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Thursday, September 11, 2014

स्मृति कोलाज मुक्तिबोध बनाम मस्तिष्काघात धर्मोन्मादी अब भारतीय संविधान और भारतीय लोकत्ंत्र भी स्मृति मात्र हैं और उनका तेजी से विलोप हो रहा है।अदालती फैसले भी मनुस्मृति का हवाला देकर होने लगे हैं। पलाश विश्वास

स्मृति कोलाज मुक्तिबोध बनाम मस्तिष्काघात

धर्मोन्मादी

अब भारतीय संविधान और भारतीय लोकत्ंत्र भी स्मृति मात्र हैं और उनका तेजी से विलोप हो रहा है।अदालती फैसले भी मनुस्मृति का हवाला देकर होने लगे हैं।


पलाश विश्वास


आज मुक्तिबोध की 50वीं पुण्यतिथि है.. मैं जन्मतिथि और पुण्यतिथि मनाने में यकीन नहीं रखता।हमारे कृषिजीवी समाज में जन्मदिन मरणदिन कामकाजी दिनों में इतने एकाकार होते हैं कि जन्म मृत्यु गैरप्रासंगिक।एक धारा में बहकर प्रवेश तो दूसरी धारा में बहते हुए चले जाना।


धर्ममते देहमुक्ति हेतु अंतिमसंस्कार धर्मांतरे स्मृतियों में अस्तित्व विलीन हो जाने की प्रथा है,जहां दःख शोक ताप एकाकार है।


सही मायने में मुझे अपने माता पिता की पुण्यतिथि माने का भी कोई औचित्य नजर नहीं आता।कोई किसी को यद करें या नहीं,मृत्योपरांत इससे कुछ भी बदलता नहीं है।


स्मृतियों की प्रांसगिकता अगर समाज जीवन में न हो तो वे स्मृतियां भी कागज के नावों में सवार सुनामी के मुकाबला करने का अभ्यास है और कुछ भी नहीं।


हमारी लोकपरंपराओं में जो स्मृतियां जीवन को और समाज को और राष्ट्रतंत्र को भी बदलने के संदर्भ में अतिशय प्रासंगिक हैं,उन्हें हम भुलाते रहे हैं।


जैसे बौद्धमय भारत की,पंचशील अनुशीलन की स्मृतियां,जैसे सामंती मध्ययुग में दैवीय राजकाज के विरुध्द हाड़ मांस रक्त से लबालब मनुष्यता के विद्रोहात्मक जयघोष के सूफी संतों के साहित्यिक आंदोलन की स्मृतियां और साम्राज्यवाद के खिलाफ सहस्राब्दियों से जारी जनविद्रोह के अनंत सिलिसिले की अटूट स्मृतियां।


जैस बहिस्कृत अस्पृश्य अश्वेत जनसमुदायों का प्रकृति से अद्वैत संबंध से जुड़े उत्पादन संबंधों की जटिल स्मृतियां और सभ्यता के विकास के रास्ते आहिस्ते आहिस्ते उन स्मृतियों का विलोप।उसकी स्मृतियां भी।


मोक्ष स्मृतियों से अलहदा हो जाने का नामांतर है।


इहकाल भूलकर परकाल की लालसा,जिसे हमारे पुरखे चार्वाक ने सिरे से खारिज करते हुए मार्क्सवादी विचारधारा के अभ्युदय से पहले ही उदात्त कंठ से कहा था-ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत।


मनुष्य के अस्तित्व के बाहर किसी ईश्वर और धर्म का अस्तित्व नहीं है,बंगाल की धर्मनिरपेक्ष बाउल परंपरा में देहतत्व का सार यही है।


मुक्त बाजार में मोक्ष का आध्यात्म लेकिन ओशो के संभोग से समाधि का ही अनंत पथ है और उपभोक्ता समाज की स्मृतियां समाप्त होना इसके लिए अनिवार्य शर्त है।


स्मृति लोप हुआ तो इतिहास भूगोल बेमायने और इतिहास बोध न हुआ तो वैज्ञानिक दृष्टि असंभव और ये नहीं हुए तो साह्ति्य संस्कृति राजनीति अर्थशास्त्र सबकुछ मनुष्यता के विरुद्ध ही मोर्चाबंद।


स्मृतियां सरल नहीं होती।


स्मृतियां तरल होती हैं तो हों स्मृतियां गरल होती हैं तो,कुहासे के मानिंद उत्तुंग शिखरों पर या नीली झील की सतह पर तिरती बर्फ या झरने की गहराइयों की गूंज या किसी मनुष्य के शोक में एकाकी विलाप या इन सबके मध्यउत्पादन प्रणाली में चालू हाथ पांव के मध्य कोई अभिव्यक्ति के अलग अलग रुपों में आ सकती हैं,जा सकती है स्मृतियां।


