कौन खोदेगा सड़ियल समाज की कब्र
हमें माफ मत करना गुड़िया
पुलिस और कानून तक बात जाने से पहले परिवार और समाज में अपराधियों का उनका कवच बनने वाले तमाम लोग मिल जाएंगे, जो उन्हें फांसी तक जाने से कहीं पहले बचा लेंगे, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहती हैं...
दीपक कुमार
हम अकसर छोटी बच्चियों को गुड़िया कहते हैं और ऐसा कहते हुए अजनबी होने के बावजूद उन्हें अपनी गोद में ले लेते हैं. भरोसे की पता नहीं किस भावना के चलते लोग हमें अपनी बच्चियों को दे भी देते हैं, शायद उनके माता पिता को लगता होगा कि बच्चे तो सबके प्यारे होते हैं और बेवजह किसी पर शक क्यों करना.
लेकिन पांच साल की दिल्ली की गुड़िया के साथ हुई हैवानियत के बाद क्या कोई किसी पर अपनी बच्ची को लेकर यकीन करेगा और किसी को क्यों करना चाहिए. लोग तो पड़ोसियों-रिश्तेदारों से डरेंगे, अजनबी लोगों की तो बात ही और है. चिंता की बात यह नहीं है कि हम डरेंगे. डर के साये में तो हम जी ही रहे हैं. महंगाई का डर, बेरोजगारी का डर, लोन का डर वगैरह, वगैरह. चिंता की बात यह है कि हम बच्चों के सवालों का जवाब क्या देंगे और कैसे उन्हें समझाएंगे कि हम उन्हें दो पल के लिए भी किसी के पास जाने क्यों नहीं दे रहे. हम क्यों उनके लिए एक ऐसा समाज बना रहे जिसकी बुनियाद सिर्फ खतरों और संदेहों पर टिकी हो.
क्यों न वे खुलकर दूसरों पर यकीन करें, लेकिन किसी के जरा सी छूट लेने पर खुलकर उसका नाम लें और मां-बाप समेत सबके सामने उसकी गंदी हरकत के बारे में बताएं. आखिर वह पुलिस वाला हमारे इसी समाज की सोच का तो आदमी रहा होगा, जो गुड़िया के पिता को दो हजार रुपए देकर चुप रह जाने के लिए कह रहा था. क्या इसी सोच के लोग हमारे आसपास नहीं बिखरे हैं जो अलग अलग भाव भंगिमाओं से सदियों पुराने तर्कों को दोहराते मिल जाते हैं कि चुप रहो वरना बच्ची की, लडकी की बदनामी होगी, वह समाज में सिर उठाकर नहीं चल पाएगी, उसे ही गलत समझा जाएगा और उससे शादी कौन करेगा.
यही बुजदिल और घिनौना तर्क बाद में सामूहिक तौर पर उन कुंठित मानसिकता वालों लोगों के प्रति सहानुभूति में बदल जाता है जो ऐसी हरकतें करते हैं. वह जान जाते हैं कि पुलिस और कानून तक बात जाने से पहले परिवार और समाज में उनका कवच बनने वाले तमाम लोग मिल जाएंगे, जो उन्हें फांसी तक जाने से कहीं पहले बचा लेंगे. इनमें स्थानीय सभासद से लेकर गांव के मुखिया जी और विधायक, सभी उम्रदराज बुजुर्ग और तमाम सारे लोग जिनमें महिलाएं भी होती हैं, सभी शामिल होते हैं.
पीड़ित बच्चे, लडकी या महिला को अलग अलग स्तरों पर, अलग अलग चीजों का लालच देकर समझाने की कोशिश की जाती है और तब कोई उसके साथ नहीं खडा होता. यही सलाहें और यही समझदारी हमारे घिनौने समाज की असली मुश्किल है, बल्कि मुश्किल ही नहीं चुनौती है. ऐसे में डरता वह नहीं जो फ्रस्टेट, बीमार और क्रिमिनल है, डरता वह है जो उसका शिकार बनता है.
तकरीबन एक साल पहले आमिर खान ने 'सत्यमेव जयते' के एक एपीसोड में इस सवाल को उठाया था कि हमारे बच्चे अपने घरों और पडोस में ही कितने अनसेफ हैं. खुद से पूछिए इस एक साल में हममें से कितने लोगों ने अपने बच्चों से और अपने ही क्यों जान-पहचान के सारे बच्चों से इस बारे में बात की. कितने लोगों ने ऐसे लोगों को अपने आसपास ढूंढ निकाला जिनकी गलत हरकतों की तरफ बच्चों ने इशारा किया. कितने ऐसे लोगों को डांटा-डपटा जिनकी बच्चे के सामने बोलती बंद हो गई थी. क्या हमने अपने बच्चों को वह साहस देने की कोशिश की जिसके दम पर वह हमसे किसी की भी गंदी हरकत के बारे में हमसे बात कर सकें.
आप कह सकते हैं कि जिस बच्ची के साथ यह हैवानियत हुई वह मिडिल क्लास की नहीं, बल्कि मजदूर तबके की थी और इस तरह की हरकतें वहीं होती हैं. लेकिन मान लीजिए कि हमारे बच्चे सेफ हो चुके हैं. वैसे हम बेहतर जानते हैं कि हम निश्चिन्त होकर ऐसा नहीं कह सकते तो आखिर क्यों हमें इस तबके के बच्चों के लिए आगे नहीं आना चाहिए. हमें बच्चों को तबकों के आधार पर देखना ही क्यों चाहिए. गरीब बच्चे, बाल मजदूरी करते हैं, वे स्कूल नहीं जा पाते और हम अपनी दुनिया में खोए रहते हैं, हमारी दिक्कत यह है कि हम अक्सर उन्हीं चीजों को लेकर खड़े होना चाहते हैं, जो हमारे निजी दायरे को प्रभावित करती हैं.
लेकिन अब सुकून की बात यह है हम अपने दायरे से निकल कर खड़े हो रहे हैं, हम सवाल कर रहे हैं, कल को हम लडेंगे भी. यह भूलकर कि हमारा लिंग क्या है, जाति क्या है, वर्ग क्या है और हम किस राज्य के हैं, हम खड़े हो जाएंगे अन्याय के खिलाफ लडने वाले के साथ और तब तक नहीं हटेंगे जब तक किसी पीड़ित को न्याय नहीं मिल जाता. फिलहाल तो गुड़िया ठीक हो जाए. हम किस मुंह से उससे और अपने आसपास की तमाम गुड़ियाओं से कह सकते हैं कि हम पर भरोसा करो, हमें माफ मत करना गुड़िया.
दीपक कुमार युवा पत्रकार हैं.
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