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Sunday, March 30, 2014

मानवीय अंगों की तस्करी का फैलता कालाबाज़ार अमीरों के लिए अंगों के स्पेयर पार्ट की दुकानें नहीं हैं ग़रीब! डा. अमृत

मानवीय अंगों की तस्करी का फैलता कालाबाज़ार
अमीरों के लिए अंगों के स्पेयर पार्ट की दुकानें नहीं हैं ग़रीब!

डा. अमृत
एक दशक पहले काफी चर्चा में रहे बदनाम अमृतसर गुर्दा काण्ड के मामले में 11 वर्ष के लम्बे इन्तज़ार के बाद पिछले साल नवम्बर में अदालती फैसला आया और ज़िला न्यायालय ने छह लोगों को दोषी करार दिया। इन में से पाँच डाक्टर हैं जिन्हें पाँच-पाँच वर्ष की कैद की सजा सुनायी गई है; छठा पुलिस मुलाज़िम है जिसे गुर्दा लगाया गया था और उसे आठ साल की कैद हुई है। अभी इसी मामले से सम्बन्धित दूसरे केसों में फैसला आना बाकी है, जिनमें शिकायतकर्ता के कत्ल का मामला भी शामिल है। 11 वर्ष तक लटकने के बाद आया फैसला भी टिकेगा या नहीं, यह भी पक्का नहीं है क्योंकि अपराधी “बड़े लोग” हैं और बड़े लोगों की सुविधा के लिए भारतीय न्याय-क़ानून सब इन्तजाम किये रहता है। अब यह मामला उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के गलियारों के चक्कर काटेगा और तब तक हो सकता है कि 11 की जगह 22 वर्ष बीत जायें।
इन ग़रीबों के गुर्दे धोखे से निकाल कर बेच दिये गये
इन ग़रीबों के गुर्दे धोखे से निकाल कर बेच दिये गये
यह मामला 2002 में तब सामने आया था जब पंजाब के एक कस्बे सिधवाँ बेट के रहने वाले बगीचा सिंह ने पुलिस के पास ज़बरदस्ती गुर्दा निकाले जाने की शिकायत दर्ज करायी। बगीचा सिंह तब 17 वर्ष का नाबालिग था जब उसे एक दलाल बलजीत सिंह उर्फ विक्की मिला जो उसे एक गुर्दा देने के बदले 40,000 रुपये दिलवाने का वायदा करके हरियाणा पुलिस के सिपाही सुरेश कुमार के पास चंडीगढ़ ले गया। यहाँ आने के बाद जब बगीचा सिंह का मन बदल गया तो उसे डरा-धमकाकर उससे खाली कागज़ों पर राजू नाम से हस्ताक्षर करवा लिये गये और पूरे मामले को अंगदान को मंजूरी देने वाली कमेटी से पास करवा लिया गया। इस कमेटी के मेम्बर तब अमृतसर के सरकारी मेडीकल कालेज का प्रिंसिपल डा. ओ.पी. सरीन तथा इसी कालेज के फोरेन्सिक मेडिसिन विभाग के प्रमुख डा. जगदीश गार्गी थे जिन्होंने इस पूरे कारोबार का क़ानूनी पक्ष ठीक रखने का जिन्मा सँभाला हुआ था। फिर बगीचा सिंह को जालन्धर के न्यू रूबी अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसका गुर्दा निकालकर सुरेश कुमार को लगाने का आपरेशन तीन डाक्टरों – अरजिन्दर सिंह, ए.एस. भूटानी तथा अस्पताल के मालिक एसपीएस ग्रोवर ने किया। कुछ समय के बाद जब बगीचा सिंह ने अपने घरवालों को पूरी बात बतायी, तो उसके पिता ने पुलिस के पास मामला दर्ज कराया। जब इस मामले की जाँच शुरू हुई तो  करोड़ों का काला धन्धा सामने आया।