स्मृतियों के बिना न जीवन है।

स्मृतियों के बिना कोई संबंध नही।न स्मडति बिना मनुष्यता संभव है।


स्मृति हीन सभ्यता मनुष्यता और प्रकृति के विरुध्द नरसंहार संस्कृति अवशेषे।मुक्तबाजारे।इति सिद्धम।


मुझे निजी तौर पर जैसे कामायनी पर पुनर्विचार के मुक्तिबोध के तेवर हैं,जैसी उनकी लंबी कविता अंधेरे में है,या फिर ब्रह्मराक्षस का जो भविष्य के प्रति और अतीत के प्रति दायबद्ध कार्यभार है,वहां लोकस्मृतियों के कोलाज के अलावा कुछ और नजर नहीं आता।


मेरे लिए मुक्तिबोध से तात्पर्य मुक्तकामी जनता का पक्ष जितना नजर आता है,उससे कहीं जनस्मृतियों का कोलाज नजर आता है उनका सारा रचना संसार।


मैं जब भी मुक्तिबोध को पढ़ता हूं या उनकी अमोघ पंक्तियां उद्धृत करता हूं,बार बार उन स्मृतिसमूहों के कोलाज में मुक्तिकामी जनता की छटफटाहट को स्पर्श करता हूं और उसी स्पर्श में बसती है कविता की संवेदनाएं,जो पोर पोर में प्रवेश करके अस्तित्व को ही ज्वालामुखी बनाने का काम कर जाती हैं।


जनस्मृतियों की कोख में ही चूंकि संस्कृति और कलाओं की विरासत है,तो वह विज्ञापनी जिंगल तो हो ही नहीं सकती।


खालिस माटी की सौंदी महक के बजाय भाषिक कौशल उसकी संरचना तो हो ही नहीं सकती।स्मृतिमुक्त संस्कृति लेकिन जनसंस्कृति नहीं हो सकती।


इतिहास और सांप्रतिक इतिहास से मुंह चुराने का सबसे अहम तरीका धर्मोन्माद है।


मध्य युद में देशे देशे हमने सामंती और राजतंत्रीय राज्यव्यवस्था में आम जनता को कुचलने वाले इस धर्मोन्माद को देखा है और अकेले यूरोप का इतिहास पढ़ना इसके लिए पर्याप्त है।इसी धर्मोन्माद के मध्य औद्योगीकरण के रास्ते पूंजीवाद का विजयदध्वजा लहराता रहा।


तो मुक्तबाजारी तकनीकी क्रांति में भी उसी धर्मोन्माद का जयघोष।


आज मुक्तिबोध के जन्मदिन पर गुजरात विशेषज्ञ भाजपा के संघी प्रधान का लंबा चौड़ा साक्षात्कार छपा है अंग्रेजी अखबारों में, जिसमें केसरिया राज्यतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्थि लवजिहाद मध्ये कारपरेट कार्निवाल बताया गया है।


इसी के मध्य ओएनजीसी,कोलइंडिया और एनएचपीसी को बेचकर 45 हजार करोड़ रुपये की कमाई का ब्यौरा है तो भारत में बोफोर्स तोपों की नया जन्मवृत्तांत भी है और शारदा पोंजी अर्थव्यवस्था का तमाझाम भी है।


मैंने इन मुद्दों पर अंग्रेजी और बांग्ला में विस्तार से लिखा है,जो मेरे ब्लागों पर उपलब्ध है। हम इस अश्वमेध की बारीकियों पर फिलहाल इस आलेख में नहीं लिख रहे हैं।


प्रबल स्मृति निर्भर मुक्तिबोध का साहित्यजनसाहित्यभी इसीलिए है कि वह स्मृतियों का कोलाज है।


स्मृति लोप से तात्पर्य मस्तिष्काघात है।

धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता स्मृतिलोप का सबसे बड़ा विपर्यय है।

इसका तात्पर्य समाज और जनता को मस्तिष्काघात का शिकार बनाकर मुक्त बाजार।


2008 में बामसेफ के जयपुर राष्ट्रीय सम्मलेन के मौके पर जयपुर हाईकोर्ट के परिसर में मनुमहाराज की मूर्ति की तस्वीरें खींचकर लाये थे अनेक कार्यकर्ता।मुझे आज भी मालूम नहीं है कि वहां वास्तव में मनुमहाराज की कोई मूर्ति है या नहीं।


