जातिप्रथा के विनाश के बुनियादी सवाल उठाने का वक़्त
बदायूं में पिछड़ी जाति की बच्चियों के साथ जो हुआ है उसकी चर्चा ज़बरदस्त तरीके से हो रही है। सारी चर्चा में वंचित तबके की बच्चियों के साथ हुए अन्याय पर किसी की नज़र नहीं है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने वोट बैंक को ध्यान में रख कर प्रतिक्रिया दे रही हैं।
समाजवादी पार्टी के नौजवान मुख्यमंत्री ने किसी महिला पत्रकार के सवाल के जवाब में एक बार फिर गैरजिम्मेदार बयान दे दिया है। केंद्र में अब भाजपा की सरकार है और उसको समाजवादी पार्टी से किसी राजनीतिक समर्थन की दरकार नहीं है। उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं की इच्छा साफ़ नज़र आती है कि लोकसभा चुनाव में बेहतरीन जीत के बाद अगर राज्य में विधान सभा के चुनाव हो जाएँ तो लखनऊ में भी भाजपा की सरकार बन सकती है। समाजवादी पार्टी के नेता इस विश्वास के साथ काम कर रहे हैं की 2017 तक उनकी सरकार है और उनको स्पष्ट बहुमत हासिल है लिहाज़ा उनको कोई हटा नहीं सकता। लगता है कि समाजवादी पार्टी के नेता मुगालते में हैं। केंद्र की सरकार अगर चाहे तो राज्य सरकार को गिरा सकती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद का है। कई राज्यों की कांग्रेस सरकारें तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने यह कह कर बर्खास्त करने की नीति चल दी थी कि उन राज्यों में कांग्रेस पार्टी लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार गयी थी और उसको विधानसभा में मिला जनादेश भी बेमतलब हो गया था। उसके बाद चुनाव हुआ और मौजूदा मुख्यमंत्री के पिताजी, मुलायम सिंह यादव राज्य में कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने में सफल रहे थे।
उत्तर प्रदेश का ही दूसरा उदाहरण है जब 1980 में बाबू बनारसी दास की सरकार को संजय गांधी ने पडरौना के पास के एक गाँव नारायण पुर में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद केंद्र में नई नई सत्ता पाकर राज कर रही इंदिरा गांधी की सरकार ने बर्खास्त कर दिया था। नारायणपुर में दलितों के घर जला दिए गए थे और उन पर भारी अत्याचार हुआ था। दलितों के पक्षधर के रूप में उन दिनों पडरौना के नेता और दून स्कूल के पूर्व छात्र सी पी एन सिंह बहुत सक्रिय थे। अमेठी के तत्कालीन एम पी, संजय गांधी की प्रेरणा से नारायण पुर के काण्ड को इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के ब्रेकडाउन की घटना माना था और सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उसके बाद ही वी पी सिंह को संजय गांधी ने मुख्यमंत्री बनाया था। बदायूं की बर्बरता की घटना को मीडिया ने उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था से जोड़कर बहुत बड़ा बना दिया है। और खबर को सनसनीखेज़ बनाने के चक्कर में सच्चाई की जांच जैसी आवश्यक कार्यवाही को नज़रंदाज़ कर दिया।
बदायूं की बच्चियों को दलित जाति के रूप में पेश किया जा रहा है जबकि वास्तव में वे पिछड़ी मौर्या जाति की लडकियाँ है। हालांकि इस जानकारी के बाद भी बर्बरता की घटना पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मीडिया को सच्चाई की जांच किये बिना खबरों को चलाना नहीं चाहिए। इसी से जुड़ा हुआ जाति के विमर्श का बड़ा सवाल भी है।
उत्तर प्रदेश में पिछले 25 वर्षों से ऐसी सरकारें हैं जो डॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. भीमराव आंबेडकर के अनुयायियों की हैं। बीच में दो तीन बार कुछ महीनों के लिए भाजपा की सरकारें आयीं लेकिन वे भी मायावती के समर्थन से ही चल रही थीं। भारत में जाति प्रथा का सबसे अधिक विरोध डॉ. लोहिया और डॉ. आंबेडकर ने किया था। दोनों ही मनीषी चाहते थे की जाति प्रथा का विनाश हो जाए। लेकिन डॉ. लोहिया के अनुयायी मुलायम सिंह यादव और डॉ. आंबेडकर की अनुयायी मायावती की पार्टियाँ जातियों को बनाए रखने में सबसे ज़्यादा रूचि लेती हैं क्योंकि वे कुछ जातियों को अपना वोट बैंक मानती हैं। अगर जाति प्रथा को ख़त्म करने की दिशा में काम हो रहा होता तो जाति पर आधारित इस तरह की अराजकता न होती। देश का दुर्भाग्य है कि महान राजनीतिक चिंतकों के नाम पर सत्ता पर काबिज़ हुए लोग अपने ही आदर्शों की बात नहीं मानते। बदायूं की घटना के सन्दर्भ में एक बार फिर जाति प्रथा के सवालों को सन्दर्भ में लेने की ज़रूरत है। ज़रूरी यह है कि उन किताबों को एक बार फिर झाड़ पोंछ कर बाहर लाया जाय जिन्होंने भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे ज़्यादा योगदान दिया है।
