आज़ादी, बराबरी और इंसाफ के लिए लड़ने वाली मरीना को इंक़लाबी सलाम!
संजय
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19 जनवरी 1929 को फ्रांस के तुलूस शहर में जन्मी मरीना का परिवार 1930 के शुरू में स्पेन के बारसीलोना जाकर बस गया था जहाँ वह युनिफाइड सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी। 1936 में स्पेन में मेहनतकश समर्थक लेफ्ट फ्रंट की सरकार का फासिस्ट जनरल फ्रांको द्वारा तख़्तापलट करने के बाद स्पेन के तमाम इंसाफ़पसन्द जुझारू नौजवानों की तरह मरीना भी गणतंत्र की हिफ़ज़त के लिए रिपब्लिकन मिलिशिया में शामिल हो गयी।
स्पेन का गृहयुद्ध सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का एक अद्भुत उदाहरण था जब फासिस्टों से गणतांत्रिक स्पेन की रक्षा करने के लिए पूरी दुनिया के 50 से अधिक देशों से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता स्पेन पहुँचकर अन्तरराष्ट्रीय ब्रिगेडों में शामिल हुए थे। हज़ारों कम्युनिस्टों ने फासिस्टों से लड़ते हुए स्पेन में अपनी कुर्बानी दी थी। इनमें पूरी दुनिया के बहुत से श्रेष्ठ कवि, लेखक और बुद्धिजीवी भी थे। उस वक़्त जब दुनिया पर फासिज़्म का ख़तरा मँडरा रहा था, जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी दुनिया को विश्वयुद्ध में झोंकने की तैयारी कर रहे थे, ऐसे में स्पेन में फासिस्ट फ्रांको द्वारा सत्ता हथियाये जाने का मुँहतोड़ जवाब देना ज़रूरी था। जर्मनी और इटली की फासिस्ट सत्ताएँ फ्रांको का साथ दे रही थीं लेकिन पश्चिमी पूँजीवादी देश बेशर्मी से किनारा किये रहे और उसकी मदद भी करते रहे। केवल स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने फ्रांकों को परास्त करने का आह्वान किया और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के आह्वान पर हज़ारों- हज़ार कम्युनिस्टों ने स्पेन की मेहनतकश जनता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ते हुए बलिदान दिया।
यह तस्वीर उसी दौर की याद दिलाती है जब नौजवानों में एक महान लक्ष्य के लिए, आज़ादी, बराबरी और इंसाफ के लिए लड़ने और कुर्बानी देने का ज़ज़्बा हिलोरे मार रहा था। आज उस दौर के संघर्षों और उपलब्धियों की शानदार विरासत को धूल-राख से ढँक दिया गया है मगर आने वाला वक़्त एक बार फिर उसे पुनरुज्जीवित करेगा।
संघर्ष की उस विरासत को याद करना आज इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि एक बार फासीवाद हमारे दरवाज़ों पर दस्तक दे रहा है। पूँजीवाद के जिस संकट के गर्भ से हिटलर, मुसोलिनी और फ्रांको के फासीवाद का जन्म हुआ था उससे भी गहरा संकट आज पूरी दुनिया में पूँजीवाद को जकड़े हुए है। संकट से उबरने का पूँजीपतियों को बस एक ही तरीक़ा आता है – और वह मेहनतकश जनता की नस-नस निचोड़कर अपने मुनाफ़े को बढ़ाने और जनता जब प्रतिरोध करे तो उसे बर्बरता के साथ कुचल डालने का तरीक़ा। जनता को धार्मिक-जातीय- अन्धराष्ट्रवादी उन्माद भड़काकर आपस में बाँटने का तरीक़ा। इतिहास का सबक़ है कि ऐसे फ़ासिस्टों को मेहनतकश और नौजवानों की फौलादी एकता और जुझारू संघर्ष से ही धूल चटायी जा सकती है। मरीना जेनेस्टा की याद एक बार फिर हमें इस संघर्ष के लिए कमर कसने को प्रेरित करती है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
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