Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Friday, April 19, 2013

Fwd: [अपना मोर्चा] जाति-उन्मूलन की समाजवादी परियोजना



---------- Forwarded message ----------
From: Satya Narayan <notification+kr4marbae4mn@facebookmail.com>
Date: 2013/4/19
Subject: [अपना मोर्चा] जाति-उन्मूलन की समाजवादी परियोजना
To: अपना मोर्चा <ApnaMorcha@groups.facebook.com>


जाति-उन्मूलन की समाजवादी परियोजना सर्वहारा...
Satya Narayan 12:59am Apr 19
जाति-उन्मूलन की समाजवादी परियोजना
सर्वहारा सत्ता सभी तरह के बुर्जुआ राजकीय फार्मों, पुरानी जागीरों की विशाल खेती की ज़मीनों, शहरों के उद्योगपतियों-व्यापारियों-नौकरशाहों की भू-सम्पत्तियों, बड़े फार्मरों के फार्मों और बाग़ानों का (बिना मुआवज़ा दिये) राजकीयकरण कर देगी, राजकीय उद्योगों की तरह उनमें लोग काम करेंगे और प्रबन्धन का काम सभी काम करने वालों की चुनी हुई कमेटियाँ पार्टी के नेतृत्व में सँभालेंगी। गाँवों के कुलकों-भूस्वामियों-फार्मरों की भू-सम्पत्ति बिना मुआवज़ा ज़ब्त करके उन पर सामूहिक फार्म बनाये जायेंगे। राजकीय और सामूहिक फार्मों में सभी भूमिहीन काम करेंगे और बराबरी की हैसियत से सामूहिक प्रबन्धन के काम में हिस्सा लेंगे। जो छोटे मालिक किसान अपनी खेती सामूहिक फार्मों में शामिल करने को तैयार नहीं होंगे, उन्हें सहकारीकरण के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया जायेगा। कहीं-कहीं जो सहकारी खेती के लिए भी तैयार नहीं होंगे वे अपनी निजी खेती के लिए श्रम-शक्ति नहीं खरीद सकेंगे। श्रम-शक्ति की ख़रीद-फरोख़्त प्रतिबन्धित होगी। निजी खेती करने वालों को बीज, पानी, बिजली, खाद आदि के मामले में सामूहिक फार्मों को प्राप्त छूटें-सुविधाएँ हासिल नहीं होंगी। धीरे-धीरे आर्थिक सुरक्षा के प्रति आश्वस्ति, राजकीय और सामूहिक फार्मों के कामगारों की ख़ुशहाली और समाजवाद के प्रति बढ़ते भरोसे के चलते निजी और सहकारी खेती वाले भी सामूहिकीकरण के लिए प्रेरित होंगे। इस प्रक्रिया की अन्तिम मंज़िल सारी खेती का राजकीयकरण होगा। इस तरह भूमि के निजी स्वामित्व और दलितों की सहस्राब्दियों की भूमिहीनता को समाप्त करके समाजवाद जाति-व्यवस्था के एक प्रमुख ग्रामीण अवलम्ब को नष्ट कर देगा।
बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करते ही सर्वहारा सत्ता सभी देशी-विदेशी छोटे-बड़े उद्योगों और बैंकों को ज़ब्त करके उनका राजकीयकरण कर देगी जिसका प्रबन्धन पार्टी के नेतृत्व में मज़दूरों-तकनीशियनों की चुनी हुई कमेटियाँ सँभालेंगी। कारख़ानों में बहुविध प्रशिक्षण के सहारे लचीला और गतिमान श्रम-विभाजन होगा, जिसमें सभी के ज़िम्मे (तकनीकी विशेषज्ञता के कामों को छोड़कर) सभी काम आयेंगे और इस तरह "ऊँच-नीच" और "स्वच्छ-अस्वच्छ" कामों का भेद मिटता चला जायेगा। मशीनीकरण और ड्रेनेज-सीवरेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट्स की नियोजित राजकीय व्यवस्था भी "अस्वच्छ" कामों की श्रेणी का स्वरूप बदल डालेगी। फिर बढ़ती समाजवादी चेतना भी लोगों के भीतर से इस भेद के संस्कार को ख़त्म करेगी, जिससे लचीले श्रम-विभाजन में काम बाँटते हुए दबाव की आवश्यकता कम पड़ेगी। और यदि थोड़े-से लोगों पर दबाव भी डालना पड़े तो यह न्यायसंगत है।