जाँच शुरू होने के कुछ समय बाद बगीचा सिंह की एक रहस्यमय सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी, बगीचा सिंह का पिता ही गवाही से मुकर गया और जालन्धर पुलिस ने डाक्टरों को क्लीनचिट दे दी। कई बड़े लोगों के नाम इस मामले के साथ जुड़े, लेकिन इन नामों को जनता की नज़रों से छुपा दिया गया। मामले की पैरवी कर रहे वकील ए.के. सलवान तथा उनके परिवार को धमकियाँ मिलती रहीं। सरकार की बेशर्मी देखिए, अपराधी विधायकों या कुर्सी तोड़ने वाले मन्त्रियों की सुरक्षा पर करोड़ों खर्च करने वाली सरकार ने वकील की सुरक्षा के लिए एक “सिपाही” नियुक्त किया और परिवार को सुरक्षा देने से किनारा कर लिया। दूसरी तरफ, इस काले धन्धे में लगे डाक्टरों को “तरक्की” भी मिलती रही। डा. गार्गी को अमृतसर मेडिकल कालेज का प्रिंसिपल बनाया गया, यहाँ तक कि वह पंजाब मेडिकल शिक्षा एवं खोज विभाग का डायरेक्टर भी हो गये। फिर रिटायर होने के बाद इन महोदय की “सेवाओं” को देखते हुए इनको बाबा फरीद मेडिकल युनिवर्सिटी ने फरीदकोट स्थित मेडिकल कालेज में फोरेंसिक विभाग का मुखिया नियुक्त किया, यहाँ भी इनका “काम” सुर्खियों में रहा। अब चाहे न्यायालय ने कुछ लोगों को 5-6 वर्ष की सजा सुनायी है, मगर यह साँप की लीक पीटने से ज़्यादा कुछ नहीं। यह राज्यसत्ता के एक अंग के द्वारा दूसरे अंग की करतूतों को ढँकने तथा जनता की आँखों में धूल झोंकने से बढ़कर कुछ नहीं है। ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ जाँच को लटकाने, उन्हें अहम पदों पर विराजमान करने वालों तथा डाक्टरों को क्लीनचिट देने वालों का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
दुनिया में सर्वप्रथम दिल बदलने का सफल आपरेशन करने वाले डा. क्रिश्चियन बर्नार्ड ने एक बार कहा थाः “जब इलाज बिज़नेस बन जायेगा, तब लोगों को बिना ज़रूरत के दवाएँ दी जायेंगी, और बिना ज़रूरत के लोगों की टांगें भी काटी जायेंगी।” लेकिन शायद उन्होंने भी यह कल्पना नहीं की होगी कि उन्हीं के द्वारा विकसित की जा रही मानवीय अंग बदलने की चिकित्सा विधि को भी मुनाफ़ाख़ोर न सिर्फ बिज़नेस, बल्कि कालाबाज़ारी बना देंगे और मानवीय अंगों की तस्करी होने लगेगी। अमृतसर में सामने आया यह गुर्दाकाण्ड दुनिया में तो क्या, भारत में भी इस तरह का कोई पहला मामला नहीं है। 1993 में मुम्बई में मानवीय गुर्दों के क्रय-विक्रय का धन्धा सामने आया और कुमार राऊत नाम के दलाल को पुलिस ने पकड़ा भी था, मगर में यह व्यक्ति पुलिस की हिरासत से “भाग” निकला। 1995 में मुम्बई में ही एक और ऐसा ही मामला प्रकाश में आया। 2003 में अमृतसर में गुर्दों की तस्करी का मामला सामने आया। 2006 में तमिलनाडु में यही धन्धा पकड़ा गया। यहाँ पर सुनामी में तबाही का शिकार हुए लोगों के गुर्दे निकाल कर बेचे जा रहे थे। चेन्नई के उत्तर में बसे सुनामी-पीड़ितों के एक कैम्प ‘एर्नावूर’ में 90 लोगों के गुर्दे निकाले जाने का मामला सामने आया। स्थानीय लोगों में इस कैम्प को “गुर्दाघाटी” कहा जाता था। जाँच-पड़ताल के दौरान 52 अस्पतालों के नाम इस मामले से जुड़े और कई अस्पताल इसके बाद बन्द भी हुए। 2008 में गुड़गाँव में एक और बड़ा मामला सामने आया। अमित कुमार नाम का मानवीय अंगों की तस्करी करने वाला सरगना आठ राज्यों तक फैले गुर्दा-कारोबार को चला रहा था। जब इसे 2008 में नेपाल से पकड़ा गया, तो जाँच के दौरान पता चला कि यह आदमी मुम्बई का कुमार राऊत ही है। अदालत में इसे कुछ सालों की सजा हुई, मगर सीबीआई “सबूत” पेश नहीं कर पायी, नतीजतन यह सरगना छूट गया।
