Saturday, April 20, 2013
INVESTMENT COLLABORATION
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Abul-Hassan Mohammed Abzari.
राजनीति में होता है महिलाओं का शोषण By दिनेश शाक्य
राजनीति में होता है महिलाओं का शोषण
http://visfot.com/index.php/news/9023-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%B7%E0%A4%A3.html
संसद में भले ही महिलाओं के आरक्षण का विरोध उनका प्रिय एजेण्डा हो लेकिन पार्टी के भीतर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाने के लिए वे भी बेचैन हैं। मुलायम सिंह यादव ने घोषणा की है कि आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी के हर बूथ पर महिलाओं की तैनाती की जाएगी। उनकी योजना है कि हर बूथ पर कम से कम छह महिलाएं मौजूद रहेंगी। पार्टी के भीतर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की वकालत करनेवाले मुलायम सिंह यादव मानते हैं कि राजनीति में महिलाओं का शोषण होता है। आज लखनऊ में समाजवादी पार्टी की महिला कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए मुलायम सिंह यादव ने माना कि राजनीति में उन्हें विपरीत परिस्थितियों का सामना करना होता है।
मुलायम के मंसूबे हैं कि अगर महिलाओं ने पार्टी का दामन मजबूती से पकड़ लिया तो लोकसभा चुनाव में उनकी नैय्या पार लग जाएगी। मुलायम सिंह यादव ने पार्टी की महिला पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा कि "महिलाएं आगे आएगीं तभी समाजवादी पार्टी आगे बढ़ेगी। समाजवादी पार्टी महिलाओं के साथ न्याय, उन्हें विशेष अवसर दिए जाने तथा नर-नारी समानता के डा0 लोहिया के सिद्धान्त पर विश्वास करती है और इसे पूरा करने के लिए कृतसंकल्प है। उन्होने कहा कि महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की नीतियां लागू हो रही है।"
श्री यादव ने कहा कि महिलाओं को विपरीत स्थितियां का सामना राजनीति में करना होता है। वे अपने घर-परिवार को छोड़कर पार्टी के कार्यक्रमों में भागीदारी करती हैं। समाजवादी पार्टी उन्हें पूरा सम्मान देती है। उनके साथ कोई अन्याय बर्दाश्त नहीं होगा। पांच वर्ष तक महिलाओं ने संघर्ष किया और समाजवादी पार्टी की सरकार बनाई है। उन्हें निगमों, आयोगों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य बनाया गया हैं। उन्होने कहा कि समाजवादी पार्टी में महिलाओं की संख्या ज्यादा है सबका मान सम्मान सुरक्षित रहेगा। श्री यादव ने कहा कि महिलाओं का शोषण दुनिया भर में होता आया है। आधी आबादी को दबाकर रखा गया है। समाजवादी पार्टी सभी किस्म के अन्याय के विरोध में है। पार्टी के सभी कार्यकर्ताओं और नेताओं को अनुशासन में रहकर जनता की समस्याओं के समाधान में रूचि लेनी चाहिए। कार्यकर्ता एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल हों। गरीबों और असहायों की भरसक मदद करें। राजनीति को सेवा का जरिया मानों, इसे धन कमाने का रास्ता नहीं बनाएं।
हिन्दू राष्ट्रवादी भी मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह अंग्रेजों को अपना मित्र मानते थे
हिन्दू राष्ट्रवादी भी मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह अंग्रेजों को अपना मित्र मानते थे
इरफान इंजीनियर
http://hastakshep.com/?p=31652
दक्षिण एशिया में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने ऐसी नीतियाँ अपनायीं जिनसे आमजन साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक पहचान, अन्य पहचानों-जैसे क्षेत्रीय, भाषायी व लैंगिक-से अधिक महत्वपूर्ण बन गयीं। भारत में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेज शासकों ने सीमित मताधिकार के आधार पर स्थानीय संस्थाओं के चुनाव करवाने शुरू किये। उनका कहना था कि यह देश में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की शुरूआत का प्रयास है। परन्तु इसने देश को विभाजित किया। तत्कालीन समाज पिछड़ा हुआ था व उसकी सोच सामन्ती थी। इस पृष्ठभूमि में, उम्मीदवारों को चुनावों में समर्थन और वोट हासिल करने के लिये धार्मिक पहचान का उपयोग, सबसे आसान रास्ता नजर आया।
यह भाँपकर कि इन चुनावों के जरिये अंग्रेज देश पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहते हैं, सर सैय्यद अहमद खान नेभारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पर हिन्दू पार्टी का लेबिल चस्पा कर दिया और मुसलमानों से आव्हान किया कि वे उससे दूर रहें।औपनिवेशिक शासन के प्रति मुसलमानों की कोई सामूहिक रणनीति नहीं थी। बदरूद्दीन तैयबजी और कई अन्य मुसलमानों ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से सम्बंध बनाये रखे और सर सैय्यद के आव्हान को नजरअंदाज कर दिया। तैयबजी तो आगे चलकर काँग्रेस के अध्यक्ष भी बने। सर सैय्यद का प्रयास यह था कि मुसलमानों को उनकी परम्परा-जनित जड़ता से बाहर निकाला जाये और अंग्रेजी शिक्षा को एक हथियार बतौर इस्तेमाल कर, उनमें आधुनिक सोच को बढ़ावा दिया जाये। सर सैय्यद, इस्लाम की पुनर्व्य़ाख्या करना चाहते थे और मुसलमानों के दिमागों में घर कर चुके जालों को हटाना चाहते थे। मुसलमानों के धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग ने पश्चिमी औपनिवेशिक संस्कृति का प्रतिरोध किया और इसके कारण, मुस्लिम समुदाय का झुकाव कट्टरता और परम्परागतता की ओर हो गया। गुजरे हुये वक्त को वापिस लाने के प्रयास में मुस्लिम समुदाय, कुएँ का मेढक बन गया।
मुस्लिम समुदाय में साम्प्रदायिकता व अल्पसंख्यक होने का भाव दो प्रक्रियाओं की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुआ। पहली थी धार्मिक और सामन्ती श्रेष्ठि वर्ग द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध और दूसरी, पश्चिमी शिक्षा हासिल कर औपनिवेशिक शासनतन्त्र में स्थान पाने की इच्छा। पहली प्रक्रिया औपनिवेशिक शासकों के हाथों में सत्ता चले जाने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी जबकि दूसरी, औपनिवेशिक शासन के यथार्थ को स्वीकार कर और उसका हिस्सा बन, समुदाय का सशक्तिकरण करने की रणनीति। विडम्बना यह है कि दोनों का एक ही नतीजा हुआ-अर्थात् मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव का घर कर जाना। 19वीं सदी की शुरूआत में प्रारम्भ हुये वहाबी और फरीजी आन्दोलन, पहली प्रक्रिया के उदाहरण थे अर्थात् ब्रिटिश शासन का प्रतिरोध। सर सैय्यद अहमद खान का अंग्रेजी शिक्षा पर जोर, दूसरी रणनीति का उदाहरण था, जिसका उद्धेश्य था समुदाय के सदस्यों को ब्रिटिश नौकरशाही और सत्ता के ढाँचे में स्थान दिलवाना।
धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग, उलेमा और मौलवियों ने समुदाय को औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करने के लिये गोलबन्द करने के उद्धेश्य से धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक मंचों का इस्तेमाल किया। इस्लामिक पुनरूत्थानवादियों का उद्धेश्य था औपनिवेशिक शासन का विरोध, पश्चिमी संस्कृति का प्रतिरोध और लोगों की रोजाना की ज़िन्दगी पर पश्चिम के प्रभाव को कम करना। इसके लिये वे अन्य ब्रिटिश विरोधी ताकतों और भारतीय राष्ट्रवादियों से हाथ मिलाने के लिये तैयार थे। इस पुनरूत्थानवादी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग को उम्मीद थी कि भविष्य में जो भी व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी उसमें मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने की पूरी आजादी होगी। वहाबी और फरियाजी पुनरूत्थानवादी आन्दोलनों को 19वीं सदी के मध्य तक सख्ती से कुचल दिया गया। इसके बाद, ब्रिटिश शासन के पुनरूत्थानवादी विरोधियों ने इस्लाम की शुद्धता को बनाये रखने और मुसलमानों का धार्मिक मसलों में पथप्रदर्शन करने के लिये देवबन्द में दारूल उलूम की स्थापना की। धार्मिक पुनरूत्थानवादियों का मूल लक्ष्य अंग्रेजी शासन का विरोध था और यही कारण है कि देवबन्द ने हमेशा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का साथ दिया। हाँ,देवबन्द यह आश्वासन अवश्य चाहता था कि भविष्य में जो भी तन्त्र स्थापित होगा उसमें मुसलमानों को धार्मिक आजादी मिलेगी।
मुस्लिम लीग को सर सैय्यद के आधुनिकीकरण और सुधार कार्यक्रमों से लाभ हुआ। पुनरूत्थानवादियों और औपनिवेशिक शासन के उनके प्रतिरोध के विपरीत, सुधारक और आधुनिकतावादी, हिन्दू समुदाय को अपना प्रतियोगी मानते थे। वे यह भी मानते थे कि हिन्दू, सत्ता में भागीदारी हासिल करने की उनकी इच्छा को पूरा करने में बाधक हैं। बीच-बीच में ये लोग सत्ता में अधिक भागीदारी के लिये ब्रिटिश शासकों से हाथ मिला लेते थे तो कभी-कभी शासकों द्वारा नजरअंदाज कर दिये जाने के बाद, वे राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुड़ने की कोशिश करते थे ताकि उनकी माँगें पूरी हो सकें। परन्तु चाहे ब्रिटिश शासकों के साथ मोलभाव हो या राष्ट्रवादी आन्दोलन के साथ-दोनों ने साम्प्रदायिक सोच को बढ़ावा दिया और इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय को एक अलग राष्ट्र कहा जाने लगा। साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी हिन्दू समुदाय को अपने लिये एक समस्या बताने लगे और अंग्रेज शासकों से मिलकर अपने लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करने लगे।
मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग में अल्पसंख्यक होने के भाव का उदय और बहुसंख्यक समुदाय को अपना प्रतियोगी और यहाँ तक कि शत्रु मानने की प्रवृत्ति से औपनिवेशिक शासकों को लाभ हुआ। ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव को और बढ़ावा दिया। इसके लिये उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और अतीत को 'मुस्लिम काल' और 'हिन्दू काल' में विभाजित किया। उन्होंने ऐसा साम्प्रदायिक रिअर व्यू मिरर लगाया जिसमें झाँकने पर भूतकाल की हर घटना साम्प्रदायिक रंग में रंगी दिखने लगी। पृथक् मताधिकार और ब्रिटिश शासकों द्वारा लिये गये कई अन्य निर्णयों ने साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया। सन् 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल के विभाजन, जनगणना व धार्मिक परम्पराओं और प्रथाओं के दस्तावेजीकरण सहित कुछ अन्य कदमों के कारण समुदाय में साम्प्रदायिकता के भाव ने और जोर पकड़ा। ब्रिटिश नीतियों ने मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव को बढ़ावा दिया, अल्पसंख्यक अधिकारों पर विमर्श की नींव रखी और अलगाववाद को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, अल्पसंख्यक होने का भाव, ब्रिटिश शासन की देन और उसक प्रतिक्रिया दोनों थीं। इसी तरह, हिन्दुत्व की मूल प्रकृति भी राजनैतिक थी और उसका उदय वी.डी. सावरकर के लेखन से हुआ, जिसमें मुसलमानों व ईसाईयों को विदेशी व हिन्दुओं के हितों का विरोधी निरूपित किया गया और जिसमें हिन्दू राष्ट्रवादियों से आह्वान किया गया कि वे हिन्दू हितों की रक्षा के लिये आगे आयें। मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी भी ब्रिटिश को अपना मित्र मानते थे।
जैसे-जैसे धर्म, भारतीय उपनिवेश के नागरिकों की पहचान को परिभाषित करने का मुख्य माध्यम बनता गया, दोनों समुदायों में एक साम्प्रदायिक कुलीन वर्ग उभरने लगा जो ब्रिटिश शासकों से अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने की जद्दोजहद में जुट गया। जाहिर है कि इससे औपनिवेशिक शासकों को मान्यता व वैधता मिली। साम्प्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग, जिसके अधिकाँश सदस्य सामन्ती तत्व थे, ने धार्मिक प्रतीकों व धार्मिक विमर्श का इस्तेमाल कर, अपने-अपने धर्मों के लोगों को अपने साथ जोड़ना प्रारम्भ कर दिया। वे साम्प्रदायिक पहचान पर जोर देने लगे व साँझा क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, भाषायी व ऐतिहासिक जुड़ाव की महत्ता को कम करके बताने लगे। इससे रोजमर्रा के जीवन में मानवीय मूल्यों का क्षरण हुआ। अपने-अपने धर्मों को एकसार बनाने के लिये उन्होंने चुनिन्दा धार्मिक परम्पराओं का इस्तेमाल किया। अन्य परम्पराओं को या तो त्याग दिया गया या उनमें इस प्रकार के परिवर्तन कर दिये गये जिनसे धार्मिक-सांस्कृतिक प्रथाओं को एकसार बनाया जा सके। अपने धर्म के अनुयायियों को एक करने के लिये साम्प्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग ने न केवल अपने धर्म की धार्मिक परम्पराओं और प्रतीकों का इस्तेमाल किया बल्कि ''दूसरे'' समुदायों की सांस्कृतिक परम्पराओं को भी एकसार बताने का प्रयास किया। उन्होंने एक धार्मिक समुदाय की पहचान को दूसरे समुदाय की पहचान की विरोधी और उसके अस्तित्व के लिये खतरा बताना प्रारम्भ कर दिया।
