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Monday, March 31, 2014

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि

लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है


पलाश विश्वास



भाई फैसल अनुराग ने लिखा हैः

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे यदि हम अब भी नहीं सचेत हुए तो। ये बड़ी कम्पनिओं के एजेंटों की पार्टियाँ हैं। हमारे जंगल और खदानों को लूटने के लिए ये हमें खरीदना चाहतीं हैं। हम बिरसा की तरह मरना पसंद करेंगें लेकिन बिकना नहीं। एक मुंडा ने एक भाषण में यह कहा।

तो रियाज ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता पोस्ट की है।


इन दोनों के एक ही प्रसंग और संदर्भ में रखकर आज का यह रोजनामचा है।

रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दोनों टाप के कवि थे तो टाप के पत्रकार भी।हिंदी पत्रकारिता के नवउदारवादी संघी मसीहा संप्रदाय के अभ्युत्थान  से पहले,आपरेशन ब्लू स्टार पर बाकायदा इंदिरागांधी को संपादकीय में बिना देर स्वर्णमंदिर प्रवेश का उपदेश देते हुए हिंदुत्व की मौलिक तूफान रचने में जो सबसे ज्यादा सिद्धहस्त थे और मौजूदा तमाम दिग्गज जिनके आशीर्वादधन्य  गुरुघंटाल हैं,उनके  सर्वव्यापी वर्चस्व की वजह से आज न कविता में और न पत्रकारिता में कोई उनकी कहीं चर्चा करता है।

हमने तो दिनमान से पत्रकारिता के सरोकार के साथ साथ उसकी भाषा भी आत्मसात की है।जिस जनसत्ता प्रभाव में पत्रकीारिता की तत्सम मुक्ति संभव हुआ,उसमें भी सर्वेश्वर और सहाय के साथी हरिशंकर व्यास,वनवारी,जवाहरलाल कौल के साथ मंगलेश डबराल की महती भूमिका रही है।

आज भले ही रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर की तरह औद्योगिक पूंजी का समय नहीं है। लंपट,क्रोनी,आवारा वित्तीय पूंजी के शिकंजे में हैं भारतवर्ष,लेकिन समझने वाली बात तो यह भी है कि उनसे भी पहले सामंती उत्पादनप्रणालीमध्ये  मुक्तिबोध, प्रेमचंद और रामविलास शर्मा का रचा आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेज आज भी हमें दिशाबोध कराते हैं।

सर्वेश्वर का लकड़बग्घा आज का यथार्थ समाजवास्तव है। कारपोरेट क्रोनी कैपिटल अबाध प्रवाहमान,नरसंहार अभियान अबाध और इस राजसूय यज्ञ को फासीवादी कर्मकांड में बदलने का यह आयोजन बाकायदा चुआड़ विद्रोह उपरांत अंत्यजों से बेदखल भूमि के स्थाई बंदोबस्त के  तहत बरतानी गर्भजात शासक वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्तावर्ग के सर्वव्यापी आधिपात्य  धाराप्रवाह समय में भगवान बीरसा के अरण्य के अधिकार के उद्गोष के बिना प्रतिरोध असंभव है।

ख्या करने की बात तो यह है कि भारत का संविधान रचने वाले डा.बीआर अंबेडकर ने भी अंततः चेतावनी दी थीः

Parliamentary Democracy has never been a government of the people or by the people, and that is why it has never been a government for the people. Parliamentary Democracy, notwithstanding the paraphernalia of a popular government, is in reality a government of a hereditary subject class by a hereditary ruling class. It is this vicious organization of political life which has made Parliamentary Democracy such a dismal failure. It is because of this Parliamentary Democracy has not fulfilled the hope it held out the common man of ensuring to him liberty, property and pursuit of happiness.

-Dr Babasaheb Ambedkar

भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हालात और विकल्पहीनता के इस संकट पर इस अंबेडकरी तात्पर्य के संदर्भ में भी चर्चा होनी चाहिेए।

अंबेडकर क्या,जिस बरतानी संसदीय लोकतंत्र के हम लोग अनुगामी हैं,उसपर जार्ज बनार्ड शा का लिखा एप्पिल कार्ट का अध्ययन भी बेहद प्रसंगिक है। जहां जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनती की सरकार वाली अवधारणा पर शा की दीर्घायित विचारोत्तेजक प्रस्तावना है।

धनतंत्र कोई नयी व्यवस्था तो है ही नहीं। भारतीय वंशवादी नस्ली सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर की यह चेतावनी समझनी होगी।

मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि स्टार स्पोर्ट्स पर हर ओलर अंतराल अबकी बार मोदी सरकार के उद्घोष को भारतीय जीत की  धारावाहिकता में या मोदी की तर्ज पर या घर घर मोदी की तर्ज पर रुपांतरित करने से कैसे चूक गये मोदियाये सृजनकर्मी।

इस नारे को तो हिसाब से अब यह होना चाहिेए कि अबकी बार मोदी की सरकार,भारत की जय जयकार।

लगता है कि सेमीफाइनल या फाइनल में अश्वमेधी घोड़ों के पिट जाने की आशंका से उन्होंने यह दुस्साहस नही किया होगा।

खेलों में जो मुक्त बाजार का खेल है,वह आइकोनिक अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि है।

विज्ञापनी सितारे अब चुनाव के सबसे जीतने काबिल उम्मीदवार है।यह संकट कितना घनघोर है कि चंडीगढ़ में किरण खेर और गुल पनाग का मुकाबला है तो मेरठ में मोहसिना किदवई के संसदीय विकल्प बतौर प्रस्तुत हैं नगमा।बंगाल में तो सितारे ही चुनाव मैदान में हैं और उनके रोडशो में फैनीतूफान में बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता निष्णात है।

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था, वर्णवर्चस्व, वंशवाद और नस्ली क्षेत्रीय भेदभाव का नतीजा है आज का फासीवाद,जिसे विकास के लिए धर्मोन्माद के विकल्प बतौर मैनेजरी सूचनाई विशेषज्ञता और दक्षता के मार्फत सर्जिकल प्रिसिजन के साथ पहले ही खस्ताहाल जनप्रतिनिधित्व शून्य लोकतंत्र की देह में असंवैधानिक नीति निर्धारक चिप्स की सतरह प्रस्थापित किया जा रहा है।

बताया जा रहा है कि संघ परिवार अब राम मंदिर को हिंदुत्व का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं मानता।

इसे संघी एजंडा का विचलन समझने की भूल कर रहे हैं हम।

हिंदुत्व के मुकाबले अगर ध्रूवीकरण हुआ तो अहिंदू अस्मिताओं का भी ध्रूवीकरण होना लाजिमी है। जिसका विस्फोट हम हाल में खूब देखते रहे हैं।

इसीलिए अस्मिताओं के कामयाब और नाकाम पिटे हुए चेहरों को भी फैसन परेड में केसरिया कायाकल्प में प्रस्तुत करना संघी रणनीति है ताकि पैदल सेनाओं को एकदूसरे के विरुद्ध लामबंद किया जा सकें।

राम मंदिर हो न हो,संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र का एजंडा मौलिक तौर पर अमल में लाने की तैयारी है।

दरअसल हम जिस लकड़बग्घे के सामने हैं,उसका चेहरा शायद सर्वेश्वर के बिंबसंयोजन में भी अनुपस्थित है।

हिटलरी मुसोलिनिया फासीवाद नाजीवाद का जायनी मुक्त बाजारी उत्तरआधुनिक संस्करण है यह लकड़बग्घा,जो अब तक का सबसे जहरीला तत्व है।

विकास के बहाने इस विकल्प को जनादेश में अनूदित करने का प्रकल्प मोदी सर्वभूतेषु है।

दैविक विशुद्धता नस्ली भेदभाव का अंतःस्थल है और हम ईश्वरत्व में लोकतंत्र को समाहित करने लगे हैं।

लकड़बग्घा का यह अवतार ग्रह ग्रहांतर में भी स्वतंत्रता और मानवाधिकार, प्रकृति,पर्यावरण,मनुष्य और मौसमचक्र के भयावह विवर्तन का महाकाव्य है,जहां मर्यादा पुरुषोत्तम या देवि दुर्गा के हाथों सारे आयुध सौंपे जा रहे है दानवीकृत बहुसंख्य के वध के लिए।

इस वधउत्सव में बिरसा मुंडा का प्रतिरोधकल्पे आवाहन बेहद जरुरी है।

ध्यान देने वाली बात है कि अस्मिताओं के आधार पर हो रहे निर्वाचन में जाति,वंश के साथ आवारा क्रोनी पूंजी के तमाम तत्वों की निर्णायक भूमिका है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि कांग्रेस को भारतीय जनता खारिज करती ,उससे पहले तमाम रेटिंग एजंसियां खारिज कर चुकी है।

विनिवेश,प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन, कर संशोधन और श्रम कानूनों का सफाया,सेवाओं के मुक्त बाजार के संदर्भ में कांग्रेस की नीतिगत विकलांगता के विरोध में कारपोरेट साम्राज्यवाद का स्वर अपने ही गुलामों के विरुद्ध मुखर है।

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक मंच बतौर अपनी भूमिका निभाती रही है,जिसका कोई वैचारिक चरित्र कभी नहीं रहा है।

कांग्रेस एजंडा मार्फत काम करती रही है।

आर्थिक सुधारों को लागू करते वक्त पांरपारिक जनाधार की चिंता कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक मजबूरी रही है तो नेतृत्व में वंशवादी विरासत का बोझ उसकी ऐतिहासिक कमजोरी।

मीडिया जो उसके विरुद्ध हुआ,उसे समझने के लिए मीडियामध्ये आप का अभ्युत्थान और माडियामध्ये उसका उसीतरह विसर्जन के घटनाक्रम को समझने की जरुरत है।

कारपोरेट और अमेरिकी हितों के विरुद्ध किसी तरह का स्वर इस पतित लोकतंत्र में मुक्तबाजार में तब्दील लोकतंत्र में असंभव हुआ,इसीलिए अरविंद केजरीवाल के तमाम वरदहस्त अब परिदृश्य से अदृश्य हैं।

उसी तरह अमेरिकी एजंडे को लागू करने में नाकाम कांग्रेस जनाधारों को टटोलने और वंशवादी नेतृत्व बहाल करने के अनिवार्य कार्यभार के चलते अब इस मुक्तबाजारी लोकतंत्र में जनादेश का विकल्प नहीं है।

इस पर भी ध्यान देना जरुरी है कि आर्थिक सुधारों के पहले चरण के कार्यान्वयन में राममंदिर सर्वस्व संघ परिवार गुजरात के भयावह नरसंहार के बावजूद पूरी तरह व्यर्थ रहा है।

जो सुधार लागू हुए वे मनमोहनी पहली और दूसरी यूपीए सरकारों ने पिछले दशक में लागू कर दिये।

विनिवेश मंत्रालय का आविस्कार भाजपा ने किया तो उसके राजकाज को संभव बनाया वाम समर्थित यूपीए ने ही।

प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की अनंत धारा और अबाध पूंजी प्रवाह के महायज्ञ को पूर्णाहुति दी गयी मनमोहनी ईश्वरत्व केमाध्यम से ही।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है श्रम कानूनों का सफाया न कर पाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है खुदरा बाजार और रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी विनिवेश को संभवव न बना पाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है जंगल में जारी जनयुद्ध को सलवा जुडु़म पद्धति से निपटा न पाना और बहुराष्ट्रीय पूंजी की असंख्य परियोजनाओं का वर्षों से लंबित हो जाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है करसंशोधनों के जरिये प्रभुवर्ग के साथ कारपोरेट लंपट क्रोनी आवारा  पूंजी को पूरीतरह करमुक्त न कर पाना।मुक्त बाजार से मुटियाये कारपोरेट इंडिया को अब छूट,रियायत और प्रोत्साहन में कोई रुचि है ही नहीं।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है वित्तीय संशोधनो के जरिये वित्तीय पूंजी के हवाले नागरिकों की जन माल न  कर पाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है बायोमेट्रिक डिजिटल आधार प्रकल्प के बावजूद सब्सिडी को पूरी तरह खत्म न कर पाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकाम है भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन करके आतंक के विरुद्ध युद्ध के बहाने एशिया महाद्वीप  के बाजार में एकाधिकार वर्चस्व के लिए रणनीतिक अमेरिकी,इजरायली बरतानी पारमाणविक गठजोड़ के तहत बाजार और संसाधनों पर पूरा कब्जा कर पाना।

मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है भारतीय देहात को कृषि के सफाये के साथ उपभोक्तावादी शहरी चरित्र न दे पाना।