organ trafficking-1पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा यहाँ पर इस अमानवीय कारोबार के मामले सामने नहीं आया। बस फर्क इतना है कि ग़रीब तथा तीसरी दुनिया के देशों में यह काला धन्धा कहीं ज़्यादा फैला हुआ है। लातिनी अमरीका के देश जैसे निकारागुआ, पेरू, कोलंबिया, इक्वेडोर, ब्राजील से लेकर भूतपूर्व सोवियत गणराज जैसे बेलारूस, अजरबैजान, मोल्दोवा आदि और एशियाई देश जैसे फिलीपीन्स, चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, भारत आदि तक इस काले बाज़ार के तार फैले हुए हैं। ये देश एक तरफ आधुनिक चिकित्सा तकनीक और सुविधाएँ रखते हैं, दूसरी तरफ यहाँ पर आबादी का बड़ा हिस्सा ग़रीब, बदहाल है, जिस के चलते मानवीय अंगों के तस्करों के लिए अपने शिकार ढूँढ़ना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। इसके अलावा यहाँ कहीं भी किसी प्राकृतिक आपदा या फिर युद्ध से तबाही के चलते लोग अपने जीविका के संसाधनों से उजड़ जाते हैं और भूख, बेघरी का शिकार हो जाते है, वे जगहें मानवीय अंगों के तस्करों का अड्डा बन जाती हैं। सुनामी से दक्षिण भारत में हुई तबाही के बाद वहाँ यह काला धन्धा कैसे फैला, इस का ज़िक्र हमने ऊपर किया है। सोवियत संघ टूटने के बाद बहुत से गणराज्यों में मानवीय अंगों के व्यापार का तेज़ी से फैलाव हुआ है। हालत यहाँ तक पहुँची हुई है कि बेलारूस जैसे भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों में तो अख़बारों में सरेआम विज्ञापन छपते हैं और यहाँ से गुर्दा या कोई और अंग बेचने के लिए तैयार हुए व्यक्ति को किसी दूसरे देश, आम तौर पर लातिनी अमरीका के देश जैसे पेरू, कोलम्बिया आदि ले जाया जाता है और वहीं पूरा आपरेशन करने के बाद उसे अपने देश छोड़ दिया जाता है। आपरेशन के बाद अगर कोई दिक्कत अंग देने वाले व्यक्ति को आती है तो वह पूरी तरह से लावारिस छोड़ दिया जाता है। साम्राज्यवादी हमले से तबाह हुआ इराक और साम्राज्यवादियों की चालों का शिकार सीरिया, सीरिया से विस्थापित शरणार्थियों को शरण देने वाला लेबनान आजकल मानवीय अंगों के तस्करों के कारोबार के मुख्य अड्डे बने हुए हैं।
अगर आँकड़ों की बात की जाये तो पूरी दुनिया में इस अमानवीय धन्धे का बिजनेस 1.2 अरब डालर यानि 60 अरब रुपए प्रति वर्ष से ऊपर का है। मानवीय अंगों की तस्करी में सबसे ज़्यादा गुर्दों की तस्करी होती है क्योंकि हरेक आदमी में दो गुर्दे होते हैं और आदमी एक गुर्दे के साथ भी ज़िन्दा रह सकता है। इसके बाद जिगर का नम्बर आता है क्योंकि जिगर एक ऐसा अंग है जो अगर कुछ हिस्सा ख़राब हो जाये या काटकर किसी और को लगा दिया जाये तो यह अपने को फिर से पहले के आकार तक बड़ा कर लेता है। इसके अलावा आँख की पुतली, चमड़ी तथा दिल, तथा फेफड़े के क्रय-विक्रय का धन्धा भी चलता है। पूरी दुनिया में हर वर्ष 66,000 गुर्दा बदलने, 21,000 जिगर बदलने के और 6,000 दिल बदलने के आपरेशन होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबक इनमें से 10 प्रतिशत आपरेशन तो गैर-क़ानूनी होते ही हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अंग-बदलने के आपरेशनों में इस्तेमाल हुए मानवीय अंगों में से लगभग 42 प्रतिशत मानवीय अंगों की तस्करी के कारोबार से हासिल किये होते हैं। वर्ष 2007 में, अकेले पाकिस्तान में 2500 व्यक्तियों ने अपने गुर्दे बेचे जिनमें से दो-तिहाई मामलों में ख़रीदार विदेशी नागरिक थे। वहीं भारत में भी प्रति वर्ष गुर्दा बेचने वालों की संख्या 2000 से ऊपर ही होने का अनुमान है। एक अध्ययन ने तो यहाँ तक कहा है कि हर साल 4,000 कैदियों को मार दिया जाता है ताकि 8000 गुर्दों तथा 3000 जिगर का इन्तज़ाम हो सके जिनके ज़्यादातर ग्राहक अमीर देशों के मरीज़ होते हैं।