अतः, दक्षिण एशिया में राजनैतिक प्रक्रिया और उपनिवेश के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के प्रयास से धर्म-आधारित धार्मिक पहचानों का उद्भव हुआ। इन पहचानों के हित परस्पर विरोधी हैं, ऐसा प्रतिपादित किया गया। इससे संख्यात्मक दृष्टि से कमजोर समुदाय के श्रेष्ठि वर्ग में अल्पसंख्यक होने के भाव ने घर कर लिया। इस प्रक्रिया से अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक वर्ग दो विरोधी ध्रुव बन गये। अपने-अपने समुदाय की संख्यात्मक शक्ति के आधार पर अधिकारों के लिये मोलभाव होने लगा।
सन् 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे में नई सीमायें खींचने से अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ-न सीमा के इस पार और न उस पार। बल्कि उनकी समस्यायें बढ़ी हीं। नक्शे में नई रेखायें खींचने से भड़की हिंसा ने सीमा के दोनों ओर लाखों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया। एक देश के बहुसंख्यक, दूसरे देश में अल्पसंख्यक बन गये। दक्षिण एशिया के देशों का अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार के मामले में रिकार्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। अल्पसंख्यक समुदायों पर बहुसंख्यक विश्वास नहीं करते, उनके साथ राज्य व उसके अधिकारी भेदभाव करते हैं, उन्हें उनके धर्म का पालन करने से रोका जाता है और उन्हें सिर्फ इसलिये प्रताड़ित किया जाता है क्योंकि वे बहुसंख्यकों से अलग हैं। पाकिस्तान में ईसाई, हिन्दू, अहमदिया और शिया हिंसा के शिकार बन रहे हैं। शियाओं को मस्जिदों के अन्दर मौत के घाट उतारा जा रहा है, अहमदियों पर असंख्य अत्याचार हो रहे हैं, हिन्दुओं को जबरन धर्मपरिवर्तन करने पर मजबूर किया जा रहा है। हिन्दू महिलाओं की जबर्दस्ती शादी कर उन्हें इस्लाम कुबूल करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। ईसाईयों को ईशनिन्दा कानून के फंदे में लेकर, उनके बच्चों तक को मौत की सजायें सुनाई जा रही हैं।
भारत में, मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ बेजा हिंसा हो रही है। उन पर राज्य तन्त्र भी अत्याचार कर रहा है। उन्हें राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी व विश्वासघाती बता कर सुरक्षा एजेन्सियाँ उन पर निशाना साध रही हैं। सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों में 4000 से अधिक सिक्खों की जान ले ली गयी और लाखों घायल हुये। सच्चर समिति की रपट से साफ है कि सरकारी नौकरियों, शिक्षा, बैंकों से कर्ज, सरकारी ठेकों व राजनीति के क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो रहा है।
बांग्लादेश में भी दक्षिणपंथी, खुलेआम हिन्दू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार कर रहे हैं और उन्हें भारत में शरण लेने पर मजबूर कर रहे हैं। श्रीलंका में तमिल अल्पसंख्यकों के विरूद्ध चले लम्बे युद्ध के दौरान उनके मानवाधिकारों के खुलेआम उल्लंघन के आरोप हैं। एलओसी के दोनों ओर रह रहे कश्मीरी, दो राष्ट्रों के बीच दशकों से चल रहे संघर्ष का नतीजा भोग रहे हैं।
दक्षिण एशिया को अल्पसंख्यक अधिकारों के एक घोषणापत्र की आवश्यकता है। इससे सभी देशों के नागरिक लाभान्वित होंगे क्योंकि जो समुदाय एक देश में बहुसंख्यक है वह दूसरे देश या देशों में अल्पसंख्यक है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों का एक सर्वमान्य चार्टर तैयार करने से सभी समुदायों को लाभ होगा। दक्षिण एशिया, अल्पसंख्यकों को प्रजातान्त्रिक हक देने के मामले में दुनिया के लिये एक मॉडल बन सकता है। पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों को तीन श्रेणियों के अधिकारों की आवश्यकता पड़ती है। पहला, साम्प्रदायिक या नस्लीय आधार पर भेदभाव से मुक्ति और सुरक्षा का अधिकार। दूसरा, अपने धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति का ज्ञान अपनी अगली पीढ़ियों को देने का अधिकार व तीसरा, राज्य द्वारा भेदभाव नहीं किये जाने का अधिकार। नस्लीय अल्पसंख्यकों को अपना शासक चुनने की भी सीमित स्वतन्त्रता होनी चाहिए। ये अधिकार अल्पसंख्यकों को तभी उपलब्ध करवाए जा सकते हैं जब हम बहुसंस्कृतिवाद को आदर्श बतौर स्वीकार करें और यह भी स्वीकार करें कि राज्य को उसके नागरिकों के सांस्कृतिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
हमारे सामने लियाकत-नेहरू संधि का उदाहरण है जो विभाजन के बाद हुये भयावह दंगों के बीच, सन् 1950 में भारत और पाकिस्तान के बीच हस्ताक्षरित की गयी थी। लियाकत-नेहरू संधि एक द्विपक्षीय संधि थी जिसका उद्धेश्य था दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी और दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावना को समाप्त करना। दक्षिण एशिया के सभी देशों के बीच इस तरह की संधि की जरूरत है।
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
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A HISTORIAN’S HISTORIAN – Histories That Endure ♦ Ramachandra Guha
A HISTORIAN'S HISTORIAN – Histories That Endure
♦ Ramachandra Guha
http://mohallalive.com/2013/04/20/a-historians-historian-histories-that-endure/
Unlike 1919 (the year of the Rowlatt satyagraha), 1920 (Congress-Khilafat alliance), 1921 (non-cooperation movement), or 1922 (the burning of the police station at Chauri Chaura), 1923 is considered a somewhat quiet year in Indian history. But it was a significant year for Indian historians. On May 23, 1923, Ranajit Guha, the founder of the subaltern studies school, was born. Exactly a month earlier, on April 23, a historian who founded no school but still (or perhaps thus) commands our attention came into this world. His name was Sarvepalli Gopal.