शेयर बाज़ार तत्काल बन्द हो जायेंगे। व्यापार-क्षेत्र का राजकीयकरण होने से विनिमय पर जनता की सत्ता का नियन्त्रण क़ायम हो जायेगा। इससे जमाख़ोरी-मुनाफाख़ोरी-दलाली तो समाप्त होगी ही, खानदानी पेशों की रूढ़ व्यवस्था टूटने से जाति प्रथा पर प्रभाव पड़ेगा। निजी सूदख़ोरी प्रतिबन्धित और कठोर दण्डनीय होगी। किसी भी आपत्ति में ज़रूरतमन्द को राजकीय, सामूहिक उपक्रम की प्रबन्धन कमेटी से सहायता मिलेगी।
आर्थिक भेदभाव के साथ शिक्षा संस्थान जातिगत भेदभाव के भी अहम केन्द्र हैं। समाजवादी राज्य द्वारा तुरत किये जाने वाले कामों में से यह एक है कि सभी तरह के निजी शिक्षा संस्थानों का राजकीयकरण कर दिया जाता है, कोचिंग संस्थान प्रतिबन्धित हो जाते हैं और नीचे से ऊपर तक सभी नागरिकों को निःशुल्क और समान शिक्षा समाजवादी राज्य की सर्वोपरि ज़िम्मेदारियों में से एक होती है। वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली में अभिरुचि और नैसर्गिक योग्यता के हिसाब से छात्रों को विशिष्ट क्षेत्रों की शिक्षा में लगाया जाता है, उनमें कई योग्यताएँ पैदा की जाती हैं, लचीला श्रम-विभाजन आगे चलकर उन्हें पेशे बदलने और कई काम कर पाने की सहूलियत देता है, और क्रमशः समान होते वेतन, समान होते जीवन-स्तर और शारीरिक-मानसिक श्रम के बीच के घटते अन्तर के कारण, पेशे से सामाजिक हैसियत को जोड़ने के संस्कार समाप्त हो जाते हैं। समाजवादी शिक्षा श्रम की संस्कृति को सर्वोच्च स्थान देने के साथ ही सभी युवाओं के सांस्कृतिक स्तरोन्नयन पर अत्यधिक बल देती है। आर्थिक स्तर की मिटती असमानता के साथ जब शिक्षा-संस्कृति के क्षेत्र में भी अन्तर मिट जायेगा तो जातिभेद की दीवार ढहने में और अधिक आसानी हो जायेगी।
फिर स्वास्थ्य का मामला आता है। समाजवाद में प्राइवेट प्रैक्टिस, निजी चिकित्सालय, निजी मेडिकल काॅलेज पूर्णतः प्रतिबन्धित होंगे। पूरी स्वास्थ्य सेवा राज्य के नियन्त्रण में होगी। समाजवाद साम्राज्यवादी पेटेण्ट क़ानूनों को नहीं मानता। सभी दवाओं का उत्पादन वह देश में करेगा। पूरी स्वास्थ्य सेवा सभी नागरिकों के लिए निःशुल्क होगी। इस क्षेत्र में सोवियत संघ, समाजवादी चीन और क्यूबा तक ने जितना शानदार काम किया था, उसे पढ़कर कोई समाजवादी स्वास्थ्य नीति के बारे में सहज जान सकता है। निःशुल्क मेडिकल शिक्षा और निःशुल्क समान स्वास्थ्य सेवा से भी दलित मेहनतकशों की सामाजिक स्थिति में फर्क आयेगा।