बीते कुछ दश्कों में मानवीय अंगों की “माँग” में भारी बढ़ोतरी हुई है। अकेले अमेरिका में ही एक लाख से ऊपर (1,11,000) लोग अंग-बदलने का आपरेशन करवाने के इन्तजार में हैं। इनमें से 96,000 लोग गुर्दा बदलवाने के लिए लाइन में लगे हुए हैं। हर वर्ष 6,000 लोग आपरेशन का इन्तजार करते हुए मर जाते हैं। यूरोपीय देशों में भी यही स्थिति है औए अब भारत, दक्षिण अफ्रीका, चीन जैसे देश इस सूची में शामिल हो चुके हैं। इसका एक कारण तो बीते कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति है जिसके चलते अब यह सम्भव हो गया है कि दवाओं की सहायता से किसी दूसरे आदमी से प्राप्त मानवीय अंग को मानवीय शरीर में लम्बे समय तक काम करने लायक बनाये रखा जा सकता है जो पहले सम्भव नहीं था। इसलिए अंग-बदलने की तकनीक उन मरीज़ों के लिए ज़्यादा समय तक ज़िन्दा रहने की उम्मीद लेकर आयी है जिनका कोई न कोई अन्दरूनी अंग खास तौर पर गुर्दा, जिगर, दिल आदि स्थाई रूप में खराब हो चुका है। ज़ाहिर सी बात है कि जब इलाज उपलब्ध है और आदमी के पास पैसा भी है, तो कोई भी मरना नहीं चाहेगा। माँग बढ़ने का दूसरा कारण इन अंगों को खराब करने वाली बिमारियों का बढ़ना भी है। उदाहरण के लिए, गुर्दे खराब होने का मुख्य कारण मधुमेह और उच्च रक्तचाप है, गुर्दे खराब होने के दो-तिहाई से ज़्यादा मामलों में ये दोनों कारण होते हैं। यह बीमारियाँ जहाँ अमेरिका तथा दूसरे विकसित पूँजीवादी देशों में बढ़ी-फूली हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों में इन बीमारियों ने पिछले कुछ दशकों में पैर पसारे हैं क्योंकि पूँजीवादी विकास के साथ-साथ, खास तौर पर नवउदारवादी नीतियों के बाद यहाँ भी अच्छी-खासी संख्या में एक अमीर उच्च-मध्यवर्गीय तबका पैदा हुआ है। इस सुविधापरस्त तबके की बीमारियाँ भी अमेरिका-यूरोप के अमीरों वाली ही हैं। यह तबका चिकित्सा सहित हर सुविधा पैसे के दम खरीद लेना चाहता है और खरीदता भी है, मानवीय अंग खरीदने के लिए भी यह तबका हर कीमत देने के लिए तैयार रहता है। इसके चलते मानवीय अंगों की तस्करी भारी मुनाफे वाला धन्धा बन गयी है। वैसे तो हर मरीज़ के इतने रिश्तेदार -सबन्धी होते हैं कि उनमें से कोई एक अपने बीमार आदमी को कम-से-कम गुर्दा बदलने के लिए तो अंगदान कर ही सकता है, मगर जब मानवीय अंग पैसे से खरीदे जा सकते हों तो कोई ऐसा क्यों करे। कहने को तो ईरान को छोड़कर बाकी सभी देशों में मानवीय अंगों को पैसे के बदले बेचने पर क़ानूनी बंदिश है, मगर वह क़ानून ही क्या हुआ जो अमीरों के लिए चोर-मोरी न रखे। क़ानून के अनुसार कोई भी आदमी जो मरीज़ के लिए “स्‍नेह” की भावना रखता है, वह मरीज़ को अपना अंगदान कर सकता है। इन्हीं “स्‍नेही” भावनाओं का इस्तेमाल अमृतसर गुर्दा कांड में शामिल लोग करते थे और बाकी सभी जगह भी ऐसा ही होता है। आश्चर्य की बात यह है कि लगभग हर जगह ग़रीब आदमी के मन में ही अमीर आदमी के लिए “स्‍नेही” भावनाएं जागती हैं, कभी इसका उल्टा नहीं होता?
