गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-6
क्या प्रतिक्रियावादी तबके के हाथ में है:मार्क्सवादी आन्दोलन !
मित्रों ! भारत में मार्क्सवादी विगत 93 वर्षों से जो आन्दोलन चला रहे हैं वह किस किस्म का आन्दोलन है,इसकी सही जानकारी लेने का अबतक शायद गंभीर प्रयास नहीं हुआ है.आमतौर पर वे खुद को क्रन्तिकारी रूप में पेश करते हैं.ज़ाहिर है ऐसा करके वे संकेत देते हैं कि वे क्रन्तिकारी आन्दोलन चला रहे हैं.सचाई क्या है यह जानने के लिए हमें आंदोलनों के वर्गीकरण से अवगत होना होगा.हरबर्ट ब्लूमर ने जहां सामाजिक आंदोलनों को तीन भागों में वर्गीकृत किया है,वहीँ जोनाथन टर्नर ने चार भागों में वर्गीकृत किया है ,जो ज्यादा प्रचलित है.वे हर हैं-
1-सुधार आन्दोलन(reform movement )
2-क्रांतिकारी आन्दोलन (revolutionary movement)
3-प्रतिक्रियावादी आन्दोलन(reactionary movement)
4-अभिव्यंजना आन्दोलन (expressive movement)
सुधार अन्दोलनों के दायरे में नारी मुक्ति आन्दोलन,नशाबंदी,जाति-भ्रष्टाचार-बंधुआ प्रथा उन्मूलन इत्यादि आन्दोलन आते हैं.अभिव्यंजक आन्दोलनकारी बुनियादी परिवर्तन के प्रति अनिच्छुक रहते हैं.ये लोग अपनी भावनाओं और संवेगों पर संयम प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं.प्रतिक्रियावादी आन्दोलन वह हैं जो सामाजिक परिवर्तन पर रोक लगाते हैं.ऐसे आन्दोलनकारी नितांत रूढ़िवादी(funadamentalist) होते हैं.यह क्रांतिकारी आन्दोलन है जो प्रधानतः हिंसात्मक होता है.ऐसे आन्दोलनकारियों में समस्या के प्रति आक्रोश होता .इस तरह के आन्दोलन प्रचलित राजनैतिक,आर्थिक और सामाजिक संरचना को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं.समाज विज्ञानी अमेरिका के ब्लैक पैंथर,भारत के दलित पैंथर और नक्सलवादी इत्यादि आंदोलनों को इस श्रेणी में रखते हैं.ब्लूमर ने क्रान्तिकारी आंदोलनों की विशेषताएं बताते हुए यह उल्लेख किया है कि-
1-ये आन्दोलन निम्न वर्गों में पनपते हैं.
2-क्रन्तिकारी आन्दोलन समाज को दो भागों में बाँट देते हैं.पहला वर्ग तो वह है जिसके पास सब कुछ है,जिनका उत्पादन के साधनों पर पर स्वामित्व है.जबकि दूसरा वर्ग वह है जिनका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व नहीं है और जिनके पास कुछ भी नहीं है.यह आन्दोलन इन दोनों के बीच होता है.
क्रन्तिकारी आन्दोलन के कई स्वरूप होते हैं.पाल विलकिन्स ने छापामार युद्ध पद्धति;गुप्त संगठनों द्वारा षड्यंत्र करके बदलाव;लेनिनवादी पद्धति ;फासिस्ट पद्धति और अधिनायकवादी स्वरूप के साथ जनक्रांति स्वरूप का भी उल्लेख किया है.उनके अनुसार जब समाज के अधिकांश व्यक्ति जिस व्यवस्था में रह रहे हैं ,उसके प्रति घृणा पैदा करें और उस व्यवस्था को समाप्त करने की बात करें और समाज के सभी वर्गों की उसमें सहभागिता हो तो वह जनक्रांति की श्रेणी आती.
