लगातार बढ़ता जा रहा है स्त्रियों और बच्चों की तस्करी का घिनौना कारोबार
लखविन्दर
मुनाफ़े पर टिके आर्थिक- सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे ने मानवता को कितना अमानवीय बना दिया है इसकी एक भयंकर तस्वीर मनुष्यों की तस्करी के रूप में देखी जा सकती है। विश्व स्तर पर यह व्यापार विश्व में तीसरा स्थान हासिल कर चुका है। यह तस्करी वेश्यावृत्ति, शारीरिक शोषण, जबरन विवाह, बन्धुआ मज़दूरी, अंगों की तस्करी आदि के लिए की जाती है। अस्सी फ़ीसदी की तस्करी तो सेक्स व्यापार के लिए ही की जाती है। मनुष्य की तस्करी का सबसे अधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं और उनमें से भी बच्चियों को इसका सबसे अधिक शिकार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक आँकड़े के मुताबिक विश्व स्तर पर हर वर्ष 12 लाख बच्चों की ख़रीद-फरोख्त होती है। इन बच्चों में आधों की उम्र 11 से 14 वर्ष के बीच होती है।
एक वेबसाइट ‘‘ह्यूमन ट्रेफ़िकिंग: द फैक्ट्स’’ के एक आँकड़े के मुताबिक 56 प्रतिशत तस्करी एशिया या प्रशान्त क्षेत्र के देशों से, 10 प्रतिशत लातिनी अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र से, 9.2 प्रतिशत सब-सहारा देशों से, 10.8 प्रतिशत विकसित पूँजीवादी देशों और 8 फ़ीसदी अन्य देशों से होती है। अफगानिस्तान, कान्गो, पाकिस्तान के बाद भारत स्त्रियों के लिए सबसे असुरक्षित देश माने गये हैं।
भारत मनुष्यों की तस्करी का बड़ा अड्डा है। भारत में यह तस्करी 90 प्रतिशत अन्दरूनी स्तर पर होती है यानी एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में। लेकिन इसके साथ ही खाड़ी देशों सहित यूरोप और अमेरिका में भी बच्चे और स्त्रियाँ अच्छी-खासी संख्या में तस्कर किये जाते हैं। भारत सरकार के ही एक आँकड़े के मुताबिक देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा ग़ायब होता है।
सन् 2011 की सरकारी रिपोर्ट कहती है कि इस वर्ष के दौरान देश भर में 35,000 बच्चे ग़ायब हुए। यहाँ यह भी नोट करना चाहिए कि सिर्फ़ 35 प्रतिशत मामलों की ही रिपोर्ट होती है बाक़ी मामले किसी न किसी कारण से दब कर रह जाते हैं। भारत में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक तीस लाख वेश्याएँ हैं जिनमें से 40 प्रतिशत 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियाँ हैं। कम उम्र की लड़कियों की माँग बढ़ती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि वेश्याओं में एड्स बहुत अधिक फैली हुई है। मुम्बई में 70 प्रतिशत वेश्याएँ एड्स की मरीज़ हैं। पर्यटन स्थलों और धार्मिक तीर्थों के स्थानों पर सेक्स व्यापार काफ़ी बड़े स्तर पर फल-फूल रहा है। पैडोफीलिया (बच्चों-बच्चियों के साथ सम्भोग, उन्हें यातनाएँ देना, यहाँ तक कि हत्या करके उनका मांस तक खाना) से ग्रस्त मनोरोगियों द्वारा बच्चों की ख़रीद-फरोख़्त और बच्चों को अगवा करने की परिघटना बढ़ती जा रही है।
जबरन ‘‘शादी’’ के लिए भी लड़कियाँ ग़ायब होती हैं और उनकी तस्करी की जाती है। भारत में मादा भ्रूण हत्या बड़े स्तर पर होने के कारण स्त्रियाँ-मर्दों का अनुपात काफ़ी डगमगा गया है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में इस मामले में काफ़ी बुरा हाल है। इण्डिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2012 में लगभग 15,000 स्त्रियों की बिहार, ओडीसा और आंध्र प्रदेश से राजस्थान में तस्करी की गयी।
पूँजीपति वर्ग हमेशा सस्ती से सस्ती श्रम शक्ति ढूँढ़ता रहता है। स्त्रियों और बच्चों का सस्ता श्रम इसके लिए ‘‘वरदान’’ है। कारखानों, वर्कशॉपों, खेतों, ईंट, भट्ठों, खदानों, घरेलू कामों के लिए देश का पूँजीपति वर्ग स्त्रियों और बच्चों के सस्ते श्रम का इस्तेमाल करता है। मुनाफ़े की हवस पूँजीपति वर्ग को किसी भी हद तक अमानवीय बना सकती है। भारत में स्त्रियों और बच्चों को बन्धुआ मज़दूर बनाकर रखना मुक़ाबलतन आसान है। इसलिए यह भी स्त्रियों और बच्चों की तस्करी का एक कारण है। इन कामों के लिए बालिग मर्दों की भी तस्करी होती है।
