Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Wednesday, August 1, 2012

कैसे मनाएं कंधमाल की बरसी

कैसे मनाएं कंधमाल की बरसी

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/25363-2012-07-31-05-48-42
Tuesday, 31 July 2012 11:17

जॉन दयाल
जनसत्ता 31 जुलाई, 2012: इस साल चौबीस अगस्त को कंधमाल की घटना को चार वर्ष पूरे हो जाएंगे। बंदूकों और कुल्हाड़ी के जरिए यह खूनी तांडव कई हफ्तों तक चलता रहा। तीन हफ्तों तक चली हिंसा की घटनाओं के महीनों बाद भी हिंसा की छिटपुट घटनाएं तीन महीने तक होती रहीं। उपद्रवियों से अपनी जान बचाने के लिए बावन हजार से ज्यादा लोगों को जंगलों में पनाह लेने को मजबूर होना पड़ा। करीब छह हजार घरों को आग के हवाले कर दिया गया, जबकि तीन सौ से ज्यादा धार्मिक स्थल और चर्च द्वारा संचालित संस्थान नष्ट कर दिए गए। साथ ही लगभग सौ लोगों को निर्मम तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया, जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं। इस मामले में सिर्फ एक व्यक्ति को दोषी पाया गया। जबकि अन्य मामलों में गंभीर खामियों के साथ की गई जांच और उसकी रिपोर्ट, आतंकित चश्मदीदों के मुकरने और न्यायालय के निष्क्रिय रवैये के चलते मुख्य अपराधी कानून के फंदे से बचने में कामयाब रहे।
सैकड़ों परिवार अब भी बेघर हैं। चर्च की ओर से भारी मदद दिए जाने के बावजूद सैकड़ों घरों का पुनर्निर्माण अभी तक पूरा नहीं हो पाया है, क्योंकि बहुत सारे लोग अब भी पैसा हड़पने की जुगत में लगे हुए हैं। वहीं हजारों बेरोजगार पड़े हुए हैं जबकि सैकड़ों बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से हाथ धोना पड़ा और स्थानीय लोगों का अभी अपना कारोबार खड़ा करना बाकी है। मानवीय तौर पर देखा जाए, तो पूरे कंधमाल को मानसिक आघात से बाहर निकलने के लिए चिकित्सकीय और मनोवैज्ञानिक सहयोग की सख्त जरूरत है। उपद्रवियों के खौफ का अंदाजा एक पादरी की इस बात से सहज ही लगाया जा सकता है। उनका कहना है कि ''मुझे आज भी अपने इलाके में वापस लौटने से डर लगता है। मैं अभी तक उस खौफ से उबर नहीं पाया हूं।''
राहत और पुनर्वास कार्यक्रम पर चर्च ने करोड़ों रुपए खर्च किए, लेकिन उनके प्रयासों में तालमेल का अभाव स्पष्ट झलकता है। चर्च ने हिंसा के दौरान पहले महीने से ही शरणार्थियों के भोजन से लेकर आवासीय पुनर्निर्माण के लिए प्रत्येक प्रभावित परिवार को तीस हजार रुपए तक की राशि दी, क्योंकि सरकार की ओर से दी जाने वाली बीस से पचास हजार रुपए की आर्थिक मदद नाकाफी थी। स्थान और आकार के लिहाज से एक घर के पुनर्निर्माण पर सत्तर हजार से एक लाख रुपए तक का खर्च आ रहा था। ज्यादातर मामलों में नष्ट किए गए घर पुनर्निर्माण के तहत बनाए गए घरों से बड़े थे। लेकिन इस पर किसी ने विचार नहीं किया कि इतनी कम रकम में कोई परिवार कैसे घर बना सकेगा और जरूरत की घरेलू चीजें जुटा पाएगा।