अब भारतीय संविधान और भारतीय लोकत्ंत्र भी स्मृति मात्र हैं और उनका तेजी से विलोप हो रहा है।अदालती फैसले भी मनुस्मृति का हवाला देकर होने लगे हैं।


अब इस खबर को गौर से पढ़ेंः


हार्इ कोर्ट का फैसला: पति कहीं भी रहे पत्नी की देखभाल जरूरी जिम्मेदारी

बिलासपुर। हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि पत्नी को सीआरपीसी की धारा 125(1) के तहत दिए गए भरण-पोषण के आदेश को एक्जीक्यूशन में चुनौती नहीं दी जा सकती। आदेश रद्द भी नहीं किया जा सकता। हाईकोर्ट ने पत्नी की क्रिमिनल रिवीजन को मंजूर करते हुए पति को दो माह के भीतर एरियर्स की पूरी राशि जमा करने का आदेश दिया है। कोर्ट के मुताबिक, पति कहीं भी रहे, पत्नी की देख-भाल करना उसकी जिम्मेदारी है।


जस्टिस संजय के. अग्रवाल की सिंगल बेंच ने मनुस्मृति का हवाला देते हुए कहा है कि पति नौकरी या व्यवसाय के सिलसिले में शहर से बाहर रहे या विदेश जाए, पत्नी की देख-भाल उसकी जिम्मेदारी होती है। रायगढ़ में रहने वाली संतोषी जायसवाल ने हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन दाखिल कर फैमिली कोर्ट द्वारा उसके व बच्चों के पक्ष में हर माह एक हजार रुपए भरण-पोषण के आदेश को रद्द करने को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने उसके पक्ष में 17 जनवरी 2006 को आदेश दिया था। पति राकेश जायसवाल ने इसके खिलाफ फैमिली कोर्ट में ही अर्जी लगाकर कहा कि कोर्ट ने पत्नी को साथ रहने का आदेश दिया था। उसने इसका पालन नहीं किया, लिहाजा वह भरण-पोषण की पात्र नहीं है। फैमिली कोर्ट ने इस पर सुनवाई करते हुए 30 नवंबर 2007 को अपने ही आदेश को रद्द कर दिया। पत्नी ने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन दाखिल की। इसमें आदेश के बाद से भरण-पोषण के तौर पर एक हजार रुपए और एरियर्स के रूप में 40 हजार रुपए की मांग की गई। हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए कहा है कि सीआरपीसी की धारा 125(1) के तहत जारी आदेश को क्रियान्वयन कार्रवाई में चुनौती नहीं दी जा सकती, न रद्द किया जा सकता है। पति को दो माह के भीतर भरण-पोषण की पूरी राशि जमा करवाने का आदेश दिया है।






Sep 11 2014 : The Times of India (Ahmedabad)

Sell-off in CIL, ONGC, NHPC may fetch record Rs 45,000cr


New Delhi

TIMES NEWS NETWORK





CIL Alone Could Match Previous Best Yr's Mop-Up

The government on Wednesday kicked off the most ambitious disinvestment programme, targeting to mop up a record Rs 45,000 crore by selling shares in blue chips public sector companies -Coal India, ONGC and National Hydroelectric Power Corporation (NHPC).

While the exact dates are yet to be finalized, SAIL's disinvestment, which was cleared earlier, is likely later this month, with a 10% stake sale in Coal India expected around Diwali. The energy behemoth will help the government raise around Rs 23,600 crore based on its current share price. If prices hold, this sale alone is going to match the best ever disinvestment receipts of Rs 23,957 crore in 2012-13, when the government had sold shares of NTPC and NMDC, among others.

ONGC, where the government can garner close to Rs 19,000 crore via a 5% sale, is expected later in the year as the government is awaiting clarity on gas prices before the issue, sources in the government told TOI. Somewhere during the course of the year, it will also sell 11.3% in NHPC which, going by current price, will help generate around Rs 3,000 crore. Apart from helping improve the government's fiscal health, the issues come with the additional attraction of a higher quota for retail investors as 20% of the sale in case of offer-for-sale, or auction through stock exchanges, will be set aside for small investors. Now, market regulator Sebi has provided additional flexibility for these issues.

There are several other companies, such as BHEL, Power Finance Corporation and REC, which are also on the disinvestment department's radar but stake sale has not been cleared by the cabinet committee on economic affairs (CCEA).

Then, there is Axis Bank, where the government is looking to sell shares held by the Specified Undertaking of the erstwhile UTI, although ITC and L&T, two other prominent stocks are being retained. Then there is Axis Bank, where the government is looking to sell shares held by the Specified Undertaking of the erstwhile UTI, although ITC and L&T, two other prominent stocks are being retained.

