Wednesday, 31 July 2013 10:09 |
शंभुनाथ पिछले साल एक बार देश का आधे से ज्यादा हिस्सा देर तक अंधकार में डूब गया था। इसे लेकर महानगरों में गुस्सा सड़कों पर आ गया। क्या इसको लेकर कभी भद्र नागरिक समाज ने प्रदर्शन किया कि देश के तीस करोड़ लोग पूरे साल ही बिल्कुल अंधकार में जीते हैं? जब तक अपना स्वार्थ नहीं है, मुंह में कोई 'आवाज' नहीं है। आज पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ने पर भौंहें तन जाती हैं। इस पर गुस्सा नहीं आता कि कृषकों को उपज की लागत नहीं मिल पा रही है। एक विपत्ति और है, चीन और कोरिया का माल भारतीय बाजार में आने से भारत में छोटे घरेलू व्यवसायों की भयावह तबाही हुई है। भारत कहीं समृद्ध हो रहा हो, पर वह कई जगहों पर उजड़ रहा है। ऊपर से मनोरंजन उद्योग रंगीन जीवन की चमक-दमक दिखाता है। प्रेमचंद अपने जमाने के मीडिया को भी संदर्भ बनाते हैं, ''जिनके पास न खाने को अन्न है और न पहनने को वस्त्र, वह ब्राडकास्टिंग सुन कर अपना मनोरंजन न करेंगे, तो कौन करेगा?'' उस जमाने में रेडियो के फिल्मी गाने खूब सुने जाते थे। प्रेमचंद ने अपने दौर के बारे में लिखा था, 'यह समय राष्ट्र के निर्माण का समय है।' क्या वर्तमान समय 'राष्ट्र' के विघटन का है? क्या भारत में बढ़ती विषमता राष्ट्र की व्यर्थता का चिह्न है? मध्यवर्ग को जहां असहिष्णु होना चाहिए, वहां वह निर्लिप्त है और जहां सहिष्णु होना चाहिए वहां उसमें हिंसात्मक असहिष्णुता है। ये प्रेमचंद हैं, जो शिक्षा और चिकित्सा के अलावा सांस्कृतिक सुधार पर जोर देते हैं। वे मानसिकता बदलने के लिए कहते हैं। वे कट्टरवाद का विरोध करते हुए बड़े दुख से कहते हैं, ''अछूत, दलित, हिंदू, ईसाई, सिख, जमींदार, व्यापारी, किसान, स्त्री और न जाने कितने विशेषाधिकारों के लिए स्थान दिया जाएगा। राष्ट्र का अंत हो गया।... मुसलमान जिधर फायदा देखेंगे उधर जाएंगे। सभी दल अपनी-अपनी रक्षा करेंगे। राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा?'' क्या लगता है कि यह राष्ट्र की वर्तमान दशा पर बयान नहीं है? प्रेमचंद के समय उपनिवेशवाद राष्ट्रीय भावना पर संकट पैदा कर रहा था। आज वह काम वैश्वीकरण कर रहा है। साम्राज्य से राष्ट्र का बाहर निकलना पहले से ज्यादा मुश्किल हो उठा है। इसलिए राष्ट्र के अंत का वैसा ही खतरा है, जैसा प्रेमचंद देख रहे थे। अमर्त्य सेन वैश्वीकरण के समर्थन में बोलते हुए भीतर से जो भी प्रश्न उठाते हैं, वे निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी किताबें 'हैपी इंडिया' की भारत-विरुदावलियों से अलग हैं। स्वाभाविक है कि अमर्त्य सेन वैश्वीकरण में साम्राज्यवाद नहीं देखते। वे प्रेमचंद की तरह मध्यवर्ग को उसके अंतर्द्वंद्वों के साथ नहीं देखते। उसे काट कर सीधे कॉरपोरेट घरानों पर भरोसा करते हैं या वंचित वर्गों का पक्ष लेते हैं। वे गरीबों और वंचितों का पक्ष लेते हैं, क्योंकि भविष्य में कॉरपोरेट समाज के हितों पर खतरा आत्मलिप्त और अंतर्विभाजित मध्यवर्गों से नहीं, गरीबों और वंचित लोगों से है। कहा जा सकता है कि अमर्त्य सेन का सोच भय का अर्थशास्त्र है, स्वाधीनता का अर्थशास्त्र नहीं। वे विषमता और बौद्धिक पतन की वजहों में नहीं जाते। वे भारत छोड़ कर अंतत: अमेरिका के टॉप विश्वविद्यालयों में पढ़ाने चले जाते हैं। वहीं बस जाते हैं। भारत अक्सर आते हुए भी ज्यादातर वहीं से भारत को देखते हैं। अमर्त्य सेन ने रवींद्रनाथ से अंतर्दृष्टि ली थी। 'पश्चिम से भौतिकता, भारत से आध्यात्मिकता' एक पुराना बौद्धिक टॉनिक है। उसका नया रूप है- वैश्वीकरण चाहिए, वंचित वर्गों के लिए मानवीय चिंताओं के साथ। प्रेमचंद कभी विदेश नहीं जा सके। वे यूरोप के बड़े लेखकों और आइंस्टीन से नहीं मिल सके। उन घटाओं से दूर रह कर उन्होंने भारत के गरीब और वंचित लोगों के बारे में जो सोचा, स्वप्न देखा और लिखा, वह अमर्त्य सेन की चिंताओं से कहां कम है, मुझे समझना अभी बाकी है। क्या हम प्रेमचंद के कथा साहित्य से आज की स्थितियों को समझने का विजन पा सकते हैं? इसने एक समय स्वाधीनता आंदोलनों को प्रेरित किया था। इसकी वजह सिर्फ उनका लेखन नहीं है, उनका जीवन भी है। वे कभी साम्राज्यवादी आकर्षणों में नहीं फंसे। उन्होंने जो लिखा, उसे जिया। उन्होंने साहित्य को अपने जीवन में ऊंचा स्थान दिया तो उसके लिए सरकारी नौकरी, रायसाहबी और अलवर महाराजा का दरबार भी छोड़ा। उनकी कृतियां भारतीय पीड़ा, प्रतिरोध और ट्रेजडी का महान दस्तावेज हैं। उनका लेखन हिंदुस्तान के बनने की कहानी है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta |
Wednesday, July 31, 2013
प्रेमचंद और अमर्त्य सेन
प्रेमचंद और अमर्त्य सेन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment