गहराता आर्थिक संकट, फासीवादी समाधान की ओर बढ़ती पूँजीवादी राजनीति और विकल्प का सवाल
मज़दूर वर्ग के लिए कोई शॉर्टकट नहीं, इस ढाँचे के आमूल बदलाव की लम्बी लड़ाई ही एकमात्र रास्ता!
सम्पादकीय अग्रलेख
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव क़रीब आ रहा है पूँजीवादी राजनीति के सारे छल-छद्म उजागर होते जा रहे हैं और उसका संकट खुलकर सामने दिखाई दे रहा है। पूरी दुनिया के पैमाने पर गहरी मन्दी और गहन वित्तीय संकट की शिकार पूँजीवादी व्यवस्था को इससे निकलने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा। दस साल से सत्ता में मौजूद कांग्रेस को ज़ाहिरा तौर पर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से जनता पर टूटे कहर का खामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है। रही-सही कसर रिकार्डतोड़ घपलों-घोटालों ने पूरी कर दी है। कांग्रेस को उम्मीद थी कि चुनाव क़रीब आने पर लोक-लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर वह जनता को एक बार फिर बरगलाने में कामयाब हो जायेगी। मगर घनघोर वित्तीय संकट ने इस क़दर उसके हाथ बाँध दिये है कि चाहकर भी वह कुछ हवाई वादों से ज़्यादा नहीं कर पा रही है। उधर नरेन्द्र मोदी पूँजीपति वर्ग के सामने एक ऐसे नेता के तौर पर अपने को पेश कर रहा है जो डण्डे के ज़ोर पर जनता के हर विरोध को कुचलकर मेहनतकशों को निचोड़ने और संसाधनों को मनमाने ढंग से पूँजीपतियों के हवाले करने में कांग्रेस से भी दस क़दम आगे रहकर काम करेगा। बार-बार अपने जिस गुजरात मॉडल का वह हवाला देता है वह इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। संकट में बुरी तरह घिरे पूँजीपति वर्ग को इसीलिए अभी वह सबसे प्रिय विकल्प नज़र आ रहा है।
पूँजीवादी राजनीति की इसी भ्रमपूर्ण स्थिति का फायदा उठाकर अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों के महत्वाकांक्षियों ने एक बार फिर तीसरे मोर्चे की जोड़-तोड़ शुरू कर दी है। मज़दूरों के रहनुमा बनने वाले भाकपा-माकपा के नेता पूरी बेशर्मी के साथ घोर मज़दूर विरोधी, फासिस्ट और महाभ्रष्ट जयललिता को इस मोर्चे में शामिल करके इस क़वायद की औपचारिक शुरुआत कर चुके हैं। वैसे इसमें कोई आश्चर्य नहीं, पिछले चुनाव के समय यही लोग जयललिता की मौसेरी बहन मायावती को भी प्रधानमंत्री बनाने के लिए उसकी डोली के कहार बने हुए थे। कांग्रेस ने ऐन वक़्त पर लालू प्रसाद से फिर गलबहियाँ करके नीतीश कुमार को अकेला छोड़ दिया है मगर मुलायम सिंह से लेकर ममता बनर्जी तक सभी दिल्ली चलो की ताल ठोंकने में लगे हुए हैं।
परिदृश्य पर अचानक उभरी केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी मौका देखकर राष्ट्रीय अखाड़े में कूदने की ताल ठोंक दी है। हालाँकि शुरू में इनके नेता ज़रूरत से ज़्यादा उत्साहित होकर 300-400 सीटों पर चुनाव लड़ने के दावे कर रहे थे मगर जल्दी ही इन्हें वस्तुस्थिति का अहसास हो गया और अब ये चुनिन्दा सीटों पर लड़ने की बात कर रहे हैं। फिर भी अभी काफ़ी लोग इनसे कांग्रेस-भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प बनने की उम्मीद लगाये हुए हैं। ‘आप’ पार्टी को मिली अप्रत्याशित कामयाबी मँहगाई-बेरोज़गारी-भ्रष्टाचार से परेशान आम मध्यवर्ग के आदर्शवादी यूटोपिया और साफ-सुथरे पूँजीवाद तथा तेज़ विकास की कामना करने वाले कुलीन मध्यवर्ग के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का मिलाजुला परिणाम है। दिल्ली में इन्होंने तरह-तरह के वादे करके निम्न मध्यवर्ग और ग़रीब आबादी से भी काफ़ी वोट बटोर लिये थे लेकिन उन वायदों को पूरा करने से ये फौरन ही मुकर चुके हैं।
