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Wednesday, July 31, 2013

प्यारे तसलीम के शिकवे के जवाब में

प्यारे तसलीम के शिकवे के जवाब में


पलाश विश्वास


प्यारे तसलीम भाई,


कविता की अपनी सीमा होती है।जब मुझे नजरिया याद आया,जाहिर है कि नजरिया से जुड़ राजेश श्रीनेत,उनका परिवार,दीप और उनका परिवार,रामपुर बाग और प्रेम नगर सबकुछ सिलसिलेवार याद हैं। याद हैं अमर उजाला के हर साथी।प्रतिष्ठा  मेरे लिए कोई पैमाना संबंधों के लिहाज से रहा नहीं है।हम लोग वीरेन दा,मंगलेश डबराल और गिरदा को तभी से जानते हैं,जब वे लोग संघर्ष के दौर में थे।उनके संघर्ष और प्रतिबद्धता ने हमारे जीवन की दिशा तय की है।


मेरी सारी लड़ाई तो बहिस्कृत लोगों के लिए प्रतिष्ठान विरोधी लड़ाई रही है।उसीमें आखिरी सांस तक जीना है।मेरी एकमात्र महात्वाकांक्षा बस,यही है।संदर्भ और समय मिला तो सबके बारे में लिखूंगा। आवाज,प्रभातखबर,जागरण,अमरउजाला और जनसत्ता के सभी साथियों के बारे में।


सबसे पहले मैं अपने गांव के तमाम लोगों को सामने लाना चाहता हूं। एक एक चेहरे को। फिर हाशिये पर खड़े समूचे हिमालय,बहिस्कृत जनसमाज और भूगोल इतिहास की मुख्यधारा के वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई ही हमारा वजूद है।


इस वक्त वीरेनदा कि याद ग्लेशियर में पिघलते हिमालय और टूटती झीलों की तरह मेरी उंगलियों पर काबिज हो गयी तो यह स्मृति कविता का आकार लकर आ गयी। जिस पल तसलीम मेरे वजूद से टूटता हुआ नजर आउंगा,तभी न लिखूंगा।


प्यारे तुम सभी मेरे वजूद में हो अबी।भूलने बिसूरने का सवाल ही कहां है।


हमारे पुराने साथी सभी दिग्गज हैं, पर उनमें से कोई वीरेनदा या गिरदा नहीं हैं यकीनन।


मैं खुद एक अवसन्न दैनिक का रिटायर होता हुआ बूढ़ा सबएडीटर हूं।


मेरी कविताएं सिर्फ नेट पर मेरे पाठकों को उद्देशित है।किसी संपादक,प्रकाशक या आलोचक के लिए अब मैं नही लिखता। मेरा कोई रचनाकर्म नहीं है।अपने लोगों की लड़ाई में जब भी अभिव्यक्त होने का तकादा होता है तो वक्तव्य वक्त व मिजाज के मुताबिक विधाओं का व्याकरण तोड़कर  सामने आता है।


गिरदा कहते थे कि शिल्प क्या चीज है, कथ्य ही असल है। वीरेन दा की कविताएं भी बाकी लब्धप्रतिष्ठित इंटरनेशनल नेशनल कवियों की तरह मात्र कला कौशल नहीं है।


वीरेनदा ने सच कहा था कि मैं कविताएं लिख ही नहीं सकता। उसके लिए अनिवार्य कौलिन्य मेरा नहीं है। मैं न सरस्वती का वरद पुत्र हूं और न सारस्वत। मैं किसान का बेटा हूं आज भी जिंदगी भर पत्रकारिता करने के बावजूद आज भी मैं एक अछूत शरणार्थी के सिवाय कुछ भी नहीं हूं।


एक मामूली सब एडीटर किसी को याद करें या भूल जायें,इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है, लेकिन तुम मेरे वजूद का हिस्सा हो,इसका सबूत तो यही है कि इसकी शंका होते ही दर्द का सागर उमड़ने लगता है। यही निजता तुम और हम सबको वीरेनदा के लिए बेचैन करती है। कवि हैं बहुत बड़े या छोटे, इससे वीरेनदा का कोई कद नहीं बनता। कद उनका बड़ा इसलिए कि उन्होंने तुम और हम जैसे नाकाबिलों को लड़ना सिखाया। हम कुछ बने हो या नहीं ,इससे कुछ आता जाता नहीं है। वीरेनदा की सस्ती हमारी जान है और जहान है।


मैं कम से कम कुछ चीजें जैसे अमेरिका से सावधान के चुनिंदे हिस्से, मेरठ दंगों के भूगोल और अर्थव्यवस्था पर मेरा लघु उपन्यास उनका मिशन, जख्मी हिमालय पर लघु उपन्यास नई टिहरी पुरानी टिहरी, खान दुर्घटनाओं की भुला दी गयीं रपटें, कुछ प्रिय जनों से बेहद अंतरंग साक्षात्कार, लालगढ़ डायरी, सिक्किम डायरी, मणिपुर डायरी जैसी चीजें और शायद कुछ कहानियां भी नेट पर हासिल स्वजनों के लिए अपने अंतःस्थल में रखना चाहता था। ऐसा करने लगूं तो समसामयिक मुद्दों पर हस्तक्षेप का सिलसिला तुरंत बंद हो जायेगा। अपने मोर्चे को तो हम खामोश नही कर सकते।


