Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Monday, October 13, 2014

हमारे मुद्दे दूसरे हैं। हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं। हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम! पलाश विश्वास

हमारे मुद्दे दूसरे हैं।


हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में  कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।


हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम!

पलाश विश्वास

संविधान बचाओ देश बचाओ देशभक्त नागरिकों!

हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में  कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।


इसीलिए इसी सिलसिले में मित्रों,अमित्रों,आज कुछ बेतरतीब बातें करने की इजाजत हूं और शायद अगले पखवाड़े में यही सिलसिला जारी रहना है छिटपुट उपलब्ध कनेक्टिविटी के साथ क्योंकि पीसी तो सोदपुर छूटा जा रहा है और टैब और ऐप्स का अभ्यस्त नही हूं।घर में जो पीसी है,उसकी कनेक्टिविटी का अंदाज नहीं है।फिर दौड़ भाग भी खूब होनी है और मोबाइल पर मैं सोसल नेटवर्किंग कर नहीं सकता।


सिलसिलेवार बातें कोलकाता लौटकर होनी है।फिलवक्त यात्रा पर जाते जाते बेहद जरुरी बातें करनी हैं।जिनपर आगे सिलसिलेवार चर्चा बी करेंगे ,अगर मौका हुआ और सकुशल सोदपुर लौटना हुआ।


आगे किस किनारे बंधेगी अपनी नाव,कुछ भी पता नहीं है।


हो सकता है कि इस बार आखिरी बार अपनी माटी को छूने का मौका है।


आखिरीबार हिमालय को छूने का कार्यक्रम भी हो सकता है यह।


दोस्तों से मुलाकातें भी आखिरी हो सकती हैं।


हालात संगीन है और हम मुक्तबाजारी युद्ध गृहयुद्ध के कुरुक्षेत्रे धर्मक्षेत्रे अपनी नियतिबद्ध परिणति के इंताजार में हैं।


दोस्त सारे महामहिम होते जा रहे हैं और आम लोगों के महामहिमों से संवाद के अवसर होते नहीं हैं।


आगे सिर्फ पिछवाड़ा है।


सामने कुछ भी नहीं है।


हम अब अतीत में जी रहे हैं और वर्तमान हमें लील रहा है।


फिर हो सकता है कि जिंदगी मौका दें न दें।जिंदगी जो अबूझ पहेली है कि गले मिलने का फिर मौका मिले न मिले, न गिले न शिकवे का फिर कोई मौका बने न बने।जिनके होने के लिए हम हैं,जो गुलमोहर की धूप छांव हैं,वे हो न हो।


हो सकता है कि मित्रों में कुछ विश्वसुंदरी की तर्ज पर नोबेलिया हो जायें।जेएनयू के किसी कवि या कोलकाता के किसी कथाकार के नोबेल बन जाने की प्रबल संभावना है जैसे हमारे पुरातन सारे सहकर्मी और मित्र संपादक हो गये हैं और हम वही डफर के डफर रहे।


प्रीमियम रेट पर रेलयात्रा की औकात हो यान हो और न जाने किस बंद गली में कैद रहे बाकी जिंदगी।अपनी माटी की खुशबू में समाहित हो आने का संजोग कोईबने  न बने।अनियंत्रित विनियमित बाजार के अबाध पूंजी प्रवाह और न्यूनतम राजकाज में हम जैसे लोगों का क्या हश्र होगा कौन जाने।


देश की सबसे धनी महिला अब छनछनाते विकास बांटेंगी वंचितों को और देश को युद्धक अर्थव्यवस्था बनाने का जिम्मा जिस कंपनी का है ,उसका संविधान दशकों बाद बदल रहा है।कारोबारियों को ईटेलिंग में प्रतिस्पर्धा करने की सलाह दी जा रही है।हीरक चतुर्भुज में हम फिर कहा मिले या न मिले ,क्या ठिकाना है।


हमारे मुद्दे दूसरे हैं।


हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में  कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।


