Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, April 4, 2013

क्या डॉ. आंबेडकर विफल हुये?

क्या डॉ. आंबेडकर विफल हुये?

कॅंवल भारती

                दलित चिन्तक एवं लेखक आनन्द तेलतूमड़े ने कहा है कि आंबेडकर के सारे प्रयोग, ब्राह्मणवाद के प्रति उनकी नफरत के कारण, विफलता में समाप्त हुये। यह बात उन्होंने चण्डीगढ़ में 'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर आयोजित एक पाँच दिवसीय (12-16 मार्च 2013) संगोष्ठी में कही थी। कात्यायनी ने मुझे भी इस संगोष्ठी में आमन्त्रित किया था, आमन्त्रण पत्र में कुछ केन्द्रीय मुद्दे भी दिये गये थे, जिनमें जाति प्रश्न पर मार्क्सवादी प्रतिपक्ष था। मैं आंबेडकरवादी पक्ष रखने के मकसद से इस संगोष्ठी में जाने के लिये बहुत उत्सुक था, पर अपने घुटने की तकलीफ की वजह से नहीं जा सका था। लेकिन संगोष्ठी की जो रिपोर्ट पढ़ने को मिली, वह दलितों को निराश करती है।

पहले आनन्द तेलतूमड़े की बात को लें। उन्हें मैं पिछले कुछ महीनों से जानता हूँ। वे मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में एक सेमिनार (20-21 नवम्बर 2012) में मुख्य अतिथि थे और मैं मुख्य वक्ता। संयोग से हम दोनों के पेपर भी एक ही विषय पर थे- आंबेडकर और मार्क्स के विचारों पर। लेकिन फर्क यही था कि उनका पेपर अंग्रेजी में था, मेरा हिन्दी में। पर, मेरे पेपर में भी आलोचना के केन्द्र में मार्क्सवादी थे और उनके पेपर में भी। लेकिन एक भिन्नता बौद्ध धर्म को लेकर जरूर थी, जिसे मैं दलित जातियों में जाति-विनाश के रूप में देखता हूँ और वे उसे एक विफल प्रयोग मानते हैं। जब वे दलित आन्दोलन और राजनीति पर चर्चा करते हैं, तो जाति की राजनीति का विरोध करते हैं, जो सही भी है और जैसा कि मैं भी अक्सर कहता हूँ कि जाति की राजनीति डॉ. आंबेडकर के समाजवादी विचारों के विरुद्ध पूँजीवाद को मजबूत करती है। लेकिन जब वे जाति व्यवस्था पर आंबेडकर के लेखन पर चर्चा करते हैंतो वे उसके विरोधी हो जाते हैं। कम्युनिस्टों और ब्राह्मणवादियों की दृष्टि में उनका यही विरोध उन्हें आंबेडकर-विरोधी बना देता है। चण्डीगढ़-संगोष्ठी में आनन्द तेलतूमड़े द्वारा जो व्याख्यान दिया गया, उसे यू-ट्यूब पर सुनने के बाद मुझे भी वे आंबेडकर-विरोधी ही नजर आये।उन्होंने कहा कि अंबेडकरवाद नाम की कोई चीज नहीं है और आंबेडकर की 'भारत में जाति' तथा 'जाति का उन्मूलन' पुस्तकों में उनके सभी समाधन गलत हैं। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि वे समाधन किस तरह गलत हैं, न ही वे आंबेडकर का कोई अकादमिक मूल्याँकन कर सके।

