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Tuesday, April 16, 2013

अंग्रेज देर से आये और जल्दी चले गए

           अंग्रेज देर से आये और जल्दी चले गए

                               एच एल दुसाध  

मित्रों कल फिर मुझे चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित बुद्धिजीवियों की वह मशहूर टिपण्णी-अंग्रेज देर से आये और जल्दी चले गए-फिर याद आ गई.कहाँ और कैसे,यह जानने के लिए थोडा धीरज  रखना पड़ेगा.

आपको याद होगा परसों अर्थात 14 अप्रैल को मैंने पोस्ट किया था कि आज ओएनजीसी द्वारा आयोजित आंबेडकर जयंती समारोह में संबोधित करने के लिए देहरादून में हूं.मित्रों क्या बतायूं अम्बेडकरी मूवमेंट से जुड़ने के बाद ढेरों जयंती समारोहों में संबोधित करने का अवसर पाया,पर अभूतपूर्व रूप से अभिभूत हुआ तो ओएनजीसी के एससी/एसटी के कर्मचारियों द्वारा जयंती समारोह से ही.ओएनजीसी  के 500 से अधिक आडिएंस की कैपेसिटी वाले शानदार सभागार में आयोजित कार्यकर्म की भव्यता तो स्वाभाविक थी,किन्तु जिस बात ने मुझे अभिभूत किया वह था उसका प्रस्तुतीकरण.अतिथियों के संबोधन से लेकर स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक प्रस्तुति के पीछे जो यूनिक परिकल्पना थी,उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका.उस परिकल्पना के पृष्ठ में था बाबासाहेब के प्रति दलित-आदिवासी उच्च पदाधिकारियों का गहरा समर्पण.

मित्रों, मैं हिंदी पट्टी को सांस्कृतिक रूप से अत्यंत दरिद्र मानने का अभ्यस्त रहा हूँ.मेरी इस धारणा को पहली बार किसी ने आघात किया तो देहरादून के युवा सांस्कृतिक कला कर्मियों ने,जिनमें  एससी/एसटी के युवक-युवतियों की भी पर्याप्त भागीदारी थी.कलाकारों ने एक साथ नृत्य और अभिनय का जो मुजाहिरा किया उससे गहराई से प्रभावित हुए बिना न रह सका.एक लड़की ने सूफी संगीत पर जो एक्शन किया वह तो एक शब्द में ,विस्मयकर था.कार्यकम खत्म होने के बाद मैंने उसे एनएसडी में दाखिला लेने का सुझाव दिया.अच्छा लगा  कि वह पहले से ही उसकी तैयारियों  में जुटी थी .इस बार उसने हायर सेकेंडरी का एग्जाम दिया है और एनएसडी एडमिशन फॉर्म मंगा रखा है.उम्मीद करता हूँ कि कलाकारों की उस टोली से कोई जरुर एक दिन बड़े स्तर पर अपनी प्रभा बिखेरेगा.

उस कर्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप शोभा बढ़ानेवाले गढवाल परिमंडल के आयुक्त सुबर्धन साहब ने वर्ण-व्यवस्था को 'पर्पिचुअल रिजर्वेशन' बताते हुए, हर क्षेत्र में दलित बहुजन  को हिस्सेदारी हासिल करने  के लिए जिस अंदाज़ में ललकारा ,उसे सुनकर वे लोग अपनी धारणा बदलने के लिए मजबूर हो गए होंगे,जो यह मान बैठे हैं कि अम्बेडकरी आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च पदों पर पहुंचे दलित अपने समाज की समस्यायों से निर्लिप्त रहते हैं.सुबर्धन साहब को सुनना मेरे लिए देहरादून यात्रा की विशेष प्राप्ति रही.मैं 14 अप्रैल को अधिक से अधिक सुबर्धनों के उदय की मन ही मन कामना  करता रहा.उस समारोह को अपनी यादों में संजोते हुए देर रात जागता,जिससे अगले दिन समय पर न उठ सका और मसूरी की यात्रा में कुछ विलम्ब हो गया.