मानवीय तस्करी का शिकार होने वाले बच्चों और स्त्रियों में से बहुसंख्या ग़रीब घरों से होती है। सूखा, भुखमरी, प्राकृतिक आपदा या अन्य सामाजिक उथल-पुथल वाले क्षेत्रों में से बड़े स्तर पर बच्चे और स्त्रियाँ बेचे जाते, ग़ायब और तस्कर किये जाते हैं। परिवार के लोग भी ग़रीबी के कारण बच्चों-बच्चियों को बेच देते हैं।
समाज में स्त्रियों का विभिन्न रूपों में दमन-उत्पीड़न बढ़ता जा रहा है। इन सभी रूपों में स्त्रियों की तस्करी के रूप में होने वाला दमन-उत्पीड़न सबसे अधिक उभार पर है। बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट कहती है कि पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक सन् 2011 के बाद भारत में जहाँ अगवा करने की घटनाओं में 19.4 प्रतिशत, दहेज से सम्बन्धित हत्याओं की घटनाओं में 2.7 प्रतिशत, यातना देने की घटनाओं में 5.8 प्रतिशत वृद्धि हुई है वहीं स्त्रियों की तस्करी में 122 प्रतिशत की भयंकर वृद्धि हुई है।
जिन लड़कियों-स्त्रियों को वेश्यावृत्ति के नर्ककुण्ड में धकेल दिया जाता है उनकी बुरी हालत का अंदाज़ा लगा पाना आसान नहीं है। एक संस्था ई.सी.पी.ए.टी. ने दीपा नाम की एक लड़की से सम्बन्धित एक रिपोर्ट प्रसारित की थी। दीपा की आपबीती से वेश्याओं की हालत का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। एक औरत द्वारा दीपा को बेहोशी की दवाई सुँघाकर एक वेश्यालय में बेच दिया गया था। दीपा बताती है कि उसे कहा गया कि उसे वेश्या बनना पड़ेगा। मना करने पर उसे बुरी तरह पीटा गया। उसके पूरे शरीर पर नील पड़ गये। लोहे की गर्म छड़ों से उसे यातनाएँ दी गईं। हारकर उसे वेश्या बनने पर मज़बूर होना पड़ा। उसे रोजाना सुबह छह बजे से रात के तीन बजे तक 12-14 ग्राहक भुगताने पड़ते थे। किसी तरह वह वहाँ से भागने में कामयाब हुई।
एड्स, सरवाइकल, कैंसर और अन्य शारीरिक समस्याओं का वेश्याओं को सामना करना पड़ता है। हिंसा, गाली-गलौज़, स्थायी मानसिक परेशानी इन्हें झेलनी पड़ती है। जो लड़कियाँ/महिलाएँ किसी तरह इस नर्ककुण्ड से छुटकारा पाने में कामयाब हो भी जाती हैं उनका आगे का जीवन भी आसान नहीं होता। अधिकतर मामलों में तो माँ-बाप और अन्य नज़दीकी सगे-सम्बन्धी भी उनसे दूरी बनाये रखने में भलाई समझते हैं।
मानव तस्करी का यह उद्योग पुलिस, प्रशासन और सरकार की जानकारी ओर मिलीभगत के बिना जारी नहीं रह सकता है और न ही फल-फूल सकता है। जनवरी, 2013 में बी.बी.सी. द्वारा कोलकाता के एक तस्कर से बात की गयी। तस्कर ने बताया कि वह साल में 150 से 200 लड़कियों (और माँग वृद्धि पर है) की तस्करी करता है। इन लड़कियों की उम्र 10,11 से लेकर 16-17 तक होती है। वह हर लड़की के पीछे लगभग पचास हज़ार रुपए कमा लेता है। विभिन्न क्षेत्रों में उसके एजेण्ट बैठे हैं जो लड़कियों के माँ-बाप से वायदा करते हैं कि वे लड़कियों को दिल्ली में नौकरी पर लगवा देंगे। इसके बाद इन लड़कियों के साथ क्या बीतती है। तस्कर ने बताया कि स्थानीय राजनीतिक नेता और पुलिस इसके बारे में अच्छी तरह से जानते हैं। हर शहर में पुलिस को वे रिश्वत देते हैं।
मानव तस्करी और इसका इतने बड़े पैमाने पर फैलाव किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को यह सोचने पर मज़बूर करता है कि आखिर कब तक मानवता मुनाफ़ाखोरों के अपराधों को सहन करती रहेंगी। मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने मानवता के माथे पर असंख्य कलंक लगाये हैं – अमीरी-ग़रीबी की भयंकर खाई, बुनियादी सहूलियतों से भी वंचित मेहनतक़श जनता, वातावरण की तबाही, प्रकृति से ख़तरनाक छेड़छाड़, खूँखार युद्ध, बच्चों और स्त्रियों की तस्करी… अब और क्या गिनाया जाना ज़रूरी है यह साबित करने के लिए मुनाफ़े पर टिके इस आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे के खात्मे के बिना मानवता की बेहतरी सम्भव नहीं हैं?
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
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