भ्रष्टाचार का आरोप वैसे तो किसी चर्च पर  नहीं लगाया जा रहा है लेकिन प्रत्येक चर्च- कैथोलिक, प्रोस्टेंट, इवैजेंलिकल और पेंटीकॉस्ट- को कंधमाल में 2007 से अब तक किए गए खर्च का ब्योरा तैयार करने की जरूरत है। जाहिर है कि आर्थिक मदद मुहैया कराने वाली एजेंसियां और देश और दुनिया भर के उदार चर्च यह उम्मीद करेंगे और जानना चाहेंगे कि उनके दान किए धन से पीड़ितों को कितना लाभ हुआ। यहां प्रार्थना स्थलों के पुनर्निर्माण में सरकारी सहायता बिल्कुल नहीं मिली है। ऐसी स्थिति में भारत में ईसाई समुदाय के खिलाफ हुई इस हिंसा की चौथी बरसी का अवलोकन, प्रार्थना और विरोध के अलावा कैसे किया जाए।
मेरे विचार से न्याय के लिए संघर्ष के रूप में इसका अवलोकन किया जाए। यही सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। ओड़िशा ही नहीं, गुजरात जैसे राज्य को भी संवैधानिक सबक सीखने की जरूरत है, जहां वर्ष 2000 में मुसलिम समुदाय का निर्मम जनसंहार हुआ। इसके अलावा, 1984 में सिख समुदाय के खिलाफ दिल्ली समेत देश के तमाम शहरों में भारी रक्तपात हुआ था। सिख वकीलों, सेवानिवृत्त जजों और विधवाओं ने न्याय के लिए लड़ने का हमें उल्लेखनीय सबक सिखाया है। अपने खिलाफ जनसंहार की घटना के दशकों बाद भी उनके उत्साह में रत्ती भर कमी नहीं आई है। उन्होंने अपने जुनून की बदौलत न्याय की लड़ाई में उल्लेखनीय कामयाबी हासिल की है जिसका नतीजा निश्चित रूप से फलदायी रहा।
सिख समुदाय ने दिखा दिया है कि संघर्ष के जरिए उचित राहत और मुआवजा हासिल किया जा सकता है। उन्होंने सिविल सोसायटी के साथ प्रभावशाली संपर्क बनाया, जिसने रक्तपात के जिम्मेदार लोगों को माफी मांगने को मजबूर किया। साथ ही सिख दंगों के लिए जिम्मेदार ताकतवर राजनीतिकों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित कराई है। वहीं मुसलिम समुदाय ने न्याय के लिए नागरिक और राजनीतिक साधनों का प्रयोग किया है और इस तरह सिविल समाज के साथ अपने नेटवर्क की प्रासंगिकता को साबित किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात मामले में कई ऐसे फैसले दिए जिनसे न्याय सुनिश्चित हो सका है। कुल मिला कर उम्मीद है कि राजनेता, पुलिस अफसर और न्यायिक पदों पर बैठे लोग अपराध के लिए जिम्मेदार लोगों की सजा मुकम्मल करेंगे।
कंधमाल मामले