मित्रों विगत डेढ़ दशक से मूवमेंट से जुड़ने के बाद से पर्यटन स्थलों के प्रति मेरा आकर्षण जीरो लेवल पर पहुँच गया.इस बीच थोड़े-थोड़े अंतराल पर देश के विभिन्न अंचलों में जाने का अवसर मिलते रहता है.पर वहां जाने पर वहां के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करने की बजाय स्थानीय एक्टिविस्टों के बीच जाकर कुछ सिखने का प्रयास करते रहता हूँ.किन्तु इस बार दून यात्रा में विशिष्ट लेखक-एक्टिविस्ट बंधुवर बृजपाल भारती भी अपनी मिसेज सुरेश पाल के साथ थे.दोनों बहुत ही भ्रमण-प्रिय हैं.उन्होंने अगले दिन मसूरी घूमने का प्रस्ताव रखा,जिसका मैं प्रत्याख्यान न कर सका.कारण,बचपन से ही मसूरी की खूबसूरती का बहुत बखान सुन रखा था.ओएनजीसी के साथियों द्वारा सुलभ कराई गई लग्जरी गाड़ी से हम 12.30 के करीब मसूरी पहुंचे.रास्ते में जगह-जगह लिखा  मिला –'पहाड़ों की रानी मसूरी  में आपका स्वागत है'.हालाँकि दार्जिलिंग और गंगटोक की पहाड़ी यत्र में जो रोमांच है ,उसका यहाँ अभाव दिखा.किन्तु ज्यों -ज्यों ऊपर उठते गया,पहाडो की रानी की उपमा सही लगती गई.ऊपर पहुँच कर हमलोगों ने 'रोप वे' का लुत्फ़ लेने का एकमात्र  टार्गेट तय किया.किन्तु रोप वे जहां से शुरू होता है,वहां कर  पहुँच भारी निराशा हुई.मेंरी धारणा थी कि एक से दूसरी पहाड़ी तक,कम से कम एक –डेढ़ किलोमीटर की यात्रा का अवसर मिलेगा.किन्तु दूरी साफ दिख रही थी,जो बमुश्किल 500 मीटर थी.बहरहाल रोमांच रहित रोप-वे यात्रा के बाद गन-हिल पर मार्केट देखकर अच्छा लगा.मार्केट में घूमने के दौरान जब एक व्यक्ति ने यह बताया कि जहाँ हम घूम रहे हैं,दरअसल वह 'वाटर रिजर्वर' का छत है और यही से पुरे मसूरी में पानी सप्लाई के लिए इसे अंग्रेजो ने बनवाया था  तो मैं सुखद आश्चर्य में डूबे बिना न रह सका.यह जानने के बाद मसूरी के टॉप पर अवस्थित गनहिल के उस पानी टंकी के छत पर बसे बाज़ार का नए सिरे से जायजा लिया तो अंग्रेजो के प्रति श्रद्धा से सर झुकाए बिना नहीं रहा.मेरे साथ दिल्ली जलबोर्ड में सीनियर इंजीनियर रहे बंधु बृजपाल भारती भी अचंभित हुए बिना न रह सके.इसके पहले रास्ते में हमने पहाड पर बने  खास-खास भवनों के विषय में जब ड्राइवर से पूछा था तो पता  चला था कि वहां के  अधिकांश शानदार ही भवन अंग्रेजों के बनाये हुए हैं.इसी खूबसूरत पहाड़ी पर सुप्रसिद्ध लेखक रस्किन बॉन्ड तथा बालीवुड के एक्टर टॉम अल्टर ने भी घर बनवा रखा है.मैं इस पहाड़ी बसे घरों और रास्तों को देखते हुए जब गनहिल के वाटर टैंक की सचाई से रूबरू हुआ तो बरबस मुह से निकल पड़ा था ,'सचमुच अंग्रेज देर आये और जल्दी चले गए.'भारतीय साहब मेरी बात  ठहाका लगाये बिना न रह रह सके.उनको  ठहाका लगाते देख मैंने यह भी जोड़ दिया था -'लेकिन इसके लिए  दुसाधों और महारों को भी धन्यवाद देना होगा.अगर उन्होंने अंग्रेजों के भारत विजय में साथ नहीं दिया होता क्या आज भी हम जंगली अवस्था में नहीं पड़े होते .'मेरी बात सुनकर भारतीय साहब ने एक बार और जोरदार ठहाका लगाया और थोड़ी सी असहमति जताते हुए कहा था ,नहीं,टेक्नोलाजी हायर कर हम उस दशा से कुछ उबर जाता.'मैं उनकी बातों से पूरी तरह सहमत न होते हुए हंसकर कह दिया था ,'शायद!'

गनहिल पर जब अंग्रेजों को दाद दे रहे थे ,उस समय दो बज चुके थे.मुझे देहरादून से वापसी की  सवा छः बजे ट्रेन पकडनी थी .उससे पूर्व हमें ओएनजीसी के एससी/एसटी कर्मचारी कल्याण संघ के सदस्यों से परिचय विनिमय करना था.हम तीनो चार बजे तक ओनजीसी के गेस्ट हाउस पहुँच गए.वहां से फ्रेश होकर 4.30 बजे तेल भवन अवस्थित उनके कर्मचारी संघ के ऑफिस पहुंचे.15-20 लोग वहां हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे.उन्होंने भारी गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत किया.वहां जलपान  के मध्य हमारा एक दूसरे परिचय विनिमय हुआ.इस बीच उनमें कईयों ने जिस तरह डाइवर्सिटी  मूवमेंट के प्रति रूचि दिखलाया ,उससे लगा कि भारत के दूसरे प्रान्तों की भांति ही देहरादून के भी जागरूक अम्बेडकरवादी भी डाईवर्सिटी में ही समतामूलक समाज का सपना देख रहे हैं.चलते समय उन्होंने ट्राफी और शाल भेंटकर ऐसी भावभीनी विदाई दी कि हम दुबारा देहरादून आने का वादा किये बिना न रह सके.

दिनंक:16अप्रैल,2013                                    


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