Ranajit Guha (no relation of the present writer) was born in a middle-class home in East Bengal. He studied history in Calcutta, where he became a communist. Active in the student movement, he left the party after the invasion of Hungary in 1956. He published a specialized study of colonial land policy in 1963, but really became known only in the 1980s, through his editorship of the Subaltern Studies volumes and his own magnificent book, Elementary Aspects of Peasant Insurgency (published in 1983). In subsequent decades, he has acquired cultic status, his name and his work genuflected to by left-wing academics all across the world.
Guha's near-exact contemporary, Sarvepalli Gopal, came from a family of the same economic class but much higher social status. As the son of the distinguished philosopher, Sarvepalli Radhakrishnan, he was thrown into the company of famous politicians, writers and thinkers from an early age. He studied in Oxford (where his father served as Spalding Professor of Eastern Religions), and later also taught there. In the 1960s he published some excellent studies of viceroys and viceregal policy. In 1971 he returned to India, to take up a teaching post in New Delhi. Over the next decade-and-a-half, he published the three volumes of what remains the standard life of Jawaharlal Nehru. Then, in 1989, he published a penetrating, warts-and-all biography of his father, which may be the best among the seven books he published in his lifetime.
Gopal was a historian of power and of policy. He wrote of viceroys and of prime ministers, of the states they shaped and the countries they led. Guha, on the other hand, was principally a historian of the lower orders — of peasants, tribal people, workers. Yet despite this divergence in subject matter they shared some key attributes. Both were extremely industrious researchers, working long hours in the archives. Both wrote English with uncommon elegance. And both recognized that history was a branch of social science as well as a branch of literature.
Unlike the popular narrative histories that now flood the bookshops, the works of Guha and Gopal were analytically powerful as well as richly readable. The insights of political theory, sociology, anthropology, and even psychology were used to good effect in locating the actions of individuals and communities in their wider social and historical setting. While both wrote extremely well, these were serious scholars, not mere story-tellers; professional historians, not part-time antiquarians.
Since radical ideologies attract passionate support, Ranajit Guha has attracted a devoted cadre of men (less often women) younger than he, ever willing to proclaim him as a prophet and an oracle. There is no such cult around Sarvepalli Gopal, for two reasons: first, that political history and biography are now out of fashion; second, that the principles of dialogue and reconciliation that undergird liberalism have never really appealed to the young, who are attracted more to the extreme Right and the extreme Left, whose leaders and ideologues promise quicker and more complete results.
In truth, any student of modern Indian history has much to learn from both scholars. For human life is about the (arbitrary, erratic, brutal, compassionate) exercise of power as well as the (individual, collective, violent, non-violent) resistance to power. Some years ago, I read and much enjoyed the collected essays of Ranajit Guha, published under the title, The Small Voice of History. And I have just read Sarvepalli Gopal's own collected essays, called Imperialists, Nationalists, Democracts, and edited for Permanent Black by the fine young historian, Srinath Raghavan.
In political terms, Gopal inclined slightly towards the Left without ever being seduced by the totalizing vision of Marxism. One might I suppose call him an egalitarian liberal. There is an essay here which shows a heightened self-awareness of the roots of his own privilege. Some scholars from Cambridge had claimed that the non-Brahmin movement of the 1920s and 1930s was a product of careerists and opportunists. Gopal, in spite of being a Brahmin himself, disagreed, going on to document the massive dominance Brahmins exercised in the economic, political, administrative, ritual, and cultural life of the Madras Presidency.
The book has several essays on Jawaharlal Nehru, which emphasize his contributions to the nurturing of democracy and secularism in India. Gopal admires Nehru, but sees very clearly that Gandhi was the greater man. He thus writes: "The Mahatma, though he borrowed much from the West, had the advantage of internalizing all his ideas and actions in the Indian experience, whereas Nehru was always in a way the outsider. He was always conscious of this, and it was one of the main elements in his deference to Gandhi."
Again, speaking of Nehru's love of speaking to crowds, Gopal observes that, "unlike the Mahatma, who was a strong man, providing strength to others, Nehru drew strength from popular idolatry."
Gopal robustly defends Nehruvian secularism and its relevance to India today. He speaks of the conviction, which Nehru shared with Gandhi, "that the communalism of the majority community was far more dangerous than that of any minority in India". For "Hindu communalism could masquerade as nationalism and could well degenerate into the Indian version of fascism".
Writing shortly after the lifting of Indira Gandhi's Emergency, Gopal remarked that "the developments of the two years from 1975 to 1977 have made the name of Nehru almost a dirty word in this country". The name of Nehru has been further dirtied by the events of 1986-8 (namely, Rajiv Gandhi's capitulation in the Shah Bano case and the Bofors scandal), and the events of 2009-13 (as in the incompetence of Sonia and Rahul Gandhi, the corruption promoted by their United Progressive Alliance government, and the crooked land deals of Robert Vadra). Nehru's name has been so besmirched by his unworthy descendants, that it is good to have a robust defence of the core values he himself lived by.
The real revelation of this book is a previously unpublished essay on "The Paradoxes of Subhas Bose". Gopal recognizes that history dealt Bose a hard, and even cruel, hand. In 1939, he was hounded out of the Congress presidency, and out of the Congress itself. Later, when "independence in some form or other became a certainty", Bose was done out of what would have been a hero's return to India by a plane accident. In the circumstances, writes Gopal, "it is understandable that his admirers should be aggressive in defence and resent even the slightest hint of anything other than fulsome praise". Then he adds: "Yet Bose does not need emotional sympathy and has earned critical scrutiny."
This Gopal then goes on to provide. He argues that Bose's admiration for European dictators was a product of exile, which has "a wearing effect on the mind" and attracts one to "the discipline and authority of totalitarian rule". He notes that unlike Gandhi, who subjected traditional institutions such as purdah and untouchability to searching scrutiny, Bose had a nostalgia for India's past glories, real or alleged — pushing him towards a sometimes "indiscriminate acceptance of tradition". In an illuminating aside, Gopal observes that the West appealed to Bose for organizational rather than ideological reasons. What he loved and admired about Europe was not personal liberty or intellectual freedom, but party discipline and volunteer corps.