                संगोष्ठी के आमन्त्रण-पत्र में दी गयी तहरीर इस बात की गवाही है कि संगोष्ठी का मकसद ही जाति प्रश्न पर आंबेडकर के नेतृत्व की असफलता और अप्रासंगिकता को रेखांकित करना था।इसलिये मैं इस आलेख में पहले उन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा करना चाहता हूँ, जो संगोष्ठी के आमन्त्राण-पत्र में उठाये गये हैं। वे कहते हैं कि दलित प्रश्न को हल करने की प्रक्रिया के बिना व्यापक मेहनतकश अवाम की वर्गीय एकजुटता और उनकी मुक्ति-परियोजना की सफलता की कल्पना नहीं की जा सकती। बात सही है, लेकिन जब वे ये कहते हैं कि 'जो मार्क्सवाद को सच्चे अर्थों में आज भी क्रान्तिकारी व्यवहार का मार्गदर्शक मानते हैं, उनके लिये यह अनिवार्य हो जाता है कि वे मार्क्सवादी नज़रिये से जाति प्रश्न के हर पहलू की सांगोपांग समझदारी बनाने की कोशिश करें, शोध्-अध्ययन और वाद-विवाद करें', तो सवाल यह जरूर पैदा होता है कि जब मार्क्सवाद में जाति का प्रश्न है ही नहीं, तो उस नज़रिये से शोध-अध्ययन और वाद-विवाद कोई कर भी कैसे सकता है? दुनिया जानती है कि मार्क्सवाद वर्ग की बात करता है, जाति की नहीं। फिर मार्क्सवादी नज़रिये से जाति के प्रश्न पर चर्चा करने की जरूरत क्या है? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि वे एक गम्भीर बीमारी का इलाज उस पैथी में ढूँढ रहे हैं, जिसका उसमें इलाज ही नहीं है।

वे एक और बिन्दु उठाते हुये कहते हैं, 'ऐसे मार्क्सवादी अकादमीशियनों की कमी नहीं है, जो सबऑल्टर्न स्टडीज़ और 'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स'की पद्धति की मार्क्सवादी पद्धति के साथ खिचड़ी पकाकर 'वर्ग अपचयनवादी दोषों'को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं। अतः इस विषय पर विस्तृत बहस-मुबाहसे की और अधिक जरूरत है।'मतलब साफ है कि उन्हें दलित अस्मिता की राजनीति पसन्द नहीं है। वे अपनी विचारधरा के साथ दलित विचारधरा की खिचड़ी नहीं चाहते। सम्भवतः, इसीलिये वे मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद का समन्वय भी नहीं चाहते हैं, जिसका उल्लेख संगोष्ठी में पढ़े गये उनके आधर-आलेख में मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो दलित बुद्धिजीवी जाति और वर्ग-विहीन समाज का सपना लेकर मार्क्स और आंबेडकर की विचारधरा के साथ चल रहे हैंवे उनकी नजर में गलत काम कर रहे हैं। इसका उन्हें बिल्कुल अहसास नहीं है कि इससे सामाजिक क्रान्ति को कितना धक्का लगेगा। वे सिर्फ मार्क्सवाद के जरिये क्रान्ति लाना चाहते हैं, जो वे आज तक नहीं ला सके। भारत के कम्युनिस्ट डॉ. आंबेडकर के समय से क्रान्ति का ढोल पीटते आ रहे हैं, पर सफल नहीं हो सके। वे भरसक दलितों पर विजय पाने की कोशिश करते हैं, परन्तु आज तक दलितों को अपनी विचारधरा से नहीं जोड़ पाये। किसी समय उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में कम्युनिस्ट पार्टी से बीस-बाईस विधायक और आधा दर्जन के करीब सांसद हुआ करते थे। पर, आज क्या स्थिति है? वह जनाधर रेत की दीवार की तरह भरभरा कर क्यों ढह गया? कहाँ चला गया वह सारा जनाधार? क्या इसका कारण यह नहीं है कि वे कम्युनिस्ट थे ही नहीं, ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले सवर्ण थे? वे छद्म कम्युनिस्ट थे और अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त ही नहीं हुये थे। इसलिये जब दलित उभार की आँधी चली, तो वे अपने जातीय अहं की तुष्टि के लिये उन्हीं पार्टियों में चले गये, जहाँ उनका वर्चस्व था।

