Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Wednesday, June 4, 2014

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे  झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!

पलाश विश्वास

बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे  झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!


हमने फिलहाल अंग्रेजी में लिखा है कि धारा 370 संवैधानिक बाध्यता और कश्मीर की जमीनी हकीकत से ज्यादा हिमालयी जनता और प्रकृति के संरक्षण के संदर्भ में प्रासंगिक है क्योंकि हिमालय,मध्य भारत,पूर्वोत्तरऔर बाकी देश मेंसंवैधानिक सुरक्षा कवच और प्रावधान लागू हैं ही नहीं।


अगर धारा  370 कश्मीर की तरह बाकी हिमालय में भी लागू होता तो पहाड़ों में बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज की नौबत नहीं आतई और न ही प्राकृतिक आपदाएं इतनी घनघोर होतीं।हजारों लापता गांव और घाटियां,नदियां,पर्वत शिखर सुरक्षित होते।


यह बेहद प्रासंगिक मसला है।इस पर दस्तावेज समेत सिलसिलेवार हम चर्चा करेंगे।फिलहाल बाकी पहाड़ में भी धारा 370 जैसे संरक्षक प्रावधान लागू करने की मांग के अलावा दारा 370 की चर्चा नहीं करेंगे।लेकिन नस्ली अस्पृश्यता की तरह भौगोलिक अस्पृश्यता भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का कारपोरेट फ्री कूपन है,इसे फिलहाल समझ लें।


इस मुद्दे पर विस्तार से आने से पहले कुछ बेहद जरुरी बातें हो जानी चाहिए।


आर्थिक मुद्दों पर केंद्र में सरकार बदल जाने के बाद अभी हाथ कंगन तो आरसी क्या हालात बने नहीं हैं।


आर्थिक एजंडा पर आर्थिक अखबारों और चैनलों के जरिये,शेयरबाजारी उछलकूद और विदेशी निवेशकों ,रेटिंग एजंसियों के मार्फत जो अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय कारपोरेट लाबिइंग हो रही है,जिसके तहत स्वयंभू देशभक्तों की एकमात्र पार्टी ने नवउदारवाद की पहली बहुमती सरकार के जरिये वित्त प्रतिरक्षा एकाकार करके रामराज का जो ट्रेलर रक्षा क्षेत्र में सौ फीसद प्रत्यक्ष निवेश को हरी झंडी देकर और लंबित सारी कारपोरेट जनप्रकृति विध्वसंक परियोजनाओं की मंजूरी प्रक्रिया शुरु करके दिखाया है।


बजट में सब्सिडी,आधार योजना, कर प्रणाली, भुगतान संतुलन,वित्तीय घाटा,उत्पादन व्यवस्था,प्रोमोटर बिल्डर वर्चस्व की अधिसंरचना,ऊर्जा और आवश्यक सेवाओं के हाल हवाल देखर ही सिलसिलेवार लिखना होगा।


लेकिन धारा 370 के सिलसिले में एक सूत्र अभी से खोलना है।गुजरात माडल अब राष्ट्र का सलवा जुड़ुम एजंडा है।लेकिन तमिलनाडु के विकास माडल पर अमूमन चर्चा नहीं होती जहां लोगों को मुफ्त 20 केजी चावल मिलता है हर महीने तो बाजार में चावल बीस रुपये किलो है और राशन में दो रुपये किलो।


कोयंबटुर में बंगलुर की तरह सिलिकन वैली है।खेती और देहात को आंच आयी नहीं हैं और सड़के सचमुच नायिका गालसमान है।औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है लेकिन अंधाधुंध शहरीकरण हुआ नहीं है।


पूंजी के बजाय अब भी तमिलनाडु की बड़ी प्राथमिकता कृष्णा,कावेरी से सिंचाई का पानी है।लेकिन खेती और किसानों के वजूद के साथ समूचे देहात को उसके रंग रुप गंध के साथ रखकर औद्योगिक विकास की दौड़ में बने रहने की इस देशज द्रविड़ दक्षता पर आर्यावर्त में चर्चा नहीं हुई है अभी तक। इस पर चर्चा मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था में अपने अपने वजूद के लिए बेहद जरुरी है।


कश्मीर की तरह तमिलनाडु भी बाकी भारतीय जनता के लिए पहेली है।कश्मीर में लोग हिंदी नहीं समझते और उनसे संवाद या उर्दू या अंग्रेजी में ही संभव है। तो अलगाव का पूरा जोखिम उठाते हुए तमिलनाडु तमिल के अलावा किसी और भाषा में संवाद नहीं करना जानता।


