प्रलय पीड़ा का जिम्मेदार कौन?
अचानक हुई बरसात ने उत्तराखंड के नौ जिलों में भारी तबाही मचा दी है। खासतौर पर केदारनाथ धाम और उसके आस-पास तो 'जल प्रलय' जैसी ही विनाशलीला का मंजर देखने को मिल रहा है। सेना की तमाम मुस्तैदी के बाद भी हजारों यात्री जीवन-मौत के बीच जूझ रहे हैं। इनके बचाव की युद्ध स्तर पर कोशिशें जरूर हो रही हैं, लेकिन खराब मौसम के चलते बचाव के कामों में भी भारी दिक्कतें आ रही हैं। क्योंकि, जगह-जगह सड़कें धंस गई हैं। इससे जमीनी संपर्क टूट गया है। अनुमान है कि इस तबाही के चलते राज्य में पांच हजार करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ है। केदारनाथ और उसके आस-पास भयानक बर्बादी हुई है। अनुमान है कि इसके पुनर्निमाण में कम से कम दो से तीन साल का वक्त लग सकता है। इस आपदा के बाद यह बहस तेज हुई है कि यदि पहाड़ी इलाकों में पर्यावरण के साथ ज्यादा छेड़छाड़ की गई, तो नतीजतन लोगों को प्रकृति के ऐसे ही भयानक प्रकोपों को झेलना पड़ेगा। इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
उत्तराखंड में लंबे समय से पर्यावरण के मुद्दों पर जन-जागरुकता अभियान चलाने वाले अनिल जोशी का मानना है कि पिछले वर्षों में यहां प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन किया गया है। जबकि, पर्यावरण विशेषज्ञ दशकों से यह चेतवानी देते रहे हैं कि हिमालय का यह 'जोन' पर्यावरण के लिए खासतौर पर संवेदनशील है। ऐसे में, यहां अंधाधुंध निर्माण आदि के काम पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन, सरकार ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। इसी का परिणाम है कि उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य जल्दी-जल्दी प्राकृतिक आपदाओं के शिकार होते जा रहे हैं।
जानी-मानी पर्यावरण वैज्ञानिक सुनीता नारायण का सुझाव है कि उत्तराखंड की ताजा तबाही से सबक लेने की जरूरत है। उन्हें हैरानी है कि विशेषज्ञ समितियों की तमाम सिफारिशों को यहां कभी लागू नहीं किया गया। जबकि, बहुत पहले तय हो गया था कि पर्यावरण के लिए अति संवेदनशील क्षेत्र में खनन और बड़े निर्माण पर रोक लग जाए। लेकिन, इस पर कभी अमल नहीं हुआ। तमाम विरोध के बावजूद यहां 70 बांध बनाने की परियोजनाएं चल रही हैं। इनके निर्माण के लिए बेतरतीब ढंग से काम किए गए हैं। इसके चलते ही भू-स्खलन की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। जाने-माने पर्यावरणविद आर के पचौरी को इस बात की हैरानी है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी संवेदनशील हिमालयन जोन की हिफाजत के लिए स्पष्ट रणनीति नहीं तैयार की। यदि सरकारों का यही रवैया रहा, तो प्राकृतिक आपदाएं और भयानक रूप ले सकती हैं।
उल्लेखनीय है कि 16 जून से उत्तराखंड में तेज बारिश का दौर शुरू हुआ। तीन दिन के अंदर ही यहां बरसात का रिकॉर्ड टूट गया। यहां औसत से बहुत ज्यादा बरसात हो गई। इसी के चलते गढ़वाल क्षेत्र में खासतौर पर तबाही हुई है। कोई नहीं जानता कि इस आपदा में कितने लोगों की जान चली गई है। हालांकि, अभी तक सरकारी स्तर पर 150 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है। लेकिन, हवाई सर्वेक्षण करने के बाद खुद प्रधानमंत्री ने बुधवार को कहा था कि जिस तरह की बर्बादी देखने को मिली है, उसमें मरने वालों की संख्या काफी बढ़ सकती है। बिहार के पूर्व मंत्री अश्विनी चौबे अपने परिवार के साथ धार्मिक यात्रा पर निकले थे। वे भी केदारनाथ धाम में फंस गए थे। किसी तरह से वे 11 किमी पैदल चलने के बाद अपनी जान बचाने में सफल रहे हैं। उन्हें आशंका है कि उनके परिवार के पांच लोग अब शायद ही जीवित बचे हों।