इसलिए अपने गांव और पहाड़ पर जो कुछ लिखना चाहता हूं,हर दिन,हर रात,उसे भी आकार नहीं दे पाता।


जनसत्ता में बाइस साल हो गये। एक विष्णु प्रभाकर जी से बातचीत के अलावा आपने दिल्ली जनसत्ता के पन्नों पर मुझे कभी मौजूद नहीं देखा होगा। उन्होंने मुझ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता दी हुई है, जो अन्यत्र असंभव है,इसलिए जनसत्ता में सबएडीटर हुए पत्रकारिता से रिटायर होने के वक्त मुझे कोई अफसोस नहीं होगा। फिर सविता के दिल में जो ट्यूमर हुआ और डा.देवी शेट्टी ने जो उनका आपरेशन किया,उस वक्त हम सचमुच अनाथ थे,लेकिन तब पूरा जनसत्ता परिवार मेरे साथ था।आज के मीडिया परिदृश्य में उस आपरेशन के संभव होने और सफल होने की सपने में भी कल्पना नहीं की जा सकती।


दरअसल,मंगलेश दा को मैंने एक लेख भेजा था,जिसे प्रकाशन के लिए संपादित किया गया, लेकिन वह प्रकाशित नहीं हुआ। उसके बाद मैंने कभी जनसत्ता के लिए लिखा ही नहीं।


इसी तरह संजीव हमारे परम अंतरंग हुआ करते थे। पत्रकारिता की एकदम शुरुआत से वे मदन कश्यप, पंकज प्रसून, अनवर शमीम और हमारे घनघोर दस्ते के अगुआ थे। जब वे इस्को से सेवा निवृत्त हुए, तब मैंने लिटरेट वर्ल्ड के लिए उनका लंबा इंटरव्यू किया जो सायद अमरउजाला में भी आया। जब उपन्यास लेखन के लिए वो कोयला खानों को छान रहे थे,तब भी उनके संग थे हम। और तो और, श्रीनारायण समीर साक्षी हैं कि हमारे एकदम निजी अनुभव और प्रयोग का उन्होंने कहानी में कैसे इस्तेमाल किया।हमने कोई ऐतराज नहीं किया। यह बाहैसियत मित्र और अग्रज उनका हक था। राजेंद्र यादव जी की वजह से बीच में हंस में कुछ लिखता था। फोन पर जब भी बात होती वे अमूमन शिकायत करते कि बहुत लंबा लिखते हो। इस लंबाई पर एकमात्र गिरिराज किशोर और सुधीर विद्यार्थी को छोड़कर सबको एतराज रहा है। सिर्फ आनंद स्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट ऐसे दो लोग हैं, जिन्होंने मैंने जब भी जैसा भी लिखा,वैसा ही छाप दिया।अब मैं उनके लिए या अपने नैनीताल समाचार के लिए भी लिख नहीं पाता।


संजीव जब हंस के संपादक बने तो मैं किसी संगोष्ठी में भाग लेने दिल्ली पहुंचा तो हंस के दफ्तर में सिर्फ इसलिए फोन किया कि लगे हाथों संजीव जी का दर्शन कर लूं। वहां रांजेंद्र जी ने लंबी होने के कारण जो मेरा लिखा न छापा था,उसका अंबार लगा हुआ था।संजीव भाई को लगा मैं उसीके दरबार के लिए उनसे मिलना चाहता हूं और जब बाहैसियत हंस संपादक देशभर के उनके दौरे के मध्य उनसे फोन पर बात हुई तो बाकी है हालचाल पर च्रचा होने से पहले वे मुझे बताने लगे कि क्यों मेरे उन लेखों का छापा नहीं जा सकता।


अपनी क्षुद्रता पर इतनी कोफ्त हुई कि संजीव जी के वहां रहने तक क्या अब भी दुबारा हंस में कुछ भी नहीं भेजा।


रिटायर होने पर दो हजार का पेंशन भी नहीं मिलना है। दो तीन साल रह गये हैं। आजतक व्यवसायिक लेखन नहीं कियाष मेरे ब्लाग प्रतिरोद के ब्लाग हैं, विज्ञापनों के नहीं। पिता कुछ नहीं छोड़ गये। ससुराल से महारे घर में मैं क्या किसी भाई ने पिता के कारण कुछ भी नहीं लिया। हम दोनों शुहगर के मरीज हैं। सविता इंसूलिन पर हैं। दवा और डाक्टर पर आधी मजूरी खत्म हो जाती है। 2016 में कैसे जियेंगे कोई छिकाना नहीं है। नेट पर मौजूद रहने की औकात तो जाहिर है कि नहीं रहेगी। इसलिए कुछ ज्यादा दी तेज है मेरा इन दिनों का लेखन।  बूझने से पहले की शिखायें हैं।