विश्वभार में भाषाई राष्ट्रीयता के नाम पर राष्ट्र कोी है तो बांग्लादेश,जहां मातृभाषा सर्वोच्च है,लेकिन वहां भी बांग्ला सर्वक्षेत्रे अनिवार्य होने के बावजूद दूसरी भाषाओं के लिए जगह है।इसी स्पेस से वहां भी पूरे महादेश की तरह मुक्तबाजार का बोलबाला है, अबाध विदेशी पूंजी निरंकुश है।


तमिलनाडु में किसी दूसरी भाषा के लिए कोई जगह है नहीं।इस मामले में वे बांग्लादेश से भी दो कदम आगे हैं।


पूंजी का नंगा नाच शायद इसीलिे तमिलनाडु में संभव नहीं है क्योंकि वहां लोक का बोलबाला है और सांस्कृतिक अवक्षय हुआ नही है।


अगाध मातृभाषा प्रेम ने उनकी सांस्कृतिक जमीन अटूट रख दी है,जो संजोग से मनुस्मृति अनुशासन के मुताबिक भी नहीं है।


संस्कृति अटूट होने की वजह से समाज जीवन में नैतिकता और मूल्यबोध अब भी प्रबल है।इसलिए बेशकीमती सामान होने के बावजूद तमिलनाडु में लोग घरों को तालाबंद रखना जरुरी नहीं समझते और वहां स्त्रिया और बच्चे भी देर रात लाखों के गहने पहनकर घर से बाहर सुरक्षित है।


लोग हिंदी प्रदेशों में हिंदी अवश्य सीख जाते हैं तो बंगाल आकर कोई बांग्ला न सीखें,तो अजूबा।


हम लोग तमिल सीख लें, उनके हिंदी न सीखने की जिद के बावजूद तो उनके विकास की पहेली गुजराती माडल अपनाने से पहले बूझने में आसानी रहेगी।


तमिल राष्ट्रीयता से अगर हमें परहेज नहीं है,अगर हमें तेलेंगना की राष्ट्रीयता से भी परहेज नहीं है तो आदिवासी अस्मिता, मंगोलियाड उत्तरपूर्वी लोग और समूचे हिमालय के लोग मय कश्मार हमारे लिए इतने अस्पृश्य क्यों है, धारा 370 पर फतवा जारी करने से पहले संविधान सभा को बहाल करें या नहीं,इन मुद्दों पर गौर करना जरुरी है बाकी भारत में समता और सामाजिक न्याय के साथ कानून के राज और लोकतंत्र के लिए भी।


इसी सिलसिले में लगे हाथ बता दें की राजनीतिक चेतना प्रबल होने से ही बदलाव नहीं हो सकते,जबतक हम समाज वास्तव को संबोधित नहीं करते।


मसलन, बंगाल में राजनीतिक चेतना अत्यंत प्रखर है और यहां पूरा का पूरा ध्रूवीकरण राजनीतिक है।1967 से लेकर 1971 की अल्पावधि को छोड़ दें तो राजनीतिक अस्थिरता का शिरकार कमसकम बंगाल कभी नहीं रहा।1967 से 1971 के मध्यांतर को छोड़कर 1947 से 1977 तक बंगाल पर कांग्रेसी सिंडिकेटी राज रहा तो 1977 से 2011 तक वामदलों का।


अब दीदी का राजकाज भी जल्द खत्म होने को नहीं है।


लेकिन बंगाल का कोई विकास हुआ ही नहीं है।


अव्वल नंबरी होने के दीदी के दावे के बावजूद बंगाल में न खेती का विकास हुआ है और न उद्योगों का।न कारोबार का।


सबसे ज्यादा बेरोजगार देश भर में बंगाल में है।


सबसे ज्यादा बारहमासा राजनीतिक सक्रियता,मारामारी,वर्चस्व की खूनी लड़ाई बंगाल में है।


1911 में देश भर में बंगाल में सबसे पहले अस्पृश्यता निषेध कानून बन जाने के बावजूद बंगाल में अस्पृश्य कर्मकांड जस के तस है प्रगतिशील कायाकल्प के साथ।


अस्पृश्यता का सबसे बड़ा उत्सव बंगाल में दुर्गोत्सव है जबहां कर्मकांड में गैरब्राह्मणों की कोई भागेदारी निषिद्ध है।


मातृतांत्रिक न होते हुए,बंगाल के पारिवारिक सामाजिक जीवन में माता का स्थान बंगाल के शूद्र इतिहास की तरह शाश्वत भाव है और इसी बंगाल में स्त्री उत्पीड़न देशभर में सबसे ज्यादा है।


सत्ता बदलू परिवर्तन से समाज वास्तव के इंद्रधनुष जहां के तहां टंगे हैं और उसके रंगों में कोई फेरबदल नहीं है।