अतः, कहना न होगा कि भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन इसी जातीय मानसिकता के कारण दलित जातियों में लोकप्रिय नहीं हो सका। मार्क्सवादियों का यह कहना सही है कि अस्मिता की राजनीति ने दलितों में वर्ग-चेतना विकसित नहीं होने दी। परदलितों का यह कहना भी सही है कि कम्युनिस्ट नेतृत्व अपने ब्राह्मणवादी चोले से बाहर ही नहीं निकला। उसने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि दलितों के लिये अस्मिता सबसे ज्यादा जरूरी चीज क्यों बन गयी? क्यों वे आज भी आरक्षण को अपने लिये सबसे ज्यादा जरूरी समझते हैं? मुझे नहीं लगता कि किसी मार्क्सवादी ने इस सवाल पर विचार किया होगा। अगर किसी ने किया भी होगा, तो सिर्फ इस वजह से कि राजनीतिक मंच पर वह दलित-विरोधी न समझ लिये जायें। क्या मार्क्सवादी यह जानने की कोशिश करेंगे कि उनसे कहाँ गलती हुयी है? यह गलती उनसे उसी दौर में हुयी, जब देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी। तब उन्होंने उसी काँग्रेस का साथ दिया था, जो राजाओं-महाराजाओं, ब्राह्मणवादियों और पूँजीवादियों के साथ खड़ी थी। उस समय डॉ. आंबेडकर पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाजवादियों से अपीलें कर रहे थे कि वे काँग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनायें। पर, समाजवादी नेता तब जाति के सवाल पर डॉ. आंबेडकर के साथ खड़े होने के लिये बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। वे सिर्फ वर्ग की ही बातें करते थे, जो वे आज भी करते हैं। जातियों में वर्ग हैंइससे इन्कार नहीं है। पर, वे इसे क्यों नहीं स्वीकार करते कि भारत में वर्ग जाति के बाद आता है। तब वे जाति व्यवस्था पर नजर क्यों नहीं डालते, जिसने एक बड़ी आबादी को सारे अधिकारों और मनुष्य होने की गरिमा तक से वंचित करके रखा हुआ था। क्या इस आबादी को समाज में अधिकार और मनुष्य की गरिमा दिलाने का डॉ. आंबेडकर का आन्दोलन गलत था? क्या यह दलितों की स्वतन्त्रता और मुक्ति की लड़ाई नहीं थी? आज जिस पूँजीवादी समाज में हम सब रहते हैं, उसमें यदि दलित पढ़-लिख गये हैं, शासन-प्रशासन में आ गये हैं, साहित्यकार और कलाकार हो गये हैं, उनमें एक मध्य वर्ग विकसित होने लगा है और कुछ उद्योगपति भी बनने लगे हैं, तो निस्सन्देह यह सब अस्मिता और भागीदारी की राजनीति के कारण हुआ है और यह भी सच है कि यह सब आरक्षण के कारण हुआ है, भले ही इससे पूँजीवाद मजबूत होता हो। लेकिन विचार का बिन्दु यहाँ यह है कि वंचित जातियाँ यह कैसे बरदाश्त कर लें कि उनको छोड़ कर बाकी सब लोग पढ़ें-लिखें, तरक्की करें, अफसर बनें, जज बनें, सारी सुविधाओं के साथ कोठियों में रहें और वे जिन्दगी भर अनपढ़, गरीब, फटेहाल मजदूर बने रहें और झुग्गी-झोंपड़ियों और फुटपाथों पर ही जिन्दगी गुजार दें। अगर अस्मिता की राजनीति ने उन्हें भी कुछ तरक्की करने का रास्ता दिखाया हैतो वे कम्युनिस्ट आन्दोलन से क्यों जुड़ेंगे, जो आज भी उनकी अस्मिता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। हम जानते हैं कि वर्गीय दृष्टि से यह सही नहीं है, परन्तु दलितों में वर्गों का निर्माण होने में अभी समय लगेगा, वंचित जातियों में वर्ग-निर्माण की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है,जब वर्ग पूरी तरह बन जायेंगे, तब समाजवाद की चेतना भी दलितों में विकसित होनी ही है। पूँजीवाद का विकास ही वर्ग निर्माण की प्रक्रिया को जन्म देता है और जो दलितों में अवश्यम्भावी है।