The government holds these shares after it cleared all liabilities of UTI. Further, the Centre is looking to offload its remaining shares in Hindustan Zinc and Balco, which had been sold to Anil Agarwal's Sterlite Industries, during the Atal Bihari Vajpayee government's term.

All put together, finance minister Arun Jaitley -who attended Wednesday's cabinet meeting within hours of being discharged from hospital -has budgeted for disinvestment receipts of over Rs 58,000 crore during the current financial year. Going by current trends, he appears to be on course to meet the target, which will substantially reduce the pressure on government finances. Except for 1991-92, 1994-95 and 1998-99, the government has never met its annual disinvestment target.

While Jaitley had budgeted for a fiscal deficit of 4.1% of GDP for this year, it was seen as an ambitious goal given his over-reliance on tax collections, which is projected to rise by close to 17%.

Sources said road shows for investors are expected to commence shortly

Balco stake sale: Govt may use SME platform

New Delhi: The government may use Sebi's institutional trading platform (ITP) -meant for easier fund raising by SMEs and start-ups -to sell its remaining stake in Balco, where it had divested its majority stake to Anil Agarwal's Sterlite Industries over a decade ago.

The platform was created a few years ago to facilitate the exit of venture funds and private equity funds and allowed listing of companies without an IPO. TNN

  1. मुक्तिबोध | Sahapedia

  2. sahapedia.org/मुक्तिबोध/

  3. 13-03-2014 - 'अंधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं. 'ब्रह्मराक्षस' कविता में कवि ने 'ब्रह्मराक्षस' के मिथक के जरिये बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और आम जनता से उसके अलगाव की व्‍यथा का मार्मिक ...


  4. Muktibodh (वीडियो अनुवाद) द्वारा अंधेरे में - यूट्यूब

  5. मुक्तिबोध अंधेरे में के लिए वीडियो► 4:45► 4:45

  6. www.youtube.com/watch?v=qUv75pWil8c

  7. 15-02-2011 - Devashish Prasoon द्वारा अपलोड किया गया

  8. "अंधेरे में" महान हिंदी कवि गजानन माधव द्वारा एक प्रसिद्ध कविता हैMuktibodh ... यह अपने हिस्से में से कुछ की एक वीडियो अनुवाद है. फिल्म द्वारा किया गया ...

  9. Muktibodh से अंधेरे में (वीडियो अनुवाद ... - Firstpost

  10. मुक्तिबोध अंधेरे में के लिए वीडियो

  11. www.firstpost.comTopicsPersonK. Dinesh

  12. "अंधेरे में" महान हिंदी कवि गजानन माधव द्वारा एक प्रसिद्ध कविता हैMuktibodh ... यह अपने हिस्से में से कुछ की एक वीडियो अनुवाद है. फिल्म द्वारा किया गया ...


  13. अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध - Kavita Kosh

  14. www.kavitakosh.org/.../अंधेरे_में_/_गजानन_माधव_मुक्ति...

  15. 26-04-2012 - मुखपृष्ठ»रचनाकारों की सूची»गजानन माधव मुक्तिबोध»संग्रह: चांद का मुँह टेढ़ा है /.अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध · अंधेरे में / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध · अंधेरे में / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध · अंधेरे में / भाग 4 ...

  16. मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के पचास साल ...

  17. news.apnimaati.com/2013/11/blog-post_14.html

  18. 'अंधंरे में' मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है। इस रचना के पचास साल पूरे हो रहे हैं। यह कविता परम अभिव्यक्ति की खोज में जिस तरह की फैंटेसी बुनती है तथा इसमें जिस तरह की बहुस्तरीयता व संकेतोंमें विविधता है, इसे लेकर हिन्दी के विद्वान ...

  19. अंधेरे में (मुक्तिबोध) | कविता

  20. kavitasamiksha.wordpress.com/2012/07/.../अंधेरे-में-मुक्तिबो...

  21. 22-07-2012 - अंधेरे में (मुक्तिबोध) ज़िन्दगी के… कमरों में अँधेरे. लगाता है चक्कर. कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार….बार-बार, वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक, भीत-पार ...

  22. अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध - Hindi ...

  23. hi.literature.wikia.com/.../अंधेरे_में_/_गजानन_माधव_मुक्त...

  24. CHANDER अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध, अंधेरे में / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध...