अब बंगाल में माकपा महासचिव की मौजूदगी में थोक भाव से वाम नेता कार्यकर्ता एक सुर से नेतृत्व परिवर्तन की मांग कर रहे हैं और जाति वर्चस्व तोड़कर सभी समुदायों को नेतृत्व में स्थान देने की मांग कर रहे हैं।उनकी मांग है कि नेता बदलो,वामपंथ बचाओ।


नेताओं का ऐसा कोई नेक इरादा नहीं है,बिना किसा संगठनात्मक फेरबदल के माकपा महासचिव कामरेड प्रकाश कारत अब भी विचारधारा बघार रहे हैं और बिना राज्य नेतृत्व को बदले बंगाल में वामपंथ को मजबत बनाने की गुहार लगा रहे हैं।


बंगाल के वामपंथी तो फिरभी मुखर है,बाकी देश के वामपंथियों को वाम आंदोलन की परवाह नहीं है क्या?


फिर उन बहुजन मसीहा संप्रदाय के अनुयायी नीले झंडे के सिपाहियों की आवाजें क्यों सिरे से गायब है जो बहुजन आंदोलन के हाशिये पर चले जाने से अपने नेताओं को बदलने की मांग तक नहीं कर सकते,इतने गुलाम हैं?


बाकी रंग बरंगे झंडेवरदार अस्मिता नायकों नायिकाओं के अनुयायी भेड़ धंसान में भी यथावत खामोश है।क्यों?


बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे  झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!


हमारे बहुजन मित्र अशोक दुसाध ने क्या खूब लिखा हैः


हमलोग गर्व बहुत करते हैं पता नहीं क्यों -

भारतीय होने पर गर्व है

हिंदू होने पर गर्व है

बाबासाहब पर गर्व है

माहात्मा फुले पर गर्व है

शाहूजी महराज पर गर्व है

सरदार पटेल पर गर्व है

पता नहीं किस किस किस पर गर्व है

ऐसा लगता है हमें गर्व करने के सिवा कोई काम नहीं !

अबकी बार सब गर्व को संघियों ने मुरब्बा बनाकर अपने पास रख लिया है .अब पाँच साल तक गर्व करने के लिये तरसते रहिये !


हालात किस कदर संगीन हैं,लेखिका अनीता भारती के फेसबुक दीवाल पर टोह लगा सकते हैं।उनका ताजा मंतव्यहैः


मैं दुबारा हालत जानने के लिए जगदीश को फोन करती हूँ वह दुखी स्वर में कहता है कि "पुलिस वाले हमें तंग कर रहे है" पीछे से भगाणा की महिलाओं की पुलिस से टकराने की और लडने आवाजें आ रही है. यह कौन सा समय है भाई?


दिनेश कुमार ने खबर ब्रेक कर दी हैः


साथियो ! खबर मिली है की अभी दो मिनट पहले ही दिल्ली पुलिस ने जंतर पर न्याय की लड़ाई लड़ रहे भगाना के साथियों का टेंट उखाड़ दिया है। उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा है।


युवा कवि नित्यानंद गायेन के इस मंतव्य पर भी गौर फरमायेंः

मेरे देश का यारों क्या कहना .........

बीरभूम : गैंगरेप पर पंचायत ने आरोपियों को एक-एक घड़ा शराब देने की सजा सुनाई ।


गौरतलब है कि रोजाना बंगाल में शासकीय संरक्षण में बलात्कार आम है।कभी कभार राजनीति कामदुनि को मशहूर कर देती है।


फर्क यह भी है कि अब वाया भगाना यूपी के बलात्कार स्त्री उत्पीड़न पर राष्ट्रीय फोकस है।बलात्कार के खिलाफ जितना ,उससे कहीं ज्यादा यूपी में अखिलेश का तख्ता पलट कर भगवा सत्ता स्थापित करने की गरज से।


इसके विपरीत बंगाल में चूं तक करने की हिम्मत नहीं हो रही है किसी की।


अंधाधुंध विकास का आलम यह है कि जिस नई दिल्ली में सन 1974 में अपने पिता के साथ चांदनी चौक फव्वारा के एक धर्मशाला से पैदल ही नई दिल्ली के अति महत्वपूर्ण साउथ ब्लाक और प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर राजघाट से कुतूब मीनार तक सड़कें पैदल नाप दीं,जिस दिल्ली में सन 1980 में भी  मंडी हाउस का कार्यक्रम देखकर बेखटके पैदल देर रात जेएनयू के पूर्वांचल हास्टल चले जाते थे,उस दिल्ली में सड़कों पर चलने वाले पैदल लोग और कतारबद्ध साइकिलें सिरे से गायब हैं।


सड़कें अति महत्वपूर्ण लोगों के लिए भी मौत का फंदा बन गयी हैं।


दिल्ली में हर रोज सड़क दुर्घटनाएं आम है और सड़कसुरक्षा सिरे से लापता है,लेकिन इस तरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता हो।


