देशी पूंजीपतियों का समर्थन भारतीय मुक्त बाजार के प्रबंधन की सर्वोच्च नौकरी के लिए काफी नही है!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
तीसरे कार्यकाल के लिए मनमोहन सिंह के तैयार होने की खबर फैलते ही सत्तावर्ग में खलबली मच गयी है। जैसा कि आम गलतफहमी है कि सत्ता में रहने की आदत हो जाने की वजह से भारत में नवउदारवादी मुक्त बमजार अर्थ व्यवस्था के जनक की नीयत डोल गयी है और वे युवराज की ताजपोशी के लिए शायद कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, ऐसा हरगिज नहीं है। असल में जायनवादी वैश्विक व्यवस्था कारपोरेट साम्राज्यवाद और अमेरिकी हितों के उपनिवेश में तब्दील इस अनंत वधस्थल के नरसंहार बंदोबस्त पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं है। इंदिरा गांधी के प्रमुख आर्थिक सलाहकार ने अपनी पुस्तक आपिला चापिला, जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी बहुप्रचलित है, में भारत में नवउदारवादी युगारंभ का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश किया है और बताया है कि कैसे मनमोहनसिंह वाशिंगटन से भारत के वित्तमंत्री मनोनीत किये गया थे। इसका खंडन नहीं हुआ। इसके उलट राष्ट्रपति भवन, योजना आयोग और सरकार व प्रशासन से लेकर सर्वत्र अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के पुराने कारिंदे काबिज हैं। भारत में राजनीतिक समीकरण चाहे कुछ हो, विश्व व्यवस्था अपना यह समीकरण बिगाड़ना हरगिज नहीं चाहेगा। इस वास्तव के संदर्भ में ही मनोहन की इच्छा अनिच्छा का ाकलन होना चाहिए। इस विश्व व्यवस्था में जायनवादियों के अलावा ग्लोबल हिंदुत्व का भी वर्चस्व है, जो अमेरिकी प्रशासन में संघियों की बढ़ती घुसपैठ से साफ जाहिर है।दरअसल हिंदू साम्राज्यवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत का अर्धऔपनिवेशिक अर्धसामंती राष्ट्रचरित्र इस समीकरण के ही मुताबिक है।
मामला जितना गंभीर समझा जा रहा है , उससे ज्यादा गंभीर है। नरेंद्र मोदी भाजपा के खर्च पर जो अमेरिकी इजराइली वरदहस्त हासिल करने का अथक प्रयास कर रहे हैं, वह उसे निर्णायक मानकर ही कर रहे हैं।देशी पूंजीपतियों का समर्थन भारतीय मुक्त बाजार के प्रबंधन की सर्वोच्च नौकरी के लिए काफी नही है, यह बात नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं तो क्या स्तावर्ग के लोग इस तथ्य से अनजान हैं?भारत में वंशवाद और नस्लवाद जातिव्यवस्था पर हावी है। वंशवादी व्यवस्था को पूंजीपतियों का समर्थन है तो जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवाद नस्ली भेदभाव पर ही आधारित है। दरअसल भारतीय जाति व्यवस्था भी नस्ली भेदभाव पर आधारित है। सत्तावर्ग के लोग तीन वर्णों में विभाजित हैं, जिनकी जातियां नहीं होती। जबकि किसान शूद्रों को एससी, एसटी और ओबीसी की हजारों जातियों में विभाजित कर दिया गया है। जाति व्यव्साथा पर बात करते हुए विध्वान क्रांतिकारी लोग इसके नस्लवादी चरित्र को नजरअंदाज कर जाते हैं। इसी वंशवादी नस्ली भेदभाव के आधार पर ही
युवराज कीताजपोशी का दावा बनता है। लेकिन ही पर्याप्त नहीं है। वंश और नस्ल प्रतिनिधि की राजनीतिक महात्वाकांक्षा और पापुलिज्म से मुक्त बाजार को सबसे ज्यादा आघात पहुंच सकता है, क्रांतिकारी जनविद्रोह की अनुपस्थिति में भी। इसीलिए अब भी सत्ता पर विश्वबैंकीय अर्थशास्त्रियों और कारपोरेट जगत के गैरसंवैधानिकप्रतिनिधियों का दावा राहुल गांधी और नरेंद्रमोदी समेत भारतीय संसद में तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से कहीं ज्यादा है। भारतीय उद्योग जगत को संबोधित करके कारपोरेट भरोसा जीतने की कवायद राहुल कर रहे हैं तो वे नरेंद्र मोदी के पदचिन्हों का ही अनुसरण कर रहे हैं। इससे भारतीय उपनिवेश का वास्तव बदल नहीं जाता।
