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Friday, September 19, 2014

वृन्दावन की विधवाएं और नया बंगाली समाज

वृन्दावन की विधवाएं और नया बंगाली समाज




          



वृन्दावन में विधवाओं की दीन दशा पर आज 'एबीपी न्यूज' टीवी चैनल पर मथुरासे भाजपा सांसद हेमामालिनी का साक्षात्कार सुनने को मिला। हेमामालिनी ने एक दर्शकके नजरिए से वृन्दावन की विधवाओं को देखा है,उन्होंने भाजपा के स्थानीय नेताओं की फीडबैकपर भरोसा किया है। वे इस समस्या की जड़ों में जाना नहीं चाहतीं,लेकिन उनकी एक बातसे मैं सहमत हूँ कि विधवाओं को सम्मानजनक ढ़ंग से रहना चाहिए, सम्मानजनक ढ़ंग सेवे रहें इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। वे भीख न माँगे हमें यह भी देखना चाहिए। असलमें औरतों के प्रति हेमामालिनी का 'चाहिएवादी' नजरिया समस्यामूलक है।यह दर्शकीय भाव से पैदा हुआ है और इसका समस्याकी सतह से संबंध है।

      वृन्दावन में विधवाएंक्यों आती हैं या भेज दी जाती हैं,इसके कारणों की ओर गंभीरता से ध्यान देने कीजरुरत है। इस प्रसंग में बंगाली समाज में विगत 100साल में जो आंतरिक परिवर्तन हुएहैं उनको ध्यान में रखें। बंगाली समाज में सबसे पहला परिवर्तन तो यह हुआ है किपरिवार की संरचना बदली है, परिवार में नए आधुनिक जीवन संबंधों का उदय हुआ है। इसनेएक खास किस्म की स्थिति बूढ़ों और औरतों के प्रति पैदा की है। दूसरा परिवर्तन यहहुआ है कि उनमें नकली आधुनिकचेतना का विकास हुआ है। नकली आधुनिकता में डूबे रहनेके कारण बंगालियों का एक अंश अपने अंदर पुराने मूल्यों और मान्यताओं को छिपाकर जीतारहा है। इसके कारण एक खास किस्म के मिश्रित व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है ।

    यह नया आधुनिक बंगाली उसबंगाली से भिन्न है जिसको रैनेसां ने रचा था। नया बंगाली उस परंपरा से अपने कोजोड़ता है जो रैनेसांविरोधी है। नए बंगाली के पास मुखौटा रैनेसां का है लेकिनअधिकांश जीवनमूल्य और आदतें रैनेसां विरोधी हैं। मसलन् रैनेसां में सामाजिक औरनिजी संवेदनशीलता थी ,जबकि नए बंगाली में निजी संवेदनशीलता का अभाव है। रैनेसां औररैनेसांविरोधी बंगाली परंपरा में संवेदनशीलता में जो अंतर है उसने औरतों के प्रतिमुखौटासंस्कृति पैदा की और इसी संस्कृति के गर्भ से निजी परिजनों के प्रतिसंवेदनहीनता हमें बार बार देखने को मिलती है। यह संवेदनहीनता उन लोगों में ज्यादाहै जो मध्यवर्ग और उच्च-मध्यवर्ग से आते हैं । यही वह वर्ग है जिसमें से सामयिकराजनीतिक नेतृत्व भी पैदा हुआ है। कम्युनिस्टों से लेकर ममतापंथियों तक इससंवेदनहीनता को प्रत्यक्ष रुप में देखा जा सकता है। यह संवेदनहीनता मध्ययुगीनभावबोध की देन है। हमें विचार करना चाहिए कि वे कौन से कारण हैं जिनके कारणमध्ययुगीन संवेदनहीनता या ग्राम्य बर्बरता फिर से बंगाल में इतनी ताकतवर हो गयी ? विधवाओं के वृन्दावन भेजे जाने का सम्बन्ध ग्राम्य बर्बरता से है। यहग्राम्य बर्बरता नए रुपों में संगठित होकर काम कर रही है। इसका सबसे ज्यादा शिकारऔरतें हो रही हैं।