महाराष्ट्र के महाबलि नेता गोपीनाथ मुंडा की सड़क दुर्घटना से असामयिक मौत अपूरणीयक्षति है ही,खासतौर पर जबकि वे पिछड़े वर्ग की आवाज बने हुए थे दशकों से,लेकिन इस हादसे ने आंख में उंगली डालकर दिखा दिया है कि कैसे विकास के बारुदी सुरंगों में उत्तर आधुनिक जीवन यापन है यह।


राजधानी से बाहर निकलें तो दिल्ली आगरा एक्सप्रेस वे पर भट्चा परसौल गांव की अब कहीं कोई खबर नहीं बनतीं।


नये कोलकाता, नौएडा,द्वारका और नवी मुंबई के सीने में दफन देहात की धड़कनें यकीनन सुनी नहीं जा सकतीं।पर किसी भी स्वर्णिम राजपथ के आर पार बसे किसी गांव से देखें तो तेज रफ्तार से दौड़ती नई दिल्ली देस के हर हिस्से में आज देहात को कब्रिस्तान बनाकर खून की नदियां बहा रही हैं।


कार्यस्थल आते जाते हुए हमें रोजाना जान हथेली में लेकर नेशनल हाईवे नंबर दो और छह से होकर गुजरना होता है।रफ्तार और निर्मम ओवरटेकिंग,आर पार निकलने के बंदोबस्त होने के अभाव में रोजाना लोग सड़क हादसे मारे जाते हैं।बड़ी संख्या में विज्ञापित ब्रांडेड मोटर साईकिलें मौत का फरिश्ता बन कर खून बहाती रहती हैं। हमारे जैसे आम लोगों की मौत सुर्खिया नहीं बनतीं और न लाइव कवरेज की गुंजाइश है।गुमशुदा जिंदगी के लापता इंतकाल से ही तरक्की की तारीख लिखी जाती है।


बस, बहुत हो चुका! वक्त आ गया कि रंगबिरंगे  झंडावरदार सत्ता के सौदागरों की गुलामी से आजाद बेखौफ बदलाव का रास्ता चुन लिया जाये अपने वजूद की बहाली के लिए!


आनंद तेलतुंबड़े ने सिलसिलेवार लिखा हैः


अपराधियों का हौसला बढ़ाया जाता है

इंसाफ देने वाले निजाम द्वारा कायम की गई इस परिपाटी ने अपराधियों का हौसला ही बढ़ाया है कि वे दलितों के खिलाफ किसी भी तरह का उत्पीड़न कर सकते हैं. वे जानते हैं कि उनको कभी सजा नहीं मिलेगी. पहले तो वे यह देखते हैं कि जो दलित अपने अस्तित्व के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं, वे यों भी उनके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे. इस तरह उत्पीड़न के अनेक मामले तो कभी सामने तक नहीं आ पाते हैं, जिनमें से ज्यादातर दूर दराज के देहाती इलाकों में होते हैं. और अगर किसी तरह उत्पीड़न का कोई मामला दबाया नहीं जा सका, तो असली अपराधी तो पुलिस की गिरफ्त से बाहर ही रहते हैं और न्यायिक प्रक्रिया के लपेटे में उनके छुटभैए मातहत आते हैं. पुलिस बहुत कारीगरी से काम करती है जिसमें वह जानबूझ कर जांच में खामियां छोड़ देती है, मामले की पैरवी के लिए किसी नाकाबिल वकील को लगाया जाता है और आखिर में एक पक्षपात से भरे फैसले के साथ मामला बड़े बेआबरू तरीके से खत्म होता है. यह पूरी प्रक्रिया अपराधियों को काफी हौसला देती है.