पिछली सदी के भारत के इतिहास में पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है। इन किताबों में बताये गए राजनीतिक दर्शन के आधार पर ही बीसवीं शताब्दी की राजनीति तय हुयी थी। इन किताबों में महात्मा गाँधी की हिंद स्वराज तो है ही, इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश, मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन भाजपा का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डॉ. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। डॉ आंबेडकर के राजनीतिक दर्शनशास्त्र में महात्मा फुले के चिंतन का साफ़ असर देखा जा सकता है।महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,जाति का विनाश, ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया। है। आज सभी पार्टियाँ डॉ. अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं। सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है। यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था। उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा। डॉ. अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा। डॉ. अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया।
अपनी इस किताब में डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ और मायावती उत्तर प्रदेश की एक मज़बूत नेता के रूप में उभरीं। मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और सत्ता भी पायी लेकिन अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया। इस बात के भी पुख्ता सबूत हैं कि मायावती जाति प्रथा का विनाश चाहती ही नहीं हैं क्योंकि उनक वोट बैंक एक ख़ास जाति से आता है।
मायावती की पिछले बीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। जब मुख्यमंत्री थीं तो हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी थीं और उन कमेटियों को उनकी पार्टी का कोई बड़ा नेता संभालता था। डॉक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियाँ नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डॉ. अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डॉक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है। पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं दी। उनका वह भाषण आज किताब के रूप में हर भाषा में उपलब्ध है और आने वाले राजनीतिक विमर्श को दिशा देने में अग्रणी भूमिका निभाएगा।
उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के राजनीतिक आदर्श और पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीति डॉ. राम मनोहर लोहिया की राजनीति से प्रभावित हैं। एक बार जब बनारस जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने ब्राह्मणों का पाँव धोया था तो जवाहरलाल नेहरू ने एतराज़ किया था। उस दौर में डॉ. लोहिया ने अपनी किताब कहा था कि,” जातिप्रथा के विरुद्ध इधर उधर की और हवाई बातों के अलावा प्रधानमंत्री ( नेहरू ) ने जाति तोड़ने और सबके बीच भाईचारा लाने के लिए क्या किया, इसकी जानकारी दिलचस्प होगी। एक बहुत ही मामूली कसौटी पर उसे परखा जा सकता है। जिस दिन प्रशासन और फौज में भर्ती के लिए और बातों के साथ साथ शूद्र और द्विज के बीच विवाह को योग्यता और सहभोज के लिए इनकार करने पर योग्यता मानी जायेगी, उस दिन जाति पर सही मानी में हमला शुरू होगा। वह दिन अभी आना बाकी है।”
लोकसभा चुनाव 2014 का चुनाव लहर के आधार पर लड़ा गया। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हार चुकी हैं लेकिन राज्य में सामाजिक परिवर्तन की वाहक यही पार्टियाँ बन सकती हैं। क्या यह पार्टियाँ अपने आदर्श पुरुषों, डॉ. लोहिया और आंबेडकर को ज़रूरी महत्व देने पर विचार करेंगी। यह एक ज़रूरी सवाल है जिसके आधार पार ही भावी राजनीति और सामाजिक समरसता या दुश्मनी की बुनियाद तय होगी। - See more at:
No comments:
Post a Comment