दरअसल ‘आप’ का उभार पूँजीवादी संकट से पैदा हुई अस्थिरता के बीच के दौर की एक अस्थायी परिघटना है। कुछ लोकलुभावन हवाई नारों के अलावा इसके पास कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम है ही नहीं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इनके पास कोई विकल्प नहीं है। अभी तक ये आर्थिक नीतियों पर चुप्पी साधे रहते थे लेकिन अब केजरीवाल और योगेन्द्र यादव जैसे इनके नेताओं के बयानों से इनकी कलई खुलने लगी है। पूर्व एनजीओपंथियों-समाजवादियों- सुधारवादियों का यह जमावड़ा नवउदारवादी नीतियों का विरोधी है ही नहीं। अब ये खुलकर कहने लगे हैं कि वे निजी उद्योग-व्यापार को खुलकर काम करने की छूटें देने के पक्ष में हैं और सरकार को पूँजीपतियों के काम में किसी तरह की रोकटोक नहीं करनी चाहिए। दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय ठेका मज़दूरी ख़त्म करने और श्रम क़ानूनों को लागू करने के जो वादे इन्होंने वोट बटोरने के लिए किये थे उनसे ये डेढ़ महीने के भीतर ही साफ़ मुकर चुके हैं।
आप पार्टी के लोग राष्ट्रीय विकल्प बनने की बातें तो करते हैं मगर राष्ट्रीय महत्व के हर ज़रूरी मुद्दे पर सवालों से बचते हैं। दिल्ली में खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर रोक लगाने से कुछ लोगों को भ्रम हो सकता है कि ये नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध हैं। मगर ऐसा नहीं है। खुदरा व्यापार में बड़ी पूँजी के एकाधिकार को लेकर आज पूरी दुनिया में पूँजीपतियों के बीच दो लॉबियाँ हैं। एक लॉबी का मानना है कि एकाधिकारीकरण से लम्बे दौर में अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचता है। अमेरिका और यूरोप में भी वॉलमार्ट जैसी कम्पनियों का विरोध करने वाले पूँजीपतियों की लॉबियाँ हैं। इसलिए एफडीआई पर रोक लगाना कोई क्रान्तिकारी क़दम नहीं है। ये मोदी के सवाल पर सिर्फ़ यह कहते हैं कि भाजपा और कांग्रेस दोनों की नीतियाँ एक हैं। मोदी के राज्य में भी भ्रष्टाचार है, आदि-आदि। मगर मोदी की साम्प्रदायिक नीति पर, उसकी घनघोर कट्टरपंथी राजनीति पर यह कुछ नहीं कहते। गुजरात में हुए क़त्लेआम पर यह कभी चर्चा नहीं करते। कुमार विश्वास जैसे इसके नेता मोदी के कसीदे पढ़ते हैं। केजरीवाल जातिवादी फासिस्ट संस्कृति के प्रतीक खाप पंचायतों का समर्थन करते हैं। पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में दशकों से लागू सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ क़ानून (एएफएसपीए) के सवाल पर अन्ना हजारे के समय से ही वे चुप्पी साधे हुए हैं। छत्तीसगढ़ में जनता के विरुद्ध जारी सरकारी युद्ध के सवाल पर ये कभी कुछ नहीं कहते।
अपने मुख्य मुद्दे भ्रष्टाचार के सवाल पर ये केवल जनलोकपाल की बात करते हैं, जन पहल की नहीं। ये जनता पर नहीं नौकरशाही पर भरोसा करते हैं। हम शुरू से ही इस बात को रखते रहे हैं कि जिस पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन सामाजिक उपभोग को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर होता है, वह यदि एकदम क़ानूनी ढंग से काम करे तो भी अपनेआप में ही वह भ्रष्टाचार और अनाचार है। जो पूँजीवाद अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गति से धनी-ग़रीब की खाई बढ़ाता रहता है, जिसमें समाज की समस्त सम्पदा पैदा करने वाली बहुसंख्यक श्रमिक आबादी की न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। जिस पूँजीवादी लोकतन्त्र में उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने में सामूहिक उत्पादकों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती और निर्णय की ताक़त वस्तुतः उनके हाथों में अंशमात्र भी नहीं होती, वह एक ‘धोखाधड़ी’ है। भ्रष्टाचार की मात्रा घटती-बढ़ती रह सकती है, लेकिन पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं हो सकता! भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद एक मिथक है, एक मध्यवर्गीय आदर्शवादी यूटोपिया है। भ्रष्टाचार पूँजीवादी समाज की सार्विक परिघटना है। जहाँ लोभ-लाभ की संस्कृति होगी, वहाँ मुनाफ़ा निचोड़ने की हवस क़ानूनी दायरों को लाँघकर खुली लूटपाट और दलाली को जन्म देती ही रहेगी। जनता को भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद नहीं चाहिए बल्कि पूँजीवाद से ही मुक्ति चाहिए। जहाँ क़ानूनी शोषण और लूट होगी, वहाँ गै़रक़ानूनी शोषण और लूट भी होगी ही। काला धन सफेद धन का ही सगा भाई होता है।
सच तो यह है कि हर पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकारें मूलतः पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ की भूमिका निभाती हैं। संसद बहसबाज़ी का अड्डा होती है जहाँ पूँजीपतियों के हित में और जनदबाव को हल्का बनाकर लोकतन्त्र का नाटक जारी रखने के लिए वही क़ानून बनाये जाते हैं जो सरकार चाहती है और पूँजीवाद के सिद्धान्तकार जिनका खाका बनाते हैं। राज्यसत्ता का सैन्यबल हर जन विद्रोह को कुचलने को तैयार रहता है। न्यायपालिका न्याय की नौटंकी करते हुए पूँजीपतियों के हित में बने क़ानूनों के अमल को सुनिश्चित करती है, मूलतः सम्पत्ति के अधिकार और सम्पत्तिवानों के विशेषाधिकारों की हिफ़ाज़त का काम करती है तथा शासक वर्गों के आपसी झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। इन सभी कामों में लगे हुए लोग पूँजीपतियों के वफ़ादार सेवक होते हैं और सेवा के बदले उन्हें ऊँचे वेतनभत्तों और विशेषाधिकारों का मेवा मिलता है। वे जानते हैं कि वे लुटेरों के सेवक मात्र हैं। लुटेरों के सेवकों से नैतिकता, सदाचार और देशभक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम सम्पत्तिधारी परजीवियों के हितों की “क़ानूनी” ढंग से रक्षा करते हुए, उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है, अपनी भी ज़ेब गर्म कर लेते हैं। समूचे पूँजीपति वर्ग के प्रबन्धकों और सेवकों के समूह के कुछ लोग, पूँजीपति घरानों की आपसी होड़ का लाभ उठाकर इस या उस घराने से रिश्वत, दलाली और कमीशन की मोटी रक़म ऐंठते ही रहते हैं। पूँजीपतियों की यह आपसी होड़ जब उग्र और अनियन्त्रित होकर पूरी व्यवस्था की पोल खोलने लगती है, और बदहाल जनता का क्रोध फूटने लगता है तथा “लूट के लिए होड़ के खेल” के नियमों को ताक पर रख दिया जाता है तो व्यवस्था-बहाली और “डैमेज कण्ट्रोल” के लिए पूँजीपतियों की संस्थाएँ (फिक्की, एसोचैम, सी.आई.आई. आदि), पूँजीवादी सिद्धान्तकार, समाजसुधारक आदि चिन्तित हो उठते हैं। जो पूँजीपति स्वयं अपने हित के लिए कमीशन और घूस जमकर देते हैं, वे भी अलग-अलग और समूह में बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिन्ता ज़ाहिर करते हैं, सरकार की गिरती साख को बहाल करने के लिए सामूहिक तौर पर चिन्ता प्रकट करते हैं और पूँजीवाद को “भ्रष्टाचार-मुक्त” बनाने की मुहिम में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारतापूर्वक फ़ण्डिंग करते हैं। कभी कोई नेता, कभी कोई अफ़सर, तो कभी कोई समाजसेवी भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का मसीहा और ‘ह्विसल ब्लोअर’ बनकर सामने आता है जो पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था का विकल्प सुझाने के बजाय भ्रष्टाचार को ही सारी बुराई की जड़ बताने लगता है और मौजूदा ढाँचे में कुछ सुधारमूलक पैबन्दसाज़ी की सलाह देते हुए जनता को दिग्भ्रमित कर देता है। वे तरह-तरह के डिटर्जेण्ट लेकर इस व्यवस्था के दामन पर लगे धब्बों को धोने की ही भूमिका अदा करते हैं। वे भ्रम का कुहासा छोड़ने वाली चिमनी, जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ्टीवॉल्व’ और व्यवस्था के पतन की सरपट ढलान पर बने ‘स्पीड ब्रेकर’ की ही भूमिका निभाते हैं।
राष्ट्रीय पैमाने पर आज पूँजीपति वर्ग क्या चाहता है? जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने एक लेख में कहा है, वह कठोर नवउदारवाद और साफ़-सुथरे नवउदारवाद के बीच विकल्प चुन रहा है। आज पूरी दुनिया में पूँजीपति वर्ग के लिए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एक बड़ा मुद्दा है। ख़ास तौर पर सरकारी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पूँजीपति वर्ग की एक ज़रूरत है। ज़ाहिर है, लुटेरे यह नहीं चाहते कि लूट के उनके माल में दूसरे भी हिस्सा बँटायें। विश्व बैंक से लेकर तमाम अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी थिंकटैंक भ्रष्टाचार, ख़ासकर सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में काफी सक्रिय हुए हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध “सिविल सोसायटी” के आन्दोलनों को वहाँ के पूँजीपति वर्ग का समर्थन है। इसीलिए पूरा मीडिया ‘आप’ की हवा बनाने में लगा रहा है। इसीलिए अन्ना के आन्दोलन के समय से ही टाटा से लेकर किर्लोस्कर तक पूँजीपतियों का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन को समर्थन दे रहा था। और इंफोसिस के ऊँचे अफसरों से लेकर विदेशी बैंकों के आला अफसर और डेक्कन एअरलाइंस के मालिक कैप्टन गोपीनाथ जैसे उद्योगपति तक आप पार्टी में शामिल हो रहे हैं। दावोस में विश्व आर्थिक मंच में पहुँचे भारत के कई बड़े उद्योगपतियों ने कहा कि वे ‘आप’ के इरादों का समर्थन करते हैं। मगर अभी पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने अपना दाँव फासिस्ट कठोरता के साथ नवउदारतावादी नीतियाँ लागू करने की बात कर रहे मोदी पर लगाया हुआ है। ‘आप’ अगर एक ब्लॉक के रूप में भी संसद में पहुँच गयी तो सरकारी भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण लगाने में मदद करेगी। मगर ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प नहीं बन सकती और यह आगे चलकर या तो एक दक्षिणपंथी दल के रूप में संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी या फिर बिखर जायेगी। इसके बिखरने की स्थिति में इसके सामाजिक समर्थन-आधार का बड़ा भाग हिन्दुत्ववादी फासीवाद के साथ ही जुड़ेगा।
मज़दूरों के सवाल पर इनका रुख अभी से बिल्कुल नंगा हो चुका है। अभी दिल्ली में मज़दूरों के प्रदर्शन में ठेका मज़दूरी ख़त्म करने के सवाल पर इनके श्रममंत्री ने बेशर्मी से साफ़ कहा कि ठेका मज़दूरी ख़त्म करना इनके एजेण्डे में नहीं है क्योंकि उन्हें मालिकों और ठेका कम्पनियों के हितों का भी ख़्याल रखना है। इनके श्रम मंत्री ख़ुद ही एक चमड़ा फैक्टरी के मालिक हैं जहाँ कहने की ज़रूरत नहीं कि श्रम क़ानूनों का खुला उल्लंघन होता है। फिर इसमें आश्चर्य क्या कि दिल्ली के तमाम औद्योगिक इलाक़ों में आप पार्टी के मुख्य संगठनकर्ता फैक्टरी मालिक, ठेकेदार और प्रापर्टी डीलर हैं। बवाना औद्योगिक क्षेत्र में फैक्टरी मालिकों की एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रकाशचन्द्र