हमारे मुद्दे आम जनता के खिलाफ राष्ट्र के नस्ली युद्ध के हैं।हमारे मुद्दे भारतीय लोक गणराज्य का भविष्यसे जुड़े हैं।रहेंगे।क्योंकि हम सर्फ नागरिक हैं।महामहिम पार्टीबद्ध नहीं हैं और न होंगे।


बाबासाहेब अंबेडकर का भी हो सकता है कि कोई जाति पूर्वग्रह रहा हो और जाति उन्मूलन के उनके एजंडे में खामियां भी रही हों,हो सकता है कि उनका अर्थशास्त्र मौलिक भी न हो।


हो सकता है कि हिंदुत्व के मुद्दों पर उनके खुलासे में इतिहास बोध न हो और न उनके बनाये संविधान में कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो।



बाबासाहेब के बचाव के लिए हम कुछ कहना नहीं चाहेंगे क्योंकि बाबासाहेब की ऊंचाई हालिल किये बिना हम मंतव्य करने की हालत में नहीं है।पद,प्रतिष्ठा और संपन्नता में जो हमसे बेहतर हैं,वे बोलें लिखें,उनकी अभिव्यक्ति का हम सम्मान करते हैं।


वर्णवर्स्वी दुर्गा पूजा और महिषासुर वध के लिए स्त्री मिथक के पक्ष विपक्ष के मिथकों के हम खिलाफ हैं क्योंकि हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम।


हम जेएनयू कैंपसे अस्मिता अभियान के खिलाफ रहे हैं और हमारी कोशिश देश तोड़ने की नहीं जोड़ने की है।


हम किसी खेमे में नहीं हैं और हिंदुत्व के एजंडे का विरोध करने के बावजूद देशभक्त निष्ठावान समर्पित संघ परिवार के कार्यकर्ताओं का हम सम्मान करते हैं और इसीलिए मोदी के राजकाज के उजले पक्ष पर हम कालिख नहीं पोत रहे हैं।


हम इंदिरा और नेहरु की आलोचना कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वाम पाखंड का भी विरोध कर रहे हैं।


नरसंहार संस्कृति वाम दक्षिण नहीं होती है,वह सत्ता वर्ग की वर्णवर्चस्वी और नस्ली संस्कृति है।


हम महिषासुर प्रकरण में महिषासुर पूजा के उतने ही खिलाफ हैैं जितना आस्था के बहाने अश्लील वर्णवर्चस्व और नस्ली घृणा के दुर्गोत्सव का और इसे हम धार्मिक मामला नहीं मानते हैं और न जाति का मामला।


लोकतंत्र का तकाजा है कि जैसे धार्मिक माने जानेवाली कुप्रथाओं का अब तक निषेध होता रहा है,उसीतरह भ्रूण हत्या,आनर किलिंग,दहेज समेत नरसंहार की स्त्रीविरोधी आदिवासी और दलित विरोधी प्रथाओं का भी अंत हो।


हम यह भी मानते हैं कि भारतीय संविधान में अनेक गड़बड़ियां रह सकती हैं जैसे धर्मग्रंथों और मिथकों में भी होती हैं।


मानवाधिकार और सभ्यता के लिहाज से उनमें संशोधन अवश्य होने चाहिए।लेकिन देशी विदेशी कंपनियों,वर्ण वर्चस्व और नस्लभेद के मनुस्मृति शासन को लागू करने के लिहाज से  इतिहास और संविधान संशोधन के हम विरुद्ध हैं।


हम कानून के राज के पक्ष में हैं तो लोकतंत्र के पक्ष में भी।एकपक्षीय सांस्कृतिक वर्चस्व के किलाप अपर संस्कृति के वक्तव्य को बाकायदा पुलिसिया राष्ट्र के दमन तंत्र के तहत दबाना और बहुसंख्य का उसके पक्ष में खड़े हो जाने के विरुद्ध हम हैं।


