Day 2, March 29, 2014 9th Gorakhpur Film Festival
By Cinema of Resistance
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गोरखपुर फिल्मोत्सव दूसरा दिन
जनता के सहारे ही संभव है सही जनपक्षधर दस्तावेजी सिनेमा- एम गनी
गोरखपुर फिल्म समारोह के दूसरे दिन की शुरुआत अल्जीरियाई मुक्ति संग्राम पर बनी फिल्म ‘बैटल्स ऑफ अल्जीयर्स’ दे हुई। इस फिल्म का निर्देशन गिल्लो पोंटेकोरवो ने किया था। 1966 में बनी यह श्वेत-श्याम फिल्म 1954 से 1962 के बीच अल्जीरिया में चले मुक्तिसंग्राम की कहानी कहती है। इस मुक्ति संग्राम में अल्जीरिया के जन-योद्धाओं ने अपनी प्रिय मातृभूमि को फ्रांस के उपनिवेशवादियों से बचाने के लिए जान की बाजी लगाई, जिससे अल्जीरिया स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत पा सका।
अगली दिखाई जाने वाली दस्तावेजी फिल्म थी निष्ठा जैन की ‘गुलाबी गैंग’। मुख्यधारा में बनने वाली शोर-शराबे और चमक-दमक से भरी फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के ठीक विपरीत यह दस्तावेजी फिल्म महिला सवालों को जड़ से पहचानती-रेखांकित करती है। जहां माधुरी दीक्षित की अभिनय से भारी फिल्म में महिला सवाल पीछे चले गए हैं, वहीं यह फिल्म उन सवालों को खंघालती है, जिनके नाते गुलाब गैंग जैसी परिघटनाएँ इस समाज में संभव होती हैं।
अगली फिल्म थी दीपेश जैन की ‘11 वीक्स’। कश्मीर भारत के अशांत क्षेत्रों में बताया जाता रहा है और सांप्रदायिकता को वहाँ एक समस्या की तरह दिखाया बताया जा रहा है। यह फिल्म उस माहौल में पल-बढ़ रहे हिन्दू-मुस्लिम साझापने को खूबसूरती से दिखाती है। फिल्म की कहानी में एक मुस्लिम किशोर, एक बूढ़े हिन्दू के साथ ग्यारह हफ्तों का वक्त बिताता है। इस बीते हुए वक्त को दिखाने के साथ ही फिल्म कश्मीर की ज्वलंत हकीकतों और वहाँ की जनता के मनोभाव को चित्रित कर पाने में सफल होती है। इस फिल्म पर चली चर्चा में दर्शकों ने गरमागरम भागीदारी की।
इसके बाद विश्व सिनेमा से तीन छोटी-छोटी फिल्में दर्शकों के बीच दिखाई गईं। पहली फिल्म थी ‘बिग सिटी ब्लूज’। महिला हिंसा को सधे तरीके से उभारती है, साथ ही यह समाज में महिलाओं पर हिंसा के मनोविज्ञान पर गहरी बात करती है। दूसरी फिल्म थी- अदर साइड। यह फिल्म फासीवादी किस्म की सत्ता के दौर में दमन और उसके खिलाफ प्रतिरोध की एक बिम्बात्मक प्रस्तुति करती है। तीसरी फिल्म थी ‘द फैट मैन, द थिन मैन’। यह फिल्म अमीर आदमियों के गरीबों पर किए जा रहे अमानुषिक शोषण को विद्रूप के सहारे बेहतर तरीके से दिखा पाती है।
इसके बाद चर्चा-बहस का सत्र आयोजित था, विषय था ‘जन संघर्ष और नए कैमरे की भूमिका’। श्रोताओं के साथ ही इस सत्र के वक्ताओं में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सुरभि शर्मा, संजय मट्टू, एम गनी, विपिन शर्मा, संजय जोशी और चंद्रभूषण अंकुर ने शिरकत की। सुरभि शर्मा ने कहा कि बताया कि नई तकनीकों के आने के बाद सिनेमा बनाना आसान हो गया है। मार्तंड ने चर्चा में शिरकत करते हुए सवाल उठाया कि दृश्यबिंबों की अति के इस जमाने में सिनेमाँ के भीतर राजनीति की रणनीति कैसे बनेगी? क्या फंडिंग से इसका संबंध नहीं है ? गनी ने बात रखते हुए कहा कि तकनीक के आ जाने भर से कोई माध्यम जन-पक्षधर नहीं हो जाता। पर इस तकनीक को हमें हथियार के तरह इस्तेमाल करना चाहिए। मेरे जैसे लोग अपने गुस्से को निकालने के लिए इस सस्ते माध्यम की ओर आकर्षित हुए हैं और इस कैमरे का इस्तेमाल किया है। सुरभि शर्मा ने भी कहा कि तकनीक पर पहले कुछ लोगों का कब्जा