जटिल है जाति का तंत्र
Author: समयांतर डैस्क Edition : December 2012
कंवल भारती
बड़ा अहम सवाल है कि जाति क्यों नहीं जाती? समाजवादी ही नहीं, दलित विचारकों के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है। इस मुद्दे पर सारे समाज-सुधारक भी विफल हो गए। 1935 में डॉ. अंबेडकर ने जाति के उन्मूलन पर एक महत्त्वपूर्ण निबंध लिखा था, जो एक व्याख्यान के रूप में था। इसमें अंबेडकर ने तीन बातों पर जोर दिया था- (1) धर्मशास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाना, (2) अंतर्जातीय विवाह और (3) अंतर्जातीय भोज। इनमें पहली बात धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में संभव नहीं है, हांलाकि यह सच है कि हिंदू धर्मशास्त्र वर्ण और जातिभेद का समर्थन करते हैं। पर, धर्मशास्त्रों को उड़ाने का काम कोई तानाशाही सत्ता ही कर सकती है, जो खुद भी अपने आप में एक क्रूरतम और जनविरोधी सत्ता होगी। भारत में भूलकर भी कभी ऐसी सत्ता न आए, यह कामना हमें हमेशा करनी चाहिए। अब सवाल उन संस्कारों का है, जिन्हें धर्मशास्त्र हिंदू समाज में पैदा करते हैं। ये संस्कार ही वस्तुत: जाति को मजबूत करते हैं। संपूर्ण हिंदू संस्कृति जातिवादी है। सारे तीज-त्यौहार, तीर्थ-कथाएं और रस्म-रिवाज जातिवादी हैं। अब ये संस्कार टीवी चैनलों पर परोसे जा रहे हैं, रामचरितमानस के अखंड पाठ, कथापाठ और बाबाओं के सत्संग-प्रवचन तो चलते ही रहते हैं। ये सभी चीजें वर्णव्यवस्था और जातिवाद को मजबूत करती हैं और यही कारण है कि हिंदू समाज-सुधारकों को सफलता नहीं मिली।
जहां तक अंतर्जातीय विवाह का प्रश्न है, यदि हम प्रेम विवाहों को अपवाद-स्वरूप छोड़ दें, तो अभी वह समय नहीं आया है, जब कोई मां-बाप अपनी पुत्री या अपने पुत्र का रिश्ता योग्यता के आधार पर अपनी जाति के बाहर या जाति-निरपेक्ष होकर तलाश करेंगे। ऐसा समय कभी नहीं आएगा, यह भी हम नहीं कह सकते। लेकिन फिलहाल यह अभी दूर की कौड़ी ही है।
अंतर्जातीय भोज के संबंध में अंबेडकर ने स्वयं कहा था कि कई जातियां इसकी अनुमति देतीं हैं और यह जातिभेद को दूर करने में सफल नहीं हुआ है। आम तौर पर अब जन्म दिन और विवाह के अवसरों पर जो भोज दिया जाता है, वह अंतर्जातीय ही होता है। पर यह जाति टूटने का कारण कभी नहीं बना। सभी लोग अपनी जाति के साथ ही भोज में शामिल होते हैं। कोई भी जाति घर छोड़ कर नहीं आता है।
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जाति को धारण करके जातिभेद को समाप्त नहीं किया जा सकता। यह कुछ वैसा ही है, जैसे मच्छर को बनाए रखकर मलेरिया को समाप्त करना असंभव है। लेकिन जिस तरह लोगों में मच्छर के प्रति जागरूकता है उस तरह लोग जातिभेद को दूर करने में जागरूक नहीं हैं। जाति भले ही रहे, पर जातिभेद तो नहीं रहना चाहिए। यह जातिभेद ही मुख्य रोग है, जिसके निदान के सारे उपाय बेकार साबित हुए हैं। इसका कारण क्या है? इसका कोई बड़ा कारण होना चाहिए। वह है