जातिभेद को दूर करने में समाजवादी आवास-नीति की अहम भूमिका होगी। समाजवादी राज्य आवास निर्माण का पूरा काम अपने हाथ में ले लेगा। बिल्डर-ठेकेदार सामान्य कामकाजू नागरिक बन जायेंगे। सर्वहारा सत्ता का पहला काम होगा, सभी बेघरों को और झुग्गी-झोपड़ीवासियों के लिए सुविधाजनक आवास मुहैया कराना। यह काम पुराने महलों, कई घरों के मालिकों के अतिरिक्त मकान ज़ब्त करके, पाँच सितारा होटलों, बारातघरों जैसे इफ़रात विलासिता के अड्डों को आवासीय काॅम्प्लैक्स बनाकर, और बड़े-बड़े घरों में रहने वालों के घरों का एक हिस्सा लेकर पूरा किया जायेगा। इसके साथ ही आवासीय कालोनियों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जायेगा। शुरू में, यानी समाजवादी शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, विशेषज्ञों की एक पीढ़ी तैयार होने तक, समाजवादी उत्पादन तन्त्र के संचालन के लिए इन जमातों को वेतन ही नहीं, आवासों के मामले में भी कुछ छूट देनी पड़ती है। बाद में इसकी आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रारम्भिक दौर बीतते ही समाजवादी राज्य सभी आवासों को राजकीय स्वामित्व में ला देता है और हर नागरिक को सुविधा-सम्पन्न आवास की गारण्टी देता है। आवासों को समान सुविधा-युक्त बनाने के लिए, पहले की बस्तियों को पुनर्नियोजित करने के लिए और नयी कालोनियाँ बसाने के लिए, श्रम-शक्ति लामबन्द करके, उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य लगातार करना होगा। बेतरतीब बसे गाँवों को हर बुनियादी सुविधा से युक्त आधुनिक कालोनियों में ढालकर बहुत सारी फ़ाज़िल ज़मीन अन्य कामों हेतु निकाल ली जायेगी। राजकीय स्वामित्व के समान सुविधा-युक्त आवासों के (एकल परिवार के आधार पर) आबंटन से दलितों (और अन्य मज़दूरों के भी) पृथग्वासन की समस्या हल हो जायेगी, जो सामाजिक पार्थक्य का एक अहम कारण है।
खेती और उद्योग के राजकीयकरण, गाँवों और शहरों के समान सुविधा-युक्त आवासों (और संचार-परिवहन-मनोरंजन सुविधा) से कृषि और उद्योग तथा गाँव और शहर के बीच के अन्तर मिटने लगेंगे। इसी प्रक्रिया में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच का अन्तर भी कम होता जायेगा। ये तीन अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ समाजवादी समाज में बुर्जुआ विशेषाधिकारों का भौतिक आधार होती हैं। इनके मिटते जाने के साथ बुर्जुआ विशेषाधिकार भी समाप्त होते जायेंगे और परिणामतः बुर्जुआ जाति-व्यवस्था भी मरणोन्मुख होती जायेगी।
बुर्जुआ समाज में धर्म भी अपना बुर्जुआकरण करके बुर्जुआ जाति-व्यवस्था का एक खम्भा बना हुआ है। समाजवादी समाज में कम्युनिस्ट पार्टी तो लगातार धर्म-विरोधी तथा वैज्ञानिक तर्कणा का प्रचार करेगी लेकिन समाजवादी राज्य नागरिक अधिकार के तौर पर हर नागरिक की निजी आस्था और पूजा-पाठ, अरदास-नमाज़ आदि के अधिकार का सम्मान करेगा। हाँ, राजनीतिक-सामाजिक जीवन में धर्म का दख़ल पूर्ण वर्जित होगा। शिलान्यासों-उद्घाटनों में धार्मिक अनुष्ठान, स्कूलों में प्रार्थना, माइक लगाकर कीर्तन, बारात और धार्मिक जुलूस निकालकर सार्वजनिक जीवन को बाधित करना, धार्मिक स्कूल, सार्वजनिक