Ninety years after his birth, and a decade after his death, Sarvepalli Gopal's work as a historian endures. We should read him for the quality of his prose, for the depth of his research, and for the sheer contemporaneity of his concerns. Halfway through this book, Gopal quotes the closing lines of Rabindranath Tagore's novel, Gora, where the hero says: "I am, above all, an Indian. In me there is no conflict of communities, no struggle between Hindu and Muslim and Christian. They all belong to me and I belong to them all." A hundred and more pages later, Gopal speaks of Tagore's "broad humanism and repudiation of all sectarian barriers and prejudices". For the poet had written, hopefully, of an India in which "high and low, Hindus and Muslims and Christians, all without exception can come together, mingling heart with heart, effort with effort".
A historian's choice of quotes can tell us much about the historian himself. These remarks from Tagore capture and echo Sarvepalli Gopal's own lifelong commitment to a plural, inclusive, caring and compassionate India.
वे किस्से-कहानियां कहने वाले इतिहासकार नहीं थे ♦ रामचंद्र गुहा
वे किस्से-कहानियां कहने वाले इतिहासकार नहीं थे
♦ रामचंद्र गुहा
सन 1919 में रॉलेट सत्याग्रह हुआ। 1920 में कांग्रेस खिलाफत गठबंधन बना। 1921 में असहयोग आंदोलन हुआ और 1922 में चौरीचौरा की घटना घटी। इनके मुकाबले सन 1923 भारतीय इतिहास का अपेक्षाकृत शांत वर्ष है। लेकिन इतिहासकारों के लिए इसका बहुत महत्व है। 23 मई, 1923 को इतिहास के सबआल्टर्न स्कूल के संस्थापक रोनोजीत गुहा का जन्म हुआ। इसके ठीक एक महीना पहले 23 अप्रैल को एक ऐसे इतिहासकार का जन्म हुआ, जिन्होंने कोई स्कूल नहीं स्थापित किया, लेकिन फिर भी या इसी वजह से वे हमारे लिए महत्वपूर्ण हो गए। उनका नाम सर्वपल्ली गोपाल था। रोनोजीत गुहा पूर्वी बंगाल के मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुए थे। उन्होंने इतिहास की पढ़ाई कोलकाता में की, जहां वह कम्युनिस्ट हो गए। वह छात्र राजनीति में सक्रिय रहे, किंतु 1956 में हंगरी पर सोवियत संघ के आक्रमण के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी। उन्होंने साल 1963 में औपनिवेशिक भूमि नीति पर एक अध्ययन प्रकाशित किया। लेकिन उन्हें 1980 के दशक में सच्ची मान्यता मिली। इस दौरान उन्होंने सबआल्टर्न शोध ग्रंथों का संपादन किया और 1983 में उनकी महत्वपूर्ण किताब द एलीमेंटरी एसपेक्ट्स ऑफ पीजंट इनसर्जेसी आई। आने वाले वर्षों में वह महानायक की तरह हो गए और पूरी दुनिया के वामपंथी बुद्धिजीवी उनके आगे नतमस्तक रहने लगे।
गुहा के ही समकालीन सर्वपल्ली गोपाल का परिवार भी मध्यवर्गीय था, पर उसकी सामाजिक हैसियत बहुत बड़ी थी। वह विख्यात दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बेटे थे, इसलिए शुरू से ही उन्हें बड़े राजनेताओं, लेखकों व चिंतकों की संगत मिली। उन्होंने अपनी पढ़ाई ऑक्सफोर्ड में की और बाद में वहां पढ़ाया भी। 1960 के दशक में उन्होंने वायसराय और उनकी नीतियों पर कुछ बढ़िया अध्ययन प्रकाशित किए। सन 1971 में उन्होंने नई दिल्ली आकर नौकरी कर ली। अगले पंद्रह वर्षों में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की जीवनी तीन खंडों में प्रकाशित की, जो आज तक मानक मानी जाती है। 1989 में उन्होंने एक तीखी जीवनी अपने पिता की लिखी, जो उनकी सात किताबों में सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है। गोपाल सत्ता और राजनीति के इतिहासकार थे। उन्होंने वायसराय, प्रधानमंत्रियों और उनकी नीतियों पर लिखा। दूसरी ओर, गुहा बुनियादी तौर पर छोटे किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के इतिहासकार थे। इस फर्क के बावजूद दोनों में कई समानताएं हैं।
दोनों बहुत मेहनती शोधकर्ता थे, जो घंटों दस्तावेजों को छानते रहते थे। दोनों बहुत सुंदर अंग्रेजी लिखते थे और दोनों यह मानते थे कि इतिहास सामाजिक विज्ञान होने के साथ-साथ साहित्य भी है। आजकल जो लोकप्रिय इतिहास की किताबें बाजार में हैं, उनके मुकाबले गुहा व गोपाल का लेखन ज्यादा विश्लेषणात्मक और पठनीय था। राजनीतिक सिद्धांत, समाजशास्त्र, नृवंशशास्त्र और मनोविज्ञान का इस्तेमाल इन दोनों इतिहासकारों ने व्यक्तियों और समाजों के विश्लेषण में बहुत अच्छी तरह किया। दोनों बहुत अच्छा लिखते थे, लेकिन वे गंभीर अध्येता और इतिहासकार थे। सिर्फ किस्से-कहानियां कहने वाले शौकिया इतिहासकार नहीं थे। एकांगी विचारधाराओं के प्रति गहरा समर्थन ज्यादा आसान है, इसलिए गुहा को बड़े पैमाने पर युवा चाहने वाले मिले, जो उन्हें लगभग मसीहा मानते थे। सर्वपल्ली गोपाल के आसपास ऐसा कोई पंथ नहीं बना। क्योंकि एक तो राजनीतिक इतिहास और जीवनियां आजकल फैशन से बाहर हैं और दूसरे संवाद और समन्वय पर जोर देने वाला उदारवाद युवाओं को ज्यादा आकर्षित नहीं करता।
