कौम को कौम के मुंह पर बुरा कहने को हैं...
लोगों पर गमों का पहाड़ टूटा है, मगर कोई धर्मावंलंबी सहायता के लिये आगे नहीं आया, जबकि धर्म के ठेकेदारों के गोदाम भरे पड़े हैं. अकेले कालाधन विरोधी बाबा रामदेव के पास 11000 करोड़ रुपये की सम्पत्ति है. आर्ट ऑफ़ लिविंग वाले श्री श्री रविशंकर की अनुमानित संपत्ति 10000 करोड़ से ज्यादा है...
वसीम अकरम त्यागी
'कुछ न पूछो आज हम लेक्चर में क्या कहने को हैं, कौम को खुद कौम के मुंह पर बुरा कहने को हैं...' किसी शायर का ये शेर उत्तराखंड में आई आपदा के संदर्भ में फिट बैठताहै . उत्तराखंड में आई प्राकृतिक से शायद ही कोई वाकिफ न हो. देश से लेकर विदेश तक इस आपदा से परिचित हैं. यह ठीक है कि वहां का संतुलन धार्मिक स्थलों पर होने वाला बाजारवाद है, लेकिन सवाल है कि उसके लिये जिम्मेदार है कौन.
अब जब आपदा आ ही गई है, तो वहां पर फंसे लोगों को बचाने की जिम्मेदारी आखिर है किसकी. पुलिस, सेना, सरकार, आम जनता, स्वयंसेवी संस्थाओं या फिर धार्मिक लोगों की, क्योंकि अभी तक पूरी त्रासदी से वे लोग नदारद हैं जिनकी दुकानें ही धर्म के नाम पर चलती हैं. चाहे लोगों को उल्टी-सीधी साँसेंदिलाकर उन्हें नट की तरह तमाशा दिखाने वाले बाबा रामदेव हों या आसाराम बापू, श्रीश्री रविशंकर हों या फिर दुनिया में सबसे अधिक चर्चा में रहने वाले इस्लाम के अनुयायी. क्या धर्म के नाम पर नाम पर मजमे लगाने घंटों लंबी लंबी तकरीरें करना ही धर्म का उद्देश्य है या फिर मरते हुऐ लोगों को बचाना.
गौरतलब है कि जब भाजपा द्वारा चलाया जा रहा राममंदिर आंदोलन अपने चरम पर था, उस वक्त अप्रवासी भारतीयों ने विवादित जमीन पर मंदिर के निर्माण के लिये सोने की ईंट, सोने की मूर्तियां भेजी थीं. जाहिर है इससे भाजपा, वीएचपी, शिवसेना, बजरंग दल, आरएसएस को समबल मिला होगा, लेकिन इतना तो साफ जाहिर हो गया था कि विदेश में रहकर भी लोगों का दिल भारत के लिये इसलिये नहीं धड़कता कि वह एक बहुसंख्यक, बहुभाषायी और बहुधार्मिक देश है, बल्कि उन्हें इस बात का रंज है कि वह हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं है. इसीलिये उन्होंने वे आभूषण भेजे होंगे, जो मंदिरों में मूर्तियों पर चढ़ाये जाते हैं.
मान लिया मंदिर बन गया, लेकिन उसमें पूजा तो इंसान ही करेंगे, न कि जानवर. जब इंसान आपदाओं में बह जायेंगे, उनकी लाशों को चील कौऐ खा जायेंगे तो उसकी देखभाल, पूजा-अर्चना आखिर करेगा कौन? ये बड़ा सवाल उन लोगों के सामने है जो विदेशों में रहकर भी यहां की फिजा को सांप्रदायिक बनाने के लिये खाद-पानी देते हैं.
देश के अन्दर की ही बात करें तो देश में इतने बाबा हो गये हैं जिनके भक्तों की संख्या लाखों में नहीं, बल्कि करोड़ों में है. पिछले दिनों एक और निर्मल बाबा मीडिया में छाये रहे थे. उनके भक्त भी उनके प्रवचन सुनने उनके समागम में जाने के लिये पांच से 10 हजार रुपये तक का टिकिट लेते हैं. जाहिर है वहां प्रवचन सुनाये जाते होंगे, तो यह भी सिखाया जाता होगा इंसान को इंसान से प्रेम करना चाहिये. मुसीबत में एक दूसरे का साथ देना चाहिये, लेकिन अब वो सारे भाषण, प्रवचन, कटुवचन आखिर कहां हैं. क्या अब उनकी जरूरत नहीं है, क्या अब उत्तराखंड मुसीबत में नहीं है.
