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Wednesday, June 26, 2013

केदारनाथ धाम में ‘लालच की गंगा’....प्रलय तो आनी ही थी!

केदारनाथ धाम में 'लालच की गंगा'....प्रलय तो आनी ही थी!


नई दिल्ली। केदारनाथ का आसमान पहले धुला हुआ चटख नीला हुआ करता था लेकिन आजकल ये आसमान मटमैला या घूसर नजर आ रहा है। जैसे नीचे जमीन का अक्स आसमान पर पड़ने लगा है। जमीन पर चारों तरफ मटमैला रंग है, स्लेटी रंग की चट्टानें हैं- मिट्टी है और मौत। एक हजार साल पुराना ये मंदिर न जाने कितने बदलाव देख चुका है। मंदिर की 150 साल पुरानी तस्वीरें बताती हैं कि किस तरह इंसान ने कुदरत को मुंह चिढ़ाया, कैसे भक्ति के नाम पर, आस्था के नाम पर केदारनाथ में लालच की गंगा बहा दी, ऐसी अति की कि विनाश हो गया।

करीब 150 साल पहले रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ इलाके में आर्कियोलॉजिस्ट की एक टीम गई थी, उसने एक तस्वीर खींची। ये संभवतः केदारनाथ मंदिर की सबसे पुरानी तस्वीर है। ऐसे दुर्गम पहाड़ों के बीच ऐसा भव्य मंदिर देखकर वो लोग हैरान रह गए। उस वक्त यानि डेढ़ सदी पहले ये मंदिर बियाबान में था। आसपास इंसानी बस्ती, अवैध कब्जे का नामोनिशान तक नहीं था लेकिन शायद केदारनाथ यानि भोले शंकर को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि सदी बीतते बीतते उनकी आराधना के नाम पर रेस्तरां खुल जाएंगे, होटल बन जाएंगे। अनगिनत दुकानें खड़ी हो जाएंगी, वो भी मंदाकिनी नदी की राह के बीचोबीच।

केदारनाथ धाम में 'लालच की गंगा'....प्रलय तो आनी ही थी!

150 साल पुरानी उस तस्वीर में केदारनाथ मंदिर पत्थर के एक मजबूत चबूतरे पर खड़ा हुआ साफ नजर आता है जबकि हादसे से कुछ वक्त पहले तक इस मंदिर के आसपास की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी थी। मंदिर से सटकर दुकानें खुल चुकी थीं। उन दुकानों में रातदिन प्रसाद, पूजा सामग्री और खाने पीने का सामान बिक रहा था, कमाई की जा रही थी। किसी ने नहीं सोचा कि ये मंदिर सदियों पुराना है, इसे बनाने वालों ने खास विधि से इसे तैयार किया ताकि ये बर्फ और पानी दोनों झेल ले लेकिन उसके आसपास व्यापार की चाहत में खड़ी दुकानों को आखिर कौन बचाएगा।




150 साल पुरानी एक और तस्वीर साफ करती है कि केदारनाथ मंदिर के दक्षिणी हिस्से को लगभग छूकर बहता था मंदाकिनी नदी का पानी। 150 साल पुरानी ही एक और तस्वीर से साफ होता है कि उस वक्त मंदिर तक पहुंचने का रास्ता तक नहीं था। वहां आने वालों को बर्फ के बीच से होकर गुजरना पड़ता था। वहीं 50 साल पुरानी तस्वीर में नजर आती है मंदिर तक जाने की राह, पतली पगडंडी जिसपर खच्चरों के जरिए यात्री ऊपर तक पहुंचते थे। 50 साल पहले की ही एक और तस्वीर साफ दिखाती है कि उस वक्त तक भी मंदिर के आसपास इंसान का कब्जा नहीं था। यहां तक कि 40 साल पुरानी तस्वीर में भी मंदिर से सटे निर्माण नजर नहीं आते सिर्फ मंदिर के आसपास पुजारियों और पंडों के रुकने का इंतजाम था बाकी जो दर्शन के लिए आता था उसी रोज वापस लौट जाता था।

20 साल पुरानी एक तस्वीर भी साफ करती है कि मंदिर के ठीक पीछे आदि शंकराचार्य की समाधि का इलाका भी अतिक्रमण से आजाद था। लेकिन 10 साल पुरानी तस्वीर से साफ हो जाता है कि किस तरह मंदाकिनी नदी के राह बदलते ही दुकानें खड़ी होने लगीं। इंसानी कब्जा बढ़ता गया-कुछ वैध तो ज्यादातर अवैध। वहां लाखों यात्री आते गए। सैलानियों का रेला जैसे-जैसे बढ़ा सुविधाओं के नए पहाड़ धाम में खड़े किए जाने लगे। धर्मशालाएं बनीं, होटल बने और पूरे इलाके का नक्शा ही बदल गया।