ये तमाम सुधार विकास के पर्याय हैं।

ये तमाम सुधार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण का एजंडा है।

ये तमाम अधूरे कार्य भारत की नई बनने वाली केंद्र सरकार के अनिवार्य कार्यभार हैं।

इसी एजंडा को अपनाने के लिए राममंदिर की तिलांजलि के बिना कारपोरेट समर्थन असंभव है और देस में सर्वभूतेषु मोदी भी असंभव है।

इसीलिए बंधु,राममंदिर का मुद्दा अब संघ एजंडा में सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।

विकास या आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के एजंडा के कार्यान्वयन का घोषणापत्र  है हर संघी पदक्षेप का तात्पर्य। लेकिन इसका कहीं यह मतलब भी नहीं कि वह रामरथी लालकृष्ण आडवानी के बलिदान से अपने हिंदुत्व के एजंडे का परित्याग कर चुका है या काशी से मुरली मनोहर जोशी के स्थानांतरण मार्फत उसने अपने चरित्र से विचलन भी नहीं अंगीकार किया है।

हम पहले से निरंतर लिखते रहे हैं कि नस्ली हिंदुत्व की विशुद्धता जनसंहारी रक्तपात की फसल है तो उसी खेत की उपज है यह मुक्त बाजार।

विकास का मायने चुआड़ विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,संन्यासी विद्रोह,गोंड विद्रोह,नील विद्रोह में शामिल हमारे तमाम पूर्वजों से लेकर शहीदेआजम भगत सिंह और स्वत्ंत्र भारत में जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हर व्यक्ति को मालूम है।

बहुसंख्य जनगण को अपनी पैदल सेना बनाये रखने के लिए डायवर्सिटी की समरसी समावेशी चादर ओढ़कर धर्मोन्मादी मुख से विकास का अखंड जाप है यह और वहविकास सचमुच गुजरात माडल का विकास है।

सर्वेश्वर के लकड़बग्घे का मायने बदल गया है।






लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/30/2014 11:59:00 AM



सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता. देखिए कि लकड़बग्घा कितने करीब आ गया है और उसके चेहरे पर खून के निशान कितने ताजा हैं. आपकी लाठी और लालटेन कहां है?

उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे


अब लकड़बग्घा
बिल्कुल तुम्हारे घर के
करीब आ गया है
यह जो हल्की सी आहट
खुनकती हंसी में लिपटी
तुम सुन रहे हो
वह उसकी लपलपाती जीभ
और खूंखार नुकीले दांतों की
रगड़ से पैदा हो रही है।
इसे कुछ और समझने की
भूल मत कर बैठना,
जरा सी गलत गफलत से
यह तुम्हारे बच्चे को उठाकर भाग जाएगा
जिसे तुम अपने खून पसीने से
पोस रहे हो।
लोकतंत्र अभी पालने में है
और लकड़बग्घे अंधेरे जंगलों
और बर्फीली घाटियों से
गर्म खून की तलाश में
निकल आए हैं।
उन लोगों से सावधान रहो
जो कहते हैं
कि अंधेरी रातों में
अब फरिश्ते जंगल से निकलकर
इस बस्ती में दुआएं बरसाते
घूमते हैं
और तुमहारे सपनों के पैरों में चुपचाप
अदृश्य घूंघरू बांधकर चले आते हैं
पालने में संगीत खिलखलिता
और हाथ-पैर उछालता है
और झोंपड़ी की रोशनी तेज हो जाती है।

इन लोगों से सावधान रहो।
ये लकड़बग्घे से
मिले हुए झूठे लोग हैं
ये चाहते हैं
कि तुम
शोर न मचाओ
और न लाठी और लालटेन लेकर
इस आहट
और खुनकती हंसी
का राज समझ
बाहर निकल आओ
और अपनी झोंपड़ियों के पीछे
झाड़ियों में उनको दुबका देख
उनका काम-तमाम कर दो।

इन लोगों से सावधान रहो
हो सकता है ये खुद
तुम्हारे दरवाजों के सामने
आकर खड़े हो जाएं
और तुम्हें झोंपड़ी से बाहर
न निकलने दें,
कहें-देखो, दैवी आशीष बरस
रहा है
सारी बस्ती अमृतकुंड में नहा रही है
भीतर रहो, भीतर, खामोश-
प्रार्थना करते
यह प्रभामय क्षण है!