इस धन्धे ने ग़रीबों को अमीरों के लिए “स्‍पेयर पार्ट” की दुकानों में बदल दिया है, कोई अंग खराब हुआ तो किसी ग़रीब की मजबूरी का फायदा उठाकर उससे कुछ पैसों में ख़रीद लो। एक अध्ययन के अनुसार भारत में 71 प्रतिशत “अंगदानी” ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले होते हैं, और यह भी सामने आया है कि उनमें से ज़्यादातर लोग 20-40 वर्ष आयु के बेरोज़गार होते है जो रोज़गार के लिए भटकते हुए मानवीय अंगों के तस्करों के हत्थे चढ़ जाते हैं। इसी अध्ययन से यह भी पता चला कि 96 प्रतिशत अंग बेचने वालों ने ऐसा अपने सिर चढ़ा कर्ज़ उतारने के लिए किया, मगर अंग बेचने के बाद भी 75 प्रतिशत अपना कर्ज़ न उतार सके। असल में कई बार तो दलाल अंग निकाल लेने के बाद पैसा देने से ही मुकर जाते हैं और या फिर अक्सर पहले तय हुए पैसों से कम देते हैं, क्योंकि सारा काम गैरक़ानूनी होता है। दलालों के पास अपने गुण्डे भी होते हैं, इसलिए ग़रीब आदमी चुप बैठ जाते हैं। वैसे भी इस धन्धे में लगे दलाल अंग बेचने वालों को कुछ हजार रुपये ही देते हैं, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक गुर्दे का “रेट” 25,000 अमेरिकी डालर यानी 15 लाख रुपये (तीसरी दुनिया के देशों में) से लेकर 1,50,000 अमेरिकी डालर यानी 90 लाख रुपये (विकसित पूँजीवादी देशों में) तक है। “रेट” के इस अन्तर की वजह से “ट्रांसप्लांट टूरिज़्म” का बिज़नेस खड़ा हो गया है जिसके चलते विकसित देशों के अमीर “बीमार” अपने देशों में अंग बदलवाने की जगह ग़रीब देशों में आकर आपरेशन करवाने लगे हैं और इन देशों के कई सारे अस्पतालों का काम “चल” निकला है। इससे मानवीय अंगों की तस्करी का धन्धा और फैला है और दलालों-अस्पतालों-सरकारी अफसर-शाही का गठबन्धन बन गया है।
इस धन्धे में ग़रीबों की आर्थिक लूट तो होती ही है, अंग बेचने के बाद उनके लिए और भी परेशानियाँ खड़ी हो जाती हैं। आपरेशन के दौरान या बाद में पैदा होने वाली चिकित्सीय समस्याओं के लिए दलाल अक्सर ही उनको लावारिस छोड़ देते हैं जिस के चलते या तो वह मौत के मुँह में चले जाते हैं या फिर लम्बे समय तक और कई बार उम्र भर ले लिए नाकारा हो जाते हैं। आपरेशन के दौरान ठीक-ठाक रहने वालों में भी 58 प्रतिशत में बाद में स्वास्थ्य पर बुरे प्रभाव सामने आते हैं, 75 प्रतिशत अंग बेचने वाले लोग पछतावा, अपराध-बोध और अवसाद (डिप्रेशन) को झेलते हैं। इन सब कारणों के चलते वे पहले जितना काम करने के लायक नहीं रहते, और क्योंकि इनमें से ज़्यादातर सख़्त शारीरिक मेहनत वाला काम करने वाले होते हैं, इसलिए बहुतेरों का काम छूट जाता है। मगर सवाल सिर्फ आर्थिक लूट और चिकित्सीय समस्याओं का नहीं है, असल सवाल तो मानवीय गरिमा का है। एक आदमी को ग़रीब होने के कारण, जीने के संसाधन न होने के कारण आपने शरीर के अंग बेचने पड़ें, इससे बड़ा धक्का उस आदमी की मानवीय गरिमा के लिए क्या हो सकता है? सवाल यह भी है कि समाज के एक छोटे से तबके को उसके आरामतलबी से भरे जीने के ढंग से लगी बीमारियों की कीमत समाज का दूसरा वर्ग क्यों चुकाये?