केदारनाथ धाम के मुख्य पुरोहित वागीशलिंग स्वामी कहते हैं कि केदारनाथ में इतने सारे लोग आते हैं लेकिन ज्यादातर आस्था और भक्ति के चलते नहीं बल्कि मौज-मस्ती के लिए आते हैं। शिव तो बैरागी हैं उन्हें सांसारिक सुख के साधनों और इच्छाओं से कोई लेनादेना नहीं है लेकिन उनके नाम पर यहां आने वाले तो उल्टी राह अपनाते हैं। जिस तरह भोले शंकर ने मायावी सुख त्याग दिए थे, उसी तरह यहां आने वालों को भी लोभ माया से दूर रहना चाहिए तभी यहां उनका शुद्धिकरण संभव है।

केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुरोहित के शब्दों में नाराजगी है। गुस्सा इस बात का कि अक्सर यात्रियों में चार धाम की यात्रा निपटाकर अपना परलोक सुधार लेने का भाव नहीं रहता, सांसारिक भोग विलास त्यागने का भाव भी नहीं रहता। भक्ति और आस्था के बजाय अक्सर चार धाम की यात्रा पिकनिक की तरह देखी जाती है और इसीलिए मंदिर के आसपास दुकानों का कारोबार बढ़ता जाता है, इसीलिए पहाड़ों पर बोझ बढ़ता जाता है, केदारनाथ धाम की यात्रा पर आने वालों का बढ़ता आंकड़ा भी इस बात की तस्दीक कर रहा है।

1990 में जहां केदारनाथ धाम की यात्रा पर सिर्फ 1 लाख 17 हजार 774 लोग आए थे वहीं अगले दस साल में यानि 2000 में ये आंकड़ा बढ़कर 2 लाख 15 हजार 270 तक पहुंच गया अगले दस साल में यानि 2010 में केदारनाथ धाम आए 4 लाख 14 लोग वहीं 2013 में 6 लाख तीर्थयात्रियों के आने का अनुमान था। (आंकड़े : badarikedar.org)

तो आखिर तीर्थयात्रियों के इस विस्फोट से उत्तराखंड के कमजोर पहाड़ों को कैसे बचाया जा सकता है। इस हादसे से कई हफ्ते पहले ही केंद्र सरकार की एक समिति ने खतरे की घंटी बजाई थी। उसने सरकार को केदारनाथ और गंगोत्री में बढ़ते सैलानियों को लेकर चेताया था। समिति ने हादसा टालने के लिए सिफारिशें दी थीं। मैनेजमेंट इफेक्टिव इवैल्यूएशन कमेटी ने साफ कहा था कि उत्तराखंड में सैलानियों की तादाद में भारी इजाफा, पहाड़ों से पेड़ों की कटाई से इलाके की नदियों का हाल बदल रहा है। लेकिन शायद इन सिफारिशों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लाख टके का सवाल ये है कि अब आगे क्या होगा? गुप्तकाशी के विश्वनाथ मंदिर के मुख्य पुरोहित के पास इस सवाल का जवाब है। उन्होंने साफ कह दिया है कि अब तबाही से सबक लेते हुए केदारनाथ मंदिर को अवैध कब्जे, अतिक्रमण से बचाना होगा वर्ना फिर ऐसी ही तबाही आएगी।

केदारनाथ को दोबारा बनाने से पहले कई बातों पर ध्यान देना होगा। मंदिर के दोनों तरफ कम से कम 80 मीटर की जगह खाली छोड़ देनी चाहिए जबकि मंदिर के सामने कम से कम 150 मीटर तक कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए। एक दौर था जब तीन किलोमीटर दूर से ही केदारनाथ मंदिर दिखने लगता था, लेकिन पिछले कुछ साल में अवैध कब्जे के जरिए इतनी दुकानें बना ली गईं कि मंदिर की सीढ़ियों तक पहुंचने के बाद ही उसके दर्शन होते हैं।

विश्वनाथ मंदिर, गुप्तकाशी के मुख्य पुरोहित शशिधर लिंग स्वामी कहते हैं कि ये प्रभु का ही संदेश है, इसे समझो, इसीलिए आसमान से तबाही यूं बरसी। तबाही के बाद भी जस के तस खड़ा मंदिर साफ संदेश दे रहा है। मंदिर तबाह नहीं हुआ क्योंकि प्रभु नहीं चाहते थे कि इंसान की भक्ति आस्था को चोट पहुंचे, लेकिन उसके आसपास बना सबकुछ साफ कर दिया। अगर हजारों की जानें गई हैं तो लाखों बच भी गए। अब उन्हें अपने भीतर झांकना चाहिए।

शशिधर लिंग स्वामी उसी मंदिर में हैं जहां तबाही के बाद केदारनाथ मंदिर के शिवशंकर भोले को लाया गया है। इसी मंदिर में आजकल उनकी आराधना हो रही है। जाहिर है वो कहना चाहते हैं कि इस तबाही के पीछे इंसान है। इंसान के लालच ने ही उत्तराखंड को सबसे बड़ी त्रासदी की गिरफ्त में झोंक दिया।

Posted on Jun 26, 2013 at 09:45pm IST | Updated Jun 26, 2013 at 10:12pm IST
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