इनकी बात तुम मत मानना
यह तुम्हारी जबान
बंद करना चाहते हैं
और लाठी तथा लालटेन लेकर
तुम्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते।
ये ताकत और रोशनी से
डरते हैं
क्योंकि इन्हें अपने चेहरे
पहचाने जाने का डर है।
ये दिव्य आलोक के बहाने
तुम्हारी आजादी छीनना चाहते हैं।
और पालने में पड़े
तुम्हारे शिशु के कल्याण के नाम पर
उसे अंधेरे जंगल में
ले जाकर चीथ खाना चाहते हैं।
उन्हें नवजात का खून लजीज लगता है।
लोकतंत्र अभी पालने में है।

तुम्हें सावधान रहना है।
यह वह क्षण है
जब चारों ओर अंधेरों में
लकड़बग्घे घात में हैं
और उनके सरपरस्त
तुम्हारी भाषा बोलते
तुम्हारी पोशाक में
तुम्हारे घरों के सामने घूम रहे हैं
तुम्हारी शांति और सुरक्षा के पहरेदार बने।
यदि तुम हांक लगाने
लाठी उठाने
और लालटेन लेकर बाहर निकलने का
अपना हक छोड़ दोगे
तो तुम्हारी अगली पीढ़ी
इन लकड़बग्घों के हवाले हो जाएगी
और तुम्हारी बस्ती में
सपनों की कोई किलकारी नहीं होगी
कहीं एक भी फूल नहीं होगा।
पुराने नंगे दरख्तों के बीच
वहशी हवाओं की सांय-सांय ही
शेष रहेगी
जो मनहूस गिद्धों के
पंख फड़फड़ाने से ही टूटेगी।
उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे
तुम्हारी जबान बोलना भूल जाएगी
लाठी दीमकों के हवाले हो जाएगी
और लालटेन बुझ चुकी होगी।
इसलिए बेहद जरूरी है
कि तुम किसी बहकावे में न आओ
पालने की ओर देखो-
आओ आओ आओ
इसे दिशाओं में गूंज जाने दो
लोगों को लाठियां लेकर
बाहर आ जाने दो
और लालटेन उठाकर
इन अंधेरों में बढ़ने दो
हो सके तो
सबसे पहले उन पर वार करो
जो तुम्हारी जबान बंद करने
और तुम्हारी आजादी छीनने के
चालाक तरीके अपना रहे हैं
उसके बाद लकड़बग्घों से निपटो।