दलित चिन्तन अक्सर इस बात को उठाता है कि स्वतन्त्रता-संग्राम के दौरान समाजवादी नेताओं ने डॉ. आंबेडकर के दलित-स्वतन्त्रता-आन्दोलन को समर्थन नहीं दिया। यह समझ में नहीं आने वाली पहेली है कि वह उनकी नजरों में समाजवादी आन्दोलन क्यों नहीं था? आज मार्क्सवादियों को इस सवाल पर आत्मचिन्तन और मन्थन करने की आवश्यकता है कि क्यों उनके नेतृत्व ने साम्राज्यवाद का विरोध तो किया, पर

कॅंवल भारती

कँवल भारती, लेखक जाने माने दलित चिंतक और साहित्यकार हैं।

ब्राह्मणवाद का विरोध नहीं किया? क्यों उनके नेतृत्व ने दलित-मुक्ति के सवाल को अपने कार्यक्रम में शामिल नहीं किया? और क्यों उन्होंने सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनीतिक क्रान्ति को महत्व दिया? संगोष्ठी के आधार आलेख में इस सत्य को स्वीकार किया गया है कि भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व, जन्म से ही, ढीला-ढाला था। वह यह भी स्वीकार करता है कि 'जिस (कम्युनिस्ट) पार्टी के पास 1951 तक भारतीय क्रान्ति का कोई कार्यक्रम ही नहीं था, उससे सिर्फ जाति प्रश्न पर सुस्पष्ट दिशा की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती थी?' इससे साफ पता चलता है कि डॉ. आंबेडकर के दलित-नेतृत्व के महत्वपूर्ण दौर में कम्युनिस्ट पार्टी इस योग्य ही नहीं थी कि अपने उत्तरदायित्व को समझती। जब भारत के दलितों ने 1928 में साइमन कमीशन का स्वागत किया था और 1932 में डॉ. आंबेडकर ने गाँधी के साथ दलितों के राजनीतिक प्रतिनिध्त्वि के सवाल पर पूना में समझौता किया था, तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की कोई भूमिका दलितों के सन्दर्भ में नहीं थी। अब सवाल यह पैदा होता है कि तब कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका किस सन्दर्भ में थी? जाहिर है कि तब वह काँग्रेस के स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल थी, जिसका नेतृत्व ब्राह्मणों और पूँजीपतियों के हाथों में था। उस काल में, जैसा कि श्रीपाद अमृत डांगे का कहना था, 'कम्युनिस्ट पार्टी का तात्कालिक लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना'था। पर, यहाँ आंबेडकर का सवाल यह था कि ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ना तो ठीक है, पर समाजवादियों के लिये यह सवाल भी गौरतलब होना चाहिये कि ब्रिटिश साम्राज्य के जाने के बाद भारत की शासन-सत्ता किनके हाथों में आयेगी, क्या वह ब्राह्मणों, सामन्तों और पूँजीपतियों के हाथों में ही रहेगी या मजदूर वर्ग के हाथों में आयेगी? समाजवादियों ने इस सवाल को हवा में उड़ा दिया। परिणाम वही हुआ, ब्रिटिश के जाने के बाद ब्राह्मणों, सामन्तों और पूँजीपतियों का ही साम्राज्य क़ायम हुआ। क्या आंबेडकर ने गलत सवाल किया था? उन्होंने यही सम्भावना व्यक्त की थी कि काँग्रेस का राष्ट्रीय आन्दोलन भारत में ब्राह्मण-राज ही कायम करेगा, जिसमें दलित-मजदूरों को कोई आजादी नहीं मिलने वाली है। इसे कोई कितना ही नकारने की कोशिश करेपर सच यही है कि भारत में ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी साम्राज्यवाद कायम करने में कम्युनिस्ट और समाजवादी ताकतें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं।