में भी आर्कबिशप राफेल चीनाथ के सुप्रीम कोर्ट जाने पर ही सफलता मिली। कोर्ट के आदेश पर हिंसा प्रभावित जिलों में राहत-कार्य करने पर कलेक्टर कृष्ण कुमार द्वारा ईसाई संगठनों पर लगी रोक हटानी पड़ी। इसके बाद चीनाथ उचित राहत और पुनर्वास की मांग लेकर दोबारा कोर्ट की शरण में पहुंचे।
एक धार्मिक समूह ने कंधमाल जिले में हुई हत्याओं के मामलों की नए सिरे से जांच करने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। हम चर्च और पीड़ितों से हत्या के सभी मामलों में दोबारा सुनवाई शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए कहते रहे हैं। क्योंकि त्वरित न्यायालयों की सुनवाई से न्याय की एक तरीके से हत्या ही की गई है।
कंधमाल मामले में सरकार और प्रशासन को साथ मिल कर काम करने की जरूरत है। किसी भी तरह का सहयोग (राशि के रूप में) या दान देने के बजाय जरूरत इस बात की है कि सरकार प्रशासन के जरिए कंधमाल में घरों के पुनर्निर्माण का पूरा खर्च उठाए। बजाय इसके कि अधिकारी मनमर्जी तरीके या अपनी इच्छा से कुछ सीमित आर्थिक राशि देने की घोषणा कर दें। बिना यह जाने कि एक घर के निर्माण में र्इंट, सीमेंट, स्टील, लकड़ी और एस्बेटस या स्टील की चादर की वास्तव में कितनी आवश्यकता हो सकती है।
यह बात हमारे मामलों में भी लागू होती है। यह तो सरकार का काम है कि वह लोगों के लिए रोजगार स्थापित करे। हल्दी और अदरक जैसे स्थानीय कारोबार और स्व सहायता समूहों को दोबारा खड़ा करे। तभी चर्च के राहत-कार्य का टिकाऊ नतीजा निकलेगा और वहां उजड़ चुके लोगों का जीवन फिर से पटरी पर लाया जा सकेगा। इस कड़ी में गुजरात दंगे को लेकर आए फैसले का जिक्र करना बेहद जरूरी है।
सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में क्षतिग्रस्त किए गए पांच सौ से ज्यादा धार्मिक स्थलों को मुआवजा देने के गुजरात हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। मुआवजा नहीं देने की मोदी सरकार की मांग को गुजरात हाईकोर्ट ने इस साल आठ फरवरी को खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने गुजरात सरकार से क्षतिग्रस्त किए गए धार्मिक स्थलों का और उनके पुनर्निर्माण पर आने वाली वास्तविक लागत का विवरण पेश करने को कहा था। इस पर राज्य सरकार ने दलील दी थी कि सार्वजनिक कोष का इस्तेमाल धार्मिक प्रयोजनों के लिए नहीं किया जा सकता।
लेकिन मोदी सरकार यह तर्क पेश करते हुए भूल गई कि उसने कुछ ही साल पहले शबरी कुम्भ पर करोड़ों रुपए बेहिचक दिल खोल कर खर्च किए थे। एक स्वयंसेवी संगठन 'इस्लामिक रिलीफ कमेटी आॅफ गुजरात' की याचिका पर हाईकोर्ट के कार्यवाहक न्यायाधीश भास्कर भट््टाचार्य और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने पांच सौ से ज्यादा क्षतिग्रस्त धार्मिक स्थलों को मुआवजा देने का आदेश दिया था। हाईकोर्ट ने साथ ही गुजरात के सभी छब्बीस जिलों के न्यायाधीशों को भी यह आदेश दिया कि वे अपने जिले में धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण से जुड़े मुआवजे के आवेदनों को स्वीकार कर उस पर फैसला करें। उनसे इस संबंध में छह महीने के भीतर अपने फैसले भेजने को कहा गया है। हमें इस दिशा में सक्रिय होने की जरूरत है।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन सिख विरोधी दंगें हों या गुजरात जैसे जनसंहार, मीडिया के बड़े हिस्से की भूमिका पर सवाल खड़े होते रहे हैं। सांप्रदायिक दंगों के मामलों में मीडिया के बड़े हिस्से की भूमिका पर प्रेस परिषद से लेकर दूसरी कई स्वतंत्र जांच एजेंसियों ने गंभीर टीका-टिप्पणी की है। कंधमाल की वारदातों के समय भी हमें ऐसा ही देखने को मिला। कंधमाल की बाबत मीडिया की भूमिका पर कई शोध हुए हैं और उनमें धार्मिक दुराग्रह साफ तौर पर चिह्नित हुआ है। हमें इस बात के लिए माहौल बनाना होगा कि मीडिया की भूमिका जब तक धर्मनिरपेक्षता पर आधारित नहीं होगी तब तक लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के उसके दावे को सही नहीं माना जा सकता।
कंधमाल के मामले में मुकम्मल न्याय पाने का रास्ता अभी तय करना है। किसी को दान या आर्थिक सहायता देना आसान है, मगर न्याय के लिए संघर्ष करना आसान नहीं। जबकि न्याय की खातिर संघर्ष के जरिए ही किसी समाज के स्वाभिमान और आत्म-विश्वास को जीवित और सक्रिय बनाए रखा जा सकता है।
इस काम के लिए समय, पैसे और एक ऐसी टीम की जरूरत है जिसे हार कतई स्वीकार न हो। कहें कि चार वर्ष पूर्व हमलों के शिकार परिवारों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष को मिशन मानने वाले कार्यकर्ताओं के एक समूह की जरूरत है। कंधमाल में हुए हमले का असर पूरे समाज पर हुआ है तो संघर्ष के जरिए ही पूरे समाज में ऊर्जा का संचार किया जा सकता है। कंधमाल के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की खातिर ऐसे ही संघर्ष का संकल्प लेने की जरूरत है।
 
 

आप की राय

क्या सुशील कुमार शिंदे देश के एक कामयाब गृह मंत्री साबित होंगे?
 

No comments:

Post a Comment