अश्विनी चौबे ने मीडिया को आपबीती बताई है। उन्होंने आशंका जाहिर की है कि केदारनाथ घाटी में ही मरने वालों की संख्या 15 से 20 हजार तक पहुंच सकती है। क्योंकि, उस दिन केदारनाथ धाम में करीब 25 हजार यात्रियों का जमावड़ा दिखाई पड़ा था। इनमें से कुछ यात्री ही सुरक्षित निकल पाए थे। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने चौबे की आशंका के बारे में यही कहा है कि जब तक बचाव दल सभी स्थानों पर पहुंच नहीं जाते, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है। बचाव आॅपरेशन में इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) के डायरेक्टर जनरल अजय चड्ढा ने भी कहा है कि केदारनाथ धाम, गौरीकुंड व रामबाड़ा इलाके में उनके जवानों ने सर्च ऑपरेशन तेज किया है। जो सूचनाएं मिल रही हैं, उस हिसाब से इन इलाकों में मरने वालों की संख्या काफी बढ़ सकती है।
इस भयानक प्राकृतिक आपदा से गढ़वाल मंडल कराह उठा है। यहां उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग व टिहरी-गढ़वाल में ज्यादा तबाही हुई है। राज्य आपदा प्रबंधन समिति के पदाधिकारियों ने कहा है कि कई सड़कें बनाने में लंबा समय लग सकता है। क्योंकि, पानी के तेज बहाव के चलते जगह-जगह भू-स्खलन से भारी नुकसान हो गया है। आपदा प्रबंधन समिति के एक आलाधिकारी ने अनौपचारिक बातचीत में यही कहा है कि तमाम कोशिशों के बावजूद गुरुवार तक करीब 23 हजार यात्रियों को सुरक्षित रूप से बाहर निकाल लिया गया है। लेकिन, केदारनाथ घाटी और हेमकुंड साहिब के पास करीब 30 हजार श्रद्धालु अभी तक फंसे हैं। इनमें कई ऐसे स्थानों पर फंसे हैं, जहां तक कोई राहत पहुंचाना मुश्किल हो रहा है। कई जगह तो हैलीकॉप्टरों के जरिए भी इन्हें मदद नहीं पहुंच पाई है। लेकिन, सेना के जांबाज जवान भारी जोखिम उठाकर यात्रियों की जान बचाने में जुटे हैं।
उत्तराखंड की तबाही के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी दबाव बना दिया है। अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह पीड़ितों को बचाने के लिए राहत कार्य और तेज करे। सरकार से राहत कार्यों की स्टेट्स रिपोर्ट भी मांग ली गई है। बड़ी अदालत की 'चाबुक' से भी राज्य सरकार पर दबाव बढ़ गया है। कल यहां केंद्रीय कैबिनेट की बैठक हुई थी। इसमें केंद्रीय गृहमंत्री सुशील शिंदे ने उत्तराखंड की त्रासदी का ब्यौरा रखा। सैद्धांतिक रूप से यह फैसला ले लिया गया है कि इस आपदा से उबरने के लिए राज्य को जितनी मदद की जरूरत होगी, उसमें कोई कोताही नहीं की जाएगी। केंद्र सरकार पहले ही 1000 करोड़ रुपए के राहत पैकेज का ऐलान कर चुकी है। उत्तराखंड में इस प्राकृतिक आफत के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन भी कड़े नियम लागू कराने के लिए सक्रिय हुई हैं। उन्होंने कह दिया है कि उनका मंत्रालय गंभीरता से इस बात पर मंथन कर रहा है कि कैसे अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को सुरक्षित बनाया जाए।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण ने 2011 में ही सिफारिश की थी कि गढ़वाल के अतिसंवेदनशील 130 किमी के क्षेत्र में बड़े निर्माणों और खनन की कतई इजाजत न दी जाए। इन सिफारिशों को उत्तराखंड सरकार के पास भेज दिया गया था। यह संवेदनशील क्षेत्र गोमुख से उत्तरकाशी तक माना जाता है। इस क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं के लिए कई बांध बनाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने विकास को अहमियत देते हुए गंगा प्राधिकरण की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल रखा है। इस मामले में पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने कुछ नाराजगी के संकेत दिए हैं। संवेदनशील जोन में तमाम सावधानियां बरतने के निर्देश केंद्र ने दो साल पहले उत्तराखंड सरकार को दिए थे। लेकिन, इन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मुख्यमंत्री ने पर्यावरण असंतुलन की अनदेखी के मामले में यही कहा है कि उनकी पहली वरीयता लोगों की जान बचाने की है। बाकी मामलों को उनकी सरकार बाद में देखेगी। राज्य के पर्यावरणविद, इस बात की तीखी आलोचना कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा 'विकास' की दुहाई देकर पर्यावरण असंतुलन के खतरों को ज्यादा अहमियत नहीं दे रहे।
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