अफसोस की बात है कि 125 करोड़ की आबादी में से तीन लाख लोगों पर गमों का पहाड़ टूटा है, मगर इसमें कोई धर्मावंलंबी उनकी सहायता के लिये आगे नहीं आया, जबकि धर्म के ठेकेदारों के पास खजाने के गोदाम भरे पड़े हैं, अकेले काला धनविरोधी बाबा रामदेव के पास 11000 करोड़ रुपये की सम्पत्ति है. आर्ट ऑफ़ लिविंग वाले श्री श्री रविशंकर के पास अनुमानित संपत्ति 10000 करोड़ से ज्यादा है. ये वही रविशंकर हैं, जो भाजपा के गृहयुद्ध मंदिर आंदोलन को अपनी मुस्कान से ही सुलझा देते हैं.
सत्य साईं बाबा का नाम तो सबने सुना ही होगा, जिनकी मृत्यु पर क्रिकेट के भगवान सचिन भी फूट-फूटकर रोये थे. राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक सबने मातम मनाया था, उनके ट्रस्ट के पास लगभग 5 अरब रुपये हैं, लेकिन बाढ़ पीड़ितों की मदद के नाम पर ये सबके सब ही इस तरह गायब हुए, जैसे गधे के सर से सींग.
कुछ ऐसा ही हाल इस्लाम धर्म का है. इस्लाम और उसके अनुयायी मुस्लिमों को अल्लाह की पुलिस कहा जाता है. अभी पिछले महीने ही उत्तराखंड से लगे मुजफ्फरनगर में एक बड़ा तबलीगी जमात का जलसा हुआ था, जिसमें लाखों अकीदतमंदों ने हिस्सा लिया था. खूब दीन की बातों पर तकरीरें हुईं, वहीं पास में देवबंद भी है जहाँ लाखों की तादाद में छात्र, इस्लामी और आधुनिक शिक्षा का पाठ पढ़ते हैं, वहीं मदनी परिवार भी बसता है, जिनकी एक आवाज पर ही लाखों मुसलमान दिल्ली के रामलीला ग्राउंड को भर डालते हैं, कितना अच्छा होता अगर वे मुसलमानों से अपील कर देते कि जाओ और जाकर उत्तराखंड में फंसे बाढ़ पीड़ितों को निकालो. इससे देश की गंगा जमुनी तहजीब को और अधिक बल मिल जाता.
दिल्ली के निजामुद्दीन तबलीगी जमात के मरकज़ पर 24 घंटों हजारों की संख्या में जमाती पड़े रहते हैं, जो पूरी दुनिया में दीन की दावत देते हैं. कितना अच्छा होता अगर ये जमाती वहां जाकर बाढ़ पीड़ितों की सहायता करते और दीन की दावत वहां देते. ऐसा नहीं है कि वहां पर फंसे लोगों की मदद केवल एक ही समुदाय कर रहा है, लोग मदद करते रहे हैं, मगर उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में जलसे और जागरणों में हिस्सा लेते हैं.
आये दिन सैक्यूलरिज्म के नाम पर तकरीरें और सेमिनार आयोजित किये जाते हैं, मगर जब परखने का वक्त है तो वे सारे प्रवक्ता सीन से ही नदारद हैं. यहां पर एक सवाल उठना वाजिब है कि क्या सैक्यूलरिज्म, धार्मिक शिक्षा केवल सेमिनारों, जलसे, जागरण तक ही सीमित होकर रह गए हैं ? अगर ऐसा न होता तो जिस उल्लास से लोग धार्मिक कार्यकर्मों में हिस्सा लेते हैं उसी जोश के साथ लोग आपदा पीड़ितों की मदद के लिये आगे आते. मगर ऐसा ऐसा नहीं हुआ. सवाल है कि दुनिया में धर्म तो है, मगर कहां?
वसीम अकरम त्यागी युवा पत्रकार हैं.
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