत्रिक अधिकार सुरख्या संगठन) से उनके संबंध और मल्कानगिरि दौरे के मकसद के बारे में पूछताछ की. उन्होंने उनके सभी सवालों के जवाब देते हुए उनसे सहयोग किया. लेकिन शाम को जब वे अधिकारी उस जगह पर आए जहां वे कैंप कर रहे थे तो उन्होंने उनकी बात और सुनने से मना कर दिया. बाद में जब वे लौटने की तैयारी कर रहे थे, तो सादी वर्दी में एक महिला पुलिस इंस्पेक्टर (उसने अपना नाम सुनीता दास बताया) अपनी यूनिट के साथ वहां आई. उसने आरोप लगाया कि उन्होंने चंपाखारी गांव में सवेरे एक महिला के साथ छेड़छाड़ की है. उसने दबाव देकर कहा कि वे उसके वाहने में उसके साथ मल्कानगिरि पुलिस थाने चलें. ऐसे आरोप से स्तब्ध देबा ने एफआईआर की प्रति मांगी, लेकिन पुलिसकर्मी ने यह उन्हें नहीं दिया. देबा ने उसके साथ जाने से मना कर दिया और कुछ घंटों के बाद अपनी बाइक पर वहां से रवाना हुए. उस रात करीब 1 बजे अनेक पुलिसकर्मी शिविर में उनके बारे में पूछते हुए आए और उनके कैमरामैन और ट्रस्ट के एक कर्मचारी को उठा लिया. उन्हें एक दिन तक हिरासत में रखा गया. बाद में, पुलिस ने उन्हें इंटरव्यू देने वाले स्थानीय आदिवासियों को, और स्थानीय रूप से सहायता करने वाले शिक्षकों को सताना शुरू कर दिया था. 16 अगस्त को यह मांग करते हुए उन्हें छेड़छाड़ के आरोप के संबंध में एक नोटिस भेजा गया (यू/एस 294 294/341/323/354/354-B/506(ii) आईपीसी) कि वे 23 अगस्त को मल्कानगिरि पुलिस थाने में हाजिर हों. घटनाओं के सिलसिले को देखते हुए कोई भी समझदार इंसान यह देख सकता है कि यह पूरा आरोप ही गढ़ा हुआ था और उन्हें हमेशा की तरह नक्सलियों के साथ संबंध होने के आरोप के बजाए सामाजिक रूप से एक घिनौने आरोप में फंसाने की शायद यह एक बड़ी होशियारी भरी साजिश थी. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उन्हें देबा के खिलाफ ऐसा कुछ नहीं मिलता. लेकिन इसने उनका मकसद तो पूरा किया ही, कि देबा को छुपना पड़ा, अपनी गतिविधियां रोक देनी पड़ी और शायद उन्हें इन आरोपों से लड़ने के लिए बरसों तक इसमें उलझे रहना होगा.

फिर से हूवर

ह्यूई न्यूटन के जीवन पर एक फिल्म थी अ ह्यूई पी. न्यूटन स्टोरी (2001) जिन्होंने बॉबी सील के साथ मिल कर अक्तूबर 1966 में वामपंथी ब्लैक पैंथर पार्टी फॉर सेल्फ डिफेंस की स्थापना की थी. फिल्म में न्यूटन ने, जिनकी भूमिका एक एकल अभिनेता रॉजर गुएनवर स्मिथ ने निभाई थी, अनुभव पर आधारित बयान दिया था जो शायद सच पर आधारित था, 'अगर आप एफबीआई फाइलें पढ़ें तो आप देखेंगे कि खुद मि. जे. एडगर हूवर को भी कहना पड़ा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बंदूकें नहीं थीं...सबसे बड़ा खतरा था फ्री चिल्ड्रेन्स ब्रेकफास्ट प्रोग्राम...'। यह फ्री चिल्ड्रेन्स ब्रेकफास्ट प्रोग्राम एक सीधा-सादा लगने वाली सामुदायिक योजना थी, जिसको एक ओकलैंड चर्च में कुछेक बच्चों को खाना देते हुए ब्लैक पैंथर्स ने जनवरी 1969 में शुरू किया था लेकिन यह साल के अंत तक यह इतना मशहूर हो गया था कि यह 19 शहरों में फैल गया था, जिसमें 20,000 से ज्यादा बच्चों को अपने ग्रेड या जूनियर हाई स्कूल जाने से पहले पूरी तरह से मुफ्त नाश्ता (ब्रेड, बेकन यानी सुअर नमक लगा मांस, अंडे और ग्रिट्स) मिलता था. हालांकि यह मुख्यत: काले मुहल्लों में ही संचालित होता था, लेकिन इसमें सिएटल के आंशिक रूप से मध्यवर्गीय मुहल्ले समेत दूसरे समुदायों के बच्चों को भी खाना मिलता था.