सत्तारूढ़ कांग्रेस के नवनियुक्त उपाध्यक्ष और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार राहुल गांधी अपनी भूमिका का विस्तार करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इस कदम के तहत अमेठी से सांसद गांधी भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) की 4 अप्रैल को होने जा रही सालाना आम बैठक (एजीएम) को संबोधित करेंगे। अतीत में भी देश के दिग्गज नेता अपनी बात रखने के लिए सीआईआई के मंच पर आते रहे हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस मौके पर मौजूद रहेंगे। हाल ही में सिंह ने कहा था कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो शायद वह तीसरी पारी के लिए भी तैयार हो सकते हैं। ऐसे में सिंह और गांधी को एक ही मंच पर सुनना काफी दिलचस्प हो सकता है। सीआईआई के सूत्रों ने पुष्टï किया कि गांधी ने पिछले हफ्ते ही इसमें शिरकत करने को लेकर रजामंदी दी। गांधी ऐसे वक्त में इस बैठक को संबोधित करेंगे जब उनका नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में जोर-शोर से लिया जा रहा है। कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि अगर कांग्रेस को 150 से ज्यादा सीटें मिलती हैं तो गांधी उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। कांग्रेसी नेताओं ने यह भी संकेत दिए हैं कि आने वाले वक्त में गांधी सार्वजनिक मंचों पर काफी नजर आने वाले हैं। गांधी को सांसद बने हुए करीब नौ साल हो गए हैं और इस दौरान उन्होंने महज दो बड़े संवाददाता सम्मेलन किए हैं। इस दिशा में सीआईआई की बैठक पहली कड़ी है, जिसके कुछ हफ्तों बाद एक संवाददाता सम्मेलन भी आयोजित किया जाएगा।
गांधी ने अभी उद्योग जगत से जुड़े किसी बड़े सम्मेलन को संबोधित नहीं किया है। पूर्व में भी सीआईआई एजीएम में राजनेता अपने आर्थिक और व्यावसायिक एजेंडे को बताने के लिए शिरकत करते रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वर्ष 1998 और 2002 में सीआईआई एजीएम को संबोधित कर चुकी हैं। वहीं भाजपा की अगुआई वाला राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) जब सत्ता में था तब भाजपा ने तो वर्ष 2002 में एक तरह से पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र ही एजीएम में रख दिया था जिससे आंतरिक नेतृत्व नाराज हो गया था। वर्ष 2002 में हुई एजीएम में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सीआईआई के मंच पर अपने भाषण में कम से कम आधा दर्जन बार कांग्रेस को चेतावनी थी कि अगर वह यह सोचती है कि वह 2004 में भाजपा को सत्ता से बेदखल कर देगी तो उसका सपना, सपना ही रह जाएगा।
वर्ष 2003 में सीआईआई ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाया था जिसमें उनकी उद्योगपति राहुल बजाज और जमशेद गोदरेज से कहासुनी हो गई थी, जिन्होंने गुजरात में कानून एवं न्याय व्यवस्था के सवाल पर मोदी को घेरने की कोशिश की थी। तब मुख्यमंत्री ने कहा था कि यह बैठक ऐसे मसलों पर बातचीत करने का मंच नहीं है। बाद में उन्होंने खुद को ऐसी बैठकों से दूर रखा। दिलचस्प बात यही है कि इस बार भी मोदी सीआईआई की बैठक में नहीं आ रहे। उनके बजाय भाजपा से अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह शिरकत करने जा रहे हैं।
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