स्थल किराये पर लेकर समागम आदि करने में सामाजिक सम्पदा की फ़िज़ूलख़र्ची -- इन सब पर पूर्ण प्रतिबन्ध होगा। जो पुराने स्थापित धर्म-स्थल हैं, उन्हें लोगों की भावनाओं का ख़याल रखते हुए बने रहने दिया जायेगा, लेकिन उनका नियन्त्रण ट्रस्टों और मठाधीशों से राज्य छीन लेगा, मठों-मन्दिरों-वक़्फों-गुरुद्वारों- चर्चों आदि की सारी ज़मीनें और धन-सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जायेगी। (इस अकूत धन से, देशी-विदेशी कम्पनियों और बैंकों के अधिग्रहण से, धनी घरों से खोजकर ज़ब्त किये गये सोने और काले धन से समाजवादी आद्य-पूँजी संचय का एक हिस्सा एकत्र होगा।) धार्मिक संगठन बनाना या धर्म के आधार पर किसी प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक गोलबन्दी करना दण्डनीय अपराध होगा। किसी को अपने घर में धार्मिक रीति-रिवाज़ से शादी करने का हक़ होगा, पर राज्य शादियों को पंजीकरण के बाद ही मान्यता देगा। स्त्रियों की स्वीकृति के बिना कोई शादी मान्य नहीं होगी। तलाक की क़ानूनी प्रक्रिया भी सहज होगी। दहेज एक कठोर दण्डनीय अपराध होगा। इस तरह सामाजिक जीवन में धर्म की दख़ल कम होने से जाति-उन्मूलन की प्रक्रिया तेज़ हो जायेगी।
स्त्रियों की पराधीनता परिवार के बुर्जुआ ढाँचे और अन्तःजातीय विवाहों (Intracaste marriage) का आधार है। सार्विक समान निःशुल्क शिक्षा की अनिवार्यता और सबको रोज़गार की गारण्टी के अतिरक्त गाँवों-शहरों में बड़े पैमाने पर पालनाघरों, किंडरगार्डेनों और सामूहिक भोजनशालाओं आदि का निर्माण करके घरेलू कामों की घृणित दासता से स्त्रियों को मुक्त कर दिया जायेगा। फलतः सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी बढ़ेगी। पिता (और पति) पर उनकी निर्भरता समाप्त हो जायेगी और वे अपनी ज़िन्दगी के फैसले बिना किसी दबाव के ले सकेंगी। इससे प्रेम विवाहों और अन्तरजातीय विवाहों (Intercaste marriage) का चलन प्रधान हो जायेगा और जाति की दीवारें भरभराकर गिरने लगेंगी।
समाजवादी राज्य सभी जाति पंचायतों, खाप पंचायतों, जाति सभाओं और जाति संगठनों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर देगा और ऐसा कोई भी प्रयास कठोर दण्डनीय अपराध होगा।
समाजवादी राज्य शिक्षा व्यवस्था के अतिरिक्त सभी सांस्कृतिक माध्यमों और मीडिया के ज़रिए समाजवादी मूल्यों के साथ काफ़ी ज़ोर देकर जाति-व्यवस्था विरोधी सतत प्रचार करेगा ताकि नये समाज के नये नागरिकों के दिलो-दिमाग़ में इन घृणित संस्कारों के लिए कोई स्थान न हो।
इस तरह समाजवाद उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ उत्पादन-सम्बन्धों में भी लगातार बदलाव लाते हुए और उसके साथ-साथ, पूरा ज़ोर देकर अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति चलाते हुए मूलाधार और अधिरचना से जाति-व्यवस्था का समूल नाश कर देगा। समाजवादी संक्रमण की कम्युनिज़्म तक की यात्रा तो काफ़ी लम्बी होगी, लेकिन जाति-व्यवस्था का उन्मूलन तो समाजवादी समाज में कुछ दशकों का ही काम होगा।

