युवाओं को उत्पाद बनाता आईपीएल
जो लोग राजनीति को खेल बनाए हुए हैं और जो खेल में राजनीति करते हैं, उन दोनों की कुण्डली अचानक ही मिल गयी है और ऐसा दुर्योग बना है कि इनके 'गठबंधन का उत्सव' आईपीएल अब लौट के बार-बार आने लगा है. देशी विदेशी उद्योग समूह और सत्ता के असली रिमोट कंट्रोल-सभी इसमें मलाई मार रहे हैं...
संजय जोठे
एक बार फिर से आईपीएल का बुखार चढ़ने वाला है. एक बेहद ही गैर जिम्मेदार और आत्मकेंद्रित मध्यवर्ग जो कि इस देश की आत्मा पर कोढ़ की तरह चिपका हुआ है, उसके लिए एक त्यौहार आ रहा है. इसके आयोजन में जिस तरह से पैसा बहाया जाएगा, वो इस देश में अभावों और समस्याओं से जूझती गरीबी का मजाक उड़ाने जैसी बात है. आश्चर्यजनक रूप से इसके पीछे गरीबों के तथाकथित हितैषी राजनेता, गरीबों के मुद्दे रखने वाले अभिनेता, गरीबी को खरीदकर और गरीबों को 'सबकुछ' बेचने वाले उद्योगपति और इस देश के गरीबों की शान बढाने वाले (?) क्रिकेटर - ये चारो एक पार्टी की तरह एक साथ कूद पड़ेंगे.
बहुत मजेदार आयोजन है ये. गरीब और दमित समाज को असली मुद्दों से भटकाते हुए और एक विजातीय और आयातित सुखबोध की चुस्कियां देते हुए मोटा माल बनाने का इससे अच्छा कोई उदाहरण नहीं है. अब चूंकि राजनेताओं का लंबा 'सत्संग' भी इस आयोजन को मिल ही चुका है तो इसकी टाइमिंग भी राजनीतिक रूप से संवेदनशील काल में ही फिक्स की जाने लगी है. सबको पता है कि देश के युवा-छात्र जो किसी न किसी परीक्षा से फुर्सत पाकर अब सोशल मीडिया से या सामाजिक आंदोलनों के झंडाबरदारों से जा मिलेंगे या मिल न भी पायें तो ये भय तो है ही कि उसके खाली दिमाग में राजनीतिक, सामाजिक मुद्दे डेरा डाल देंगे. उनके दिमाग में अगर ये बातें घुसती हैं तो हमारे राजनेताओं और उद्योगपतियों के लिए खतरा है. इसलिए जैसे भी हो हमारी युवा पीढ़ी को गंभीर मुद्दों से दूर रखने में ही उन सबकी भलाई है. ये एक ईको-पोलिटिकल कांस्पीरेसी है, जो इस देश में बहुत इस्तेमाल की गयी है.
दुर्भाग्य से अब बालीवुड, जो कि वैसे भी अपने आप में एक अन्य उद्योग ही है, जिसका सम्मोहन बहुत पुराना है और जिसका कोई नाता समाज के सरोकारों से नहीं है - वो भी अब इस "खेल" में कूद पड़ा है. इन चारों की चौकड़ी अब जो न कर जाए सो कम है. जो लोग राजनीति को खेल बनाए हुए हैं और जो खेल में राजनीति करते हैं, उन दोनों की कुण्डली अचानक ही मिल गयी है और ऐसा दुर्योग बना है की इनके 'गठबंधन का उत्सव' - ये आईपीएल अब लौट के बार-बार आने लगा है. देशी विदेशी उद्योग समूह और सत्ता के असली रिमोट कंट्रोल - सभी इसमें मलाई मार रहे हैं.
अभी इस देश में जो सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन चल रहे हैं, वो अनिवार्य रूप से युवा वर्ग को आधार बना रहे हैं. सूचना क्रांति के तमाम अस्त्रों से लैस और हर तरह के शोषण, दमन और तमाम तरह की राजीतिक और व्यवस्थागत असफलताओं को देख चुका ये युवा वर्ग एक खतरनाक भीड़ की तरह है. इस भीड़ को व्यर्थ के काम में उलझाना इस समय सत्ताधीशों और बिक चुके इलेक्ट्रानिक मीडिया की सबसे पहली प्राथमिकता है. होना भी चाहिए, क्योंकि जिस तरह का निजाम अभी बना हुआ है और चारों तरफ से जिस तरह से भविष्य की लचर प्रस्तावनाएँ परोई जा रही है, इस स्थिति में विचारवान युवा क्षुब्ध है और वो कोई भी करवट ले सकता है.