       नए बंगाली समाज की मानसिकता है 'अनुपयोगी को बाहर करो' , अनुपयोगी से दूररहो, बात मत करो। परिवार में भी यही मानसिकता क्रमशःविस्तार पा रही है।परिवारीजनों में प्रयोजनमूलक संबंध बन रहे हैं। जिससे कोई प्रयोजन नहीं है उसकोभूल जाओ, जीवन से निकाल दो। बूढे प्रयोजनहीन हैं उन्हें बाहर करो, घर से बाहर करो,प्रांत से बाहर करो,मन से बाहर करो। यह एक तरह का 'तिरस्कारवाद' है, जो पुराने 'अछूतभाव'  का ही नया संस्करण है, जोदिनों दिन ताकतवर होकर उभरा है।

     मध्ययुगीन भावबोध का शिकारहोने के कारण नए बंगाली समाज में सामाजिक परिवर्तन और प्रतिवाद की मूलगामीआकांक्षा खत्म हो चुकी है और उसकी जगह राजनीतिक अवसरवाद ने ले ली है। इसेमध्ययुगीन वफादारी कहते हैं। इसके कारण समाज में अनालोचनात्मक नजरिए की बाढ़ आ गयीहै। सभी किस्म के पुराने त्याज्य मूल्य और आदतें हठात प्रबल हो उठे हैं। फलतःचौतरफाऔरतों पर हमले हो रहे हैं। बलात्कार,विधवा परित्याग,नियोजित वेश्यावृत्ति आदि मेंइजाफा हुआ है।

     मध्ययुगीन भावबोध को कभीबंगाली जाति ने विगत पैंसठ सालों में कभी चुनौती नहीं दी। वे क्रांति करते रहे,वामएकताकरते रहे ,लेकिन मध्ययुगीनता पर ध्यान नहीं दिया। मध्ययुगीन भावबोध वह वायरस है जोधीमी गति से समाज को खाता है और प्रत्येक विचारधारा के साथ सामंजस्य बिठा लेता है।बंगाली समाज की सबसे बड़ी बाधा यही मध्ययुगीनता है इससे चौतरफा संघर्ष करने कीजरुरत है। बंगाली समाज से मध्ययुगीन भावबोध जाए इसके लिए जरुरी है कि सभी किस्म केत्याज्य मध्ययुगीन मूल्यों के खिलाफ सीधे संघर्ष किया जाय।

     बंगाली बुद्धिजीवी नए सिरे से अपने समाज औरपरिवार के अंदर झाँकें और बार बार उन पहलुओं को रेखांकित करके बहस चलाएं जिनकी वजहहै मध्ययुगीनता पुनर्ज्जीवित हो रही है। मध्ययुगीनता का सम्बन्ध भाजपा के उदय औरविकास की प्रक्रियाओं के साथ भी है। अब मध्ययुगीन बर्बरता ने सामाजिक कैंसर का रुपले लिया है और इससे तकरीबन प्रत्येक परिवार किसी न किसी रुप में प्रभावित है।मध्ययुगीनता के असर के कारण समाज में बुद्धिजीवीवर्ग ने बंगाली समाज की आंतरिकसमस्याओं पर सार्वजनिक रुप में लिखना बंद कर दिया है। मैं नहीं जानता कि नामी बंगालीबुद्धिजीवियों ने अपने समाज के आंतरिक तंत्र की कमजोरियों को सार्वजनिक तौर पर कभीउजागर किया हो।जबकि रैनेसां के लोग यह काम बार बार करते थे।

     मध्ययुगीन बर्बरता में इजाफे के कारण सबसेज्यादा औरतें प्रभावित होती हैं,विधवाएं उनमें से एक हैं। विधवाओं की समस्या का एकपहलू है उनके पुनर्वास का,दूसरा पहलू है उनके प्रति सामाजिक नजरिया बदलने का,तीसरापहलू है विधवाओं के पलायन को रोकने का। इन सभी पहलुओं पर तब बातें होंगी जब बंगालीबुद्धिजीवी इस मसले पर कोई सामूहिक पहल करें।

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