राष्ट्रतंत्रमें बुनियादी परिवर्तन के लिए हम भारतीय संविधान में भी परिवर्तन के पक्ष में हैं।वोट बैंक के गणित,मुक्त बाजार और युद्धक अर्थव्यवस्था के देशी विदेशी हितों के मद्देनजर विशुद्ध कारपोरेट लाबिइंग के तहत काननून और संविधान बदलने के देश बेचो अभियान का हम हर हल में विरोध करेंगे और इसीलिए हम संविधान बचाओ देश बचाओ अभियान भी चला रहे हैं।



आप आस्था के नाम पर आदिवासियों की हत्या का जश्न मना सकते हो और उन पर अपना ध्रम और मिथक थोंप सकते हों तो उनका भी अधिकार बनता है,इतिहास को अपने नजरिये से गढ़ना और अपने मिथकों को सार्वजनिक करना।


हो सकता है कि यह विशुद्ध राजनीति हो,लेकिन सत्तावर्ग को अपनी राजनीति में अपनी आस्था का इस्तेमाल जायज है तो आदिवासियों और वंचितों की राजनीति का हम हर स्तर पर विरोध करें तो यह लोकतंत्र के खिलाफ है।


हम फारवर्ड प्रेस का समर्थन नहीं कर रहे हैं और न दुर्गा को गणिका बताते हुए महिषासुर मिथक का।


हम मनावाधिकार के हक में खड़े हैं जिसके तहत नरहत्या गलत है,गैरकानूनी है और असुर भी मनुष्य हैं,आदिवासी हैं।ओबीसी भी हैं,उन शूद्र राजाओं के वंशज जो अठारवीं सदी तक इस देश के विबिन्न हिस्सों पर राज करते रहे हैं।


हम सत्तापक्ष के अलावा विपक्ष की अभिव्यक्ति का भी सम्मान करते हैं और असहमत होने के बावजूद उसके खातिर लड़ सकते हैं।

लेकिन जैसा कि हमने कहा कि हमारे मुद्दे मिथक नहीं,सामाजिक यथार्थ हैं।


हमारा नजरिया भाववादी नही है,वस्तुवादी है और हम किसी भी तरह के अस्मिता आधारित ध्रूवीकरण के बजाय वर्गीय ध्रूवीकरण के पक्षधर हैं।



अपने पुरातन और बेहद कामयाब सहकर्मी संपादक सुमंत भट्टाचार्य के हस्तक्षेप पर लगे फेसबुकिया मंतव्य पर दो बातें कहनीं हैं।


उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा है कि मिथकीय महिमांडन नहीं होना चाहिए।


हम भी यही अर्ज कर रहे हैं कि दुर्गा की मूर्ति बनायी गयी है और उसीकी  पूजा होती है तो इसके विरोध में महिषासुर की मूर्ति बनाकर मिथकीय महिमांडन से भावावेग अंधड़ से हम सामाजिक यथार्थ को संबोधित नहीं कर सकते।


हमारा दुर्गापूजा का विरोध लेकिन मिथकीय महिमामंडन नहीं है और न ही दुर्गा का चरित्र हनन है।किसी भी स्त्रीके ,चाहे वह स्त्री मिथक ही क्यों न हो,उसका चरित्रहनन पुरुषतांत्रिक है।


दुर्गा का मिथक जो भी है और आस्था भी जो है,उसके बारे में हमें कुछ नहीं कहना है।


महिषासुर विवाद का सच किंतु यही है कि देश भर में आदिवासी समाज की पहचान असुरसंस्कृति से जुड़ती है और बंगाल और झारखंड और शायद अन्यत्र भी असुर जातियां हैं।तो उनीकी हत्या का उत्सव क्यों मनाया जाना चाहिए,बुनियादी सवाल यही है।


बुनियादी सवाल है कि अपनी ह्त्या के उत्सव का वे विरोध क्यों नहीं कर सकते।


अगर नरबलि की प्रथा रुक सकती है तो असुर बिरादरी की भावनाओं का सम्मान करते हुुए बिना असुर वध के भी आस्था के उत्सव हो सकते हैं।