बहरहाल क्रन्तिकारी आन्दोलन रूपी सिक्के का दूसरा पहलू प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के रूप में सामने आता है.यदि क्रन्तिकारी आन्दोलन होगा तो प्रतिक्रियावादी आन्दोलन भी जरुर होगा ,ऐसा तमाम समाज विज्ञानियों का मानना है.जोनाथन टर्नर ने कहा है-'यदि क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने विश्वासों और सामूहिक व्यवहार में में चरम आस्थावादी है,तो प्रतिक्रियावादी आन्दोलन(reactionary movement) भी अपने व्यवहार में चरम स्थिति में पहुँच जाते हैं.प्रतिक्रियावादी आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन की गति पर रोक लगाते हैं,ऐसे आन्दोलन नितांतरूप से रूढ़िवादी(fundamentalist) होते हैं.'प्रतिक्रियावादी आंदोलनों के बारे पाल विल्किंसन की राय है कि-'जब समाज में सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र होती है और लोग उस तीव्रता को संभाल नहीं पाते हैं तब जो आन्दोलन हमारे सामने आते हैं ,वे हैं प्रतिरोधात्मक आन्दोलन (resistance social movement).'सामाजिक आंदोलनों को सामाजिक संरचना के अंतर्विरोध एवं सहमति के आधार पर दो भागों में विभाजित हो जाते हैं.पहला जब समाज में उपलब्ध सुविधाओं एवं साधनों का असमान वितरण होता है तब सुविधाहीन वर्ग में असंतोष उभरने लगता है और वे विरोध आन्दोलनों की ओर अग्रसर होते हैं.दूसरा,सामाजिक रंरचना के प्रति सहमति ,लक्ष्य संरचना में अनुरूपता को बढ़ावा देना होता है.उसमे संरचना का निम्न वर्ग बेहतर स्थिति व सुविधाओं की प्राप्ति के लिए सहयोग का मार्ग अपनाता है.
सामाजिक आंदोलनों की उत्पत्ति का कारण क्या है,आन्दोलन क्यों होते हैं,आन्दोलन की प्रेरणा शक्तियां कौन सी होती हैं,इत्यादि पर विचार करते हुए मार्टन,रुन्सिमेन ,गुर्र आदि ने मुख्य रूप से निम्न तीन सिद्धांत बताये हैं-
1-सापेक्षिक वंचना का सिद्धांत(relative deprivation theory)
2-तनाव सिद्धांत (strain theory)
3-पुनर्निर्माण का सिद्धांत(revitalization theory )
आंदोलनों की प्रेरक शक्ति के रूप में अधिकांश विद्वानों ने ही सापेक्षिक वंचना को सर्वाधिक प्रभावी सिद्धांन्त बताया है.मर्टन ने इस सिद्धांत के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता का विश्लेषण करते हुए कहा है कि,'दूसरे लोगों औए समूहों के सन्दर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वास्तु की प्राप्ति से वंचित हो जाता है तो यह सापेक्षिक वंचना है.दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं तो दूसरा समूह क्यों वंचित रहे? अमेरिका के सन्दर्भ में सापेक्षित वंचना वह है वह है जिससे लाभ का बहुत बड़ा भाग गोरी प्रजाति मिल जाता है और काले लोग इससे वंचित रह जाए हैं,जबकि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में लाभ लेने के अवसर सबके लिए समान है.'