  25. मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद का ... - देशकाल

  26. www.deshkaal.com(साहित्य)हिंदीमुक्तिबोध सप्ताह

  27. मंने मुक्‍ति‍बोध को जानना शुरू कि‍या तब मेरी उम्र 17 साल की थी और जब मेरी उम्र 23 साल की थी तोमुक्‍ति‍बोध की मृत्‍यु हो गई। मेरा उनसे परि‍चय मात्र 6 साल का था। मुक्‍ति‍बोध की 'अंधेरे में ' कवि‍ता को यूरोप में टीएस इलि‍यट की जो 'वेस्‍ट लैण्‍ड' ...

  28. मुक्तिबोध: 'अंधेरे' के उस महाकवि से बहुत कुछ ...

  29. tirchhispelling.wordpress.com/2013/.../मुक्तिबोध-अंधेरे-के-उ...

  30. 15-05-2013 - मुक्तिबोध: 'अंधेरे' के उस महाकवि से बहुत कुछ सीखना बाकी है: रामजी राय. (रचनाओं से अधिक लेखकों की चर्चा करने वाला समाज सही अर्थों में साहित्यिक समाज नहीं कहा जा सकता . लेखक के प्रभा -मंडल का रचनाओं के प्रकाश – वृत्त से अधिक ...







मुक्तिबोध स्मृति-1 : एक दोपहर 'अंधेरे में'

First Published:06-09-14 07:42 PM

Last Updated:07-09-14 10:34 AM

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ग्यारह सितंबर को गजानन माधव मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्यतिथि है। उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन बाद उनकी महान कविता 'अंधेरे में' कल्पना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। सितंबर माह के सभी शब्द पृष्ठ हम मुक्तिबोध की स्मृति को समर्पित कर रहे हैं। वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी उन चंद सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जिन्होंने खुद मुक्तिबोध से इस कविता का पहला और संभवत: अंतिम भी पाठ सुना था। यहां वे अपनी स्मृति को साझा कर रहे हैं।



उस समय उस लम्बी कविता का कोई शीर्षक नहीं था: यह कहना भी कठिन है कि पूरी हो गई थी या नहीं। वह शायद उसका पहला प्रारूप था जिसे मुक्तिबोध हमारे आग्रह पर साथ ले आए थे। वे उन दिनों राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में अध्यापक थे और उस नाते सागर विश्वविद्यालय की कोर्ट में उन्हें महाविद्यालय से नामजद किया गया था। कोर्ट की बैठक साल में एक बार होती थी और वे उसमें भाग लेने आते थे। यह 1959 की बात है: मेरा बीए का अंतिम वर्ष था। हमने उनसे दो आग्रह किए थे कि वे हमारी संस्था 'रचना' में नई कविता पर एक व्याख्यान दें और वे 'नई कविता का आत्मसंघर्ष' शीर्षक से लिखकर आए थे। व्याख्यान के अगले दिन उन्होंने अपनी लम्बी कविता का हम कुछ मित्रों के सामने, जिसमें रमेशदत्त दुबे, आग्नेय, जितेन्द्र कुमार और प्रबोध कुमार शामिल थे, पढ़ा। एक ठंडे दिन की बरदाई दोपहर थी। प्रबोध कुमार के पैतृक मकान का एक कमरा था जिसमें उन दिनों नामवर सिंह किराए से रह रहे थे: उस समय वे कलकत्ते में एक परिसंवाद में भाग लेने गए हुए थे। यह याद आता है कि उन्हीं दिनों के आसपास मैंने फ्रेंच कवि से ज्यां पर्स की कुछ लम्बी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद टी.एस. ईलियट की भूमिका के साथ पढ़े थे। पर हिन्दी नई कविता में लम्बी कविताएं कम ही थीं और इतनी लम्बी कविता सुनने का हम सबका पहला ही अनुभव था।


मुक्तिबोध ने उस समय, आने से पहले, ऐसा जिक्र अपने पत्र में किया था कि वे एक लम्बी कविता को रिटच कर रहे हैं और मैंने अपने 16 नवम्बर 1959 के पत्र में उनसे इस कविता को साथ लाने का अनुरोध किया था। यों तो मुक्तिबोध, छोटी कविताओं के उस युग में, प्राय: हमेशा ही लम्बी कविताएं लिख रहे थे। उनमें से कुछ प्रकाशित भी हुई थीं। पर उनके मन में अपनी कविताओं को लेकर बड़ा संकोच भी रहता था: लम्बापन उनकी विवशता थी क्योंकि यथार्थ, समय, आत्म और समाज के जितने व्यापक फलक और उनमें गुंथी अनुभव की जटिलताओं को वे कविता में लाना चाहते थे, उसके लिए लम्बा रूपाकार अनिवार्य था। उनकी मृत्यु के बाद जब अज्ञेय ने उन्हें 'परिणति का नहीं प्रक्रिया का कवि' अभिहित किया तो इसमें सचाई थी। मुक्तिबोध ने प्रक्रिया को ही अपना लक्ष्य बनाया। मुक्तिबोध का पाठ उस अंतरंग गोष्ठी में लम्बा चला। हमें उस वक्त यह कतई अंदाज नहीं हो सकता था कि यह उनके द्वारा इस कविता का पहला और संभवत: अंतिम पाठ होने जा रहा था। चूंकि वे जीवन और कविता दोनों में गहरे आत्मसंशय से ग्रस्त रहते थे।


लगभग एक घंटे कविता पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि 'पार्टनर बोर हो रहे हों तो बंद करते हैं, चलिए चाय पी ली जाए'। दूसरी तरफ, हम सभी हतप्रभ थे- हमने ऐसी विचलित करनेवाली लम्बी कविता इससे पहले न तो सुनी थी, न ही पढ़ी। उसमें नियमित छन्द नहीं था, पर उसकी संरचना में लय के कई रूप थे और वे कई अप्रत्याशित मोड़ों पर आकर चकित करते थे। हमारे समय का अंधेरा मानों उस दोपहर उस कविता के माध्यम से उस कमरे में छा गया था और कविता उसे हमारे सामने रोशन कर रही थी। हमें तब यह पता तक न था कि हमारे समय का एक क्लैसिक हमारे सामने पढ़ा जा रहा था। पाठ खत्म होने तक मुक्तिबोध के पास रखी एक तश्तरी बीड़ियों के अधपिए हिस्सों से भर गई थी। इतना जरूर याद है कि तब लगा था कि कविता हमारे समय और समाज को, उनमें व्यक्ति की यातना को कैसे चरितार्थ कर सकती है। कविता का शिल्प अनूठा था: उसके प्रवाहवृत्त में इतने सारे मोड़ आते हैं। मुक्तिबोध कविता के उस प्रारूप से संतुष्ट नहीं थे और उस पर आगे और काम करने का जिक्र उन्होंने किया था।

मैंने बाद में 10 फरवरी 1960 को उन्हें एक पत्र लिखा- 'मैं सच कहता हूं (मैंने भरसक अपने को झूठ या झूठ-जैसा कुछ कहने से अलग रखा है) वह कविता नई कविता की महत्तम उपलब्धि है और समूचे आधुनिक हिन्दी काव्य की गौरवनिधियों में से एक। मैं नहीं जानता कि अब तक एक दूसरा 'निराला' हो सकता है या नहीं (या कि उसे होना चाहिए या नहीं), पर कहने को विवश हूं (हां, उस कविता की गरिमा और सघनता विवश ही करती है) कि मैं मुक्तिबोध को, अब, दूसरा 'निराला' मानता हूं, यह अतिशयोक्ति या भावुक कथन नहीं है : ..अगर दि वेस्ट लैंड यूरोप की आधुनिक सर्वश्रेष्ठ कृति है तो नि:सन्देह आपकी यह प्रदीर्घ कविता हिन्दी के लिए उतनी ही गुरु और महत्वपूर्ण रचना है।'


मुक्तिबोध इस कविता पर उसके बाद बरसों काम करते रहे और मार्च 1964 में, उनके पक्षाघात होने के बाद पोलिश विदुषी अग्नेश्का राजनांदगांव से लौटते हुए अपने साथ 'आशंका के द्वीप: अंधेरे में' शीर्षक से इस कविता को अपने साथ लाईं। उन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ के दरियागंज दिल्ली स्थित कार्यालय में हम कुछ लेखक मिलकर एक गोष्ठी चलाते थे। तब 1 मार्च को यह कविता उसमें पढ़ी गई। 3 मार्च 1964 को मैंने मुक्तिबोध को भेजे अपने पत्र में उन्हें सूचित किया: 'आशंका के द्वीप' कविता परसों की गोष्ठी में पढ़ी गई: पढ़ने का काम थोड़ा श्रीकांत जी ने और ज्यादातर मैंने किया। सभी लेखक-मित्रों ने उसकी प्रशंसा की और एक बहुत इंटेंस कविता बताया। वस्तु-संगठन की दृष्टि से भी हम सबको वह बड़ी कॉम्पैक्ट जान पड़ी। सभी को लगा कि समकालीनता का इतना ज्वलंत बोध और सच्चे राजनैतिक अनुभव को प्रामाणिक बनाकर प्रतिबिम्बित करने का इतना सफल प्रयत्न अन्यत्र कहीं नहीं है। साथ ही कविता की विवशता का कन्सीडरेशन उसकी वस्तुगत सघनता को और भी समृद्ध बनाता है। ..श्री ब्रदीविशाल पित्ती निकट भविष्य में यहां आ रहे हैं और हम लोगों को आशा है कि इतनी महत्वपूर्ण कविता को उसकी लम्बाई के बावजूद छापने को तैयार हो जाएंगे।