हमारे फ़ौरी कार्यभार
अब तक तो हमने यह चर्चा की कि समाजवाद के दौर में जाति-उन्मूलन कैसे होगा पर इसका मतलब यह नहीं कि पहले समाजवाद के लिए लड़ा जाये, फिर जाति-व्यवस्था का नाश तो हो ही जायेगा। यदि समाजवाद के लिए संघर्ष की प्रक्रिया में ही जाति प्रश्नि हमारे एजेण्डे पर नहीं होगा और हमारे कुछ फ़ौरी कार्यभार नहीं होंगे तो क्रान्ति का नेतृत्वकारी वर्ग ही जातिगत भेदभाव और बुर्जुआ जातिवादी चुनावी और सुधारवादी प्रचारकों-नेताओं के प्रचार का शिकार बना रहेगा। दलित मेहनतकश की विराट क्रान्तिकारी शक्ति सोयी रहेगी और इस या उस जातिवादी नेता के पीछे भटकती रहेगी। यही स्थिति सर्वहारा के मित्र वर्गों की भी होगी। इसलिए जाति-व्यवस्था का अन्तिम तौर पर उन्मूलन भले ही समाजवाद के दौर में ही सम्भव हो, वर्ग संघर्ष की तैयारी और प्रगति के दौरान हमें इसका प्रभाव कम करने के लिए सचेतन प्रयास भी करने होंगे (फिर वर्ग संघर्ष के उभार का अपना वस्तुगत प्रभाव भी पड़ेगा और वर्गीय लामबन्दी जातिगत लामबन्दी को पीछे धकेलने का काम करेगी)।
सबसे पहला काम तो यही है कि जाति प्रश्न के समाजवाद द्वारा समाधान के बारे में, जाति-उन्मूलन के समाजवादी कार्यक्रम के बारे में तरह-तरह से निरन्तर, सघन और व्यापक प्रचार चलाया जाये। कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमज़ोरियों और संशोधनवादियों के कुकर्मों के चलते (और थोड़ी हम लोगों की अस्पष्टता के चलते) मेहनतकश जनता, विशेषकर दलित मेहनतकश ठीक से जानते ही नहीं कि कम्युनिस्ट जाति-उन्मूलन की राह क्या बताते हैं। इस काम के लिए सर्वहारा वर्ग की पार्टी को सैकड़ों, बल्कि हज़ारों प्रखर, प्रभावी कम्युनिस्ट प्रचारकों की ज़रूरत होगी, पर्चों-पुस्तिकाओं-सांस्कृतिक कार्यक्रमों, छोटी-छोटी शिक्षा मण्डलियों की ज़रूरत होगी। ख़ैर, अभी तो सर्व-भारतीय पार्टी बनने की मंज़िल ही दूर लगती है। इसे सतत प्रयासों से निकट लाना होगा। लेकिन कम्युनिस्ट यदि एक ग्रुप या संगठन के रूप में भी संगठित हैं तो उन्हें इस काम को अभी से यथाशक्ति हाथ में लेना होगा।
कुछ काम ऐसे हैं जो आज भी हाथ में लिये जा सकते हैं। कुछ माँगें ऐसी हैं जिन्हें प्रोपेगैण्डा, एजिटेशन और आन्दोलन के स्तर पर आज ही उठाया जा सकता है।
एक क्रान्तिकारी संगठन के प्रभाव वाली क्रान्तिकारी यूनियनों को, छात्रों और युवाओं के संगठनों को, स्त्री संगठनों को, ग्रामीण मेहनतकश संगठनों को व सभी जन-संगठनों को अपने कार्यक्रम में जाति प्रश्नक को महज रस्मी तौर पर नहीं शामिल करना चाहिए, बल्कि इस प्रश्न पर लगातार प्रचार करना चाहिए, जाति-पाँति तोड़क भोज-भात आदि आयोजन करने चाहिए, मज़दूर आन्दोलनों के माँगपत्रकों में दलित मज़दूरों की माँगों को प्रमुखता से स्थान देना चाहिए और दलित मज़दूरों (जैसे सफ़ाईकर्मियों) के आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर शिरकत करते हुए