सपने विहीन सरकारी स्कूल
अरुण कुमार
आज़ादी के बाद सरकारी स्कूल सपने देखने और उम्मीद पालने के केंद्र बने थे. लेकिन धीरे-धीरे बाज़ार व्यवस्था ने इसे महंगे सरकारी स्कूलों में शिफ्ट कर दिया. कामगारों व गरीबों की आने वाली पीढ़ियों के लिए पुराने सरकारी स्कूलों के साथ नए भी बनाये गए लेकिन उनमें से सपने देखने और उम्मीद पालने की वजहें ख़त्म होती चली गई. वर्तमान में इन सरकारी स्कूलों की स्थिति उस बंजर भूमि जैसी होती गई जिसमें कोई फलदार फसल नहीं उगाई जा सकती. सरकारी प्राथमिक विद्यालय इस समय निरन्तरता और बदलाव के संक्रमण काल से गुजर रहे है . RTE आने के बाद प्रथम पीढ़ी के पढने लिखने वाले गरीबों के बच्चों की बड़ी संख्या स्कूलों में पहुंची है.
सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधायों का लाभ भी बच्चों को मिल रहा है लेकिन बदलाव की परिस्थितियों में अध्यापक समुदाय में निष्क्रियता रूपी प्रतिशोध की एक नई भावना भी विकसित हुई है जिसका सबसे अधिक प्रभाव सीखने सिखाने में पड रहा है . स्कूलों में अब नये किस्म की चुनौतिया दिखाई पड़ने लगी है . इन विद्यालयों में बदलाव की प्रक्रिया ने सीखने सिखाने के प्रति शिक्षकों के जिस वैचारिक मनोजगत का निर्माण किया है वह आज की सबसे बड़ी चुनौती है.
शिक्षकों की अनियमितता और नौकरी के सेवा शर्ते (वेतन विसंगति, ट्रांसफर पॉलिसी व अन्य विभिन्न कार्यों में संलग्नता आदि-जैसे इस समय बहुसंख्या में शिक्षकों की ड्यूटी इंटर परीक्षा में लगने से कई स्कूलों में अघोषित छुट्टी जैसा माहौल बना हुआ है ) इस बाधा को और मजबूत बना देती सभी सरकारी गैर सरकारी अकादमिक गतिविधियों का नब्बे प्रतिशत समय नीतियों परिस्थितियों से उपजने वाले समस्याओं की बहसों और तर्कों में खर्च हो रहा है. इन्ही मुद्दों के बीच स्कूलों की जीवन रेखा यानी अकादमिक समझ व बच्चों के साथ सीखने सिखाने में उसका उपयोग दफ़न कर दिया गया है जिसकी पूरी कीमत गरीबों के बच्चों को चुकानी है.
इन स्कूलों में सपनो के मर जाने की हकीकत को स्कूल की छोटी - छोटी चीजों में देखा जा सकता है, जो कि बेहद परेशान करने वाला होता है. किसी भी कक्षा की जरूरतों में ब्लैक बोर्ड एक बुनियादी जरुरत है और हमारे सभी स्कूलों में ब्लैक बोर्ड मौजूद भी है, लेकिन वह किस हालत में मौजूद उसका एक रूप देखिये -इन ब्लैक बोर्डो को देखकर हिंदी के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की वह पक्तियां याद आती है, जिसमें उन्होंने अपने शहर के बारे में कहा था 'पनवाड़ी की दूकान में लगा हुआ एक ऐसा आइना, जिसमे कोई अक्स नज़र नहीं आता', बच्चों के भविष्य का अक्स ऐसे ही ब्लैक बोर्डो में बन रहा है. NCF-2005 कक्षा कक्ष की दीवारों को चार फुट तक काला पेंट कराने सुझाव देता है, ताकि बच्चे जो चाहे लिख सके मिटा सके.
रूस के महान लेखक मक्सिम गोर्की ने लिखा था - 'किताबें मनुष्य द्वारा सृजित अब तक का सर्वश्रेष्ठ चमत्कार है' ऐसे बच्चे जिनके घरों में या पहुँच में छपी हुई इबारत का नितांत अभाव है उनके लिए किताबें कितने महत्व की हो सकती है इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है. कानून के मुताबिक बच्चों को मुफ्त पाठ्य पुस्तक उपलब्ध कराया जा रहा है लेकिन स्कूलों में किताबों की व्यवहारिक स्थितियां कुछ दूसरी कहानी कहती हैं.