लेकिन चण्डीगढ़-संगोष्ठी सम्भवतः आंबेडकर को नकारे जाने के लिये ही आयोजित हुयी थी। जिस तरह संगोष्ठी का आधर आलेख डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व को अवसरवादी और अलगाववादी बताता है, उसे आप भी देखें-

'डॉ. आंबेडकर ने कांग्रेसी उच्च जातीय नेतृत्व का विरोध करते हुये दलितों को उनकी माँगों पर न सवर्ण ज़मीदारों के विरुद्ध संगठित किया, न ही उनके पालक-पोषक उपनिवेशवादियों के विरुद्ध। वे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष से ही अलग रहे, स्वाधीनता-प्राप्ति का विरोध करते रहे, फिर पहले लीग और फिर कांग्रेस के समर्थन से 11 प्रतिशत कुलीनों के प्रतिनिधित्व वाली संविधान सभा में बैठ कर उस समय संविधान बना रहे थे और सहयोग के लिये काँग्रेस का बार-बार आभार प्रकट कर रहे थे,जब तेलंगाना में नेहरू की सरकार किसानों-भूमिहीनों का बर्बर दमन कर रही थी। समग्रता में उनकी भूमिका का मूल्याँकन अभी अलग बात है, 1948 में उन्हें अवसरवादी और अलगाववादी के अतिरिक्त और भला क्या कहा जा सकता था? दलित जातियों को साथ लेने के लिये सच्चाई पर लीपापोती करके आंबेडकर को साथ लेने की नहीं, बल्कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभार में अस्पृश्यता और जाति-प्रथा उन्मूलन के दीर्घकालिक संघर्ष के ठोस कार्यभारों को निरूपित करने की जरूरत थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने यह नहीं किया, वह उसकी कमी थी।'

इस उद्धरण में कहा गया है कि डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सवर्ण ज़मीदारों और उपनिवेशवादियों के विरुद्ध संगठित नहीं किया, इसलिये वे उपनिवेशवादी, अवसरवादी और अलगाववादी थे। इस आधार पर वे यह भी कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर को कम्युनिस्टों ने साथ न लेकर सही किया था, पर अपने कार्यभार में जाति के सवाल को निरूपित करने का काम उन्होंने नहीं किया था, यह उनकी गलती थी। चलो, यहाँ मार्क्सवादी विचारक यह तो स्वीकार करते हैं कि कम्युनिस्टों ने अपने कार्यभार में जाति के सवाल को शामिल न करके गलती की थी। पर, जब जाति का सवाल उनके जेहन में था ही नहीं, तो वे आंबेडकर के साथ जा भी कैसे सकते थे? और यह कितना दुखद है कि यह बात 1948 की है, यानी भारत के आजाद होने के एक साल बाद तक कम्युनिस्टों के कार्यभार में जाति का सवाल शामिल नहीं था। पता नहीं यह मार्क्सवादियों का कौन सा ग्रुप है, जो आंबेडकर को लेकर इतनी उल-जलूल बातें कर रहा है और आधी सदी से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद अब आकर जाति के प्रश्न पर विमर्श कर रहा है? यहाँ मुझे डॉ. रामविलास शर्मा का एक कथन याद आता है। यद्यपि उनका सारा लेखन ब्राह्मणवाद के समर्थन में लीपापोती का है, पर एक बात वे बहुत महत्वपूर्ण कह गये हैं कि यदि भारत में साम्प्रदायिक ताकतें कामयाब होती हैं, तो इसकी जिम्मेदारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ पर होगी। किन्तु, वे अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता के कारण यह कहना भूल गये कि जातिवादी ताकतों के उभार की जिम्मेदारी भी कम्युनिस्ट पार्टियों की होगी। अगर कम्युनिस्टों ने जाति के सवाल को अपने कार्यभार में शामिल करते हुये ब्राह्मणवाद के खिलाफ आन्दोलन चलाया होतातो यहाँ न साप्रदायिक ताक़तें मजबूत होतीं और न जातिवादी ताक़तें।