बहुसंख्य समुदायों को अल्पसंख्यक समुदायों को मुख्यधारा मे जोड़ने की पहल करनी चाहिए।दूसरी बात यह कि बाकी जो सतीरुपेण देवियां हैं ,वे भी आदिवसी मूल की ही हैं और उनका कहीं कोई विरोध नहीं हो रहा है।


दरअसल सतीपीठों का विमर्श और भैरवों को उनसे जोड़ने का मिथक दरअसल आर्य अनार्य संस्कृतियों का समायोजन रहा है।यह मिथक संस्कृतियों के एकीकरण का है।


दूसरी बात यह है कि आर्य बाहरी है या भीतरी ,इस पर अलग अलग दावे हैं।संघ परिवार तो महाकाव्यों से लेकर वैदिकी साहित्य को भी इतिहास बनाने पर तुले हैं।


इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते हैं लेकिन भारत वर्ष में अद्वैत संस्कृति कभी रही हो,ऐसा अभी साबित हुआ नहीं है।


बहुल संस्कृति के देश में अलग अलग नस्लें है और जाति व्यवस्था में इस नस्ली आधिपात्य के भी ऐतिहासिक कारण हैं।जो उत्पादन संबंधों से जुड़े हैं।अर्थव्यवस्था में  जन्मजात आरक्षण का स्थाई बंदोबस्त है यह और व्यवस्था बदलने के लिए,राष्ट्रतंत्र में बुनियादी  परिवर्तन के लिए हम बाबासाहेब के जाति उन्मूलन एजंडा को प्रस्थानबिंदू मानते हैं।


सांप्रतिक इतिहास में कश्मीर, मणिपुर, संपूर्ण हिमालय, दक्षिण भारत और मध्य भारत,समूचा पूर्वोत्तर और यहां तक कि पूरब के बंगाल,बिहार और ओड़ीशा जैसे राज्यों के प्रति सत्ता वर्चस्व वाले समुदायों का आचरण नस्लवादी है।


हम इस नस्लवादी आचरण को समझे बिना कश्मीर को देश का अभेद्य अंग मानते हैं और हद से हद किसी हैैदर जैसी फिल्म बजरिये मुख्य़धारा के विमर्श के तहत हम अपने अपने स्तर पर कश्मीर का यथार्थ देखते परखते हैं,जबकि कश्मीरियों के नजरिये को हम सिरे से राष्ट्रद्रोही मानते हैं।


मध्यभारत के आदिवासी भूगोल,हिमालय और पूर्वोत्तर के आफसा देश से भी हम जुड़ते नहीं हैं क्योंकि नस्ली वर्चस्व के कारण हम इस अस्पृश्य भूगोल के गैरनस्ली लोगों के नागरिक और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में मानते हैं।


फिर भी गनीमत है कि इरोम शर्मिला लेकिन सोनी सोरी की तरह राष्ट्रद्रोही अभी करार नहीं दी गयीं।


दुर्गा के मिथक पर असुरों की टिप्पणी से जो हमारी आस्था को आघात पहुंचता है,वह मिथक सर्वस्व है।


दुर्गा न मूल मिथक में कोई सामाजिक यथार्थ है और न महिषासुर मिथक के आदिवासी विवरण में।


हम दरअसल दो अलग अलग मिथकों के विवाद में है।


इसके विपरीत,गुवाहाटी की सड़क पर नंगी भगायी जाती आदिवासी कन्या और निरंकुश सैन्य शासन के विरुद्ध मणिपुरी माताओं के नग्न प्रदर्शन या सोनी सोरी की आपबीती और ऐसे ही रोजाना देश कि किसी न किसी कोने में गैर नस्ली महिलाओं के उत्पीड़न पर हम विचलित नहीं होते।