उनके पक्ष में अन्य मज़दूरों को खड़ा करने की जी-तोड़ कोशिश करनी चाहिए। ग्रामीण मज़दूरों को संगठित करते हुए उनके पारस्परिक जातिगत पार्थक्य को तोड़ने के लिए हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए। सांस्कृतिक संगठनों को अपने प्रचार कार्य में जाति विरोध को अलग से विशेष महत्व देना चाहिए। जनवादी अधिकार आन्दोलन को जाँच टीम, हस्ताक्षर अभियान, विरोध-पत्र के रस्मी बौद्धिक दायरे से बाहर निकालकर व्यापक सामाजिक आधार पर संगठित करना होगा जो जाति उत्पीड़न की घटनाओं, खाप पंचायतों आदि के साथ क़ानूनी लड़ाई के साथ ही आन्दोलनात्मक हस्तक्षेप में भी सक्षम हों।
सार्विक, समान, निःशुल्क शिक्षा और सबको रोज़गार एक दूरगामी माँग है, पर इसी नारे को केन्द्र में रखकर सभी जातियों के छात्रों-युवाओं को एकसाथ संगठित करना होगा और दलित छात्रों-युवाओं को साथ लेने पर विशेष ज़ोर देना होगा। शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव को मुद्दा बनाना होगा। छात्रों-युवाओं के बीच आरक्षण के प्रश्ना पर नौकरियों के आँकड़ों और साठ वर्षों के परिणामों के तथ्यों सहित अपनी अवस्थिति स्पष्ट करके रखनी होगी। उन्हें बताना होगा कि हम पहले से मिली इस जनवादी माँग को छीनने की माँग का समर्थन नहीं करते, हम इसे लागू करने में होने वाली धाँधली का भी विरोध करते हैं, पर आज यह माँग बुर्जुआ जनवाद के प्रति विभ्रम पैदा करती है, आज इसका व्यापक ग़रीब दलित आबादी के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया है, उल्टे यह न केवल सभी आम लोगों को, बल्कि दलित जातियों को भी आपस में बाँटने-लड़ाने का काम भी कर रही है।
हमें बुर्जुआ दलित राजनीति की हर क़िस्म और बुर्जुआ दलित विचारकों के तर्कों का तर्कसम्मत, धैर्यपूर्ण उत्तर देते हुए निरन्तर प्रचार करना चाहिए।
हमें अख़बारों में जाति आधारित वैवाहिक विज्ञापनों के प्रकाशन पर रोक लगाने की माँग करनी चाहिए। अन्तरजातीय विवाहों (Intercaste marriage) और प्रेम विवाहों को खुलकर समर्थन देना चाहिए, हर परिवार की आधी सम्पत्ति स्त्रियों के नाम होने की क़ानूनी माँग उठानी चाहिए।
हमें जाति संगठनों, जाति सभाओं, खाप व जाति पंचायतों पर क़ानूनी प्रबन्ध और उन पर सख़्ती से अमल के लिए आन्दोलन संगठित करना चाहिए।
हमें सार्वजनिक धर्म समागमों पर रोक लगाने की माँग करनी चाहिए, परम्परागत मेलों-त्यौहारों के लिए मठों-मन्दिरों पर विशेष टैक्स लगाने की माँग करनी चाहिए तथा सरकारी दफ़्तरों-स्कूलों-आयोजनों में धार्मिक कर्मकाण्डों पर रोक लगाने की माँग करनी चाहिए।
हम दलित जातियों के अलग संगठन बनाने को तो ग़लत मानते हैं, लेकिन कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के पास यदि पर्याप्त ताक़त हो तो उन्हें अलग से जाति-उन्मूलन मंच अवश्य बनाने चाहिए, जिसमें दलितों के अलावा अन्य जातियों के जनवादी चेतना वाले नागरिक शामिल हों। यह मंच लगातार जाति-विरोधी प्रचार सभाएँ करेगा, पुस्तक-पुस्तिकाएँ निकालेगा, आयोजन-समारोह करेगा, अन्तरजातीय विवाह (Intercaste marriage) आयोजित करेगा और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का सक्रिय विरोध करेगा।