विशेषाधिकारों का। वर्णव्यवस्था में यह स्थिति ऊपर से नीचे की ओर है। ऊपर वाले को सबसे ज्यादा विशेषाधिकार प्राप्त हैं और नीचे वाले को उससे कम। इसी आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव कायम है। इसलिए भेदभाव खत्म करने के लिए किसी को सबसे ज्यादा और किसी को सबसे कम विशेषाधिकार छोडऩे पड़ेंगे। इन्हीं विशेषाधिकारों की वजह से यहां हर जाति अपने आप को दूसरी जाति से या तो उच्च मानती है या निम्न। कार्ल मार्क्स का वह नारा, जो उसने मजदूरों के लिए दिया था कि गुलामी के सिवाय तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है, भारत में इसीलिए असफल रहा कि यहां लोगों के पास खोने के लिए विशेषाधिकार थे, जिन्हें वे खोना नहीं चाहते थे।
विशेषाधिकारों के संदर्भ में एक बड़ी समस्या अछूतों की है, जिन्हें अब दलित कहा जाता है। दलित चूंकि वर्णव्यवस्था से बाहर हैं, इसलिए अधिकारों से भी वंचित हैं। वे सबसे निम्न श्रेणी में हैं। पर, ऊंच-नीच का भेदभाव उनमें भी ऊपर से नीचे के क्रम में मौजूद है।
जाति का यह जटिल स्वरूप लोकतंत्र के लिए घातक है। हम वास्तव में एक लोकतांत्रिक सरकार तो बना लेते हैं, पर लोकतांत्रिक समाज नहीं बना पाते। 20 मई, 1956 को 'वायस आफ अमेरिका' से डॉ. अंबेडकर की वार्ता प्रसारित हुई थी, जो जाति उन्मूलन पर आज भी प्रासंगिक है। यहां इसका उल्लेख इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जाति-उन्मूलन पर 1935 के बाद वह इसी वार्ता में कुछ व्यवहारिक बातें करते हैं। 'जाति-व्यवस्था को कैसे समाप्त किया जाए', प्रश्न पर विचार करते हुए वह कहते हैं कि इसमें सबसे बड़ी बाधा 'श्रेणीबद्ध असमानता की है, जो जाति-व्यवस्था की आत्मा है।' वह कहते हैं कि इसके अंतर्गत भी यदि केवल उच्च और निम्न दो ही वर्ग होते, तो भी समस्या इतनी जटिल नहीं होती क्योंकि 'जहां लोग उच्च और निम्न दो वर्गों में विभाजित हैं, वहां निम्न वर्ग को उच्च वर्ग से जुडऩे के लिए संघर्ष करना सरल है। पर, समस्या यह है कि निम्न वर्ग एकमात्र वर्ग नहीं है, उसमें निम्न और निम्नतर लोग भी हैं। निम्नवर्ग निम्नतर लोगों से नहीं जुड़ सकता क्योंकि निम्न वर्ग को यह भय है कि यदि वे लोग निम्नतर स्तर से ऊपर उठने में कामयाब हो गए, तो वह अपनी उच्च स्थिति को, जो उसे और उसकी जाति को मिली हुई है, खो देगें।'
क्या शिक्षा जाति को समाप्त कर सकती है? इस प्रश्न पर भी अंबेडकर इस वार्ता में बहुत साफ-साफ बातें करते हैं। वह कहते हैं, शिक्षा जाति को समाप्त कर भी सकती है और नहीं भी कर सकती है। वह कहते हैं कि 'जो शिक्षा आजकल दी जा रही है, अगर वही शिक्षा है, तो वह जाति पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। जाति वैसी ही बनी रहेगी।' वह बताते हैं कि इसका श्रेष्ठ उदाहरण ब्राह्मण जाति है। उनके अनुसार, 'यह वह जाति है, जो शत-प्रतिशत शिक्षित है, बल्कि इसका बहुमत उच्च शिक्षितों का है। किंतु अभी तक एक भी ब्राह्मण ने स्वयं