सलवा जुड़ुम हमें बतौर नागरिक लज्जित नहीं करता।

न आफसा हमें शर्मिंदा करता है और न हम आधार निगरानी योजना के खिलाप खड़े हो पाते हैं और न निरंकुश बेदखली अभियान या अश्वमेधी राजकाज और सत्ता राजनीति के।


संतान समेत दुर्गावतार की प्रतिमाएं है और वध्य जो असुर है अश्वेत,उसके नस्ली बिंब संयोजन के सौंदर्यबोध में नरसंहार संस्कृति का आक्रामक और अद्यतन सामाजिक यथार्थ है।


हम पहले भी लिख चुके हैं कि दुर्गा बाकी चंडी रुपों की तरह कोई वैदिकी देवी नहीं हैं और दुर्गावतार मिथक वैदिकी है।


यह बंगीय अवदान है.जिसका राष्ट्रीयकरण हुआ है।


वैष्णोदेवी की पूरे देश में आराधना होती है और असुरों को मां के दरबार से कोई ऐतराज नहीं है।इसे समझा जाना चाहिए।


असली दुर्गा पूजा तो बनेदी बाड़ी की पूजा है जो बंगाल के सामंतों की विरासत है,उसीतरह जैसे सतीप्रथा।सतीप्रथा कोई वंचितों और गैरनस्ली लोगों की परंपरा नहीं रही है।


बौद्धमय बंगाल के पतन से पहले जयदेव ने गीत गोविंदम रचा और इस्लामी शासन के दौरान बंगाल में वैष्णव आंदोलन चैतन्य.महाप्रभु का चला।


शैव और शाक्त संप्रदाय आदिकाल से रहे हैं जैसे राजा शशांक शैव रहे हैं।


आधुनिक राजनीतिकों के सार्वजनीन दुर्गोत्सव से पहले बंगाल में कोई दुर्गा संप्रदाय नहीं रहा है।


यह ब्राह्मणों की देवी रही है और दुर्गा का मिथक ब्राह्मणवादी है,यह भी इतिहास विरुद्ध है।


ब्राह्मण को शिव ,काली और विष्णु के उपासक रहे हैं।


दुर्गापूजा इस्लामी मनसबदार राजाओं और अंग्रेजी हुकूमत में जमींदारी की निहायत व्यक्तिगत पूजा रही है,जिसकी अनिवार्य रस्म नरबलि है।


नरबलि तंत्र पद्धति और कापालिक कर्म है और बंगाल और अन्यत्र भी नरबलि और नरसंहार ब्राह्मण जाति का नहीं,बल्कि शासक वर्ग का साझा अश्वमेध राजसूय है।


लेकिन इस नरसंहारी शक्ति में हिंदुत्व के पुरोहितों को शामिल किये बिना इस सर्वजन स्वीकृत बनाया जा नहीं सकता,इसलिए राक्षस रावण को भी ब्राह्मण बना दिया गया।


पूजा समंतों की और पुरोहित ब्राह्मण।


चूंकि प्रजाजनों की कोई भूमिका वध्य बन जाने के सिवाय थी नहीं,इसलिए इस पूजा के कर्मकांड में शामिल होने की योग्यता सिर्फ ब्राह्मणों और सिर्फ ब्राह्मणों को दे दिया गया।


वही रघुकुल रीति चली आ रही है और दुर्गापूजा में भोग रांधने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को ही है।


किसी और देव देवी की पूजा पद्धति में इतना कठोर अनुशासनबद्ध बहिस्कार नहीं है।


आस्था की लोक परम्परा भी है और उसमें ब्राह्मण या पुरोहित की कोई भूमिका नहीं है।सूर्यउपासना वैदिकी और गैर वैदिकी दोनों है।


यूपी बिहार की लोकभूमि में जो सूर्यउपासना का छठ है ,उसमें न जाति और न नस्ली भेदभाव है और न उगते और डूबते सूर्य को अर्घ देने की कोई विधि है।


आस्था के इस सामाजिक न्याय को भी समझना जरुरी है।



No comments:

Post a Comment