क्या भगाना के उन बलात्कारियों के दुस्साहस का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिन्होंने 13 से 18 साल की चार दलित किशोरियों का क्रूरता से पूरी रात सामूहिक बलात्कार किया और फिर पड़ोस के राज्य में ले जाकर उन्हें झाड़ियों में फेंक आए और इसके बाद भी उन्हें उम्मीद थी कि सबकुछ रफा दफा हो जाएगाॽ जो लड़कियां अपने अपमान को चुनौती देते हुए राजधानी में अपने परिजनों के साथ महीने भर से इंसाफ की मांग करते हुए बैठी हैं और कोई उनकी खबर तक नहीं ले रहा है, क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि यह सब उन्हें कितना दर्द पहुंचा रहा होगाॽ क्या हम देश के तथाकथित प्रगतिशील तबके के छुपे हुए जातिवाद की कल्पना कर सकते हैं, जिसने एक गैर दलित लड़की के बलात्कार और हत्या पर राष्ट्रव्यापी गुस्से की लहर पैदा कर दी थी, उसे निर्भया नाम दिया था, लेकिन वो भगाना की इन लड़कियों की पुकार पर चुप्पी साधे हुए हैॽ महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के खरडा गांव के 17 साल के दलित स्कूली लड़के नीतीश को जब दिनदहाड़े पीट-पीट कर मारा जा रहा था – सिर्फ इसलिए कि उसने एक ऐसी लड़की से बात करने का साहस किया था जो एक प्रभुत्वशाली जाति से आती है – तो क्या उस लड़के और उसके गरीब मां-बाप की तकलीफों की कल्पना की जा सकती है, जिनका वह इकलौता बेटा थाॽ और क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इन दो बेगुनाह लड़कियों पर क्या गुजरी होगी, जिनके साथ अपराधियों ने रात भर बलात्कार किया और फिर पेड़ पर लटका कर मरने के लिए छोड़ दियाॽ और मामले यहीं खत्म नहीं होते. पिछले दो महीनों में इन दोनों राज्यों में उत्पीड़न के ऐसे ही अनगिनत मामले हुए, लेकिन उन्हें मीडिया में जगह नहीं मिली. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि अपराधी बिना राजनेताओं की हिमायत के ऐसे घिनौने अपराध कर सकते हैंॽ इन सभी मामलों में राजनीतिक दिग्गज अपराधियों का बचाव करने के लिए आगे आए: हरियाणा में कांग्रेस के दिग्गजों ने, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के दिग्गजों ने और महाराष्ट्र में एनसीपी के दिग्गजों ने अपराधियों का बचाव किया.


अमेरिका में काले लोगों को पीट-पीट कर मारने की घटनाओं के जवाब में काले नौजवानों ने बंदूक उठा ली थी और गोरों को सिखा दिया था कि कैसे तमीज से पेश आया जाए. क्या जातिवादी अपराधी यह चाहते हैं कि भारत में इस मिसाल को दोहराया जाएॽ



बस, बहुत हो चुका: आनंद तेलतुंबड़े का नया लेख

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/04/2014 02:17:00 AM



आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख एक बेशर्म और बेपरवाह राष्ट्र को संबोधित है. एक ऐसे राष्ट्र को संबोधित है जो अपने ऊपर थोप दी गई अमानवीय जिंदगी और हिंसक जातीय उत्पीड़नों को निर्विकार भाव से कबूल करते हुए जी रहा है. यह लेख बदायूं में दो दलित किशोरियों के बलात्कार और हत्या के मामले से शुरू होता है और राज्य व्यवस्था, पुलिस, कानून और इंसाफ दिलाने वाले निजाम तक के तहखानों में पैवस्त होते हुए उनके दलित विरोधी अपराधी चेहरे को उजागर करता है. मूलत: द हिंदू में प्रकाशित इस लेख के साथ इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में छपे उनके मासिक स्तंभ मार्जिन स्पीक का ताजा अंक भी पढ़ें. अनुवाद रेयाज उल हक


यह तस्वीर उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के कटरा गांव की है. इसमें दो दलित लड़कियों की लाश पेड़ से टंगी हुई है और तमाशबीनों की एक भीड़ हैरानी से खड़ी देख रही है. यह तस्वीर हमारे राष्ट्रीय चरित्र को सबसे अच्छे तरीके से बयान करती है. हम कितना भी अपमान बर्दाश्त कर सकते हैं, किसी भी हद की नाइंसाफी सह सकते हैं, और पूरे सब्र के साथ अपने आस पास के किसी भी फालतू बात को कबूल कर सकते हैं. यह कहने का कोई फायदा नहीं कि वे लड़कियां हमारी अपनी बेटियां और माएं थीं, हम तब भी इसी तरह हैरानी और निराशा से भरे हुए उन्हें उसी तरह ताकते रहे होते, जैसी भीड़ में दिख रहे लोग ताक रहे हैं. सिर्फ पिछले दो महीनों में ही, जबकि हमने एक देश के रूप में नरेंद्र मोदी और अच्छे दिनों के उसके वादे पर अपना वक्त बरबाद किया, पूरे देश में दलित किशोरों और किशोरियों के घिनौने बलात्कारों और हत्याओं की एक बाढ़ सी आ गई.


लेकिन इस फौरन उठने वाले गुस्से से अलग, इन उत्पीड़नों के लिए सचमुच की कोई चिंता मुश्किल से ही दिखती है. शासकों को इससे कोई सरोकार नहीं है, मीडिया की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, और फिर इसको लेकर प्रगतिशील तबका उदासीन है और खुद दलितों में भी ठंडा रवैया दिख रहा है. यह शर्मनाक है कि हम दलितों के बलात्कार और हत्या को इस तरह लेते हैं कि वे हमारे सामाजिक ताना-बाने का अटूट हिस्सा हैं और फिर हम उन्हें भुला देते हैं.