अब लकड़बग्घा
बिल्कुल तुम्हारे घर के करीब
आ गया है।

उम्र के लपेटे में फंसे वीरेन दा की चार कविताओं से ध्याड़…

उम्र के लपेटे में फंसे वीरेन दा की चार कविताओं से 

ध्याड़…

भारत सिंह||
पिछले साल मेरी उम्र ६५ की थी/ तब मैं तकतरीबन पचास साल का रहा होऊंगा/ इस साल मैं ६५ का हूं/ मगर आ गया हूं गोया ७६ के लपेटे में. वीरेन दा ने अपनी कविताओं से हमें फिर से ध्याड़ लगाई है. इसमें थोड़ी निराशा है तो इसके झींने पर्दे के पीछे छुपीं ढेरों ऊर्जा और आशा भी. तमाम नाउम्मीदों को एक जीवंत पुकार से मीलों पीछे धकेल देने वाले हमारे वीरेन दा आज कह रहे हैं- दोस्तों-साथियों मुझे छोड़ना मत कभी/कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूंगा प्यार से/दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा. अरे वीरेन दा, तुम्हें भला कैसे छोड़ सकते हैं तुम्हारे चाहने वाले? पर वीरेन दा, तुम्हें उम्र की कबसे फिक्र होने लगी, तुम्हारे यार तो तुम्हारी जुल्फों के बीच से कभी नजर न आने वाली तुम्हारी चांद और सफेदी की झलक पाने के चक्कर में दर्जनों बाजियां हार गए. यारबाज वीरेन दा आप कहां उम्र के लपेटे में फंसे हो, उससे होना-पाना कुछ नहीं, आप तो आज भी २५ से लेकर ७५  तक के यारों के लिए वीरेन दा और वीरेन ही हो.images
वीरेन दा को जानने वाले लोग उनकी जिंदादिली को भी बखूबी जानते हैं. ऐसी बीमारी जो अपनी चर्चाओं में ही हमें तोड़े दे रही हो वीरेन दा उससे गप्प हांकते हुए कह रहे हैं- ...मेरा ये कमबख्त दिल/डाक्टर कहते हैं कि ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद पर काम कर रहा है/मगर ये कूदता है, भागता है, शामी कबाब और आईसक्रीम खाता है/शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है इन्कलाब जिंदाबाद कहते हुएसच वीरेन दा, ये सब जुलूस, धरने सूने हैं आपके बिना. भले ही सालों बाद मिलो वीरेन दा का दिल उसी ठिकाने पर मिलता है- अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूं/ हां जी हां वही कनफटा हूं, हेठा हूं/टेलीफोन की बगल में लेटा हूं/रोता हूं धोता हूं रोता-रोता धोता हूं/तुम्हारे कपड़ों से खून के निशां धोता हूं. 
कवि और पत्रकार वीरेन दा कहीं भी रहें उनकी चौकन्नी नजर अब भी सबकुछ नोट कर रही है- पैसे देकर भी हमने धक्के खाये/तमाम अस्पतालों में/हमें चींथा गया छीला गया नोचा गया/सिला गया भूंजा गया/झुलसाया गया/तोड़ डाली गईं हमारी हड्डियां/और बताया ये गया कि ये सारी जद्दोजेहद/हमें हिफाजत से रखने की थीं. कैसी जो हिफाजत होती होगी वह, जिसे वीरेन दा का दिल नहीं मानता. वह तो घोड़े के पैर पर नाल ठोंके जाने से भी कचोट उठता है. बरेली में रिपोर्टिंग के दौरान परेशानहाल वीरेन दा के पास पहुंचो तो कहते थे, यार ये भी क्या गजब का काम-धंधा हुआ? आदमी पेट भरने के लिए ऐसा अमानवीय काम करने को मजबूर है कि घोड़े के पैरों पर नाल तक ठोंक रहा है. इसकी भी रिपोर्टिंग करो यार। वीरेन दा ये रिपोर्ट भी अभी रह ही गई है.
ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया/कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूं तुमसे मैं. वीरेन दा तुमने तो दुनियादारी के साथ कदम साधते हुए लाढ़-प्यार जताना खूब सीखा, पर अभी ये सब हमें सिखाना बाकी है. तुम्हारा प्यार हमें खूब मिला पर अब भी मिलना बाकी है. कैसे जो हम भूखे-प्यासे दिनों में तुम्हारे घर आते थे, ठीक तुम्हारे सोने के समय में सेंध लगाते हुए- दोपहर तीन बजे के आस-पास. फिर भी तुम अपने हाथों से चांद की तरह गोल हाफ ब्वॉयल एग बनाकर और उस पर काली मिर्च का पाउडर छिड़ककर लाते और चाय के साथ पिलाते थे. फिर तमाम मुश्किलों को अपनी एक हुंकार से भगाकर और अपनी कलाकारी से बेहतर दिनों की उम्मीद ओढ़ाकर हमें वापस काम पर भेजते थे.
खामोशी से इस बेहरम शहर को जी रहे वीरेन दा हमें पता चला है कि इंदिरापुरम में ही रह रहे हो. तुम इस तरह तो छुप-छुपा न पाओगे कभी, तुम्हारी कविताएं तुम्हारे दिल का हाल हमें बता रही हैं. सुना है, बीती होली भी ऐसी ही बीती है तुम्हारी- हाय मैं होली कैसे खेलूं तेरी मैट्रो में/तेरी फौज पुलिस के सिपाही/ली लीन्हा मेरी जामा तलासी तेरी मैट्रो में/एक छोटी पुड़िया हम लावा/उससे ही काफी काम चलावा/बिस्तर पर लेटे-लेटे खेल लिये जमकर के होली/आं-हां तेरि मैट्रो में. अरे वीरेन दा, ये आवाज के जादू से खुलने वाली मैट्रो तु्म्हें रंगों से खेलने से क्या और कैसे रोकेगी, जिन रंगों के सोते फूटे पड़ रहे हैं तुम्हारे भीतर. अभी तो वीरेन दा, हमें बीते साल ही पता चला है तुम्हारे सधे अंदाज में मजाज की ये गजल गाने का, शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूं..फिर ये तुम्हारे मुंह से सुननी और साथ-साथ गानी भी तो बाकी है. ये तो गलत बात ही हुई न वीरेन दा कि अपनी पुराने यारों के साथ तो तुम ये गजल खूब गाए हो और हमारे साथ नहीं.


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