इसने अमेरिका में भूख और गरीबी के बारे में जनता की चेतना में इजाफा किया और यह उन्हें ब्लैक पैंथर पार्टी की विचारधारा के करीब ले आया. इसने काले समुदाय की गहरी जरूरतों और पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच और क्षमता दोनों को ही अपनी आवाज दी. हूवर ने असल में इसे एक 'घुसपैठ' के रूप में दर्ज किया. भारत सरकार ठीक ऐसा ही सोचती है; प्रगतिशील अभिव्यक्तियां जिन प्रतिकूल विचारों की रहनुमाई करती हैं, उनकी घुसपैठ से सरकार चिंतित है. यह नक्सलवादियों के बंदूकों से नहीं डरती, यह उस गैर बराबरी से डरती है, जिसका प्रतिनिधित्व नक्सलवादी करते हैं. यह नक्सलवादी विचारधारा नहीं, वह चाहे जो भी हो; बल्कि यह निरी असहमति है, सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ समझौताविहीन विरोध है, जो सरकार को डराता है. यह सब पूरे मामले को गरीबों का संबल बनने, जनवादी अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ बोलने, सरकारी कार्रवाइयों की संवैधानिकता पर सवाल उठाने तक सीमित कर देता है. यह सीधी-सादी अवाम में खौफ की एक मानसिकता पैदा करना चाहती है कि शहरी इलाकों में नक्सलवादियों का जाल है. असल में ऐसा कोई जाल शायद नहीं ही हो, क्योंकि अनेक लोग नक्सलवादियों की विचारधारा और उनके तौर-तरीकों से शायद सहमत न हों. लेकिन फिर भी ऐसे अनेक लोग हैं जो गरीब अवाम पर सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ बोलते हैं, जिससे उन पर नक्सलवादी होने का लेबल लग जाता है.

एफटीआईई विवाद

जब मैं यह लिख रहा हूं, पुणे में एफटीआईआई के आंदोलनकारी छात्रों पर आधी रात में होने वाली कार्रवाई और उनमें से पांच की गिरफ्तारी की खबर टीवी पर आ रही है. जो लोग सरकार द्वारा 'नक्सलवादियों के शहरी आधारों' को निशाना बनाने और एफटीआईआई छात्रों की गिरफ्तारी के बीच कोई संबंध नहीं देखते, उन्हें भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा पिछले महीने (10 जुलाई) को दिया गया एक बयान याद दिलाया जा  सकता है कि एफटीआईआई के आंदोलनकारी छात्र नक्सलवादी हैं. असल में इस नवउदारवादी वक्त में उनके प्रतिरोध की मजबूती को देखते हुए सरकार के सूंघनेवाले जीवों को उसमें से यकीनन नक्सलवाद की ही गंध आएगी. जो भी हो, गजेंद्र चौहान, जिसकी प्रतिष्ठित एफटीआईआई के समाज का मुखिया बनने की काबिलियत की सबसे बड़ी कमी अब सार्वजनिक जानकारी बन गई है, ऐसी कोई तोप हस्ती नहीं है जिसको बचाने के लिए सरकार इतने लंबे समय तक इतनी भारी बदनामी मोल लेना चाहेगी. फिल्म उद्योग और प्रगतिशील भारत की सारी शख्सियतें छात्रों की मांगों की हिमायत में सामने आई हैं और सरकार से उनको मान लेने की मांग की है. भारी चर्चा में रहीं देवी राधे मां के भक्त के रूप में चवण का भंडाफोड़ से भी सरकार की शर्मिंदगी में इजाफा ही होना चाहिए. लेकिन इन सबके बावजूद सरकार 'नक्सलवादियों' को जीत जाने की छूट नहीं देगी. यह साफ है. एफटीआईआई के छात्रों का आंदोलन एक असहमति का प्रतिनिधित्व करता है, यह सरकारी फैसले के औचित्य पर सवाल उठाता है, यह संस्थानों का भगवाकरण के बदनीयत मंसूबे को उजागर करता है और फासीवादी मानसिकता के खिलाफ एक जनवादी चुनौती खड़ी करता है. अगर इसे छूट दी गई, तो यह संक्रामक हो सकता है, सैन्यवादी शासकों के मकसद को ही खतरे में डाल देगा.

बुरा तर्क नहीं है! बस इसमें यही एक खामी है कि उनका सामना छात्रों से है, जो उस 'सबसे बड़े खतरे' से कहीं ज्यादा बड़ा खतरा हो सकते हैं, जिसे उन्होंने अब तक जाना है.


अनुवाद: रेयाज उल हक

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