बनाते जो मकां उनके सिर छत कहां
ईंट-भट्टा मजदूरों की व्यथा कथा, आखिर क्यों नहीं लागू होता श्रम कानून
काम के सीजन में परिवार का कोई भी सदस्य गम्भीर बीमार हो जाये, तो ये मजदूर कर्जदार हो जाते हैं. इससे ठेकेदार-मालिक को और फायदा हो जाता है. मजदूर कर्ज के जाल में फंसकर उनके पास अगले साल के लिए भी बंधुआ हो जाता है...
सुनील कुमार
आमतौर पर ऐसा होता है कि जहां उद्योग लगते हैं, उस इलाके में माल के आवागमन के लिए रोड, बाजार का विकास होता है. लोगों की चहल-पहल के बीच इलाका गुलजार होने लगता है और आखिरकार वह बस्ती नगरपालिका के नक़्शे में देर-सबेर दर्ज हो जाती है. लेकिन एक ऐसा भी उद्योग है जहां सड़क के नाम पर सिर्फ पगंडडी होती है, बाजार 3-4 कि.मी. की दूरी पर होता है और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए 15 दिन बाद ही बाजार जाना संभव हो पाता है. यह उद्योग ईंट-भट्टे का है. एक ईंट-भट्टे का एक सीजन में (6 माह) में डेढ़ से दो करोड़ रुपये का टर्न ओवर होता है, प्रत्येक ईंट-भट्टे पर 200-250 मजदूर काम करते हैं, लेकिन इसको उद्योग की श्रेणी में नहीं गिना जाता है.
उद्योग की श्रेणी में नहीं गिने जाने से भट्टों पर किसी भी प्रकार का श्रम कानून लागू नहीं होता. एक मालिक के कई-कई भट्टे हैं, लेकिन सरकार की आंखों में धूल झोंकने के लिए स्वामित्व अलग-अलग नाम से होता है. मजदूर पूरी तरह से मालिकों के ऊपर आश्रित होता है. ईंट-भट्टा मालिकों की एसोसिएशन है, लेकिन मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है.
ईंट-भट्टा मजदूरों को काम के हिसाब से 6 नामों पथाई, भराई, बेलदार, निकासी, जलाई, राबिस से जाना जाता है. ये मजदूर ईंट-भट्टे पर बने एस्बेसटस और टीन के छत के नीचे रहते हैं, जिसकी ऊंचाई 6-7 फीट होती है. ईंट-भट्टा मजदूर अपने परिवार के साथ या अकेले रहते हैं. इन मजदूरों का आपस में कोई तालमेल नहीं होता. इनकी बस्ती काम के आधार पर अलग-अलग होती है. जहां पथाई, भराई, निकासी, बेलदार अपने बच्चों, पत्नियों, मां-बाप, भाई-बहन के साथ भट्टे के कोने में बनी झुग्गियों में रहते हैं, वहीं जलाई और राबिस वाले अकेले या परिवार के पुरुष सदस्य के साथ रहते हैं उनका रहने का स्थान भट्टों पर होता है.
जहां ईंट पकाया जाता है, उसको डाला बोला जाता है. यहां गर्मी बहुत अधिक होती है और 6-6 घंटे की दो पारियों में वे प्रतिदिन 12 घंटे काम करते हैं. इस डाले पर दो टिन शेड आपको देखने को मिल जाएंगे. एक टिन शेड में जलाई के मजदूर रहते हैं, जिनकी संख्या 8-10 होती है तो दूसरी शेड में राबिस वाले होते हैं जिनकी संख्या 4-6 होती है. काम के हिसाब से ये मजदूर एक ही गांव, जिले और एक जाति, धर्म के होते हैं. जलाई मजदूर ज्यादातर उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के सरोज, हरिजन जाति से आते हैं. राबिस का काम करने वाले ज्यादातर मजदूर उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के प्रजापति जाति के हैं. इन मजदूरों को मासिक वेतन पर रखा जाता है.