चलिए, इस सवाल पर विचार करते हैं कि डॉ. आंबेडकर ने सवर्ण ज़मीदारों के खिलाफ दलितों को संगठित क्यों नहीं किया? और वे उपनिवेशवाद-विरोधी संघष से अलग क्यों रहे? हालांकि स्वयं डॉ. आंबेडकर ने इन सवालों पर काफी कुछ कहा है, जिसे मार्क्सवादी न पढ़ना चाहते हैं और न समझना। चालीस के दशक का राजनैतिक परिदृश्य गवाह है कि जब डॉ. आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनायी थी, तो एम. एन. राय सहित सारे समाजवादी नेता उनके इसलिये विरोधी हो गये थे कि उन्होंने वर्ग-आधर पर काँग्रेस से बाहर कोई पार्टी क्यों बनायी? इन्हीं में उनके एक विरोधी अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द भी थे, जिन्होंने यह कहते हुये सभी राजनीतिक पार्टियों को काँग्रेस में शामिल होने का आह्नान किया था कि काँग्रेस ही एकमात्र साम्राज्यवाद-विरोधी पार्टी है। इस पर डॉ. आंबेडकर ने स्वामी सहजानन्द को कहा था- यदि काँग्रेस के मन्त्री साम्राज्यवाद के विरोध में मन्त्रिमण्डल से इस्तीफा दे देते हैं, तो वह यह लिख कर देने को तैयार हैं कि वह और उनकी पार्टी काँग्रेस में शामिल हो जायेंगे। उनका कहना था, 'हम सबसे ज्यादा भूखे, सबसे ज्यादा पददलित, गरीब और पीड़ित लोग हैं। हमारे साथ जितना अन्याय हुआ है, उतना किसी के साथ नहीं हुआ है। पर, हम उच्च वर्गों के साथ अपने सारे मतभेद इसी क्षण खत्म करने को तैयार हैं, हम अपनी वर्गीय माँगों को भी छोड़ देंगे और काँग्रेस में शामिल हो जायेंगे, अगर काँग्रेस साम्राज्यवाद से लड़ने का निश्चय करती है।'लेकिन उन्होंने कहा कि यह सच नहीं है कि काँग्रेस साम्राज्यवाद-विरोधी संगठन है। वह साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्षरत नहीं है, बल्कि अपनी संवैधनिक मशीनरी का उपयोग पूँजीपतियों और अन्य निहित स्वार्थों के हितों के लिये कर रही है। वह मजदूरों और किसानों के हितों की बलि चढ़ाकर उनके शोषकों को ही पाल-पोस रही है।'यह पूरी रिपोर्ट 27 दिसम्बर 1938 के 'दि टाइम्स ऑफ इण्डिया' और 'दि बाम्बे क्रॉनिकल' में देखी जा सकती है। यहाँ यह भी गौरतलब है कि जिन स्वामी सहजानन्द ने सभी पार्टियों को काँग्रेस में शामिल होने का आह्वान किया थाबाद में उन्हें ही काँग्रेस छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था।

इसी सवाल पर फरवरी 1938 में डॉ. आंबेडकर ने दलित कामगार सभा में बहुत विस्तार से अपनी बात रखी थी। उन्होंने मजदूरों को काँग्रेस से स्वतन्त्र संगठन बनाने पर बल दिया था, जिसका विरोध कम्युनिस्टों का वह गुट भी कर रहा था, जिसके नेता एम. एन. राय थे। आंबेडकर ने आश्चर्य के साथ कहा कि 'एक कम्युनिस्ट, और वह भी स्वतन्त्र मजदूर संगठन का विरोधी! इतना भयानक विरोधभास! इसने कब्र में लेनिन को भी पागल कर दिया होगा।' उन्होंने सवाल किया कि यदि राय जैसे कम्युनिस्टों की नजर में साम्राज्यवाद का विनाश ही मुख्य लक्ष्य है, तो क्या वे इस बात की गारन्टी दे सकते हैं कि साम्राज्यवाद के समाप्त होने के साथ ही पूँजीवाद के सम्पूर्ण अवशेष भी भारत से समाप्त हो जायेंगे? यदि नहीं, तो दलित मजदूरों को आज से ही क्यों नहीं संगठित होना चाहिये? डॉ. आंबेडकर के ये विचार क्या उन्हें साम्राज्यवादी साबित करते हैं? क्या वे समाजवादी और कम्युनिस्ट सही थे, जो उस काँग्रेस के साथ थे, जिसका जन्म ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा के लिये हुआ था?