था, अब उसका लोकतांत्रीकरण हुआ है, और यह एक स्वागत योग्य बात है। संजय मट्टू ने बहस में भाग लेते हुए कहा कि राजनैतिक दस्तावेजी फिल्में पहले राज्य को संबोधित होती थी, पर अब इनमें से कई अब नए तकनीक के दौर में जनता को संबोधित करने लगे हैं। संजय जोशी ने कहा कि 80 के दशक में दस्तावेजी फिल्मकार फंडिंग के बगैर काम कर रहे थे। अब 90 के दशक और उसके बाद जब आंदोलन बढ़ने लगे तब फिल्में देशी-विदेशी फंड लेने लगीं। उन्होने कहा कि फोर्ड फाउंडेशन अपने हिसाब से पैसे लगाता है, इसलिए फंडिंग का सवाल काफी महत्त्वपूर्ण है।
2010 से लेकर 2012 के बीच दिल्ली और बरेली में रिकार्ड की गई फिल्म ‘मैंने चुना अलग रास्ता’ अप्रतिम जिजीविषा से भरे हिन्दी के ‘अलग रास्ते’ के कवि वीरेन डंगवाल की कविताओं पर आधारित है। यह फिल्म न सिर्फ हिन्दी के इस अनूठे कवि की कवितायें उसकी अद्भुत खनकदार आवाज में हम तक पहुंचाती है, बल्कि कविता और जीवन के रास्तों पर एक कवि की निगाह से हमारा तआर्रुफ भी कराती है। फिल्म निर्देशक संजय जोशी ने दर्शकों से बातचीत करते हुए बताया कि वीरेन डंगवाल हिन्दी के ऐसे विरल कवि हैं जिन्होने छोटी-छोटी चीजों और घटनाओं के सहारे प्रतिरोध का आख्यान रचा है। इस फिल्म का निर्माण ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ने किया है।
उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी की जिंदगी पर आधारित दस्तावेजी फिल्म ‘उर्दू कवि फिराक गोरखपुरी’ थी। फिल्म के निर्देशक हैं हकुमत सरीन। श्वेत-श्याम यह फिल्म फिराक साहब के अद्भुत किस्सागो को हमारे सामने लाती है। साथ ही साथ यह फिल्म उनकी गजलों-नज़्मों की दुनिया से
जनता के सहारे ही संभव है सही जनपक्षधर दस्तावेजी सिनेमा- एम गनी
गोरखपुर फिल्म समारोह के दूसरे दिन की शुरुआत अल्जीरियाई मुक्ति संग्राम पर बनी फिल्म ‘बैटल्स ऑफ अल्जीयर्स’ दे हुई। इस फिल्म का निर्देशन गिल्लो पोंटेकोरवो ने किया था। 1966 में बनी यह श्वेत-श्याम फिल्म 1954 से 1962 के बीच अल्जीरिया में चले मुक्तिसंग्राम की कहानी कहती है। इस मुक्ति संग्राम में अल्जीरिया के जन-योद्धाओं ने अपनी प्रिय मातृभूमि को फ्रांस के उपनिवेशवादियों से बचाने के लिए जान की बाजी लगाई, जिससे अल्जीरिया स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत पा सका।
अगली दिखाई जाने वाली दस्तावेजी फिल्म थी निष्ठा जैन की ‘गुलाबी गैंग’। मुख्यधारा में बनने वाली शोर-शराबे और चमक-दमक से भरी फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के ठीक विपरीत यह दस्तावेजी फिल्म महिला सवालों को जड़ से पहचानती-रेखांकित करती है। जहां माधुरी दीक्षित की अभिनय से भारी फिल्म में महिला सवाल पीछे चले गए हैं, वहीं यह फिल्म उन सवालों को खंघालती है, जिनके नाते गुलाब गैंग जैसी परिघटनाएँ इस समाज में संभव होती हैं।
अगली फिल्म थी दीपेश जैन की ‘11 वीक्स’। कश्मीर भारत के अशांत क्षेत्रों में बताया जाता रहा है और सांप्रदायिकता को वहाँ एक समस्या की तरह दिखाया बताया जा रहा है। यह फिल्म उस माहौल में पल-बढ़ रहे हिन्दू-मुस्लिम साझापने को खूबसूरती से दिखाती है। फिल्म की कहानी में एक मुस्लिम किशोर, एक बूढ़े हिन्दू के साथ ग्यारह हफ्तों का वक्त बिताता है। इस बीते हुए वक्त को दिखाने के साथ ही फिल्म कश्मीर की ज्वलंत हकीकतों और वहाँ की जनता के मनोभाव को चित्रित कर पाने में सफल होती है। इस फिल्म पर चली चर्चा में दर्शकों ने गरमागरम भागीदारी की।