मनु का फरमान नहीं हैं बलात्कार

जब भी हम जातियों की बातें करते हैं, तो हम शतुरमुर्ग की तरह एक मिथकीय अतीत की रेत में अपना सिर धंसा लेते हैं और अपने आज के वक्त से अपनी आंखें मूंद लेते हैं. हम पूरी बात को आज के वक्त से काट देते हैं, जिसमें समकालीन जातियों का ढांचा कायम है और अपना असर दिखा रहा है. यानी हम ठोस रूप से आज के बारे में बात करने की बजाए अतीत के किसी वक्त के बारे में बातें करने लगते हैं. आज जितने भी घिसे पिटे सिद्धांत चलन में हैं वे या तो यह सिखाते हैं कि चुपचाप बैठे रहो और कुछ मत करो या फिर वे जाति की पहचान का जहर भरते हैं – जो कि असल में एक आत्मघाती प्रवृत्ति है. वे हमारे शासकों को उनकी चालाकी से भरी नीतियों के अपराध से बरी कर देते हैं जिन्होंने आधुनिक समय में जातियों को जिंदा बनाए रखा है. यह सब सामाजिक न्याय के नाम पर किया गया. संविधान ने अस्पृश्यता को गैरकानूनी करार दिया, लेकिन जातियों को नहीं. स्वतंत्रता के बाद शासकों ने जातियों को बनाए रखना चाहा, तो इसकी वजह यह नहीं थी कि वे सामाजिक न्याय लाना चाहते थे बल्कि वे जानते थे कि जातियों में लोगों को बांटने की क्षमता है. बराबरी कायम करने की चाहत रखने वाले एक देश में आरक्षण एक ऐसी नीति हो सकता है, जिसका इस्तेमाल असाधारण मामले में, अपवाद के रूप में किया जाए. औपनिवेशिक शासकों ने इसे इसी रूप में शुरू किया था. 1936 में, अनुसूचित जातियां ऐसा ही असाधारण समूह थीं, जिनकी पहचान अछूत होने की ठोस कसौटी के आधार पर की गई थी. लेकिन संविधान लिखे जाने के दौरान इसका दायरा बढ़ा दिया गया, जब पहले तो एक बेहद लचर कसौटी के आधार पर एक अलग अनुसूची बना कर इसको आदिवासियों तक विस्तार दिया गया और फिर बाकी उन सबको इसमें शामिल कर लिया गया, जिनकी पहचान राज्य द्वारा 'शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों' के रूप में की जा सकती हो. 1990 में मंडल आरक्षणों को लागू करते हुए इस बाद वाले विस्तार का इस्तेमाल हमारे शासकों ने बेहद सटीक तरीके से किया, जब उन्होंने जातिवाद के घोड़े को बेलगाम छोड़ दिया.


उनके द्वारा अपनाई गई इन और ऐसी ही दूसरी चालाकी भरी नीतियों ने उस आधुनिक शैतान को पैदा किया है जो दलितों के जातीय उत्पीड़न का सीधा जिम्मेदार है. समाजवाद की लफ्फाजी के साथ शासक वर्ग देश को व्यवस्थित रूप से पूंजीवाद की तरफ ले गया. चाहे वह हमारी पहली पंचवर्षीय योजना के रूप में बड़े पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई बंबई योजना (बॉम्बे प्लान) को अपना कर यह दिखावा करना हो कि भारत सचमुच में समाजवादी रास्ते पर चल रहा है, या फिर सोचे समझे तरीके से किए गए आधे अधूरे भूमि सुधार हों या फिर हरित क्रांति की पूंजीवादी रणनीति को सब जगह लागू किया जाना हो, इन सभी ने भारी आबादी वाले शूद्र जाति समूहों में धनी किसानों के एक वर्ग को पैदा किया जिनकी भूमिका केंद्रीय पूंजीपतियों के देहाती सहयोगी की थी. अब तक जमींदार ऊंची जातियों से आते थे, लेकिन अब उनकी जगह इन धनी किसानों ने ले ली, और उनके हाथ में ब्राह्मणवाद की पताका थी. दूसरी तरफ, अंतरनिर्भरता बनाए रखने वाली जजमानी प्रथाओं के खत्म होने से दलित ग्रामीण सर्वहारा बनकर और अधिक असुरक्षित हो गए. वे अब धनी किसानों से मिलने वाली खेतिहर मजदूरी पर निर्भर हो गए थे. जल्दी ही इससे मजदूरी को लेकर संघर्ष पैदा हुए जिनको कुचलने के लिए सांस्कृतिक रूप से उजड्ड जातिवाद के इन नए पहरेदारों ने भारी आतंक छेड़ दिया. इस कार्रवाई के लिए उन्होंने जाति और वर्ग के एक अजीब से मेल का इस्तेमाल किया. तमिलनाडु में किल्वेनमनी में 1968 में रोंगटे खड़े कर देने वाले उत्पीड़न से शुरू हुआ यह सिलसिला आज नवउदारवाद के दौर में तेज होता गया है. जो शूद्र जोतिबा फुले के विचारों के मुताबिक दलितों (अति-शूद्रों) के संभावित सहयोगी थे, नए शासकों की चालाकी भरी नीतियों ने उन्हें दलितों का उत्पीड़क बना दिया.