आइये, इस सवाल पर विचार किया जाये कि डॉ. आंबेडकर स्वतन्त्रता-संग्राम से अलग क्यों रहे? इस सम्बन्ध में भी उन्होंने अपना पक्ष खुलकर स्पष्ट किया है, जिसे उनके विरोधी बिलकुल भी समझना नहीं चाहते। मार्क्सवादी और दूसरे समाजवादी भी इसका जो कारण मानते हैं, वह बिल्कुल गलत है। वे मानते हैं कि आंबेडकर वायसराय की कौंसिल (मन्त्रि-परिषद) में शामिल थे, इसलिये उपनिवेशवाद के साथ थे। कौंसिल में और भी बहुत से ब्राह्मण और मुस्लिम शामिल थे, पर उन्हें कोई भी उपनिवेशवादी और अंग्रेज-भक्त नहीं कहता, जबकि वे आंबेडकर की तरह दलितों के हित के लिये नहीं, बल्कि सत्ता-सुख के लिये कौंसिल में शामिल हुये थे। चूँकि अंग्रेज देश के शासक थे, इसलिये दलित अपनी मुक्ति की अपील अंग्रेज से ही कर सकते थे, हिन्दुओं से तो नहीं, जिनके पास कुछ भी ताकत नहीं थी। हिन्दू-मुसलमान सभी अपने दुखों के लिये अंग्रेज से ही अपील करते थे। वे देशद्रोही क्यों नहीं हुयेलेकिन कम्युनिस्टों ने आंबेडकर को देशद्रोही माना, क्योंकि उन्होंने साइमन कमीशन का बहिष्कार नहीं किया था, स्वागत किया था। उसे दलितों की दुर्दशा पर ज्ञापन दिया था। गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में उन्होंने हिन्दू प्रतिनिधियों का साथ न देकर उनका विरोध करते हुये दलितों के लिये राजनैतिक अधिकारों की माँग की थी। हाँ, यह सब उन्होंने किया था और सही किया था, क्योंकि दलित-हित में यही जरूरी था। उनके इसी संघर्ष से दलितों की मुक्ति के दरवाजे खुले। कम्युनिस्ट और हिन्दूवादी कितना ही आंबेडकर की भूमिका पर सवाल खड़े करेंपर दलित चिन्तन में वे दलित-मुक्ति की लड़ाई के अप्रितम योद्धा थे, जिन्होंने अकेले ही दलितों को संगठित किया, संघर्षशील बनाया और राष्ट्रवादियों, हिन्दूवादियों और कम्युनिस्टों के विरोधों-अवरोधों से लगातार जूझते हुये उन्हें वे सारे हक दिलाये, जो इससे पहले उन्हें कभी नहीं मिले थे। उन्होंने दलित-मुक्ति के सवाल पर अपनी व्याख्यान पुस्तक 'जाति का उन्मूलन'में पूछा है कि उन हिन्दुओं को आजादी की माँग करते का क्या हक है, जिन्होंने स्वयं करोड़ों लोगों को गुलाम बनाकर रखा हुआ है? जब आंबेडकर ने दलितों के राजनैतिक अधिकारों की माँग की थी, तब बम्बई में तिलक ने कहा था कि महार, मांग, तेली, चमार पार्लियामेंट में बैठ कर क्या करेंगे? ये वही तिलक थे, जिनका नारा 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है'प्रसिद्ध है। डॉ. आंबेडकर ने उन्हें कहा था कि अगर तिलक अछूत जाति में जन्मे होते, तो उनका नारा होता- 'अस्पृश्यता मिटाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।'यदि स्वतन्त्रता हिन्दुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है, तो यह उन अछूतों का भी जन्मसिद्ध अधिकार क्यों नहीं है, जिन्हें हिन्दुओं ने गुलाम बनाकर रखा है? आंबेडकर के सामने उपनिवेशवाद से भी बड़ा सवाल दलितों की स्वतन्त्रता का सवाल था। उनका कहना था कि यदि एक देश को दूसरे देश पर शासन करने का अधिकार नहीं है, जैसा कि उपनिवेशवाद के खिलाफ हिन्दू तर्क देते हैं, तो फिर एक वर्ग को दूसरे वर्ग पर भी शासन करने का अधिकार नहीं है। हिन्दू सिर्फ अपने लिये आजादी चाहते थे, दलितों को वे हिन्दू फोन्ड में रख कर अपने अधीन शासित बनाकर ही रखना चाहते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के पास क्रान्ति की कोई रूपरेखा ही नहीं थी, जिससे यह पता चलता कि क्रान्ति के बाद उनकी समाजवादी या तानाशाही सरकार में दलितों की स्थिति और भूमिका क्या होती? क्या उन्हें सिर्फ अच्छी मजदूरी और मुफ्त मकान मिलता या शासन-प्रशासन में भागीदारी भी मिलती? हिन्दुओं पर दलितों को बिल्कुल भी भरोसा नहीं था। उनका राज ब्राह्मणों और पूँजीपतियों का ही राज होता। ऐसे राजनैतिक घटाटोप में दलितों का भविष्य अंध्कार में ही था, यदि उन्हें डॉ. आंबेडकर का क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं मिला होता। किन्तु यदि वे उपनिवेशवाद के साथ थे, तो उनके विरोधियों के लिये यह जानना जरूरी है कि यह उपनिवेशवाद ही थाजिसने दलितों के लिये उन दरवाजों और रास्तों को खोला था, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने बन्द किया था। ब्राह्मणवाद ने उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा था, पर यह उपनिवेशवाद ही था, जिसने उन्हें समान मानवाधिकार प्रदान किये थे। ब्राह्मणवाद ने उनको पशुवत स्थिति में रखा था, पर यह उपनिवेशवाद ही था, जिसने उन्हें मानवीय गौरव दिया था।