अब प्यारे तसलीम, बताना कि किस हाल में याद करूं तुम सबको। बहुता को गुस्सा भी आयेगा कि मुझ जैसा नाकाम आदमी उनका नाम लेकर कहें कि कभी वे मेरे अंतरंग थे।जनसत्ता में आकर धीरेंद्र अस्थाना ने जिनसे पहचान आपातकाल में कोटा के लेखक सम्मेलन से लेकर चिपको आंदोलन और दिल्ली में उनके संघर्ष के दिनों तक थी, मुझे पहचानने से इंकार कर गये। यहीं नहीं मेरे साथ बैठे सूरज प्रकाश को डपटकर उठा ले गये। वे मुंबई सबरंग के सर्वशक्तिमान फीचर संपादक थे और मैं तब भी सबएडीटर है।हालांकि जब मैंने जनसत्ता कोलकाता पहुंचा तब उनका यह संदेश भी आया था कि

तुम किस पोस्ट पर हो जानने की ललक बनी रहेगी।


ऐसे में बताओ, तसलीम कि कम से कम मीडिया के कामयाब लोगों को अपना पुराना मित्र बताने की हमारी औकात कैसे हो सकती है?


बहरहाल, तुम्हारी शिकवा और उसके जवाब को मैं अंतःस्थल में दर्ज करता हूं हालांकि यह कविता तो है नहीं। ेक असमर्थ कैफियत भर है।


पलाशदा



पलाश दा,

आप जानते हैं मुझे...लेकिन याद नहीं होगा...हो भी क्यों.. न तो मैं कोई नामी शख्सियत हूं और न ही कोई स्टार जिसे हर कोई जाने माने.....खैर..ये मेल अपने बारे में बताने से ज्यादा आपकी याद आने के बहाने लिख रहा हूं।

संदर्भ वीरेन दा के जन्मदिन के मौके पर आपकी लिखी कविता पढ़ने से है...


इस कविता में आपने नजरिया का जिक्र किया है... िइसी नजरिया में तसलीम नाम का एक लड़का भी पत्रकार बनने की धुन लिए काम करता था...काम क्या करता था...बल्कि ये कहना सही होगा कि काम करने की कोशिश करता था... मैं वही लड़का हूं...जिसकी लिखी रिपोर्ट को वीरेन दा कभी कभी एडिट कर दिया करते थे।

आपको शायद याद न हो...नजरिया में ही आपने उत्तराखंड के लोगों पर एक सीरीज लिखी थी...लामबंद होते लोग....बरसों तक नजरिया के कई अंक मेरे पास रहे..सहेजे हुए उनमें आपके लिखे वो लेख भी थे। आपकी लिखी एक कहानी...शायद अमर उजाला के रविवारीय संस्करण में वीरेन दा ने ही छापी थी....गिद्ध, कुत्ते, चोर, हम और प्रधानमंत्री.....बरेली के मॉडल टाउन के सामने तब स्थित बूचड़खाने में खाने की तलाश में एकत्रित गिद्धों को कहानी के प्रसंग में िइस्तेमाल कितनी अच्छी तरह किया था आपने....


आपको नहीं याद होगा...जब बरेली में एक बार विश्वनाथ प्रताप सिंह आए थे चुनाव प्रचार के दौरान....राष्ट्रीय मोर्चा जन्म ले रहा था तब...बोफोर्स बोफोर्स का हल्ला था सब तरफ...आप अमर उजाला में काम करते थे उस समय....मैं एक ट्रेनी लग गया था तब तक वहीं....आपने किस तरह बिना कागज कलम पर नोट किए हुए ही वीपी सिंह का इंटरव्यू कैसे लिख मारा था...मैं दंग रह गया था। मुझे याद है जब आप नजरिया के रामपुर बाग वाले दफ्तर में लामबंद होते लोग का अगला हिस्सा लिख रहे होते थे तो मेज किस तरह हिलती थी। आप नजरिया के दफ्तर में कभी कभी अपने बेटे के साथ भी आते थे...बहुत छोटा था वो तब शायद चार साल का रहा होगा...ये बात 1990-91 के आसपास की है...


बहुत कुछ याद है आपके बारे में....

नजरिया से शुरू कर अमर उजाला बरेली और कानपुर होते हुए दिल्ली पहुंच गया हूं....टीवी में काम करता हूं....आजतक, स्टार न्यूज होता हुआ आजकल आईबीएन 7 में काम कर रहा हूं।


आशा करता हूं कि वीरेन दा के जन्म दिन के कार्यक्रम में आप दिल्ली में दिखेंगे...आप तो नहीं पहचानेंगे...लेकिन मैं पहचान जाऊंगा आपको....सिर्फ मिलने की ख्वाहिश है.



सादर

तसलीम



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