उत्पीड़न को महज आंकड़ों में न देखें

''हरेक घंटे दो दलितों पर हमले होते हैं, हरेक दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है, दो दलितों के घर जलाए जाते हैं,' यह बात तब से लोगों का तकिया कलाम बन गई है जब 11 साल पहले हिलेरी माएल ने पहली बार नेशनल ज्योग्राफिक में इसे लिखा था. अब इन आंकड़ों में सुधार किए जाने की जरूरत है, मिसाल के लिए दलित महिलाओं के बलात्कार की दर हिलेरी के 3 से बढ़कर 4.3 हो गई है, यानी इसमें 43 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है. यहां तक कि शेयर बाजार सूचकांकों तक में उतार-चढ़ाव आते हैं लेकिन दलितों पर उत्पीड़न में केवल इजाफा ही होता है. लेकिन तब भी ये बात हमें शर्मिंदा करने में नाकाम रहती है. हम अपनी पहचान बन चुकी बेर्शमी और बेपरवाही को ओढ़े हुए अपने दिन गुजारते रहते हैं, कभी कभी हम कठोर कानूनों की मांग कर लेते हैं – यह जानते हुए भी कि इंसाफ देने वाले निजाम ने उत्पीड़न निरोधक अधिनियम को किस तरह नकारा बना दिया है. जबसे ये अधिनियम लागू हुआ, तब से ही जातिवादी संगठन इसे हटाने की मांग करते रहे हैं. मिसाल के लिए महाराष्ट्र में शिव सेना ने 1995 के चुनावों में इसे अपने चुनावी अभियान का मुख्य मुद्दा बनाया था और महाराष्ट्र सरकार ने अधिनियम के तहत दर्ज किए गए 1100 मामले सचमुच वापस भी ले लिए थे.


दलितों के खिलाफ उत्पीड़न के मामलों को इस अधिनियम के तहत दर्ज करने में भारी हिचक देखने को मिलती है. यहां तक कि खैरलांजी में, जिसे एक आम इंसान भी जातीय उत्पीड़न ही कहेगा, फास्ट ट्रैक अदालत को ऐसा कोई जातीय कोण नहीं मिला कि इस मामले में उत्पीड़न अधिनियम को लागू किया जा सके. खैरलांजी में एक पूरा गांव दलित परिवार को सामूहिक रूप से यातना देने, बलात्कार करने और एक महिला, उसकी बेटी और दो बेटों की हत्या में शामिल था, महिलाओं की बिना कपड़ों वाली लाशें मिली थीं जिन पर हमले के निशान थे, लेकिन इन साफ तथ्यों के बावजूद सुनवाई करने वाली अदालत ने नहीं माना कि यह कोई साजिश का मामला था या कि इसमें किसी महिला की गरिमा का हनन हुआ था. यहां तक कि उच्च न्यायालय तक ने इस घटिया राय को सुधारने के लायक नहीं समझा. उत्पीड़न के मामलों में इंसाफ का मजाक उड़ाए जाने की मिसालें तो बहुतेरी हैं. इंसाफ दिलाने का पूरा निजाम, पुलिस से लेकर जज तक खुलेआम असंगतियों से भरा हुआ है. किल्वेनमनी के पहले मामले में ही, जहां 42 दलित मजदूरों को जिंदा जला दिया गया था, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि धनी जमींदार, जिनके पास कारें तक हैं, ऐसा जुर्म नहीं कर सकते और अदालत ने उन्हें बरी कर दिया. रही पुलिस तो उसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा. ज्यादातर पुलिसकर्मी तो वर्दी वाले अपराधी हैं. वे उत्पीड़न के हरेक मामले में दलितों के खिलाफ काम करते हैं. चाहे वो खामियों से भरी हुई जांच हो और/या आधे-अधूरे तरीके से की गई पैरवी हो, संदेह का दायरा अदालतों के इर्द गिर्द भी बनता है जिन्होंने मक्कारी से भरे फैसलों का एक सिलसिला ही बना रखा है. हाल में, पटना उच्च न्यायालय ने अपने यहां चल रहे दलितों के जनसंहार के मामलों में एक के बाद एक रणवीर सेना के सभी अपराधियों को बरी करके दुनिया को हैरान कर दिया. हैदराबाद उच्च न्यायालय ने भी बदनाम सुंदुर मामले में यही किया, जिसमें निचली अदालतों ने सभी दोषियों को रिहा कर दिया था.