कविता 'कल्पना' में छपी, पर तब जब मुक्तिबोध उसे देखने के लिए अपने भौतिक शरीर में जीवित नहीं थे। इस वर्ष जैसे मुक्तिबोध के दुखद निधन के वैसे ही 'अंधेरे में' कविता के प्रकाशन के पचास वर्ष हो रहे हैं। 'अंधेरे में' की याद हममें से कइयों को आपातकाल के दौरान आई थी। मेरे अनुरोध पर उस दौरान हुए एक आयोजन के अवसर पर भोपाल के दो युवा चित्रकारों सच्चिदा नागदेव और सुरेश चौधरी ने 'अंधेरे में' पर आधारित एक चित्र-श्रृंखला बनाई थी, जिसकी भोपाल में मध्य प्रदेश कला परिषद की कला वीथिका में प्रदर्शनी लगी थी। उस अवसर पर प्रकाशित एक पुस्तिका में कविता से यह उद्धरण था:

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक

चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं

उनके खयाल से यह सब गप है

पात्र किंवदन्ती।


कुछ वर्षों बाद मुझे प्रीतिकर आश्चर्य हुआ जब कान से लौटकर: जहां हम मुक्तिबोध को लेकर बनाई मणि कौल की फिल्म 'सतह से उठता आदमी' विशेष अनुरोध पर दिखाने गए थे, पेरिस रुके तब वहां बरसों से बसे चित्रकार सैयद रजा ने बताया कि उन्होंने इसी कविता से एक पंक्ति अपने एक बड़े चित्र में ली है: 'इस तम-शून्य में तैरती है जगत-समीक्षा। मुक्तिबोध ने इसी कविता में ऐसे 'जरूरी दोस्तों' और 'नए-नए सहचर' खोजने-पाने की बात की थी जो 'सकर्मक सत-चित वेदना-भास्कर' हों। 'अंधेरे में' कविता की लम्बी यात्रा अपने आप में 'वेदना-भास्कर' रही है। उसके कालजयी होने का इससे अधिक और प्रमाण क्या चाहिए। हमारा वर्तमान समय जिस तरह की सकर्मकता की मांग करता है उसका एक प्रारूप इस कविता में है और अधसदी के बाद भी धुंधला या अप्रासंगिक नहीं हुआ है।

http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-Long-poem-title-say-hard-67-67-449627.html


50वीं पुण्यतिथि पर: यादों के झुरमुट में मुक्तिबोध

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

कनक तिवारी

Updated @ 1:24 PM IST

gajanan_muktibodh_50th death anniversary

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मुक्तिबोध को 1958 में साइंस कॉलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में देखा सुना था। वे राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में आ गए थे। अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करने के दौरान मुझे कई बार उनसे मिलने का अवसर तलाशना पड़ा।


पांच वर्ष बाद मैं दिग्विजय महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त होकर उनका सहकर्मी बना। तब तक मुक्तिबोध की सुपात्रित वह ख्याति नहीं थी, जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद अचानक उठा।


ब्रह्मराक्षस, ओरांग उटांग, क्लॉड ईथर्ली जैसे बीसियों अटपटे नामों की विकृतियों की भी सुसंगतता निर्धारित कर यह कवि उन्हें अभिव्यक्ति की धमनभट्टी में गलाकर कविता के उत्पाद में बदल देने की वैज्ञानिक वृत्ति का प्रयोगधर्मी रहा है। उनके प्रतीकों में अंधेरा, काला जल, सर्प, पत्थर, मृत्यु, चीत्कार वगैरह की परछाइयां नहीं, झाइयां कविता के चेहरे पर इस तरह उगी हैं कि इन्सानी विकृतियों में काव्यात्मकता बूझने की समझ विकसित है।


मुक्तिबोध में समय के आगे के इतिहास को बूझने की शक्ति थी। उसकी वैज्ञानिक अभिव्यक्ति उन्होंने खुद से जद्दोजहद करती तराशी हुई भाषा में परवर्ती पीढ़ियों की विश्व बिरादरी के लिए परोसने की कोशिश की।