कुछ क़ानून-विशेषज्ञ, कुछ “ज्‍यादा” पढ़-लिख गये लोगों तथा कई सारी “समाज-सेवी” गैर-सरकारी संस्थाओं आदि ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि अंग बेचने को ईरान की तरह क़ानूनी मान्यता दी जाये, इसके पक्ष में वह ईरान की मिसाल देते हैं जहाँ पर अंग-बेचना क़ानूनी होने के कारण अंग-खरीदने वालों को फ्वेटिंग” में नहीं लगना पड़ता। पूँजीवादी ढांचे के ये टुकड़खोर हर उस गैर-मानवीय, इंसान की संवेदना को झकझोरने वाले घटनाक्रम को क़ानूनी बना देना चाहते हैं जिसे पूँजीवादी ढाँचा मानवता के ऊपर थोपता है। ये लोग कभी वेश्यावृत्ति को क़ानूनी मान्यता देने की माँग करते हैं, कभी अंग-बेचने को, तो कभी ब्लू-फिल्मों के कारोबार को। असल में इनका एक ही मकसद होता है कि पूँजीवादी ढाँचे के अमानवीय लक्षणों को (और अब पूँजीवाद के पास कुछ भी मानवीय रहा नहीं है) आम लोगों की चेतना में “नॉर्मल” बना दिया जाये। इस तरह इनके खि़लाफ़ लड़ने, इनको ख़त्म करने का (और साथ ही पूँजीवाद को ख़त्म करने का) सवाल ही ख़त्म हो जाये। ये लोग अंग-बेचने को महज़ एक “आर्थिक” मामला बना देते हैं (पूँजीवाद में और क्या हो सकता है??)। इसके साथ जुड़े दूसरे सवालों को जैसे, क्या ग़रीबों की कोई मानवीय गरिमा नहीं होती, कोई इतना ग़रीब ही क्यों है कि उसे अपने अंग बेचने पड़ें, क्या ग़रीब अमीरों के लिए स्पेयर पार्ट की दुकानें हैं, आखिर अमीर्रों के ही ज़्यादा गुर्दे क्यों फेल होते हैं, क्या मुख्य ज़ोर अंगों की सप्लाई बढ़ाने पर होना चाहिए या फिर माँग कम करने पर, और ऐसे ही बहुत सारे अन्य असुविधाजनक सवालों को गोल कर जाते हैं क्योंकि ये सवाल पूरे सामाजिक ढाँचे, पूँजीवाद की पतनशीलता, और इस बात की तरफ ध्यान खींचते हैं कि पूँजीवाद मानवता के लिए कितना असहनीय हो चुका है। इनका बस एक उदेश्य है कि कैसे अमीरों के लिए मानवीय अंगों की सस्ती, बेरोकटोक, क़ानूनी सप्लाई पक्की की जा सके और साथ ही अंगों की ख़रीद-बेच अमानवीय बात न होकर आम बिज़नेस के रूप में मानवीय समाज में स्थापित हो जाये।

मज़दूर बिगुलजनवरी-फरवरी 2014

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