जैसे औसतन एक तिहाई से अधिक बच्चों के पास स्कूलों में किताबें उपलब्ध नहीं रहती है, जिसमें लगभग दस प्रतिशत के पास किताबें होती ही नहीं है। दरसल सरकार वर्ष में केवल एक बार स्कूलों को किताबें उपलब्ध कराती है. घट जाने, फट जाने, गायब हो जाने या बाद में नामांकन होने की दशा में किताबें मिलने का कोई प्रयास नहीं होता.
दूसरे स्कूलों के पुस्तकालय में बच्चों के लिहाज़ से बहुत कम किताबे उपलब्ध है और जो हैं वह बच्चों की पहुँच से दूर स्कूल के बोरे बक्से और आलमारी में कई अन्य सामानों के साथ ताले चाभी से बंद पड़ी है. फटने और गायब होने के डर से बच्चों की पहुँच से दूर रख्खी जाती है. अध्यापकों के लिए यह सरकारी सम्पत्ति के सुरक्षा का प्रश्न है. एक शिक्षक बच्चों के साथ पुस्तको का कितना और कैसे उपयोग करता है इस बात पर विचार करने के पहले ही देखा जा सकता है कि बच्चे और छपी हुई इबारत का मिलन कितना कम है.
शिक्षक वर्ग का स्कूलों के प्रति उम्मीद और लगाव की जमीन का खत्म होना प्राथमिक शिक्षण की बड़ी समस्या बन चूका है जिसका रिफ्लेक्शन समाज में भी दिखाई पड़ रहा है. एक शिक्षक का वैचारिक विकास जो कि उसके पेशे का प्रमुख आधार है अध्यापन और जिन्दगी में उसकी कोई जगह नहीं है. इसकी जगह नियतिवादी रुटिनी कवायद ने ग्रहण कर ली है. NCF व BCF तथा सभी किश्म की ट्रेनिंग व्यवस्था जिस शिक्षण पद्धति की निरंतर मुखालफत कर रहे है स्कूलों में अमल में वही पद्धित बनी हुई है. बच्चों की एक तरफ़ा हामी और यादाश्त परीक्षण के साथ पाठ्य पुस्तकों को पढ़ना पढ़ाना जारी है.
स्कूली अधिरचना में सबसे प्रमुख भूमिका अध्यापक की है. सीखने सिखाने में पाठ्यचर्या जिस सृजनात्मकता और कुशलता मांग करती है वह स्कूल की चारदीवारी से अभी कोसो दूर है. अध्यापक अध्यापन कला की नई समझ के अतिरिक्त अपनी समस्त जिम्मेदारियों को निभा रहें है. इसलिए यह समुदाय जितना व्यस्त है उतना ही खाली भी. सीआरसी/बीआरसी स्तर की ट्रेनिंग इस खाली स्थान को भर पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है.
भीड़ भरी कक्षा का नियंत्रण, सुविधाओं का वितरण और आदेशों के यांत्रिक अनुपालन में वह अपने रूटीन का अनुसरण करने में लगा हुआ है. इसलिए नई पाठ्य पुस्तको की समझ क्या है? बच्चे पाठ्य पुस्तकों के साथ स्कूल क्यूँ नहीं आते? अध्यापक के वैचारिक विकास का अवरोध क्या है? बीसीऍफ़ एनसीऍफ़ किस चिड़िया का नाम है? स्कूलों में किताबे बक्से बोर आलमारी में क्यों बंद है? स्कूल के परिवेश में आसानी से उपलब्ध संसाधन का क्या उपयोग है जैसे प्रश्न एजेंडे में ही नहीं आ पाते है.
छिटपुट कुछ उदाहरण को छोड़ दिया जाय तो एक अध्यापक द्वारा अपने स्कूली समय में सीखे गए पुराने तौर तरीकों को अमल लाना मजबूरी बन जाता है. स्कूलों में आने वाले गरीब बच्चों का भविष्य सरकारी नीतियों के चक्रव्यूह में अपना दम तोड़ रहा है. यह समाज और शिक्षकों के विचारों, उम्मीदों और दृष्टिकोण में समझ और बदलाव पैदा करने के संघर्ष का प्रश्न है.
अरुण कुमार पटना के विद्या भवन शिक्षा संदर्भ केंद्र से जुड़े हैं.
http://www.janjwar.com/campus/31-campus/3864-sapane-vihin-sarkaree-school-arun-kumar
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