उन्हें दक्षिण या वाम विचारधाराएं ज्यादा आकर्षित करती हैं, जिनके नेता तुरंत और संपूर्ण नतीजे दिखाते हैं। राजनीतिक नजरिये से गोपाल कुछ वाम की ओर झुके हुए थे, हालांकि मार्क्सवाद के एकाधिकारवादी नजरिये ने उन्हें कभी आकर्षित नहीं किया। शायद उन्हें समतावादी उदार इतिहासकार कहा जा सकता है। उनका एक निबंध है, जो विशिष्ट सामाजिक स्थिति के बारे में उनकी समझ को दिखाता है। कैंब्रिज के कुछ विद्वानों का यह दावा था कि 1920 और 30 के दशक में दक्षिण का ब्राह्मण विरोधी आंदोलन अवसरवादी और कैरियररिस्ट लोगों का आंदोलन था। गोपाल हालांकि खुद ब्राह्मण थे, लेकिन वह इससे असहमत थे और उन्होंने दिखाया है कि मद्रास प्रेसीडेंसी में आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक जीवन पर ब्राह्मणों का कैसा वर्चस्व था।
गोपाल के संकलित निबंधों की जो किताब मैं अभी पढ़ रहा हूं, उसमें जवाहरलाल नेहरू पर कई निबंध हैं, जिनमें लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को कायम रखने में नेहरू के काम को दर्शाया गया है। गोपाल नेहरू के प्रशंसक थे, लेकिन वह यह देख सकते थे कि गांधी ज्यादा महान इंसान थे। वह लिखते हैं, 'गांधीजी ने पश्चिम से बहुत कुछ लिया, लेकिन वह उसके विचारों व आदर्शों को अपने भारतीय अनुभव में ढाल पाए, जबकि नेहरू हमेशा एक बाहरी व्यक्ति रहे। वह खुद इस बात को अच्छी तरह समझते थे और गांधी के प्रति उनके आदर का एक बड़ा कारण यही था।' आगे जनता को संबोधित करने की नेहरू की आदत के बारे में गोपाल लिखते हैं, 'गांधीजी एक शक्तिशाली आदमी थे, जो दूसरों को शक्ति देते थे, नेहरू इसके बरक्स अपनी लोकप्रियता से शक्ति अजिर्त करते थे।' गोपाल नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता और भारत में उसके महत्व को समझते थे, जो नेहरू और गांधी में समान थी। गोपाल लिखते हैं, 'बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि वह सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद का मुखौटा ओढ़ सकती है।'
इमरजेंसी हटने के कुछ दिनों बाद गोपाल ने लिखा कि सन 1975 से 1977 के बीच की घटनाओं ने नेहरू को इस देश में बदनाम कर दिया है। सन 1986 से 88 और 2009 से 2013 तक उनके उत्तराधिकारियों ने नेहरू का नाम खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, इसलिए यह अच्छा है कि जिन मूल्यों के लिए नेहरू जिए, उनका कोई मजबूती से बचाव करे। इस किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि उनका एक निबंध है 'सुभाषचंद्र बोस के अंतर्विरोध'। यह निबंध पहले अप्रकाशित था। गोपाल यह मानते हैं कि बोस के साथ इतिहास ने क्रूरता बरती। सन 1939 में उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष के पद से और बाद में कांग्रेस से बाहर होना पड़ा। बाद में जब भारत की आजादी तय हो गई और बोस को एक नायक की तरह सम्मान मिल सकता था, तो विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। गोपाल लिखते हैं, 'यह समझा जा सकता है कि उनके प्रशंसक बहुत उग्रता से उनका बचाव करते हैं और उनकी किसी भी आलोचना को बर्दाश्त नहीं करते, लेकिन बोस को भावुक सहानुभूति की नहीं, आलोचनात्मक विश्लेषण की जरूरत है।'
मृत्यु के दस साल बाद इतिहासकार की तरह गोपाल महत्वपूर्ण नजर आते हैं। इस किताब में गोपाल रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास गोरा के नायक का कथन उद्धृत करते हैं कि आखिरकार मैं एक भारतीय हूं, मुझ में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई किसी समाज के प्रति कोई बैर नहीं है, वे सब मेरे हैं और मैं उनका हूं। कुछ पन्नों के बाद गोपाल टैगोर के व्यापक मानवतावाद और संकीर्ण भेदभाव के खिलाफ उनके विचारों की बात करते हैं। एक इतिहासकार के उद्धरण उसके अपने बारे में बहुत कुछ बताते हैं। टैगोर के उद्धरण सर्वपल्ली गोपाल के अपने बहुलतावादी समन्वयकारी और मानवीय भारत के प्रति रुझान को साफ करते हैं।
यह लेख अंग्रेजी में पढ़ें: A HISTORIAN'S HISTORIAN – Histories that endure
सौजन्य: दैनिक हिंदुस्तान & द टेलीग्राफ
रामचंद्र गुहा मशहूर इतिहासकार हैं। कई अखबारों और पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लिखते हैं, जिसमें विविध विषयों को समेटते हैं। मसलन क्रिकेट, पर्यावरण, समाज, राजनीति आदि। उन्होंने बीस के आसपास किताबें लिखी हैं। 2007 में छपी उनकी किताब इंडिया आफ्टर गांधी को खासी लोकप्रियता मिली। इस किताब को हिंदी में पेंग्विन ने छापा है, जिसका अनुवाद युवा पत्रकार सुशांत झा ने किया है। रामचंद्र गुहा से ramachandraguha@yahoo.in पर और सुशांत झा से jhasushant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
http://mohallalive.com/2013/04/20/a-historian-s-historian-histories-that-endure/
कौन खोदेगा सड़ियल समाज की कब्र
कौन खोदेगा सड़ियल समाज की कब्र
हमें माफ मत करना गुड़िया
पुलिस और कानून तक बात जाने से पहले परिवार और समाज में अपराधियों का उनका कवच बनने वाले तमाम लोग मिल जाएंगे, जो उन्हें फांसी तक जाने से कहीं पहले बचा लेंगे, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहती हैं...
दीपक कुमार
हम अकसर छोटी बच्चियों को गुड़िया कहते हैं और ऐसा कहते हुए अजनबी होने के बावजूद उन्हें अपनी गोद में ले लेते हैं. भरोसे की पता नहीं किस भावना के चलते लोग हमें अपनी बच्चियों को दे भी देते हैं, शायद उनके माता पिता को लगता होगा कि बच्चे तो सबके प्यारे होते हैं और बेवजह किसी पर शक क्यों करना.
