क्या आपदा में इंसानियत खोयी पहाडि़यों ने!
श्रद्धालुओं की आपबीती से सीधे-सादे पहाड़ में भी आपदा में बाजारवाद नजर आया. प्यास बुझाने के लिए पानी से लेकर खाने-पीने की वस्तुओं तक के मुंहमांगे दाम वसूले गए. कहीं-कहीं महिलाओं के बलात्कार, यौन हिंसा की जो खबरें पहाड़ से आ रही हैं, जिन पर सहज विश्वास नहीं होता...
संजीव कुमार
उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, वह बहुत भयावह था. इस भीषण आपदा का दंश न जाने पहाड़ कब तक झेलेगा, लेकिन इससे भी ज्यादा इंसान के बीच बंटती इंसानियत की परिभाषा आधुनिक युग में समाज को बहुत कुछ झेलने पर मजबूर कर रही है. पहाडवासी सीधे, खामोश व प्रकृति के मित्र समझे जाने की मिसाल बनते पेश करते रहे हैं.
मगर मीडिया में पीडि़तों की जुबानी जो खबरें आ रही हैं, उससे लग रहा है कि इस भीषण आपदा के दौरान कई जगह वे इन मिसालों को तोडते दिखे. आपदा की चपेट में आये देश के कई प्रदेशों के हजारों श्रद्धालुओं की आपबीती से लग रहा है कि सीधे-सादे पहाड़ में भी आपदा में बाजार वाद जड़ें जमा चुका है. छोटे बच्चे, महिला, बुजुर्गों को प्यास बुझाने के लिए पानी से लेकर खाने-पीने की वस्तुओं तक के मुंहमांगे दाम वसूले गए. कहीं-कहीं महिलाओं के बलात्कार, यौन हिंसा की जो खबरें पहाड़ से आ रही हैं उन पर सहज विश्वास नहीं होता.
उत्तराखंड में जब से आपदा आयी, तभी से सामाजिक सरोकार पर भी देश का हर नागरिक चिंतन कर रहा है. यह सामाजिक सरोकार वही है जो इंसान को इंसान होने का अहसास कराकर मदद करने को आगे बढता है. चार धामों में से एक केदारनाथ सहित उत्तराखंड के कई हिस्सों में आई तबाही में फंसे लोगों को मजबूरी में इंसान द्वारा हैवान बनाकर लूटे जाने की खबरें जिस तरह सामने आ रही है, उससे लगता है कि यह तो गुलामी भारत से भी खतरनाक है. धन के लालच में मनुष्यता ही खत्म होती दिखी.
इंसान हिंसक पशु बन गया, तभी तो दो रूपये का बिस्कुट सौ रुपये से लेकर एक हजार रुपये तक अपने ही देश के लोगों को बेचा गया. छत के नीचे सिर छुपाने के लिए कई कई हजार रूपये वसूले गये. घोडे, खच्चरों से रास्ता पूछने के लिए हजारों में लेनदेन हुआ. यही नही, श्रद्धालुओं को दाल-रोटी आसमान छूते मूल्यों पर दी गयी. इतना ज्यादा महंगा कि शायद देश में किसी पांचसितारा होटलों में इतना महंगा खाना मिलता हो. हर स्थिति में पैसा कमाने की यह होड़ पहाड़ के संस्कारों से जुडे लोगों को इतना गिरा देगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था. न ही इन खबरों पर सहज विश्वास होता है.
हालांकि लूट-खसोट के आरोप लगने के बाद पहाड से जुडे लोगों का कहना है कि नेपाली मूल के साधु संत और अन्य लोग वहां लूटपाट व अन्य अपराधों को अंजाम दे रहे हैं. दरअसल, उत्तराखंड बनने के बाद से ही उत्तरांखड के लोगों की मानसिकता बदलने का कुचक्र रचा जाने लगा था.
वहां की सरकारों ने इस प्रदेश को कुछ दिया या नहीं यह तो बाद की बात है, लेकिन वहां के लोगों को उपभोक्ता व बाजारवाद अवश्य सिखा दिया. यह बता दिया कि पहाड पर हर शख्स मौजमस्ती करने आया है. प्रकृति की गोद में शांत रहने वाला यहां का सीधा सच्चा इंसान मस्तिष्क में पनपे इस पैसे के घिनौने लालच के बाद आज अपना-पराया सभी कुछ भूलता जा रहा है. तभी तो वहां पर बडे-बडे बिल्डर आपदा से न डरकर पहाड की हस्ती को मिटा पैसे कमाने के विकास का रास्ता पहाड के लोगों को दिखा चुके है. यहां के युवा मेहनत का काम छोड प्रोपर्टी डीलिंग जैसे घटिया मानसिकता और दलाली के कार्यो में लग गये हैं.
इस आपदा के जख्म बाहरी प्रदेशों के लोगों के लिए जीवनपर्यन्त हरे रहेंगे, क्योंकि उन्होंने इंसानियत की परिभाषा को तार-तार होते देखा. देवभूमि कही जाने वाली उत्तराखण्ड की धरती पर लूट और अपराध होते देखा है. जंगलों में फंसी युवतियों के साथ दुराचार तक के समाचार सुनायी दे रहे हैं.
लूट, खसोट की इस भीड में हालांकि ऐसे स्थानीय लोग भी हैं, जो बाहरी लोगों को 'अतिथि देवो भवः' की परंपरा को कायम रखते हुए उनकी सेवा कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि यहां अगर समय रहते सेना न पहुंचती तो शायद पैसे के भूखे लोग हिंसा, लूट व यौनाचार का तांडव बडे पैमाने पर रचते. बाजार और होटल, दुकानदार सबकुछ भूलकर लूट की कीमत पर जो पैसा कमा रहे है, वह उनके परिवार व पीढी को भला क्या सुकून देगा.
आपदा के बाद मदद और बुराई भलाई में नेता से लेकर आम जनमानस अपने विचार सालों तक देता रहेगा. हो सकता है कि आपदा की यह घटना सत्ता से लेकर धार्मिक समुदाय के लिए एक बड़ा मुद्दा बनता रहे, लेकिन इन सभी बातों के बीच उस इंसानियत को हम कहां ढूंढेंगे, जो आपदा में पहाड के दरकने के साथ और बाढ के साथ वहीं पर दफन होकर रह गयी.
संजीव कुमार पत्रकार हैं.
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