उनके साहित्य का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुकूलता की समझ के साथ अनुवाद हुआ है। मुक्तिबोध भौगोलिक सीमा में बंधे केवल भारतीय कवि नहीं हैं। उन्हें विश्व कविता की समझ के एक प्रयोगशील हस्ताक्षर की तरह समझा जाना चाहिए। सड़क पर चलते 'एक साहित्यिक की डायरी' के टूटते जुड़ते विवरण रास्ते भर मुझे किसी दूसरी दुनिया में भेजते। मुक्तिबोध की मृत्यु-पूर्व अचेतन अवस्था ने सिद्ध किया कि उनके काव्य-बिंब बेहद असामान्य मानसिक स्थितियों में उपचेतन के कोलाज़ की तरह उभरते होते थे। साधारण जुमला है कि निराला ने व्यवहारगत एब्नॉर्मल होने के बावजूद नॉर्मल कविताएं लिखीं।


अपने व्यवहार में बेहद अनुशासित और करुणामय होने के बावजूद मुक्तिबोध की कविता का बड़ा अंश एब्नॉर्मेलिटी के लिबास में मनुष्यता का जनस्वीकृत हलफनामा है।

दिग्विजय महाविद्यालय से सटे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर 'आशंका के द्वीपः अंधेरे में' का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई।


मुक्तिबोध का अविस्मरणीय काव्यपाठ चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। पहली बार लगा था कि कविता हमारे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है।


पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है। 'अंधेरे में' आंतरिक उजास की कविता है। वह भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। यह आंशिक और अपूर्ण, लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है। मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे।


इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं, उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है। पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना कविता की रचनात्मक जिम्मेदारी होती है। यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही का ऐसा ऐलान है, जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है। 'अंधेरे में' की दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है।

एक कविता कहती है, 'पता नहीं कब कौन कहां किस ओर मिले।' कोई पचास बरस बाद मैं उन्हें नहीं, शायद मुक्तिबोध मुझे खोज रहे हैं। इस कवि से मेरा निजता का रिश्ता रहा है, लेकिन शायद कविता से उतना नहीं। मुक्तिबोध की कविताओं में स्वप्न का जटिल बिम्ब विधान अनायास है। जीवन का यथार्थ उनके सपनों से भी झरता था। बाद में यह प्रामाणिक सिद्ध हुआ कि उनके सपनों में भी कविता ही तो रही है।


हमें अक्सर लगता कि वे बातें करते-करते अपनी कविता में खो जाते। वे निश्च्छल भाषा के जरिए कविता को बहुआयामी बना देने के समर्थ शब्द-कारीगर भी लगते। वह विद्रोह का जनदस्तावेज इस तरह भी रचते, जिसके लिए टकसाल में गढ़ी किसी समकालीन या अंतर्राष्ट्रीय भाषा के विन्यास के लिए सायास उत्प्रेरण नहीं करना हो। मुक्तिबोध सदैव मनुष्य बने रहे। उनके मन में जो कुछ छूट जाता, वही चकरघिन्नी की तरह घूमता रहता। फिर कविता के गर्भगृह में तब्दील होता।


वार्तालाप-निपुण मुक्तिबोध की आंखों से सम्मोहन जैसा कुछ झरता रहता था। मैं कविता के बाल प्राइमर की पाठशाला में था। मुक्तिबोध उसका खुला विश्वविद्यालय थे। लगता उनमें सांसों का जो उतार चढ़ाव प्रवहमान है, वही कविता है। मुझे कवि से ज्यादा कवि होने की पृष्ठभूमि पर भरोसा रहता। भ्रम होता कि कविता को समझाने के अय्यार बने वे अपनी वैयक्तिकता को मेरी आंखों में ठूंस तो नहीं रहे हैं।


उनकी विनम्रता में सबसे पहले और सबसे ज्यादा समाज-सार्थक व्यंग्य आज भी दिखाई पड़ता है। मुक्तिबोध की दृढ़ हनु का फलितार्थ तब समझ नहीं आया था। अपनी निस्संगता महसूस करते मुक्तिबोध हर वक्त रचनात्मक उर्वरता की स्थिति में जीते। व्यापक भारतीय जीवन के कोलाहल की जो ध्वनि हहराती थी, उसे भी उन्होंने अपनी कविता की सिम्फनी बना दिया। वे शास्त्रीय संगीत के आदिम ध्रुपद राग की तरह के बेलौस गायक थे। ज्ञानेन्द्रियां ही तो उनकी कविता को समझने का माध्यम हैं।�������

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