लेकिन पांच साल की दिल्ली की गुड़िया के साथ हुई हैवानियत के बाद क्या कोई किसी पर अपनी बच्ची को लेकर यकीन करेगा और किसी को क्यों करना चाहिए. लोग तो पड़ोसियों-रिश्तेदारों से डरेंगे, अजनबी लोगों की तो बात ही और है. चिंता की बात यह नहीं है कि हम डरेंगे. डर के साये में तो हम जी ही रहे हैं. महंगाई का डर, बेरोजगारी का डर, लोन का डर वगैरह, वगैरह. चिंता की बात यह है कि हम बच्चों के सवालों का जवाब क्या देंगे और कैसे उन्हें समझाएंगे कि हम उन्हें दो पल के लिए भी किसी के पास जाने क्यों नहीं दे रहे. हम क्यों उनके लिए एक ऐसा समाज बना रहे जिसकी बुनियाद सिर्फ खतरों और संदेहों पर टिकी हो.
क्यों न वे खुलकर दूसरों पर यकीन करें, लेकिन किसी के जरा सी छूट लेने पर खुलकर उसका नाम लें और मां-बाप समेत सबके सामने उसकी गंदी हरकत के बारे में बताएं. आखिर वह पुलिस वाला हमारे इसी समाज की सोच का तो आदमी रहा होगा, जो गुड़िया के पिता को दो हजार रुपए देकर चुप रह जाने के लिए कह रहा था. क्या इसी सोच के लोग हमारे आसपास नहीं बिखरे हैं जो अलग अलग भाव भंगिमाओं से सदियों पुराने तर्कों को दोहराते मिल जाते हैं कि चुप रहो वरना बच्ची की, लडकी की बदनामी होगी, वह समाज में सिर उठाकर नहीं चल पाएगी, उसे ही गलत समझा जाएगा और उससे शादी कौन करेगा.
यही बुजदिल और घिनौना तर्क बाद में सामूहिक तौर पर उन कुंठित मानसिकता वालों लोगों के प्रति सहानुभूति में बदल जाता है जो ऐसी हरकतें करते हैं. वह जान जाते हैं कि पुलिस और कानून तक बात जाने से पहले परिवार और समाज में उनका कवच बनने वाले तमाम लोग मिल जाएंगे, जो उन्हें फांसी तक जाने से कहीं पहले बचा लेंगे. इनमें स्थानीय सभासद से लेकर गांव के मुखिया जी और विधायक, सभी उम्रदराज बुजुर्ग और तमाम सारे लोग जिनमें महिलाएं भी होती हैं, सभी शामिल होते हैं.
पीड़ित बच्चे, लडकी या महिला को अलग अलग स्तरों पर, अलग अलग चीजों का लालच देकर समझाने की कोशिश की जाती है और तब कोई उसके साथ नहीं खडा होता. यही सलाहें और यही समझदारी हमारे घिनौने समाज की असली मुश्किल है, बल्कि मुश्किल ही नहीं चुनौती है. ऐसे में डरता वह नहीं जो फ्रस्टेट, बीमार और क्रिमिनल है, डरता वह है जो उसका शिकार बनता है.
तकरीबन एक साल पहले आमिर खान ने 'सत्यमेव जयते' के एक एपीसोड में इस सवाल को उठाया था कि हमारे बच्चे अपने घरों और पडोस में ही कितने अनसेफ हैं. खुद से पूछिए इस एक साल में हममें से कितने लोगों ने अपने बच्चों से और अपने ही क्यों जान-पहचान के सारे बच्चों से इस बारे में बात की. कितने लोगों ने ऐसे लोगों को अपने आसपास ढूंढ निकाला जिनकी गलत हरकतों की तरफ बच्चों ने इशारा किया. कितने ऐसे लोगों को डांटा-डपटा जिनकी बच्चे के सामने बोलती बंद हो गई थी. क्या हमने अपने बच्चों को वह साहस देने की कोशिश की जिसके दम पर वह हमसे किसी की भी गंदी हरकत के बारे में हमसे बात कर सकें.
आप कह सकते हैं कि जिस बच्ची के साथ यह हैवानियत हुई वह मिडिल क्लास की नहीं, बल्कि मजदूर तबके की थी और इस तरह की हरकतें वहीं होती हैं. लेकिन मान लीजिए कि हमारे बच्चे सेफ हो चुके हैं. वैसे हम बेहतर जानते हैं कि हम निश्चिन्त होकर ऐसा नहीं कह सकते तो आखिर क्यों हमें इस तबके के बच्चों के लिए आगे नहीं आना चाहिए. हमें बच्चों को तबकों के आधार पर देखना ही क्यों चाहिए. गरीब बच्चे, बाल मजदूरी करते हैं, वे स्कूल नहीं जा पाते और हम अपनी दुनिया में खोए रहते हैं, हमारी दिक्कत यह है कि हम अक्सर उन्हीं चीजों को लेकर खड़े होना चाहते हैं, जो हमारे निजी दायरे को प्रभावित करती हैं.
लेकिन अब सुकून की बात यह है हम अपने दायरे से निकल कर खड़े हो रहे हैं, हम सवाल कर रहे हैं, कल को हम लडेंगे भी. यह भूलकर कि हमारा लिंग क्या है, जाति क्या है, वर्ग क्या है और हम किस राज्य के हैं, हम खड़े हो जाएंगे अन्याय के खिलाफ लडने वाले के साथ और तब तक नहीं हटेंगे जब तक किसी पीड़ित को न्याय नहीं मिल जाता. फिलहाल तो गुड़िया ठीक हो जाए. हम किस मुंह से उससे और अपने आसपास की तमाम गुड़ियाओं से कह सकते हैं कि हम पर भरोसा करो, हमें माफ मत करना गुड़िया.
दीपक कुमार युवा पत्रकार हैं.
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औरतों की औकात बताते दरिंदे
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हैवानों के हवाले हुई दिल्ली
अगर दलितों और दूसरी जातियों पर अत्याचार करने वाले कड़ी सजाओं से दुरुस्त हुए हैं तो स्त्रियों पर अत्याचार करने वालों को मनोरोगी होने की बात कहना बेजा है, उनके अपराध की जघन्यता और उनके खिलाफ उपजने वाली नफ़रत को कम करना है...
प्रेमा नेगी
कोई दरिंदगी और हैवानियत की इस हद तक कैसे जा सकता है, वो भी एक मासूम के साथ. एक पांच साल की बच्ची को बंधक बनाकर न सिर्फ उसका लगातार यौन शोषण किया गया, बल्कि उसकी योनि में प्लास्टिक की शीशी और मोमबत्ती भी डाल दी. इस घटना ने हर किसी संवेदनशील मन को झकझोर कर रख दिया. दिल्ली में पिछले तीन महीनों में स्त्रियों के प्रति लगातार दरिंदगी बढ़ी है और 15 अप्रैल को हुई यह घटना उन्ही में से एक है. इससे पहले 16 दिसंबर को चलती बस में दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना के कारण पूरा देश उबाल पर था.