दिल्ली के आसपास के राज्यों में पथाई के काम करने वाले ज्यादातर मजदूर मुसलमान हैं जो कि पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले से और उत्तर प्रदेश के बागपत, मेरठ, शामली के रहने वाले हैं. ये मजदूर अपने परिवार रिश्तेदार के साथ सीजन के वक्त ईंट भट्टे पर ही रहते हैं और कुछ मजदूर तो कई सालों से अलग-अलग ईंट भट्टे पर रह रहे हैं. ये मजूदर पढ़े-लिखे नहीं होते और न ही अपने बच्चों को पढ़ा पाते हैं. इन मजदूरों में आपको 10 से 70 वर्ष की बच्चे-बच्चियां, महिला-पुरुष मजदूर काम करते हुए दिख जायेंगे. ये औसतन 15-16 घंटे काम करते हैं और 4-5 घंटे ही सो पाते हैं. उनसे यह पूछने पर कि आप बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते? उनका जबाब होता है कि ''अपने बच्चों को कौन नहीं पढ़ाना चाहता, लेकिन हालत यह है कि बच्चे काम में हाथ न बंटाये तो खाने लायक भी हम नहीं कमा पायेंगे.''
निकासी और भराई के ज्यादतर मजदूर परिवार के साथ भट्टे पर रहते हैं और इस काम में पूरा परिवार लगा रहता है. इनको एक हजार ईंट की ढुलाई पर 80-100 रु. के हिसाब से मजदूरी दी जाती है. निकासी के मजदूर केवल शारीरिक श्रम ही नहीं वे पूंजी भी लगाते हैं. उनके काम में घोड़े की जरूरत होती है जिनकी कीमत 60000 से लेकर 80000 रु0 तक होती है. इनको अपनी कमाई हुई मजदूरी से इन घोड़ों की देख-भाल करनी पड़ती है. घोड़े के बीमार होने या मर जाने पर ये कर्ज के जाल में फंस जाते हैं.
गाजियाबाद जिले के समसेरपुर गांव के ईंट भट्टों पर काम कर रही 65 वर्षीय सावित्री ने बताया कि वे अपने बेटे-बेटी के साथ पथाई का काम करती हैं. सावित्री के पति की बहुत पहले जमीन के विवाद में हत्या हो चुकी है उसके बाद वो अपना गांव छोड़कर अपने मायके में झोपड़ी डाल कर रहती हैं और जीविका चलाने के लिए भट्टों पर पथाई का काम करती है. साथ में उनकी 20 वर्षीय बेटी रानी भी काम करती है.
रानी लम्बे समय से बीमार हैं. उनके शरीर में सूजन आ गयी है. सावित्री ने 7 माह तक इलाज कराया जो भी पैसा था डॉक्टर को दे दिया और अब वह दवा कराना भी छोड़ चुकी है. सावित्री हमसे इस बारे में बात कर रही थी और रानी ईंट पाथने के लिए भाई को मिट्टी पहुंचाने का काम बिना रूके किये जा रही थी. सावित्री को न तो विधवा पेंशन और न ही वृद्धा पेंशन मिलती है,कानून के मुताबिक सावित्री यह हक पाने का अधिकार रखती है.
सभी भट्टा मजदूरों को 15 दिन पर केवल खर्च का पैसा दिया जाता है और उनका हिसाब सीजन के अंत में जून माह में किया जाता है. किसी-किसी भट्टे पर उनके यह पैसे भी मालिक या ठेकेदारों के द्वारा नहीं दिये जाते है. साहपुर ईट भट्टे पर पथाई का काम करने वाले एक मजदूर ने बताया कि वर्ष 2012 में गाजियाबाद के ही भिकनपुर के फौजी नाम के भट्टा मालिक ने मजदूरों का लाखों रुपया नहीं दिया.