तो मित्रों आज मैंने आपको सुधारवादी से लेकर क्रांतिकारी आंदोलनों के विषय में कुछ बुनियादी जानकारी दी है.अब इसके आधार पर प्रायः एक सदी से भारत में सर्वहारा क्रांति के लिए प्रयास कर रहे मार्क्सवादियों को लेकर निम्न शंकाएं आपके समक्ष रख हूँ-
1- भारत राष्ट्र असंख्य जातियों और धार्मिक समूहों से मिलकर गठित है,जिसमें सवर्ण,ओबीसी ,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों से युक्त मुख्य रूप से चार सामाजिक समूहों का अवस्थान है.अगर समाज विज्ञानियों का यह अध्ययन दुरुस्त है कि क्रन्तिकारी आन्दोलन निम्न वर्गों में पनपते हैं तथा सापेक्षित वंचना का सिद्धांत इसके पीछे सर्वाधिक प्रभावी रोल अदा करता है तो क्या यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि भारत में क्रांति कि जरुरत दलित-आदिवासी-पिछडों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से युक्त बहुजन समाज को है?एक समाज शास्त्रीय सच्चाई यह भी है कि व्यक्ति विशेष की सम्पन्नता बुनियादी तौर पर वंचित किसी समाज विशेष की समृद्धि का सूचक नहीं हो सकती.मसलन राम विलास पासवान के समृद्ध और एच एल दुसाध के लेखक बन जाने से ऐसा नहीं की वंचित दुसाध समाज शिक्षित और संपन्न हो गया है.उसी तरह अपवाद रूस से कुछ ब्राह्मणों के रिक्सा चलाने या मजदूरी करने से ऐसा नहीं कि ब्राह्मण समाज विपन्न हो गया .ऐसे में यह कहना सरासर अन्याय है कि सभी में ही अमीर-गरीब हैं.सचाई यही है कि सिर्फ बहुजन समाज ही विशुद्ध रूप से विपन्न व वंचित समाज है,जिसे क्रांति कि जरुरत है.
2-अगर सापेक्षित वंचना का सिद्धांत क्रांति की अग्नि शिखा प्रज्ज्वलित करने में सबसे प्रभावी रोल अदा करता है तो इस लिहाज़ से वर्षों से क्रांति का सबसे जोरदार मसाला भारत में है. क्योंकि आधुनिक विश्व में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां शक्ति के स्रोतों पर परम्परागत विशेषाधिकार युक्त व सुविधासंपन्न तबके का शक्ति के सभी प्रमुख स्रोतों(आर्थिक राजनीतिक और धार्मिक)पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा हो.लेकिन विश्व के सर्वाधिक वंचित अगर क्रांति के अग्रसर नहीं हो रहे हैं तो क्यों?
3-सापेक्षित वंचना का सबसे जोरदार मसाला रहते हुए भी वर्ण –व्यवस्था के वंचित अगर छोटे-मोटे विरोधो को छोड़ कर क्रांति करने विफल रहे तो इसलिए वे दैविक गुलाम(दिविने स्लावे ) रहे और दैविक गुलामी ने उनमें वीभत्स संतोषबोध भर दिया.आप इस बात से कितना सहमत हैं?
4-आप जानते हैं कि क्रांति के साथ प्रतिक्रियावादी और प्रतिरोधक आन्दोलन भी जरुर होते रहे है.प्रतिक्रियावादी समूहों का जो चरित्र होता है उसे देखते हुए क्या ऐसा नहीं लगता कि अगर भारत में किसी दिन क्रांति होती है तो सवर्ण ही प्रतिक्रियावादी समूह के रूप में खड़े होंगे?
5-क्रांति और प्रतिक्रांति की जो विशेषताए समाज विज्ञानियों ने बताये हैं,उसके आधार पर यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि हजारों साल से सवर्ण समाज में प्रतिक्रियावादी का क्लासिकल चरित्र विद्यमान रहा है.आश्चर्य की बात है कि 'समग्र वर्ग की चेतना' से शून्य जिस समाज में प्रतिक्रियावादी का क्लासिकल चरित्र विद्यमान रहा है वही समाज मार्क्सवाद के हथियार से 93 साल से भारत क्रांति करने का उपक्रम चला रहा है.उसके चरित को देखते हुए ढेरों लोग यह दावा करते रहे हैं कि इस देश के शोषको द्वारा मर्क्सवाद हाइजैक हो गया है.बहारहल क्रांति-प्रतिक्रांति की कसौटी पर सवर्ण समाज का चरित्र देखते हुए क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भारत में मार्क्सवाद अपने जन्मकाल से ही प्रतिक्रियावादियों के कब्जे में है?
तो मित्रों आज इतना ही.मिलते हैं कल फिर कुछ नई शंकाओं के साथ.शुभरात्रि.
No comments:
Post a Comment