इस समय जबकि सभी राजनीतिक पार्टियां एक भयानक अनिश्चितता के दौर से गुजर रही हैं और सभी मुख्य दल अपने भविष्य को सुरक्षित बनाए रखने से ज्यादा अपने अस्तित्व को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. ऐसे में युवा पीढी को सोचने-समझने के लिए ज्यादा समय देना इन सबके लिए खतरनाक है. इसलिए आकस्मिक नहीं कि हर क्षेत्र के मुनाफाखोर इस आयोजन में कूद रहे हैं और इनका एक साझा एजेंडा बन चुका है.
राजनीति और राजनेताओं का षडयंत्र तो सब जान ही चुके हैं, अब इस बालीवुड का भी नया नया पदार्पण इस खेल में हुआ है. यह एक विचारणीय विषय है कि समाज के सरोकारों की सबसे ज्यादा बात करने वाले धड़े इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं. हालांकि जिस तरह से बालीवुड में सामाजिक मुद्दों को रखा गया है और सामाजिक क्रान्ति की परिभाषायें दी गयी हैं वो अपने आप में एक दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास है, एक फूहड़ और चलताऊ किस्म का मायाजाल रच कर इस 'धंधे' के धंधेबाजों ने भी सिर्फ पैसा कमाने के अलावा कुछ नहीं किया है.
लेकिन इनकी "मॉस अपील" बनी हुई है और उसका लाभ सब तरह के लोग उठाते रहे हैं. राजनेता और उद्योगपति तो ये काम खूबसूरती से करते ही आये हैं. अपनी अपनी राजनीतिक प्रस्तावनाओं को इन चिकने चेहरो की चमक में लपेट कर लुभाना एक पुराना खेल है जो सारी पार्टियों ने खूब खेला है, लेकिन संगठित रूप से ऐसा पहली बार हो रहा है. जबकि इस हथियार का उपयोग दूसरों की सार्थक प्रस्तावनाओं से ध्यान भटकाने के लिए किया जा रहा है. व्यवस्था परिवर्तन या राजनीति के शुद्धीकरण की प्रस्तावनाओं से देश का ध्यान हटाये रखना एक बड़ा षडयंत्र बन चुका है और इसके निहितार्थ बड़े विराट हैं.
अगर ये इस देश के सत्ताधीशों की इतनी बड़ी जरूरत बन चुका है तो हम समझ सकते हैं किस राजनीतिक दिवालियेपन के दौर में हम जी रहे हैं. किस तरह की राजनीतिक असुरक्षा का माहौल है और एक सार्थक क्रान्ति या परिवर्तन की आहट किन लोगों को और किस हद तक डराने लगी है. चाहे साम्प्रदायिंक ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले लोग हों या तुष्टिकरण की राजनीति करने वाली पार्टियां, या फिर दोनों खेमे के वे महारथी जो गले गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं और खुद को खबरों में आने से बचाना चाहते है, उन सभी के लिए क्रिकेट का ये कुम्भ एक वरदान की तरह उभरता रहा है. हर वो धडा जो शोषण, दमन और षडयंत्र के आधार पर विकसित हुआ है और हो रहा है, वो सभी मिलकर ऐसे सम्मोहक आयोजन में अपनी ऊर्जा और समय लगा रहे हैं. ये एक ऐसा सुरक्षित और स्वीकृत पाखण्ड बन गया है कि सीधे-सीधे इसका विरोध भी नहीं किया जा सकता. यही इसका वास्तविक ख़तरा भी है.
इसी क्रम में अब खबरपालिका के चेहरे भी शामिल हो गए हैं. सूखे की वजह से आत्महत्या करते किसान हों या गाँव में सरेआम लुटती औरतें, वे हमारे इस इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कोई खबर ही नहीं हैं. लेकिन किसी क्रिकेटर का जुकाम उनके लिए एक ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाता है. ये हमारे मीडिया की हकीकत है. ये है हमारा लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जो खुद ही दूसरों पर टिका हुआ है. क्रिकेट के इस 'देसी कुम्भ' में इस इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भूमिका भी कोई कम मजेदार नहीं है. एक तरफ क्रिकेट के खेल में वे देश को उलझाते हैं और दूसरी तरफ उद्योगपतियों के इशारों पर राजनीति के खेल की दिशा भी ही तय करते हैं.
भला हो राडिया टेप काण्ड का जिसने हमारे मीडिया की 'सृजनात्मक भूमिकाओं' के एक और पहलू को हमारे सामने रखा है. जितने गैर जिम्मेदार और षडयंत्रकारी इनके 'आका' हैं उतने ही ये खुद भी बनते जा रहे हैं. ये बड़ी खतरनाक बात है, इसका सीधा मतलब ये है की जिन लोगो से समाज को दिशा दिखाने की उम्मीद की गयी है वो ही इसे तेज़ी से गड्ढे में ले जा रहे है. इस चांडाल चौकड़ी का एक छुपा हुआ संरक्षक हमारा ये इलेक्ट्रानिक मीडिया बन गया है. अब आगे आगे देखिये षडयंत्र का ये नया अवतार और क्या क्या दिखाता है.
संजय जोठे इंदौर में कार्यरत हैं.
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