को जाति के विरुद्ध घोषित नहीं किया है।' उन्होंने आगे कहा है,'उच्च जाति का व्यक्ति शिक्षित होने के बाद जाति को ज्यादा मानता है क्योंकि शिक्षा उसे बड़ी नौकरियां प्राप्त करने का अवसर देकर उसमें जाति-व्यवस्था के प्रति और भी ज्यादा रुचि पैदा कर देती है।' कहना न होगा कि आरक्षण के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। जहां भी जाति आर्थिक लाभ का साधन बन जाती है, वहीं जाति मजबूत हो जाती है। उनके अनुसार यह शिक्षा का नकारात्मक पक्ष है, इसलिए शिक्षा जाति समाप्त नहीं कर सकती।
आगे डॉ. अंबेडकर जोड़ते हैं कि शिक्षा जाति-व्यवस्था को समाप्त भी कर सकती है, यदि वह निम्न वर्गों में लागू की जाए। वह कहते हैं कि शिक्षा निम्न वर्गों में विद्रोह पैदा कर देगी क्योंकि अज्ञानता की वर्तमान स्थिति में ही वे जाति-व्यवस्था के समर्थक हैं, किंतु यदि एक बार उनकी आखें खुल गईं, तो वे जाति-व्यवस्था से लडऩे के लिए तैयार हो जाएंगे। इस संबंध में उनका कहना है कि 'यदि आप भारतीय समाज के उस वर्ग को शिक्षित बनाएंगे, जो अपने लाभ के लिए जाति-व्यवस्था को कायम रखने में रुचि रखता है, तो जाति-व्यवस्था और मजबूत हो जायगी। दूसरी तरफ, यदि आप भारतीय समाज के उस निम्नतम वर्ग को शिक्षा देंगे, जो जाति-व्यवस्था को नष्ट करने में रुचि रखता है, तो जाति-व्यवस्था नष्ट हो जायगी।' जिस समय डॉ. अंबेडकर ने यह बात कही थी, उस समय अमेरिकी फाउंडेशन के सहयोग से भारत में उच्च वर्गों को शिक्षा दी जा रही थी। उसका विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि इस तरह की शिक्षा से जाति-व्यवस्था को मजबूत ही किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि जिस तरह धनी को और धनी और गरीब को और गरीब बनाना गरीबी का हल नहीं है, उसी तरह जाति-व्यवस्था को कायम रखने वाले वर्ग को शिक्षित करना लोकतंत्र को खतरे में डालना है। लेकिन दुर्भाग्य से यही हुआ, क्योंकि निम्न वर्गों की शिक्षा में सरकार की रुचि न कल थी और न आज है। इसीलिए आज भी भारत में प्राथमिक शिक्षा दयनीय स्थिति में है, जिसे शिक्षा के निजीकरण ने और भी बदतर बना दिया है।
जाति क्यों नहीं जाती? इसका एक बड़ा कारण आरक्षण भी है, खास तौर से राजनैतिक आरक्षण। क्योंकि जातिविहीन और वर्ग- विहीन समाज के लिए नेतृत्व करने वाले बौद्धिक वर्ग को राजनैतिक आरक्षण ने निष्क्रिय बना दिया है। दूसरी ओर नौकरियों में आरक्षण ने जिस मध्यवर्ग को दलितों में विकसित किया है, उसकी सारी भागदौड़ अब उच्च वर्ग बनने की दिशा में है। जाति उसके लिए अब लाभ की चीज है। अपने उच्च वर्गीय स्तर को खोने के डर से वह भी अपनी जाति के निम्नतर लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहता।
फिलहाल तो यही स्थिति है, जिसमें जाति-व्यवस्था नष्ट होती दिखाई नहीं दे रही है।
http://www.samayantar.com/casteism-in-india-is-not-going-to-go/
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