इसके बाद विश्व सिनेमा से तीन छोटी-छोटी फिल्में दर्शकों के बीच दिखाई गईं। पहली फिल्म थी ‘बिग सिटी ब्लूज’। महिला हिंसा को सधे तरीके से उभारती है, साथ ही यह समाज में महिलाओं पर हिंसा के मनोविज्ञान पर गहरी बात करती है। दूसरी फिल्म थी- अदर साइड। यह फिल्म फासीवादी किस्म की सत्ता के दौर में दमन और उसके खिलाफ प्रतिरोध की एक बिम्बात्मक प्रस्तुति करती है। तीसरी फिल्म थी ‘द फैट मैन, द थिन मैन’। यह फिल्म अमीर आदमियों के गरीबों पर किए जा रहे अमानुषिक शोषण को विद्रूप के सहारे बेहतर तरीके से दिखा पाती है।
इसके बाद चर्चा-बहस का सत्र आयोजित था, विषय था ‘जन संघर्ष और नए कैमरे की भूमिका’। श्रोताओं के साथ ही इस सत्र के वक्ताओं में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सुरभि शर्मा, संजय मट्टू, एम गनी, विपिन शर्मा, संजय जोशी और चंद्रभूषण अंकुर ने शिरकत की। सुरभि शर्मा ने कहा कि बताया कि नई तकनीकों के आने के बाद सिनेमा बनाना आसान हो गया है। मार्तंड ने चर्चा में शिरकत करते हुए सवाल उठाया कि दृश्यबिंबों की अति के इस जमाने में सिनेमाँ के भीतर राजनीति की रणनीति कैसे बनेगी? क्या फंडिंग से इसका संबंध नहीं है ? गनी ने बात रखते हुए कहा कि तकनीक के आ जाने भर से कोई माध्यम जन-पक्षधर नहीं हो जाता। पर इस तकनीक को हमें हथियार के तरह इस्तेमाल करना चाहिए। मेरे जैसे लोग अपने गुस्से को निकालने के लिए इस सस्ते माध्यम की ओर आकर्षित हुए हैं और इस कैमरे का इस्तेमाल किया है। सुरभि शर्मा ने भी कहा कि तकनीक पर पहले कुछ लोगों का कब्जा था, अब उसका लोकतांत्रीकरण हुआ है, और यह एक स्वागत योग्य बात है। संजय मट्टू ने बहस में भाग लेते हुए कहा कि राजनैतिक दस्तावेजी फिल्में पहले राज्य को संबोधित होती थी, पर अब इनमें से कई अब नए तकनीक के दौर में जनता को संबोधित करने लगे हैं। संजय जोशी ने कहा कि 80 के दशक में दस्तावेजी फिल्मकार फंडिंग के बगैर काम कर रहे थे। अब 90 के दशक और उसके बाद जब आंदोलन बढ़ने लगे तब फिल्में देशी-विदेशी फंड लेने लगीं। उन्होने कहा कि फोर्ड फाउंडेशन अपने हिसाब से पैसे लगाता है, इसलिए फंडिंग का सवाल काफी महत्त्वपूर्ण है।
2010 से लेकर 2012 के बीच दिल्ली और बरेली में रिकार्ड की गई फिल्म ‘मैंने चुना अलग रास्ता’ अप्रतिम जिजीविषा से भरे हिन्दी के ‘अलग रास्ते’ के कवि वीरेन डंगवाल की कविताओं पर आधारित है। यह फिल्म न सिर्फ हिन्दी के इस अनूठे कवि की कवितायें उसकी अद्भुत खनकदार आवाज में हम तक पहुंचाती है, बल्कि कविता और जीवन के रास्तों पर एक कवि की निगाह से हमारा तआर्रुफ भी कराती है। फिल्म निर्देशक संजय जोशी ने दर्शकों से बातचीत करते हुए बताया कि वीरेन डंगवाल हिन्दी के ऐसे विरल कवि हैं जिन्होने छोटी-छोटी चीजों और घटनाओं के सहारे प्रतिरोध का आख्यान रचा है। इस फिल्म का निर्माण ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ने किया है।
उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी की जिंदगी पर आधारित दस्तावेजी फिल्म ‘उर्दू कवि फिराक गोरखपुरी’ थी। फिल्म के निर्देशक हैं हकुमत सरीन। श्वेत-श्याम यह फिल्म फिराक साहब के अद्भुत किस्सागो को हमारे सामने लाती है। साथ ही साथ यह फिल्म उनकी गजलों-नज़्मों की दुनिया से
पाठकों को रूबरू करवाती है। गोरखपुर के इस नायाब शायर की जिंदगी और कविताओं पर बनी इस दस्तावेजी फिल्म को दर्शकों ने काफी आत्मीयता से देखा-सराहा।
मनोज सिंह
संयोजक गोरखपुर फिल्म सोसाइटी
द्वारा जारी
फोन 09415282206
मनोज सिंह
संयोजक गोरखपुर फिल्म सोसाइटी
द्वारा जारी
फोन 09415282206
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