अपराधियों का हौसला बढ़ाया जाता है

इंसाफ देने वाले निजाम द्वारा कायम की गई इस परिपाटी ने अपराधियों का हौसला ही बढ़ाया है कि वे दलितों के खिलाफ किसी भी तरह का उत्पीड़न कर सकते हैं. वे जानते हैं कि उनको कभी सजा नहीं मिलेगी. पहले तो वे यह देखते हैं कि जो दलित अपने अस्तित्व के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं, वे यों भी उनके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे. इस तरह उत्पीड़न के अनेक मामले तो कभी सामने तक नहीं आ पाते हैं, जिनमें से ज्यादातर दूर दराज के देहाती इलाकों में होते हैं. और अगर किसी तरह उत्पीड़न का कोई मामला दबाया नहीं जा सका, तो असली अपराधी तो पुलिस की गिरफ्त से बाहर ही रहते हैं और न्यायिक प्रक्रिया के लपेटे में उनके छुटभैए मातहत आते हैं. पुलिस बहुत कारीगरी से काम करती है जिसमें वह जानबूझ कर जांच में खामियां छोड़ देती है, मामले की पैरवी के लिए किसी नाकाबिल वकील को लगाया जाता है और आखिर में एक पक्षपात से भरे फैसले के साथ मामला बड़े बेआबरू तरीके से खत्म होता है. यह पूरी प्रक्रिया अपराधियों को काफी हौसला देती है.


क्या भगाना के उन बलात्कारियों के दुस्साहस का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिन्होंने 13 से 18 साल की चार दलित किशोरियों का क्रूरता से पूरी रात सामूहिक बलात्कार किया और फिर पड़ोस के राज्य में ले जाकर उन्हें झाड़ियों में फेंक आए और इसके बाद भी उन्हें उम्मीद थी कि सबकुछ रफा दफा हो जाएगाॽ जो लड़कियां अपने अपमान को चुनौती देते हुए राजधानी में अपने परिजनों के साथ महीने भर से इंसाफ की मांग करते हुए बैठी हैं और कोई उनकी खबर तक नहीं ले रहा है, क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि यह सब उन्हें कितना दर्द पहुंचा रहा होगाॽ क्या हम देश के तथाकथित प्रगतिशील तबके के छुपे हुए जातिवाद की कल्पना कर सकते हैं, जिसने एक गैर दलित लड़की के बलात्कार और हत्या पर राष्ट्रव्यापी गुस्से की लहर पैदा कर दी थी, उसे निर्भया नाम दिया था, लेकिन वो भगाना की इन लड़कियों की पुकार पर चुप्पी साधे हुए हैॽ महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के खरडा गांव के 17 साल के दलित स्कूली लड़के नीतीश को जब दिनदहाड़े पीट-पीट कर मारा जा रहा था – सिर्फ इसलिए कि उसने एक ऐसी लड़की से बात करने का साहस किया था जो एक प्रभुत्वशाली जाति से आती है – तो क्या उस लड़के और उसके गरीब मां-बाप की तकलीफों की कल्पना की जा सकती है, जिनका वह इकलौता बेटा थाॽ और क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इन दो बेगुनाह लड़कियों पर क्या गुजरी होगी, जिनके साथ अपराधियों ने रात भर बलात्कार किया और फिर पेड़ पर लटका कर मरने के लिए छोड़ दियाॽ और मामले यहीं खत्म नहीं होते. पिछले दो महीनों में इन दोनों राज्यों में उत्पीड़न के ऐसे ही अनगिनत मामले हुए, लेकिन उन्हें मीडिया में जगह नहीं मिली. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि अपराधी बिना राजनेताओं की हिमायत के ऐसे घिनौने अपराध कर सकते हैंॽ इन सभी मामलों में राजनीतिक दिग्गज अपराधियों का बचाव करने के लिए आगे आए: हरियाणा में कांग्रेस के दिग्गजों ने, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के दिग्गजों ने और महाराष्ट्र में एनसीपी के दिग्गजों ने अपराधियों का बचाव किया.


अमेरिका में काले लोगों को पीट-पीट कर मारने की घटनाओं के जवाब में काले नौजवानों ने बंदूक उठा ली थी और गोरों को सिखा दिया था कि कैसे तमीज से पेश आया जाए. क्या जातिवादी अपराधी यह चाहते हैं कि भारत में इस मिसाल को दोहराया जाएॽ


No comments:

Post a Comment