अन्त में, एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत सारे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ऐसे हैं, जो समाज से कट जाने का तर्क देते हुए, अपने निजी-पारिवारिक जीवन में (शादी-ब्याह, जन्म-मरण, यज्ञोपवीत-उपनयन आदि-आदि) धार्मिक कर्मकाण्डों में शामिल होते हैं। ये कर्मकाण्ड जाति के दायरे में सिमटे होते हैं और भिन्न-भिन्न जातियों के भिन्न-भिन्न होते हैं। उपरोक्त तर्क के ही आधार पर बहुतेरे कम्युनिस्ट धार्मिक चिन्ह धारण करते हैं और पुराने धार्मिक नायकों की परम्परा से भी भाषणों में अपने को जोड़ते हैं। यह एक सामाजिक कायरता है और सिद्धान्तविहीन लोकरंजकता भी। उल्टे, इससे लोगों में कम्युनिस्टों के दुरंगे होने का प्रभाव जाता है। हम लोग अपने लम्बे अनुभव से बता सकते हैं कि धार्मिक कर्मकाण्डों से विनम्रतापूर्वक दूर रहने, बिना कर्मकाण्ड के शादी करने और मरने पर भी कर्मकाण्ड न करने की वसीयत छोड़ जाने के कम्युनिस्ट आचरण से समाज से कटाव नहीं होता, बल्कि कम्युनिस्टों की साख बढ़ती है। हम किसी पर अपनी विचारधारा नहीं थोपते, पर अपने ऊपर तो लागू कर ही सकते हैं। यह तो बुर्जुआ जनवाद भी कहता है और इस देश का संविधान भी। यह बात हम इसलिए कर रहे हैं कि धार्मिक आचरण का सवाल जाति के सवाल से जुड़ा हुआ है। यदि कम्युनिस्टों का आचरण निजी आचार-व्यवहार में भी अधार्मिक होगा तो दलितों को विश्वास होगा कि यह व्यक्ति वाकई दिल से जाति को नहीं मानता है।
जाति का प्रश्नि सहस्राब्दियों पुराना प्रश्नक है। इसे चुटकियों में हल करने का कोई रामबाण नुस्ख़ा नहीं हो सकता। यह एक लम्बी, श्रमसाध्य प्रक्रिया की माँग करता है। यह सवाल पूँजीवाद के नाश के साथ जुड़ा हुआ है। आज के समय में जाति-उन्मूलन की किसी परियोजना की दिशा में आगे कदम बढ़ाना एक साहसिक काम होगा। लेकिन हर कठिन काम साहसिकता की माँग तो करता ही है। आज जाति-उन्मूलन स्वप्न जैसा लग सकता है, लेकिन उस स्वप्न का यदि वैज्ञानिक आधार हो तो उसे यथार्थ में बदला ही जा सकता है। ऐसा सपना तो हर सच्चे क्रान्तिकारी को देखना चाहिए।

'जाति प्रश्नस और मार्क्सनवाद' विषय पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी
(12-16 मार्च, चण्डीगढ़) में प्रस्तुत आधार आलेख
http://arvindtrust.org/?attachment_id=445
Jaati Prashn aur uska Samaadhaan-Ek Marxvadi Drishtikon_Unicode « अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास
arvindtrust.org
This entry was posted on Friday, March 22nd, 2013 at 6:23 pm and is filed under . You can follow any...

View Post on Facebook · Edit Email Settings · Reply to this email to add a comment.

No comments:

Post a Comment