छह महीने की बच्ची से लेकर 80 साल की बुढि़या के साथ जिस तरह दुष्कर्म की घटनायें सामने आती हैं, उससे एक बात ही समझ में आती है कि समाज में ऐसी बीमार मानसिकता वाले लोगों को हममें सिर्फ सिर्फ योनि नजर आती है. उसके अलावा कोई और अस्तित्व नजर ही नहीं आता. हालांकि इन घटनाओं के लिए हमारा समाज अलग-अलग तर्क भी देता है. कभी कहा जाता है कि लड़कियां इस तरह के कपड़े पहनती हैं कि उनके साथ बलात्कार होना कोई बड़ी बात नहीं है या फिर तर्क दिया जाता है कि वो देर रात तक बाहर क्यों रहती हैं. पर इससे इतर एक पांच साल की अबोध में ऐसा क्या दिखा कि उसके साथ कोई दरिंदगी की हद तक गुजर गया.
समझ में नहीं आ रहा कि आरोपी को एक पांच साल की मासूम के साथ ऐसा घृणित काम करते हुए किस आनंद की अनुभूति हुयी होगी, किस सेक्स का मजा लिया होगा उसने. क्या ऐसे दरिंदों को चौराहे पर फांसी पर नहीं लटका दिया जाना चाहिए, जिससे सबक लेते हुए ऐसी बीमार मानसिकता वाले लोग ऐसे अमानवीय कृत्य करने से पहले अपने अंजाम के बारे में भी सोचें.
फांसी की सजा की मांग पर संभव है कुछ लोग ऐसे दरिंदों को मनोरोगी कहें। हो सकता है यह हों भी। लेकिन उससे पहले यह हैवान हैं, जिनकी हैवानियत मन से नहीं दंभ से है। यह औरत की कुछ औकात नहीं समझते हैं। मसल देने की चीज समझते हैं। हम इनके घमंड के इन्सान नहीं रह जाते। अगर दलितों और दूसरी जातियों पर अत्याचार करने वाले कड़ी सजाओं से दुरुस्त हुए हैं तो स्त्रियों पर अत्याचार करने वालों को मनोरोगी होने की बात कहना बेजा है, उनके अपराध की जघन्यता और उनके खिलाफ उपजने वाली नफ़रत को कम करना है.
पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर से पंद्रह अप्रैल को पांच वर्षीय मासूम गायब हुई, जो 17 अप्रैल को अपने ही मकान के बेसमेंट में लहूलुहान हालत में परिजनों को मिली. इस घटना में पीडि़त बच्ची की तलाश और इलाज में जिस तरह का रवैया अख्तियार किया गया, उसने सरकार और पुलिस की भी पोल खोलकर रख दी. इलाज में लापरवाही के कारण उसकी हालत नाजुक बनी हुयी है. अभी उसका इलाज एम्स में चल रहा है, डाक्टर भी यही बयान दे रहे हैं कि बच्ची जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है.
पीडि़त बच्ची के पिता के अनुसार 15 अप्रैल को लापता हुई अपनी बच्ची के गुम होने की रिपोर्ट उन्होंने पुलिस में दर्ज करायी थी, लेकिन गांधीनगर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. 17 अप्रैल को उन्हीं ने बच्ची को लहुलूहान हालत में बरामद किया. इस खबर को मीडिया तक न पहुंचाने के लिए पुलिस ने उनको 2000 रुपये घूस यह कहते हुए देने की कोशिश की कि यह बात लोगों तक पहुंचेगी तो तुम्हारी ही बदनामी होगी. तुम्हारी बच्ची कम से कम जिंदा तो मिल गयी है, इसी में खुश रहो.
पीडि़त बच्ची के पिता से तो पुलिस ने ये कहकर अपनी असंवेदनशीलता का परिचय दिया ही, इस घटना का विरोध कर रही एक लड़की के साथ न सिर्फ बदसलूकी की, बल्कि उसे चांटे भी जड़ दिये, जिससे उस लड़की के कान से खून बहने लगा. खबर के मीडिया में आने के बाद अफसोस जताकर पुलिस अधिकारियों ने खानापूर्ति करने का काम भी कर दिया. गौरतलब है कि दरिंदगी की हद तक गुजरे आरोपी ने बच्ची का न सिर्फ लगातार बलात्कार किया, बल्कि उसकी योनि में प्लास्टिक की शीशी और मोमबत्ती भी डाल दी. इससे उस मासूम के पूरे शरीर में संक्रमण फैल गया.
दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद जनता जिस तरह से इसके खिलाफ सड़कों पर उतरी थी उससे लग रहा था कि ऐसी घटनाओं से पुलिस प्रशासन सख्ती से निपटेगा. सरकार सख्त से सख्त कानून बनायेगी जिससे ऐसी अमानवीय घटनाओं पर रोक लग सकेगी, लेकिन अफसोस कि कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब बलात्कार की घटनायें न सुनायी देती हों. यह दीगर बात है कि सभी घटनाओं पर 16 दिसम्बर या मौजूदा 15 अप्रैल जैसा आन्दोलन नहीं खड़ा हो पाता.
हमारे जन 'प्रतिनिधियों' का रुख तो बलात्कार मामलों में और भी हैरान करने वाला है. बजाय इसके कि ऐसी घटनाओं पर रोक कैसे लगे, राजनेता असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा तक पहुंचकर मंचों से जगह-जगह बयान दे रहे हैं कि दिल्ली को रेप प्रदेश घोषित कर दिया जाये. उनके इन पिटे हुए बयानों का क्या मतलब निकाला जाये कि यहां लगातार बलात्कार होता रहे. क्योंकि इससे उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता, वह चर्चित ही होते हैं.
दूसरी तरफ आगामी चुनावों में एंट्री लेने जा रही अरविंद केजरिवाल की 'आप' पार्टी ने भी इस मामले में असंवेदशीलता ही दिखायी है. आप के कार्यकर्ता अस्पताल परिसर में ही लाउडस्पीकर और माइक लगाकर दिल्ली सरकार, भाजपा, और पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे, जिससे न केवल बलात्कार पीडि़त बच्ची के इलाज में बाधा पहुंची, बल्कि अन्य मरीजों को भी शोर-शराबे से भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. ऐसे अब आखिर जनता ऐसे मौकों पर संवेदनशीलता की किससे उम्मीद करे.ऐसा लगता है हैवानों के हवाले हो गयी है दिल्ली.
http://www.janjwar.com/society/1-society/3923-delhi-rape-15-april-gandhinagar-by-ajay-prakash