मार्क्सवादी जाति-मुक्ति का सवाल उठाते हैं, जबकि डॉ. आंबेडकर ने दलित-मुक्ति का सवाल उठाया था। जाति का उन्मूलन वही कर सकते हैं, जिन्होंने इसे बनाया है। यह दलितों की बनायी हुयी व्यवस्था नहीं है, इसलिये दलित इसे नष्ट नहीं कर सकते। चूँकि चण्डीगढ़ की संगोष्ठी जाति-मुक्ति के सवाल पर थी, दलित-मुक्ति के सवाल पर नहीं, इसलिये उन्होंने आंबेडकर को गरियाने में अपनी उर्जा व्यर्थ ही नष्ट की। जाति-मुक्ति का उनके पास न कोई समाधन है और न वे कोई समाधन दे पाये। जाति का उन्मूलन दलितों का विषय नहीं है, इसलिये यह दलित आन्दोलन का कार्यभार कभी नहीं रहा। अतः, मार्क्सवादी चिन्तक डॉ. आंबेडकर और दलित आन्दोलन में जाति-मुक्ति का हल तलाशने की कवायद व्यर्थ ही करते हैं।

बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में बदल जाते हैं !

बहस अम्‍बेडकर और मार्क्‍स के बीच नहीं, वादियों के बीच है

दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।

बीच बहस में आरोप-प्रत्यारोप

'हस्‍तक्षेप' पर षड्यन्‍त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्‍टा चोर कोतवाल को डांटे'

यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

कुत्‍सा प्रचार और प्रति-कुत्‍सा प्रचार की बजाय एक अच्‍छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय

Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde

तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया

हाँडॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

No comments:

Post a Comment