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Thursday, June 5, 2014

पहेली सौजन्ये आदरणीय विष्णु खरेः इसे सर्जनात्मकता की अनुशासित,तमीज़दार मानवीयता के बारे में कुछ पता ही नहीं है। यह किसी horror film से बाहर आया हुआ कोई zombie या imbecile है। स्पष्ट है कि इसके जो अपने लोग हैं वे अपनी चुप्पी में इसके ही जैसे हैं।


पहेली सौजन्ये आदरणीय विष्णु खरेः इसे सर्जनात्मकता की अनुशासित,तमीज़दार मानवीयता के बारे में कुछ पता ही नहीं है। यह किसी horror film से बाहर आया हुआ कोई zombie या imbecile है। स्पष्ट है कि इसके जो अपने लोग हैं वे अपनी चुप्पी में इसके ही जैसे हैं।


पलाश विश्वास


आदरणीय विष्णु खरे जी का यह मेल मिला है।विष्णु जी बहुत बड़े हैं और उनसे मैं यह गुस्ताखी तो हर गिज नहीं कर सकता कि वे इस किस संदर्भ में ऐसा लिख रहे हैं क्योंकि वे हमारी तरह रो रोज लिखते बोलते भी नहीं है।उनसे मेरा निजी कोई संवाद भी नहीं है।लेकिन मेल से लगता है कि यह अभिषेक के मेल के जबाव में है।अभिषेक का मेल हमारे प्रिय कवि वीरेनदा के बीमारु अडेट से संबंधित है।


जब मुझे यह monstrosity मिली तो बार बार पढ़ने पर भी यक़ीन नहीं हुआ कि मैं सही पढ़ रहा हूँ। यह आदमी,यदि इसे वैसा कहा जा सकता है तो,मानसिक और बौद्धिक रूप से बहुत बीमार लगता है,जिसे दौरे पड़ते हैं। इसे सर्जनात्मकता की अनुशासित,तमीज़दार मानवीयता के बारे में कुछ पता ही नहीं है। यह किसी horror film से बाहर आया हुआ कोई zombie या imbecile है। स्पष्ट है कि इसके जो अपने लोग हैं वे अपनी चुप्पी में इसके ही जैसे हैं।


विष्णु खरे


मेरे बचपन में मौतें खूब होती रही है।खासकर बच्चों की।अकाल मृत्यु।रोजाना विलाप,रोजाना शोक से घिरा रहा है बचपन।हमारे साझा परिवार में भी नवजात भाई बहनों की मृत्यु होती रही है।मैं इस मामले में कमजोर दिल का रहा हूं कि किसी को रोते हुए,किसी को कष्ट में देखना मेरे लिए निहायत असंभव है।बचपन में तो मैं हमेशा हृदय विदारक शोक और विलाप की गूंज से पीछा छुड़ाने के लिए खेतों की तरफ भाग जाता था।तब भी बिन कटे ढेरों पेड़ हुआ करते थे जंगल आबाद किये हमारे खेतों में।किसी ऊंचे से पेड़ की डाली पर आसन लगाये मैं अपने को शांत करता था।अगर आसमान साफ हुआ और सामने हिमालय की चोटियां दिखने लगीं तो उसमें समाहित होकर मुझे शुकुन मिलता था।सर्पदंश,बीमारी ,कुपोषण,दुर्घटना से लेकर भूख और अग्निकांड से मौतें तब भी आम थी जैसे अब भी है।लेकिन तब हमने मीलों दूर तक उस मद्ययुगीन सामंती समाज में भी स्त्री उत्पीड़न से   होने वाली कोी मौत नहीं देखी थी।जबकि तब गांवों में पत्नी को न पिटने वाला मर्द तब कायर और नपुंसक जैसा भर्तसनीय समझा जाता था।


लेकिन 1990 में मेरे भाई पद्दोलोचन के बड़े बेटे विप्लव की छहसाल की उम्र में आकस्मिक मौत देखने के बाद अब मुझे मौत से डर नहीं लगता।पारिवारिक कारणों से सन 1980 से हर तरह के मरणासण्ण मरीज की तीमारदारी में लगा रहा हूं।

फिर भी मेरा बचपन फिर फिर मुझ पर हावी हो जाता है जब आत्मीय जनों को बेहद कष्ट में पाता हूं।हमारे मित्र जगमहन फुटेला लंबे अरसे से कोमा में हैं।मेरे पास उनका फोन नंबर है।मैं रोज उनका फेसबुक पेज देखता हूं लेकिन हिम्मत नहीं होती कि इस सिलसिले में पूछताछ करुं।


वीरेनदा कवि कितने बड़े हैं, विद्वानों में इसे लेकर मतभेद हो सकते हैं।लेकिन वे हमारे प्रिय कवि हैं।उसी तरह मंगलेश भी हमारे प्रिय कवि हैं।लीलाधर जगूड़ी के हालिया तौर तरीके से दुःखी हूं,लेकिन वे भी हमारे प्रिय कवि रहे हैं।


गिर्दा आावारगी जैसे जीवनयापन के जुनून में हमें छोड़ चले गये , लेकिन गिरदा आकस्मिक तौर पर चले गये और उनका कष्ट हम साझा नहीं कर सकें।


वीरेनदा बीमार हैं।फोन लगाउं तो भड़ासी बाबा यशवंत से उनका हालचाल मालूम कर सकता हूं कभी भी।कोलकाता में ही फिल्म निर्देशक राजीव कुमार हैं,जिनका लगातार वीरेनदा के परिजनों से संपर्क है। मैं राजीव को फोन ही नहीं लगा पाता।वीरेनदा या भाभी तो क्या तुर्की से भी बात करने की हिम्मत नहीं होती।


अभिषेक का मेल मुझे भी आया और उसमें जो दो तीन पंक्तियां मैंने देखी हैं,उसके बाद पूरा मेल पढ़ने का कलेजा मेरे पास नहीं था,नहीं है।




2014-06-01 20:35 GMT+02:00 Abhishek Srivastava <guru.abhishek@gmail.com>:

नमस्‍ते


आज रविभूषणजी और रंजीत वर्मा के साथ वीरेनदा को देखने जाना हुआ। लौटने के बाद अब तक बहुत उद्विग्‍न हूं।


कुछ भेज रहा हूं। देखिएगा।  


सादर,

अभिषेक


अब इस मेल के जवाब में विष्णु जी का ऐसा प्रत्युत्तर और उसकी प्रतिलिपि हमको भी,हम असमर्थ है कि कुछ भी समझने में। किसके बारे में विष्णुजी का यह उच्च विचार है,यह न ही जाने तो बेहतर।


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