भिकनुपर में त्यागी के ईंट-भट्टा पर एक परिवार 8 वर्ष से रहता है और ईंट निकासी का काम करता है. वे अपने बच्चों की शादी इस भट्टे पर रहते हुये ही किये हैं. 3वर्ष से मालिक ने उनका हिसाब नहीं किया है. जब भी वे हिसाब की बात करते हैं तो कोई न कोई बहाना बनाकर टालता रहता है. एक बार मजदूर परिवार के मुखिया की बेटी और दामाद में झगड़ा हो गया. दामाद गांव चला गया तो ठेकेदार उनकी बेटी को लेकर दूसरे भट्टे गया और बोला कि ''इसके पास मेरा दस हजार एडवांस है जो भी इस पैसे को देगा मैं उसके हाथ इसको बेच दूंगा.'' दस हजार रुपये चुकाकर किसी तरह मजदूर पिता अपनी बेटी को ठेकेदार के चंगुल से छुड़ा पाए.
मालिक मजदूरों पर इल्जाम लगाते हैं कि वे पैसे लेकर भाग जाते हैं या कोर्ट में छेड़खानी और बंधुआ मजदूर का केस लगा कर चले जाते हैं. मजदूरों ने बताया कि कभी मिट्टी खराब आ जाती है जिससे कि मजदूरी भी नहीं निकलती है और मजदूरी बढ़ाने की मांग करने पर मजदूरी भी नहीं बढ़ायी जाती और मालिक जाने भी नहीं देता तो कोर्ट जाना पड़ता है.
इलाज के लिए ये मजदूर झोला छाप डाक्टरों पर निर्भर रहते हैं. अधिक बीमार होने पर गाजियाबाद या मुरादनगर के प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं. यदि सीजन में परिवार का कोई भी सदस्य गम्भीर बीमार हो जाये तो ये मजदूर कर्जदार हो जाते हैं. इससे ठेकेदार-मालिक को और फायदा हो जाता है. मजदूर कर्ज के जाल में फंस कर उनके पास अगले साल के लिए भी बंधुआ हो जाता है.
घर बनाने में ईंट महत्वपूर्ण सामग्री होती है, लेकिन ये ईंट बनाने वाले लगभग 90 प्रतिशत ईंट-भट्टा मजदूरों के पास घर नहीं है वह ईंट भट्टो और गांव में भी झोपड़ी या कच्चे मकान में रहते हैं. इनमें से 90 प्रतिशत के पास चुनाव पहचान पत्र है और उनसे वोट भी डलवा लिया जाता है. 25 प्रतिशत के पास राशन कार्ड हैं, जिस पर 3 लिटर मिट्टी का तेल ही मिल पाता है वह भी किसी-किसी माह में नहीं मिलता है. 5 प्रतिशत लोगों के पास मनरेगा जॉब कार्ड है, जिस पर बहुत कम लोग ही 1वर्ष में 10-30 दिन काम कर पाते हैं. कुछ लोगों को काम करने के बाद भी पैसा नहीं मिला तो कुछ का जॉब कार्ड प्रधान के पास ही रहता है.
ये सब राजधानी दिल्ली से मात्र कुछ किलोमीटर दूरी पर हो रहा है. बंधुआ मजदूरी से लेकर बाल मजदूरी तक होती है. सरकार जिस अपनी योजना (मनरेगा) को लेकर इतना वाहवाही लूटती है उसकी भी पोल खुल जाती है और उसके खाद्य सुरक्षा की पोल-पट्टी खुल जाती हैं. श्रम अधिकारों की धज्जियां तो हर जगह उड़ायी जा रही हैं. जिन उद्योगों में 200-300 मजदूर काम करते हों जिसका टर्न ओवर 1.5 से 2.0 करोड़ रु. हो क्या वह लघु उद्योग में आयेगा? क्या इन मजदूरों का कोई अधिकार नहीं होता? इन बच्चे और वृद्धों के लिए भारतीय संविधान में कोई अधिकार नहीं है?
सुनील कुमार मजदूरों के मसले पर सक्रिय हैं.
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