जैन उस क्षेत्र में ‘आप’ पार्टी के मुख्य नेता हैं। इनका मज़दूर विरोधी चरित्र दिन-ब-दिन नंगा होता जा रहा है। मगर बहुत से सामाजिक-जनवादी और एनजीओपरस्त वामपंथी अभी भी इनसे उम्मीद लगाये हुए हैं। पराजय की मानसिकता से ग्रस्त बहुतेरे वामपंथी आज मान चुके हैं कि क्रान्ति तो होनी नहीं, तो अगर कोई “थोड़ा-बहुत कुछ” कर रहा है तो उसी से क्यों न उम्मीद बाँध ली जाये। यही लोग हैं जो ‘आप’ की आलोचना करने वाले कम्युनिस्टों को कोस रहे हैं कि वे इनका विरोध करके मोदी को रोकने की सम्भावना कम कर रहे हैं। तीस साल से भाकपा में रहे कमल मित्र चिनाय या सीपीआईएमएल (लिबरेशन) के संदीप सिंह जैसे जो लोग सीधे ‘आप’ में शामिल हो रहे हैं या इसका समर्थन कर रहे हैं उनका मार्क्सवाद तो पहले ही घास चरने जा चुका था। ये सभी या तो पराजित मानस लोग हैं या पतित हो चुके हैं। ‘ले मशालें चल चुके हैं लोग मेरे गाँव के’ लिखने वाले कवि बली सिंह चीमा भी ‘आप’ का दामन थाम चुके हैं। जो लोग जब वक़्त से पहले ही आशावाद के शिकार हो जाते हैं उनका निराश होकर दूसरे छोर पर पहुँच जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
आज जब एक बार फिर फासीवाद ख़तरा सिर पर मँडरा रहा है तब भी संसदमार्गी कम्युनिस्ट पार्टियाँ संविधान और संसद की ही ढाल तलवार लेकर फासीवाद का मुक़ाबला करना चाहती हैं। कहने को इनके पास मज़दूरों की बड़ी राष्ट्रीय यूनियनें हैं, पर चूँकि इन्होंने उनको कभी कोई राजनीतिक चेतना दी ही नहीं, सिर्फ अर्थवादी दलदल में धँसाये रखा, इसलिए ये लोग मज़दूर वर्ग को कभी हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के खिलाफ लामबन्द कर ही नहीं सकते। इनके लिए हिन्दुत्ववादी फासीवाद के विरोध का एकमात्र मतलब है संसद में कथित ‘तीसरा मोर्चा’ बनाकर भाजपा को सत्तासीन न होने देना। भाजपा सत्तासीन न भी हो, तो भारतीय पूँजीवाद के ढाँचागत संकट और नवउदारवाद की जमीन से खाद-पानी पाकर ये फासिस्ट आने वाले दिनों में भारतीय सामाजिक परिदृश्य पर मज़बूती से बने रहेंगे और उत्पात मचाते रहेंगे। केवल मेहनतकशों को जुझारू ढंग से संगठित करके ही इनसे निपटा जा सकता है। भारतीय फासिस्ट हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको नहीं बन सकते, पर भारतीय पूँजीपति वर्ग जंजीर से बँधे कुत्ते की तरह इन्हें हरदम तैयार रखेगा।
फासिस्टों का मुकाबला क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं। फिलहाल क्रान्तिकारी शिविर भी दक्षिण और “वाम” विचलनों के बीच झूल रहा है और लम्बे समय से ठहराव-बिखराव का शिकार है। मगर जो भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप मजदूरों के बीच राजनीतिक काम कर रहे हैं, वही आने वाले दिनों में सड़कों पर फासिस्ट बर्बरों का मुकाबला करेंगे। हमें याद रखना होगा कि 1980 के दशक में, पंजाब में कॉलेजों के हॉस्टलों और परिसरों से लेकर गाँव-गाँव तक में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने ही खालिस्तानियों का मुकाबला किया था। भाकपा-माकपा के नेता तो तब घरों में दुबके थे और कमाण्डो-सुरक्षा में चलते थे। सैकड़ों कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी युवाओं ने जान की कुर्बानी दी पर खालिस्तानियों को सबक भी उन्होंने ही सिखाया। पूरी दुनिया में फासीवाद को धूल चटाने का काम लड़ाकू कम्युनिस्टों ने ही किया है। हमें इतिहास से सबक लेना होगा और आने वाले दिनों की जुझारू तैयारी करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
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